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Wednesday, February 10, 2016

जेएनयू विवाद और राष्ट्रवाद की राजनीति

सच एक नहीं होता, एक वह हो ही नहीं सकता क्यूंकि सब एक साथ एक जगह खड़े नहीं होते l सबका अपना अपना सच हो सकता है, किसी का सच छोटा या बड़ा नहीं हो सकता l एक समय में किसी विषय पर सूचनाओं की उपस्थिति सम्पूर्ण नहीं हो सकती, इसलिए सच, समय समय का भी हो सकता है l कोई निष्कर्ष अंतिम नहीं हो सकता l कोई अर्थ, कोई परिभाषा अंतिम नहीं हो सकती l अभिव्यक्ति के सभी साधनों की सीमायें हैं l प्रायःयह मान लिया जाता है कि इन सीमाओं का बोध उन्हें अवश्य ही होगा जो इन साधनों के उपभोक्ता हैं, प्रयोक्ता हैं एवं नियोक्ता हैं l यकीनन किसी तथ्य के कई पहलू होते हैं l तथ्यों का अधिकाधिक संभव बोध प्रकाश हो, इसलिए परिप्रेक्ष्यों, अवधारणाओं, व्याख्याओं, दृष्टिकोणों एवं अलग अलग स्रोतों की सूचनाओं का आह्वाहन व समावेशन किया जाता है l
अभिव्यक्ति की चुनौतियाँ भी गंभीर हैं l मान लिया जाता है कि इसका बोध भी उन्हें है जो अभिव्यक्ति के साधनों के उपभोक्ता हैं, प्रयोक्ता हैं एवं नियोक्ता हैं l शब्दों के सबके अपने अपने संस्कार हैं l प्रति एक शब्दों के साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने बिम्ब हैं l वक्ता के शब्द संस्कार और श्रोता के शब्द संस्कार अलग अलग हो सकते हैं, तालमेल एक चुनौती है l विषय-अनुशासनों में यह समस्या सुलझाने की कोशिश की गयी शब्दावलियाँ (Terminologies) गढ़कर, ताकि कम से कम एक विषय-अनुशासन में शब्दों के एक जैसे अर्थ लिए जाएँ l भाषाएँ तरल और सरल होती जाती हैं अपने विकास के क्रम में, और इसी क्रम में जनसामान्य के हस्तक्षेप से शब्दों के अर्थों में नयी विमायें जुडती जाती हैं l कई बार तो किसी शब्द का अर्थ अपने मूल अर्थ से इतना भिन्न हो जाता है कि सहसा विश्वास नहीं होता l अब भारत जैसे देश में जहाँ विविध भाषाएँ हों, उन भाषाओँ की कई बोलियाँ हों और भारत का इतिहास और भूगोल अपनी विविधताओं से समृद्ध हो, अभिव्यक्ति की चुनौती और गहरी हो जाती है l अलग अलग आइडेंटिटी के लोग, अलग अलग पेशे के लोग, अलग अलग शैक्षणिक स्तर के लोग, अलग अलग आर्थिक स्तर के लोग हैं हमारे महान देश में, - तो यह चिंता हमेशा है कि शब्दों के वही अर्थ संप्रेषित-गृहित हुए जो अभीष्ट थे अथवा नहीं l फिर अपनी अपनी तटस्थता और अपना अपना बॉयसनेस (biasness) भी है और अपने अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव व चुनौतियाँ भी हैं l यह मान लिया जाता है कि इन चुनौतियों एवं अभिव्यक्ति के साधनों/माध्यमों की सीमाओं को समझते हुए लोग अभिव्यक्ति कर रहे हैं l
अभिव्यक्ति एक सरल प्रक्रिया है किन्तु ज्यों ज्यों इसका कैनवास बढ़ता जाता है यह एक जटिल प्रक्रिया बन जाती है l बड़े माध्यमों को बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करना होता है क्योंकि उन्हें एक डायनॉमिक समुदाय को संबोधित करना होता है l मीडिया किसी एक संस्थान या किसी एक ईकाई का नाम नहीं है l अब तो इसमें गैर-परम्परागत माध्यमों का भी गहरा हस्तक्षेप है l मेले में अब एक लाउडस्पीकर नहीं है l भांति-भांति के हित हैं, भांति भांति की आवाजें हैं l किसी एक लाउडस्पीकर पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि इसपर हमेशा अच्छे गाने ही बजेंगे l किसी लाउडस्पीकर की साउंड क्वालिटी बेमिसाल है तो ये नहीं कहा जा सकता कि इस पर बस शानदार गाने ही बजेंगे l किसी लाउडस्पीकर को देख कर यह नहीं कहा जा सकता कि इसपर केवल गाने ही बजेंगे l मेरे कहने का मतलब सीधा है, जागरूक रहना होगा l ध्यान देना होगा l राय बनाने की उनकी जल्दी समझ आती है, हम-आप इतनी जल्दीबाजी में क्यूं हैं ? किसी एक प्रोफेशन में यह दावा नहीं किया जा सकता कि उनके यहाँ केवल काबिल लोग हैं, केवल सच्चे लोग हैं l यह संभव ही नहीं है l हमें जानना-समझना होगा कि सूचनाओं का एक स्रोत खतरनाक हो सकता है l
सभी निकायों का महत्त्व अलग अलग है, इसे रेखांकित करना होगा l पत्रकार और प्रोफ़ेसर की अपनी अपनी सीमायें और भूमिका है l टीवी चैनल और लाइब्रेरी की अलग अलग महत्ता है l विश्वविद्यालय और स्कूल का फर्क समझना होगा l प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का फर्क समझना होगा l लोकसभा और राज्यसभा का फर्क समझना होगा l सेना और पुलिस का फर्क समझना होगा l सत्ता-शासन और नागरिक समाज का फर्क समझना होगा l कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का फर्क; संघ और राज्य का फर्क समझना होगा l इसके अलावे सभी terminologies का फर्क और उनका आपसी सम्बन्ध समझना होगा, राजनीति शास्त्र और राजनीति का अंतर व सम्बन्ध, धर्म और सम्प्रदाय का फर्क व रिश्ता, राष्ट्र और राष्ट्रवाद का रिश्ता और फर्क, Nation, State, Nation-State का अंतर और सम्बन्ध, Indian Nationalism और Western Nationalism का अंतर और सम्बन्ध, समाजवाद, मार्क्सवाद, कम्युनिज्म, लेनिनवाद का रिश्ता और उनका अलगाव समझना होगा l माओवाद और कल्चरल रिवोल्यूशन की कहानी समझनी होगी l राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया एवं राज्य निर्माण की प्रक्रिया का अंतर और उनका आपसी सम्बन्ध समझना होगा l उदारवाद, बाजार, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और उनका लोकतंत्र से सम्बन्ध समझना होगा l कहना होगा, समझने को बहुत कुछ है, समझने-समझाने की हमेशा ही गुंजायश है l पर सभी और कोई एक सब कुछ नहीं समझ सकते क्योंकि सबको और किसी एक को सबकुछ समझने का मौका नहीं मिलता, इसलिए ही हमें विशेषज्ञों की जरुरत होती है l इसलिए कह रहा हूँ कि सभी निकायों की महत्ता अलग अलग है और सभी व्यक्ति-विशेष की भूमिका अलग अलग है l हमें समझना होगा कि लोकतंत्र में सबकी जवाबदेही है और यह जवाबदेही अलग अलग लोगों की अलग-अलग लोगों के प्रति है और अंततः जनता के प्रति है l लोग समझते नहीं हैं सारे फर्क, सारे निहितार्थ, सारे आशय; यह मेरा आशय नहीं है, मै तो बस अभिव्यक्ति कितनी जटिल है यह समझने-समझाने की विनम्र कोशिश कर कर रहा हूँ l
ऐसे में जब कोई घटना होती है, कोई आरोप लगता है तो निष्कर्ष से अधिक महत्त्व सच के अधिकाधिक परिप्रेक्ष्यों को समझने का है ताकि न्याय निर्णयन हो सके, ताकि एक सुन्दर संतुलन सधा रहे l
आइये JNU विवाद पर चर्चा करते हैं l मेरी इस विषय पर कुछ क्षमताएं हैं और कुछ सीमायें हैं l विद्यार्थी-शोधार्थी रहा हूँ JNU का l JNU का मेरा समय मेरी बालिग उम्र का समय है l राजनीति शास्त्र का ही विद्यार्थी हूँ और रक्षाशास्त्र के विषय-विशेष पर शोध है l भारत-पाकिस्तान और भारत नेपाल की सीमाओं पर मेरा अध्ययन है l अलग अलग अपने अवकाश में JNU की अन्यान्य गतिविधियों में परिभाग किया है l कभी सक्रिय कभी निष्क्रिय रहा हूँ l यह मेरी क्षमताएं हैं l इस विषय पर मेरी सीमायें यह हैं कि मुझे JNU से लगाव है l वहां के माहौल से लगाव है l परिसर की राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से लगाव है l सेमिनार, कांफ्रेंस, कक्षाओं की नियमितताओं से लगाव है l तो इन लगावों की वज़ह से मुझमे भी एक biasness की गुंजायश तो अवश्य ही है l मै इसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ l इन सबके बावजूद मेरी अभिव्यक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती l
विश्वविद्यालय और विद्यालय की संकल्पना का फर्क समझते हुए कहना होगा कि JNU अपने स्थापना के समय से ही Cosmopolitan रहा है l यह विश्वविद्यालय अपने शोध के लिए जाना जाता है l यहाँ पीएचडी का कोर्स पहले आया, फिर जरुरत समझते हुए एम.ए., एम. फिल. और फिर भाषाओँ के स्नातक के कोर्स आये l तो शुरू से ही एक परिपक्व छात्रों का समुदाय यहाँ पहले आया l विश्वविद्यालय प्रशासन का इसीलिये आपको वह स्वरुप यहाँ नहीं मिलेगा, जो भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों में मिलता है l विश्वविद्यालय एक स्वायत्त निकाय होता ही है तो JNU में यह संभव हो सका कि यहाँ सही मायने में लोकतंत्र की भावना का विकास हो l विश्वविद्यालय की अधिकांश गतिविधियाँ छात्र करते हैं, परम्परागत रूप से जोकि अधिकांश विश्वविद्यालयों में विश्वविद्यालय -प्रशासन करता है l यहाँ की प्रवेश प्रक्रिया, छात्रसंघ चुनाव की प्रक्रिया तक में छात्रों की औपचारिक-अनौपचारिक भूमिका रहती है l यहाँ छात्र, शिक्षक, कर्मचारी और मजदूरों का जो सम्बन्ध आपको देखने को मिलेगा वो आपको सुकून पहुचायेगा l पूरे साल भर छात्रवासों में कार्यक्रम होते हैं l शिक्षकगणों के आवास एक साथ और छात्रों से अलग नहीं है -किसी अलग थलग टापू की तरह; बल्कि छात्रावासों के साथ साथ उनके आवास हैं, और शिक्षकों को सुबह-शाम छात्रों से बात करते, उनके साथ खेलते-हँसते-खाते-पीते, साथ अख़बार पढ़ते देखा जा सकता है l ओउम सहना भवतु, सहनौ भुनक्तु की अवधारणा यहाँ पुष्पित पल्लवित होती है l जैसे हम यह कहते हुए गर्व का अनुभव करते हैं ना कि हमारे महान भारत में वे धर्म भी शान से रहते हैं जो धर्म अपने उत्पत्ति के स्थानों से मिट गए, ठीक वैसे ही JNU में वे आवाजें, वे विचार, वे दृष्टिकोण भी स्थान पाते हैं, जो देश में मेनस्ट्रीम में नहीं हैं l हाथ से बने पोस्टर यहाँ सबके मिल जायेंगे, उनके भी जिनके कहीं और मिलने मुश्किल हैं; पर केवल उन्ही के मिलते हैं यहाँ पोस्टर, यह कहना JNU के साथ ज्यादती होगी l हाँ, नज़र जरुर उनपर ठहर जायेगी क्योंकि वे कही और मुश्किल से मिलते हैं l अब टी.आर.पी. के दबाव तले दबे 24 x 7 टी.वी. चैनलों के मासूमों को जल्दी से कुछ नया और अलग चाहिए तो JNU एक मुफीद जगह है l एक विजिट या दो विजिट्स में आप किसी विश्वविद्यालय की आत्मा को नहीं समझ सकते हैं l संभव है, किसी विभाग में उन प्रोफेसरों की संख्या अधिक हो सकती है जो अपने सार्वजानिक अभिव्यक्ति में मार्क्सवादी हों (आज का सच ये भी नहीं है; वहां हर तरह के प्रोफ़ेसर बहुतायत में मिलेंगे अब ), लेकिन मुझे तो अपनी किसी कक्षा या सेमिनार में याद नहीं आता कि किसी ने यह स्थापित करने की कोशिश की हो कि मार्क्सवाद ही अंतिम विचारधारा है या उदारवाद एक अछूत विचारधारा है. हाँ क्रोनिक कैपिटलिज्म की मैंने बार बार आलोचना सुनी है पर इसीतरह लेनिनवाद और माओवाद की भी आलोचना सुनी है l कोई एक विश्वविद्यालय एक विचारधारा का कैसे हो सकता है, क्या यहाँ का हर दो-तीन साल पे बदलता सिलेबस ऐसा है-करीब से देख लीजिये; क्या यहाँ की लाइब्रेरी में मार्क्सवाद की किताबें ही सर्वाधिक हैं-आकर देख लीजिये: काफी दोस्ताना माहौल मिलेगा लाइब्रेरी में भी, भले आप यहाँ के छात्र ना भी हों l
छात्रसंघ चुनावों के जो परिणाम हैं उनसे अगर आप यह निष्कर्ष निकालने की उतावली में हैं कि सम्पूर्ण परिसर लाल है तो तनिक ठहरिये l ये सच है कि यहाँ के छात्रसंघ चुनाव में जो बहसें होती हैं उनमे वैश्विक और राष्ट्रीय मुद्दे छाये होते हैं पर यहाँ के सभी छात्र एक कठिन प्रवेश प्रक्रिया के पश्चात् आये हुए जागरूक छात्र हैं वे वोट उन्हीं को देते हैं जो साल भर उनकी समस्याएं सुनता है, परिसर में सक्रिय होता है l आप मान लीजिये कि कम से कम इस परिसर में वामपंथी दल अपने सांगठनिक ढांचे और कार्यशैली में दक्षिणपंथी दलों से भारी पड़ जाते हैं l अधिकांश छात्रों से पूछिये कि स्नातक के जो छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में ABVP या NSUI को वोट देते हैं वे JNU में आकर MA, MPhil-PhD में इन वामपंथी दलों को वोट कैसे दे देते हैं, पहले से तो वो और अधिक परिपक्व ही होते हैं l ऐसे बहुत छात्र मिल जायेंगे जो कि एक चुनाव में ही अलग अलग पदों के लिए अलग अलग विचारधारा वाले दलों को वोट करते हैं l सभी बस, विचारधारा देखकर वोट नहीं करते l जब कभी ABVP, NSUI या किसी दक्षिणपंथी दल का कोई प्रत्याशी सक्रिय होता है वो अलग अलग पदों पर अलग अलग समय में जीतता रहा है l लगभग हर चुनाव में एक करीबी मुकाबला होता जरुर है, एक जैसा या एक पैटर्न का चुनाव नहीं होता यहाँ भी ठीक अपने देश की तरह l मेस में रोजाना आने वाले पम्प्फ्लेट्स देख लीजिये , किसी दल के हों वो एक-दूसरे से कमजोर नहीं लगेंगे l जीतने वाले प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि देख लीजिये वे केवल उन राज्यों से नहीं आते जहाँ वामपंथियों का बोलबाला है या उनकी सरकारे हैं l इन प्रत्याशियों में आपको उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश के लोग भी प्रमुखता से मिलेंगे l इस कैम्पस में वामपंथी दल सबसे अच्छे दल नहीं हैं बस दक्षिणपंथी दल उनसे अच्छा काम नहीं कर पा रहे l एक महत्वपूर्ण कारण और है वामपंथियों की जीत का, और वो ये है कि उन्हें विमर्शों में ABVP और NSUI की तरह सरकार की करतूतों का उस अनुपात में जवाब नहीं देना पड़ता l परिसर में दक्षिणपंथी दल जो काम करते भी हैं उनपर उनकी सरकारों की कमियां भारी पड़ जाती हैं अक्सर l तो मुकाबला बिलकुल बराबरी का नहीं है l खैर l
निश्चित ही JNU प्रशासन हर बार देशविरोधी कार्यक्रमों या नारों (जो हुई हों, होने का आरोप हो, या जिस तरह से भी जितनी भी हुई हों) यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि इस परिसर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है l JNU प्रशासन की भी जवाबदेही है l विश्वविद्यालय में कोई पैदा नहीं होता, उसी समाज से आते हैं सभी और फिर चले जाते हैं l देश-विदेश के कोने कोने से आने वाले, अलग अलग उम्र के लोग अपनी multiple identities की समस्याओं के साथ आते हैं विश्वविद्यालय में l लचर शिक्षा व्यवस्था, धर्म, जाति, संप्रदाय, नस्ल, लिंग के अनगिन विभाजनों एवं विद्रूप दलगत राजनीति वाले समाज से आने वाले छात्रों के बीच, उचित-उन्नत शिक्षा-शोध, समानता, लोकतंत्र के आदर्शों को साधना यकीनन आसान तो नहीं पर फिर भी जवाबदेही और जिम्मेदारी विश्वविद्यालय प्रशासन की बनेगी जरुर और शिक्षक और छात्र भी उस जवाबदेही में आयेंगे जरुर l भले ही यह आसान ना हो, विश्वविद्यालय को एक मैकेनिज्म ईजाद करना होगा जिससे परिसर में स्वतंत्रता भी हो और अपेक्षित आदर्शों की भी अनदेखी ना हो l यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार ने विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की अनदेखी करते हुए प्रथम ही पुलिस का हस्तक्षेप करवा दिया l पहले विश्वविद्यालय प्रशासन को अपना काम करने देना था l गृहमंत्री के इस सम्बन्ध में बयान अजीब और अविश्वसनीय हैं l मीडिया की भी जवाबदेही हो l लोकतंत्र में जब सभी निकायों की भूमिका निर्धारित है तो उनकी जनता के प्रति जिम्मेदारी बनती है l अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जैसे युक्तियुक्त बंधन छात्रों पर हैं ठीक वैसे ही मीडिया पर भी हैं l वही अनुच्छेद हैं, वही संविधान है l वही संविधान पुलिस के लिए है, वकीलों के लिए है और चीखते चिल्लाते पत्रकारों के लिए भी वही है l
जनता से अपील करना चाहता हूँ :
१. सरकार को आप चुनते हैं, वे आपको नहीं चुनते l आप भी अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से नहीं बच सकते
२. किसी भी तरह से अगर वे आपको अपना वोट बैंक बार बार बना लेंगे तो याद रखिये वे मेनीफेस्टो हर बार इग्नोर करेंगे l आपसे सरकार है, आप सरकार से नहीं है l कानून का पालन करिए पर सरकार के गुलाम मत बनिए, सरकार से सवाल करने का अधिकार, आपने शहीदों की अनगिन कुर्बानियों के बाद कमाया है, इसे यूँ ना गंवाइये l
३. देश के प्रति वफादार रहिये, किसी दल के प्रति नहीं; और राजनीति में किसी व्यक्ति के प्रति तो कभी नहीं l
४. मुद्दे आप खोजिये और बनाइये, विचार करिए उन पर, यह महान अधिकार किसी भी हालत में आप नेताओं और पत्रकारों को मत सुपुर्द करिए l
५. पहले तो वोट देने जाया करिए, और आँख, नाक, कान खुले रखकर सही व्यक्ति को वोट दीजिये l माहौल और भौकाल देखकर वोट करेंगे तो चुनाव लड़ना खर्चीला होगा और आम आदमी कभी चुनाव नहीं लड़ सकेगा l
६. वोट कभी भी किसी भी विचारधारा को देखकर मत दीजिये, व्यक्ति की योग्यता पर दीजिये. विचारधाराएँ इतनी महान होतीं तो हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में ही कोई एक विचारधारा चुन ली होती चीन की तरह l
७. वोट देकर, समर्थन कर सरकार बनाइये, स्थायित्व विकास के लिए यह आवश्यक है, पर एक बार सरकार बन जाने पर एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका सरकार पर नज़र रखनी हो जाती है ना कि अंधसमर्थन करना, यह शिद्दत से समझिये l
८. सरकार से आप सवाल नहीं करेंगे तो कौन करेगा? कोई सैलरी वाला सवाल करेगा तो उसकी मजबूरियां भी तो होंगी ही ना...! आपने उन्हें सत्ता दी है, सरकार को ये एहसास दिलाते रहिये l ये ब्रिटिश सरकार नहीं है, ये आपकी अपनी सरकार है l
९. शिक्षा पर काम करिए, राज्य के भरोसे ही मत रहिये, आप स्वयं प्रयास करें, देश के विकास के लिए सरकारें इंतज़ार कर सकती हैं, हम नहीं l ध्यान रहे विकास हमारे लिए लक्ष्य है, दलों के लिए यह झुनझुना या जुमला या नारा पहले है, लक्ष्य बाद में कहीं l
किसी भी सरकार/दलों से अपील करना चाहता हूँ:
१. जिन वादों पर आप सत्ता में आये हैं उन्हें पूरा करिए, अब पुराने दिन गए, लोग पहले से ज्यादा शिक्षित और जागरूक हैं, अचानक ही उखाड़ फेकेंगे l
२. देशहित के कुछ मुद्दों को संकीर्ण दलगत राजनीति का विषय ना बनायें, चेहरे जनता बेनकाब कर देगी l
३. प्रशासन को पारदर्शी बनाइये l दफ्तरों में आग लग जाने के दिन अब लदे l
४. जवाब दीजिये l सवाल का जवाब यूँ ना दीजिये-कि उसने भी तो ऐसा किया था...., सत्ता में हैं आप, जिम्मेदारी आपकी ज्यादा है l
५. योग्य व्यक्तियों को पद दीजिये, जनमत का मजाक उड़ाना अब बंद करें l
६. लोकतंत्र के सभी स्तंभों को सांस लेने दीजिये l देश नहीं बचेगा तो आप भी नहीं बचेंगे l
७. जानता हूँ, चुनाव लड़ना हंसी खेल नहीं, पैसा लगता है l जिनसे लिया है पैसा उन्ही को चुकाने के चक्कर में देशहित से खिलवाड़ करना बंद करिए l देश नहीं होगा तो काला धन उन्हें भी बचा नहीं पायेगा l देश में भूख से मरने वाले अभी भी हैं, बीमार को तो छोड़ ही दीजिये l बैंक वोट नहीं देते, उसका कर्जा माफ़ कर देते हो, किसान तो वोट भी देता है ना...!
८. इतिहास से डरिये, शोध के नए विभाग खोलिए, इसे तोड़िए मरोड़िए मत, इसमें अपना स्थान बनाइए l
८. विश्वविद्यालय में लगने वाले पोस्टर या नारे दरअसल अपने देश के ही किसी कोने में लगने वाले नारे हैं l संवाद करिए, उन समस्याओं को दबाइए नहीं, उनसे भागिए नहीं, उनका रंग भी मत बदलिए, उनका सामना करिए, उनकी परतों को समझिये l उन्हें लोकतान्त्रिक रीति से सुलझाइए l उनपर आगे नहीं बढ़ पा रहे तो कम से कम कुछ ऐसा ना करिए कि पीछे आ जाइये l देश बचेगा तो फिर फिर फिर सत्ता मिलेगी पार्टनर l
परम्परागत मीडिया से अपील करना चाहता हूँ:
१. आप तो पहले यही जानिये कि आपका मुख्य काम क्या है l
२. आपसे पूरी सहानुभूति है कि आप किन हालातों में काम करते हैं, पर फिर भी आपको अपने पेशे की चुनौतियाँ स्वीकार करनी पड़ेंगी l
३. इतना पूछते रहते हैं, थोडा पढ़ते भी रहा करिए l हाँ, पढने का सबसे अच्छा स्रोत आज भी इन्टरनेट नहीं है, किताबें ही है, यह जानिये l
४. आप मत थोपा करिए मुद्दे जनता को l जनता जानती है उसे क्या चाहिए l नए नए मुद्दे थोप देते हैं आप, जनता पुराने मुद्दे पर हिसाब ही नहीं ले पाती l
५. रोज रोज सौ खबर दिखाना जरुरी नहीं है l
६. हर घंटे खबर ब्रेक मत किया करिए, जनता का विश्वास जिस दिन ब्रेक हो जायेगा ना, फिर बोलने को कुछ बचेगा नहीं l
७. मेहनती, स्टूडियो से इतर जो पत्रकार हैं, जमीन पर उन्हें जरा सैलरी टाईम पर और ढंग की दे दिया करिए, उनकी इन्ही हालातों की वज़ह से स्टूडियो पत्रकार को समझ ही नहीं आता, कि उनसे गलतियाँ, कब, कहाँ और कितनी हो रही हैं l
८. लगातार बोलने वाले को माफी भी मांगने की आदत डालनी चाहिए. गलतियाँ सबसे होती है l इससे आपकी एक जिम्मेदार, विश्वसनीय और संवेदनशील छवि बनेगी और ऐसे पत्रकारों की सच में देश को बड़ी जरुरत है l
शिक्षकों से कहना चाहता हूँ:
१. केवल करीकलम के चक्कर मत रहिये l ज़रा अखबार के हर पन्ने को समझने की तमीज दीजिये विद्यार्थी को l
२. विज्ञान, तकनीकी और कला के विभाजन मत पालिए मन में और ना ही उन्हें जमने दीजिये l अगर आप अपने विषय से इतर जानने की कोशिश नहीं कर रहे हैं तो आप अपना, छात्र का, विद्यालय-विश्वविद्यालय का, देश का और उस विषय का भी नुकसान कर रहे हैं l
३. छात्र के प्रति संवेदनशील बनिये l हर कक्षा में चार मेधावी मत पालिए l हर छात्र को उसकी खासियत एहसास करवा दीजिये l
४. एक पक्षीय संवाद ना करिए कक्षा में l सवाल करने के लिए उकसाइए; देश आपका ऋणी रहेगा l
५. राजनीति से ना उदासीन रहिये ना रहने दीजिये l
६. शिक्षक बनने के बाद अगर कुछ और बनने की लालसा के ऊपर आपने विजय पा ली है तो ज़रा कक्षा से इतर जो आपकी जिम्मेदारी है उनसे मुंह ना मोड़िये l आसान शब्दों में लेख लिखकर, बोलकर और अन्य संभावित माध्यमों का प्रयोग कर जनता को जागरूक बनाइये l
७. जटिल से सरल की ज्ञानयात्रा करवाना आपका काम है l जानता हूँ ज्यादातर शिक्षक इसका उल्टा करते हैं l
छात्रों से :
१. किसी रंग में मत ढलिए, हर रंग समझिये l
२. ज्ञान के सभी स्रोत खंगालिए l
३. इंटरनेट की क्षमता और सीमा समझिये l
४. विषय तक सीमित मत रहिये l
५. सबको सुनिए, सबसे सीखिए l
६. Agree to disagree का मूलमंत्र समझ लीजिये l
७. स्वस्थ रहिये l

डॉ. श्रीश

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