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Tuesday, September 25, 2018

नेपाल सौदेबाज, दगाबाज नहीं


साभार: गंभीर समाचार 

स्वतंत्र संप्रभु देश की विदेश नीति जब गढ़ी जाती है तो उन प्रभावी कारकों की पड़ताल की जाती है, जिनकी अवहेलना नुकसानदायक हो सकती है। भारत की ओर से तीन तरफ से और चीन की तरफ से एक तरफ से घिरे नेपाल को भी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की बुनियाद गढ़नी है। एक समय लगभग असंभव लग रहे संविधान-निर्माण की प्रक्रिया के सकुशल लोकतांत्रिक रीति से संपन्न हो जाने के पश्चात् नेपाल ने विधिसम्मत लोकतांत्रिक चुनाव आयोजित कर स्वयं को स्पष्ट बहुमत वाली नयी सरकार भी प्रदान कर दिया है। संगठित वामपंथ की सरकार के बनने से भारत के साथ नेपाल के संबंधों में वह जोश तो नहीं ही है, किंतु भारत-नेपाल संबंधों में आयी यह जकड़न दरअसल उस अविश्वास से उपजती है जिसका मूल नेपाली नवगठित ओली सरकार के चीन के प्रति दिखाई जा रहे झुकाव में है। चीन दुनिया की प्रमुख सामरिक-आर्थिक शक्ति है, न यह तथ्य नज़रअंदाज के काबिल है और न ही यह कि भारत तेजी से उभरती विश्व शक्ति है। चीन ओबोर नीति के आधार पर अपना खजाना खोले हुए है जो नेपाल की नवनिर्माण की आकांक्षा के लिए एक बेहद ही स्वाभाविक आकर्षण है। लोकतांत्रिक नेपाल आर्थिक मजबूती के लिए यदि भविष्य के व्यापारिक लाभों को लेकर उत्सुक है तो भारत की भी अवहेलना महंगी पड़ सकती है। अब जबकि, किसी एक देश पर निर्भरता भी भावी हितों को देखते हुए खतरनाक है, ऐसे में यदि भारत और चीन के संबंध भी सीधी रेखा में न हों तो नेपाल की कठिनाई का अंदाजा लगाया जा सकता है। नेपाल अपनी भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए भारत और चीन की भू-राजनीतिक स्थिति की भी अनदेखी नहीं कर सकता, यह उसकी विदेशनीति निर्माण-प्रक्रिया की प्राथमिक बाध्यता है। 

ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सामरिक संबंधों के संदर्भ में यदि नेपाल के भारत और चीन से संबंध परस्पर तौले जाएँ तो यकीनन भारत-नेपाल संबंध, नेपाल-चीन संबंध से अधिक स्वाभाविक, अधिक गहरे और कभी भी अपनी महत्ता नहीं खोने वाले नज़र आएंगे, किन्तु नेपाल भी अपने कूटनीतिक व सामरिक संबंधों में एक सुरक्षित संतुलन की सम्भावना तो तलाशेगा ही। इसी संतुलन की तलाश उसे चीन से नए-नए समझौतों की तरफ ले जाती है। कोई भी तटस्थ विदेश नीति विश्लेषक यदि नेपाल के दृष्टिकोण से विचारे तो यही कहेगा कि नेपाल अपनी स्वाभाविक चाल चल रहा है। मन में कहीं भूटान को रखते हुए भारतीय विश्लेषक जब नेपाल से भारतीय अपेक्षाओं की पड़ताल करते हैं तो उन्हें निराशा हाथ लगती है। लेकिन बदलती परिस्थितियों के हिसाब से भारतीय विदेश नीति में नेपाल के प्रति जो तत्परता आनी चाहिए थी उसकी अनुपस्थिति पर भी ध्यान जाना चाहिए। भारत और नेपाल के संबंध उतार-चढ़ावों के बावजूद अमूमन बेहतरीन ही रहे हैं। किन्तु जिस तरह बदलते नए नेपाल की नब्ज महसूस करते हुए भारत को अपनी नेपाल नीति को अद्यतन करना था, वह नहीं हो सका और भारत की नेपाल नीति में एक आलस्य व जड़ता बनी रही। भारत और चीन के मध्य स्थलबद्ध नेपाल एक सैंडविच की तरह महज बफर स्टेट तो नहीं बनना चाहेगा। नेपाल में नयी सरकार के शपथ लेने तक भारत सरकार को ‘नव-नेपाल’ को देखते हुए एक नयी व बहुआयामी नेपाल नीति तैयार रखनी थी जिसमें भूराजनीतिक कारक व चीनी संदर्भ तफ्सील से लक्षित होते। किंतु अभी तक भारतीय रवैया देखकर यही लगता है कि भारत, नेपाल के हर कूटनीतिक कदम पर चौंक ही रहा है। 

2015 के विनाशकारी भूकंप के बाद तथाकथित भारतीय सीमाबंदी के बाद नेपाली जनमानस ने एक राष्ट्र पर अतिनिर्भरता के दुष्परिणाम पर सोचने को मजबूर हुए। इसीसमय चीन ने भी तातोपानी में अपना एकमात्र व्यापारिक चेकपॉइंट यह कहते हुए बंद किया था कि वहाँ उन्हें चीन विरोधी गतिविधियों की आशंका है लेकिन नेपाली जनमानस पर फ़िलहाल राजसत्ता के विरुद्ध हुई क्रांति के वामपंथी नायक इतने प्रभावी हो चुके हैं कि उन्होंने चुनाव में तथाकथित भारतीय सीमाबंदी को अधिक तूल दिया। भारत-नेपाल मुक्त सीमा के दोनों ओर रहने वाले मधेसियों से भारतीयों की सामाजिक-सांस्कृतिक साम्यता और उनकी नेपाली राष्ट्रीय राजनीति में कम होती महत्ता ने भी इसमें जैसे आग में घी का काम किया। यही वह नाजुक समय था जब भारतीय कूटनीति को अधिक तत्पर व भारतीय उपस्थिति को अधिक मुखर होना था, किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा हो न सका। नेपाल, चीन के ओबोर नीति को समर्थन देने वाले प्रथम पंक्ति के देशों में है। नवनिर्माण के आकांक्षी नेपाल को इसमें निश्चित ही अपनी अवसरंचना को नयी दिशा देने का अवसर दिखाई पड़ता है। चीन ने नेपाल में भारी-भरकम निवेश किया है और नयी-नयी घोषणाएँ भी जब-तब होती जाती हैं। चीन केरांग-काठमांडू रेल परियोजना पर काम कर रहा है और साथ ही परस्पर वायु व भूमि संपर्कों के फैलाव पर ध्यान दे रहा है। कोसी, गंडकी और करनाली आर्थिक गलियारे पर भी प्रगति देखी जा सकती है। 2017 में चीन ने नेपाल के लिए 8.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की घोषणा की थी। उसी साल प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए चीनी रक्षा मंत्री चांग वानक्वान ने 32.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता नेपाली सेना को देने की घोषणा की थी। पिछले वित्तीय वर्ष के शुरुआती दस महीनों में ही नेपाल में चीनी निवेश, नेपाल के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 87% है। हाल ही में चीन ने नेपाल के साथ नए ट्रांजिट प्रोटोकॉल के तहत अपने चार बंदरगाह तियानजिन, शेनजेन, लिआन्यूंगांग व झांजीआंग खोल दिए, इसमें तीन लैंझाउ, ल्हासा व शिगास्ते जैसे शुष्क बन्दरगाह भी शामिल हैं। इसके तुरंत बाद ही नेपाली सरकार ने भारत द्वारा आयोजित बिम्सटेक बे ऑफ़ बंगाल प्रथम संयुक्त सैन्य अभ्यास में परिभाग करने से सहसा ही इंकार कर दिया हालाँकि कूटनीतिक संबंधों को देखते हुए नेपाल ने अपना पर्यवेक्षक भारत भेज दिया। तथ्य यह भी है कि नेपाल इसी समय चीन के साथ सागरमाथा सैन्य अभ्यास के द्वितीय संस्करण में परिभाग कर रहा है। 

इसतरह देखा जाय तो यह कहना मुनासिब होगा कि नेपाल अब एक स्वतंत्र सौदेबाज देश के रूप में व्यवहार कर रहा है। चीन के साथ वह यकीनन अपने संबंध प्रगाढ़ करना चाहता है परंतु भारत से अपने संबंधों को भी वह सम्हालना चाहता है। नेपाल के कूटनीतिक हलकों में भारत के सापेक्ष चीन को लेकर एक पक्षपात अवश्य है किन्तु अभी जो कूटनीतिक विश्वास भारत को लेकर है, वह चीन को लेकर नहीं है। यहीं भारतीय कूटनीति के लिए पर्याप्त अवसर मौजूद हैं। चीन के भारी-भरकम निवेश पर एक तरह के ऋण-बंधन में फंसने का भय स्पष्ट है। श्रीलंका के उदाहरण से नेपाली कूटनीतिक समाज भी अवगत है। तथ्य यह भी है कि सन 2015 से ही नेपाल-चीन तातोपानी व्यापारिक सीमापॉइंट बंद है और एकमात्र रासूवगाड़ी-केरुंग पॉइंट अपने ख़राब अवसंरचना विकास के कारण सुस्त पड़ा है। इसके अलावा ध्यातव्य यह भी है कि नेपाल ने आख़िरकार पूर्वघोषित पश्चिमी सेती हाइड्रोप्रोजेक्ट में चीनी मदद को दरकिनार करते हुए खुद के संसाधनों से विकसित करने का निर्णय लिया है। चीन ने अवश्य ही स्थलबद्ध नेपाल के लिए अपने चार बंदरगाह खोल दिए हैं किन्तु नेपाली घरेलू मीडिया में यह भी विमर्श समानान्तर चल रहा है कि नजदीकी चीनी बंदरगाह भी 2600 किमी दूर है जबकि भारत का हल्दिया पोत काठमांडू के दक्षिण में महज 800 किमी की दूरी पर है। भारत-नेपाल सीमा से कोलकाता की दूरी जहाँ 742 किमी है, वहीं विशाखापत्तनम 1400 किमी की दूरी पर है। परेशानी भारतीय सीमा पर कस्टम संबंधी लालफीताशाही वाले प्रावधानों से है। एक स्रोत के अनुसार कोलकाता से जर्मनी के हैम्बर्ग जाने वाले कारगो के खर्च की तूलना में काठमांडू से कोलकाता जाने वाले कारगो का खर्च तीन गुना है। वैसे, नेपाली व्यापारी विशाखापत्तनम में हाल ही में प्रस्थापित इलेक्ट्रिक कारगो ट्रैफिकिंग सिस्टम से होने वाली सहूलियत से संतुष्ट हैं। नेपाल ने तिब्बत-सन्दर्भ में चीन से कहा है कि वह अपनी जमीन चीन-विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल नहीं होने देगा, इसीतरह उसने भारत को भी आश्वासन दिया है कि उसकी भारत के साथ खुली सीमा का दुरूपयोग आतंकवादी गतिविधियों में वह नहीं होने देगा।

नेपाल का कूटनीतिक रवैया अप्रत्याशित नहीं है कि उसे एक धोखबाज देश की तरह देखा जाय, किन्तु यकीनन नेपाल एक सौदेबाज देश के रूप में उभर रहा है। कहना होगा कि भारत ने नयी परिस्थितियों के अनुरूप तैयारियाँ नहीं कीं और इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि भारत के तनिक सुलझे व गंभीर प्रयासों से परस्पर संबंधों में पुनः नयी ऊष्मा भी लाई जा सकती है। भारत और नेपाल का इतिहास व समाज एक-दूसरे का स्वाभाविक साझीदार बनाते हैं और भूगोल इसमें भारत को चीन के सापेक्ष नेपाल के लिए हमेशा ही वरीय देश बनाकर रखता है। इस स्थिति में भारत को अपना अवसर अवश्य ही साधना चाहिए।  



Friday, September 21, 2018

भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश: एकीकरण बनाम महासंघ के तर्क


साभार: दिल्ली की सेल्फी 

लाहौर में जन्में प्रसिद्द भारतीय फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा की 2004 में आयी फिल्म वीर-ज़ारा में मशहूर गीतकार जावेद अख्तर का लिखा एक गीत है जो सुर-साम्राज्ञी लताजी और उदित नारायण की आवाज में बेहद मकबूल हुआ था। 'धरती सुनहरी अम्बर नीला, हर मौसम रंगीला, ऐसा देश है मेरा हो...ऐसा देश है मेरा !' आख़िरी बंद में यह गीत कुछ यों हो जाता है- 'तेरे देश को मैंने देखा, तेरे देश को मैंने जाना...,....ऐसा ही देश है मेरा, जैसा देश है तेरा...!' यह फिल्म, इसके निर्देशक, इसकी कहानी, इसके लेखक और गीतकार यह निश्छल संदेश देते हैं कि भारत और पाकिस्तान में एक-दूसरे के लिए नफरत की कोई गुंजायश नहीं होनी चाहिए और कायनात की अनगिन खूबसूरत नेमतों को दोनों देश की धरती साझा करती है। कहना होगा कि लोकप्रिय कला माध्यम में यह एक अद्भुत प्रयास था जो एक 'मानवीय पाकिस्तान' की छवि गढ़ता था। लेकिन संस्कृति, समाज, इतिहास और राजनीति ये अलग-अलग शब्द हैं और अपनी पूरी अर्थवत्ता में इनके गंभीर निहितार्थों की अवहेलना कत्तई नहीं की जा सकती। राष्ट्र, राज्य व राष्ट्र-राज्य, 'राजनीति' के पारिभाषिक शब्द हैं और इनके अपने विशिष्ट मायने हैं। एम. फिल. की कक्षा में मेरे पाकिस्तानी सहपाठी को इस सुंदर गाने के आख़िरी बंद से क्यों आपत्ति थी, यह मै धीरे-धीरे समझ पाया था क्योंकि वे पंक्तियाँ अनजाने में ही उसके राष्ट्र-राज्य 'पाकिस्तान' के 'रेजन डेटा (राज्य स्थापना का आधारभूत तर्क)' को चोट पहुँचा रही थी। 

राष्ट्र जहाँ राजनीतिक व सामाजिक अस्तित्व का परिचायक है वहीं राज्य मूर्त अस्तित्व का जिसमें जरूरी तत्वों के रूप में निश्चित भू-भाग, जनता, सरकार और संप्रभुता पाए जाते हैं। आधुनिक 'राष्ट्र-राज्य' होने के लिए राष्ट्र और राज्य दोनों की विषेशताओं का होना आवश्यक है। यह समझ लेना बेहद आवश्यक है कि एक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान का प्रादुर्भाव 1940 से ही माना जाता है जो 1947 में राज्य की जरूरी विशेषताएँ पाकर एक 'राष्ट्र-राज्य' बनने की अपनी कोशिशों में लग गया। औपनिवेशिक अतीत से मुक्त हुए देशों के बारे में इसलिए ही कहा जाता है कि यहाँ राष्ट्र-निर्माण एवं राज्य-निर्माण की समांनातर प्रक्रियाएँ सतत चलती रहती हैं। यहीं उद्धृत करना समीचीन होगा कि जिन्ना जहाँ भारत-पाकिस्तान को साझे मातृभूमि के दो राष्ट्र के रूप में देखने के हिमायती थे वहीं गाँधी इन्हें 'एक राष्ट्र' के 'दो राज्यों' के रूप में स्वीकार करना चाह रहे थे। आगे चलकर पाकिस्तान का एक और विभाजन हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। यह ठीक है कि दो या दो से अधिक राष्ट्र-राज्य अपने इतिहास, समाज, संस्कृति के कुछ या अधिकांश पन्ने साझा करते हैं पर इस आधार पर उनके 'एकीकरण' का एकतरफा तर्क गढ़ना व उसका एकपक्षीय आरोपण द्विपक्षीय संबंधों में और अधिक तनाव ही भरेगा। कोई भी दो या दो से अधिक राष्ट्र-राज्य अपने-अपने राष्ट्रवाद को सुरक्षित रखते हुए एक 'महासंघ' बनकर काम करने को राजी हो सकते हैं जिससे विश्व-राजनीति में साझे राष्ट्र-हित साथ मिलकर सँवारे जा सकें। राष्ट्र और राज्य की पृथक-पृथक महत्ता समझते हुए ही पीछे कई बार गंभीर रूप से 'महासंघ' की योजना पर तो अवश्य ही विचार-विनिमय हुआ किन्तु किसी भी गंभीर विचारक अथवा राजनेता ने 'एकीकरण' की बात कभी नहीं चलायी। ‘महासंघ’ बनाकर विभाजन का सच नहीं बदला जा सकता लेकिन उसके दुष्परिणामों को नियंत्रित किया जा सकता है। 'महासंघ' के तर्क को जिन्ना सहित, राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, हामिद अंसारी आदि अनेक हस्तियाँ स्वीकार करती हैं और समय-समय पर इसकी आवश्यकता पर भी बात करती हैं, किन्तु 'एकीकरण' का एकतरफा तर्क सामान्यतया नहीं ही दिया गया।  

अक्टूबर 1990 में हुए पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एकीकरण राष्ट्र-राज्यों का यकीनन एक सुंदर उदाहरण है, जिससे इतना अवश्य यकीन उपजता है कि एकीकरण की प्रक्रिया असम्भव नहीं है। पर यह उदाहरण भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश पर आरोपित करने से पहले उनकी अलग-अलग ऐतिहासिक परिस्थितियों का मूल्यांकन करना बेहद जरूरी है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीपीय सन्दर्भ में यह उदाहरण उपयुक्त नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते दुनिया उदारवादी एवं साम्यवादी विचारधारा के स्तर पर संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत रूस के नेतृत्व में बंटकर फिर शीत युद्ध के आगोश में चली गयी थी। जर्मनी का पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के रूप में विभाजन इसी रस्साकस्सी का परिणाम था। पृथक राष्ट्र-अस्तित्व के मूल में तर्क ‘विचारधारा व राजनीतिक व्यवस्था’ का था। 1986 में सोवियत रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्बाचेव ने ‘ग्लासनोस्त’ व ‘पेरेस्त्रोइका’ की घोषणा कर दी थी, जिससे अंततः नब्बे के दशक में आते-आते सोवियत विखंडन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। इन नयी परिस्थितियों का लाभ लेते हुए पश्चिमी जर्मनी के चांसलर हेल्मुट कोल ने अमेरिकी तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज हर्बर्ट वाकर बुश के कूटनीतिक प्रयासों से जर्मन-एकीकरण संभव कर दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दोनों ओर की जर्मन जनता इस एकीकरण को चाहती थी और बर्लिन की दीवार बिना किसी राजनीतिक रणनीतिक योजना के पूर्णतः स्वतः स्फूर्त जनता द्वारा ढहायी गयी। वह ‘विचारधारा व राजनीतिक व्यवस्था’ जो जर्मन-विभाजन को आधार देती थी, वही कमजोर पड़ती गयी थी।  इसके इतर पाकिस्तान के राष्ट्रगत अस्तित्व का मूल तर्क  ‘धार्मिक’ है और बांग्लादेशी राष्ट्रगत अस्तित्व का मूल तर्क ‘सांस्कृतिक (बंगाली)’ है, जो अभी भी पूरी मजबूती से बना हुआ है। इसलिए ‘भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश महासंघ’ के तर्कों में जहाँ सहयोग की ऐसी मंशा शामिल है जो किसी भी राष्ट्र-राज्य की राष्ट्र्रीय संकल्पना को बिना हानि पहुंचाए परस्पर सहयोग की अधिकतम सम्भवना को टटोलता है, वहीं ‘एकतरफा एकीकरण’ के तर्क की मंशा ‘राष्ट्रगत असुरक्षा’ पनपाती है। 

विश्व-राजनीति, दक्षिण एशियाई राजनीति एवं भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश के वर्तमान संबंध एवं इनकी मौजूदा घरेलू राजनीति भी इस बात की ताकीद करती है कि यह समय ‘एकीकरण के तर्क’ का कत्तई नहीं है, बल्कि ऐसे समय में यदि ‘महासंघ’ बनाने का तर्क भी यदि इन तीनों देशों में से किसी एक देश का कोई एक नेता देने की कोशिश करे तो यह एक बेहद सकारात्मक बात मानी जाएगी। पाकिस्तान की राजनीति में अभी जो इमरान युग शुरू हुआ है उसका आधार वही सेना है जो भारत से अपने संबंधों को सुधारने की दिशा में उदासीन है। भारत-पाकिस्तान संबंध ठिठके पड़े हैं, सामान्य बातचीत का दौर भी स्थगित है। भारत का पारंपरिक मित्र रूस, पाकिस्तान को हथियार दे रहा और उनके सैनिकों को प्रशिक्षण भी दे रहा। तेजी से उभरते चीन से भारत के संबंधों में जहाँ डोकलम, तिब्बत, नेपाल और मालदीव का तनाव है तो उसी चीन से पाकिस्तान के गहराते संबंधों को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं!  बांग्लादेश एक सघन आंतरिक राजनीतिक तनाव से गुजर रहा है और वहाँ भी बांग्लादेशी शरणार्थियों व धार्मिक चरमपंथी मुद्दों ने भारत-बांग्लादेश संबंधों में एक ऐंठन पैदा की है। यथार्थ में भारत-पाकिस्तान के सतत तनावपूर्ण संबंधों को देखते हुए 'महासंघ' का लक्ष्य जितना विशिष्ट व कठिन है, 'एकतरफा एकीकरण' का तर्कारोपण, ऐसे माहौल में 'एकीकरण' तो छोड़िये, 'महासंघ' के प्रयत्नों को भी जटिल बनाएगा और यह  चिढ़ाने जैसा बेतुका भी है। 

एक गहरे विजन और प्रतिबद्ध पारस्परिक सहयोगों की रूपरेखा के साथ भारत सरकार, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ ‘महासंघ’ निर्मित करने की योजना पर तब ही काम कर सकती है जब पृष्ठभूमि में तीनों देशों में परस्पर सहयोग की बानगी हो, भले ही वह हालिया हो लेकिन एक पारस्परिक विश्वास बनने लगा हो। फिर और भी सकारात्मक होकर सोचें तो महासंघ की स्थिति साकार होने के बाद यदि इन देशों के नागरिक धीरे-धीरे यह महसूस करने लगें कि हमें ‘एकीकरण’ की ओर बढ़ना चाहिए तो उचित वैश्विक परिस्थिति में यकीनन यह एकीकरण संभाव्य हो सकता है। इसमें भी दशकों लगेंगे और यह प्रक्रिया निरंतर सहयोग व विश्वास की मांग करती है। हाल-फ़िलहाल तीनों देशों की सरकारें ऐसे किसी निरंतर सहयोग व विश्वास की प्रक्रिया में तो नहीं ही दिख रहीं।   

Friday, September 7, 2018

एकजुट अमेरिकी मीडिया द्वारा #एनेमीऑफ़नन कैम्पेन

#एनेमीऑफ़नन

साभार: गंभीर समाचार 

जिस दिन भारत अपनी आजादी की इकहत्तरवीं वर्षगांठ मनाने में मशगूल था उसीदिन अमेरिका के छोटे-बड़े तकरीबन साढ़े तीन सौ मीडिया-प्रतिष्ठानों ने  अमेरिकी प्रेस की आजादी के पक्ष में सम्पादकीय प्रकाशित किया । यह एक अभूतपूर्व घटना थी। पर कहना होगा कि यह उस अभूतपूर्व रवैये के विरुद्ध एकजुट प्रदर्शन था जो किसी भी अन्य अमेरिकी राष्ट्रपति में यों नहीं रही । पिछले एक अरसे से मीडिया द्वारा हो रही अपनी हर आलोचना को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ‘फेकन्यूज’ कह रहे हैं और जोर देकर दुहराते हैं कि मीडिया द्वारा कहा गया, दिखाया गया कुछ भी तथ्य नहीं है। ट्रम्प के अनुसार मीडिया, विपक्षी दल की तरह व्यवहार कर रहा है और यह देशहित में नहीं है। ट्रम्प यहाँ तक कहने लगे कि मीडिया उनकी दुश्मन नहीं बल्कि देश की दुश्मन है। ट्रम्प अपने ट्विटर अकाउंट से बमबारी करते हैं तो उसी ट्विटर पर एकजुट अमेरिकी मीडिया द्वारा #एनेमीऑफ़नन कैम्पेन चलाया गया। बोस्टन ग्लोब की अपील पर अमेरिकी मीडिया ने राष्ट्रपति ट्रम्प के इस मीडिया विरोधी रवैये का एकजुट विरोध किया। 

कमोबेश पूरी दुनिया में सत्ता के साथ मीडिया के जो संबंध हैं वे बहुरंगी हैं। एक लंबे समय तक यह संबंध श्वेत-श्याम था। या तो मीडिया, सरकार की निर्भीक आलोचना करती थी अथवा स्वयं ही सरकारी बन उसका भोंपू बन जाती थी। बाजार की दखलंदाजी ने इस भूमिका में एक अवसरवादी संतुलन भर दिया था। सत्ता और शक्ति के खेल को परोसते-परोसते मीडिया खुद एक बड़ी किरदार हो गयी। इंटरव्यू लेने वालों के इंटरव्यू लिए जाने लगे। प्रश्नकर्ता, द्रष्टा व विचारक बनते गए, प्रश्न छूटते गए, दृश्य धुंधले होते गए और आयातित विचारों की बमबारी ही एजेंडे में शामिल हो गए। चुनाव जो कि एक लोकतांत्रिक उत्सव है अब मीडिया के लिए महज अवसर में तब्दील हो गया। समकालीन मीडिया एक रंगारंग मेला है। हर दुकान पर एक लाउडस्पीकर बंधा है। सारे लाउडस्पीकर चालू हैं चौबीस घंटे और चीख रहे हैं। राजनीतिक दलों ने अपने-अपने लाउडस्पीकर चुन लिए हैं। उद्योगपतियों ने इन लाउडस्पीकरों की खरीददारी में मदद की है। अब अधिकांश लाउडस्पीकर वही रिकॉर्ड बजाने को मजबूर हैं, जो उन्हें पहुँचाया जाता है। 

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा का चुनाव, सांगठनिक रूप से पहला बड़ा सफल कैम्पेन माना जाता है जब मीडिया का इस्तेमाल खुलकर किया गया। पश्चिमी देशों में यह पहले हुआ, अपने देश में यह अब देखा जा सकता है। नरेंद्र मोदी के चुनाव कैम्पेन में मीडिया की भूमिका से इस प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। प्रवृत्तियाँ काफी पहले से कार्यरत हैं, परन्तु यह दशक जैसे पर्दादारी जानता ही नहीं। बाजार का साथ पाकर मीडिया एक समय बाद स्वयं में ही एक औद्योगिक घराना बन जाता है। इस बिंदु पर आकर लाउडस्पीकर अपने रेकॉर्ड बजाने की भी हैसियत रखता है। ट्रम्प से वह संतुलन टूट गया है। भारत में यह संतुलन अगले दशक में टूट सकता है। राजनीतिक दल जो मीडिया का इस्तेमाल कर कैम्पेन करते हैं अब अपनी आलोचना के जवाब में मीडिया पर ही तंज कसते हैं। ट्रोलर्स की खेती करने वाले दूसरों के ट्रोलर्स को खर-पतवार बताते हैं। फेकन्यूज फिनोमेना अब एक आत्मघाती बम है।  

विश्व राजनीति में मीडिया


 “जो मीडिया को नियंत्रित करता है वह मन को नियंत्रित करता है।  (जिम मॉरिसन )”


साभार: गंभीर समाचार 

अभिव्यक्ति के लिए भाषा और उसके संकेत चिन्हों को दर्ज करने की तकनीक के सहारे मानव ने अभूतपूर्व प्रगति की है। साझी सामाजिक स्मृति सहेजी जा सकती है और भविष्य के लिए प्रयोग में भी लाई जा सकती है। मानव-अभिव्यक्ति के अनगिन माध्यम विकसित हुए। उन सभी मीडियम्स का बहुवचन ही मीडिया कहलाता है । जैसे-जैसे राजनीतिक संरचनाएँ विकसित होती गयीं, मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती गयी। यों तो इतिहास के पन्नों में मीडिया के कितने ही रंग हैं लेकिन अब जबकि संपूर्ण विश्व में एक राजनीतिक मूल्य के रूप में लोकतंत्र स्वीकार्य हो चला है, मीडिया की भूमिका कमोबेश अब यह स्थापित है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जवाबदेही व पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और नागरिक-समाज एवं सरकार के मध्य सेतु बनकर राजनीतिक संक्रियाओं के निर्वहन में योग देता है। 

वैश्वीकरण और मीडिया का वैश्विक स्वरूप 

संचार क्रांति ने समूचे दुनिया से एक क्लिक पर संपर्क-सम्बद्धता उपलब्ध करा दिया है। इंटरनेट ने पूरी दुनिया को चौबीसों घंटे जोड़ रखा है। सूचनाएँ अभूतपूर्व ढंग से इतिहास में पहली बार साझा हो रही हैं और इसलिए ही मार्शल मैकलुहान ने विश्व को ‘वैश्विक-ग्राम’ की संज्ञा दी। मीडिया शब्द में अब अख़बार, टेब्लॉयड, पत्रिका, रेडिओ, टीवी, सोशल साइट्स, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, ऐप आदि सभी माध्यम आते हैं। औद्योगिक क्रांति से उपजे पूँजीवाद के उत्कर्ष ने, उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद और दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के पश्चात जो वैश्विक व्यवस्था दी है उसमें अब वैश्वीकरण की बयार चल रही है। वैश्वीकरण एक ऐसी विशद सतत प्रक्रिया है जो विश्व-व्यवस्था के देशों को राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक संस्तरों पर एक-दूसरे से जुड़ने को बाध्य करती है। राष्ट्रीय सीमाएँ वैश्वीकरण के लिए उतनी मायने नहीं रखतीं और सम्प्रभुताएँ यदि तैयार न हों तो भी वैश्वीकरण का दबाव महसूस करती हैं। तकनीक के उत्कट विकास ने वैश्वीकरण को और भी शक्तिमान बनाया है जो कुशल राष्ट्र को जहाँ और भी अवसर प्रदान करती है वहीं अकुशल राष्ट्र स्वयं को इसमें नव-उपनिवेशवाद जैसी स्थिति में स्वयं को बिधा पाते हैं।

विश्व इतिहास और समकालीन वैश्वीकरण ने मीडिया का एक ‘वैश्विक स्वरूप’ गढ़ा है। अब राष्ट्रगत मीडिया, वैश्विक मीडिया से अप्रभावित नहीं रह सकती। वैश्विक मीडिया, वैश्वीकरण की शक्तियों के साथ मिलकर इस स्थिति में है कि वह किसी भी देश की मीडिया को मुद्दे पकड़ाने लगे और उसको   नियोजित विषयवस्तु भी थोपने लगे। इस स्थिति में राष्ट्रहित कब दाँव पर लग जाता है, पता ही नहीं चलता। संपूर्ण विश्व में सरकारें उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था में पनप रही हैं। उदारवादी व्यवस्था पूँजी के मुक्त प्रवाह में यकीन करती है और उसी व्यक्ति और व्यवस्था को लाभ पहुँचाती है जो पूंजीसंपन्न होती है। इसके विपरीत मीडिया अपने विकासक्रम में इस आदर्श में आगे बढ़ी है कि उसे जनपक्षधर रहना है और राज्य-उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिए उस सीमान्त व्यक्ति के प्रश्न भी सत्ता से करने हैं जिसके पास कोई कुशलता, कोई पूँजी शेष नहीं है। उदारवादी व्यवस्था और मीडिया के सत्व के मध्य यह संघर्ष फिर स्वाभाविक है। चूँकि राष्ट्र-राज्य शून्य में स्थित नहीं होते, वे एक वैश्विक व्यवस्था में होते हैं तो विश्व व्यवस्था की प्रकृति के बदलाव का प्रभाव यकीनन राष्ट्र-राज्य पर भी पड़ेगा। गहराते वैश्वीकरण ने राष्ट-राज्यों की मीडिया के लिए दरअसल और भी कम श्वाँस-स्थान रख छोड़ा है खासकर तब जब सरकारें पूंजीसमर्थक हों। मुनाफा ही मूल्य है बाजार का। बाजार की शक्तियाँ कुछ इस तरह से कार्य करती हैं कि मीडिया को भी पत्रकारिता के मूल्य के ऊपर बाजार के मूल्य को तवज्जो देना पड़ता है। नागरिक, मनोरंजन की चाशनी में परोसे जाने वाले समाचार की निष्पक्षता के लिए कोई मूल्य नहीं चुकाना चाहते और महज मूक दर्शक बनते चले जाते हैं।   

भारतीय मीडिया कवरेज में वैश्वीकरण व वैश्विक मामलों का नकार 

अपने देश भारत की सामान्य मीडिया कवरेज देखें तो ऐसा लगता ही नहीं कि विश्व में वैश्वीकरण घट रहा है जिससे कि हर लोकल खबर का एक वैश्विक मायने बनता है और हर वैश्विक खबर के लोकल मायने बनते हैं। अभी भी वैश्विक राजनीति के लिए अख़बारों में एक-आध पन्ना, पत्रिकाओं में एक नियमित-अनियमित स्तम्भ, टीवी चैनलों पर एक अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को समेटता कोई साप्ताहिक कार्यक्रम ही दिखाई पड़ता है, जो महत्ता के अनुपात में नगण्य है । कुछ अंग्रेजी अख़बारों को छोड़ दें तो अधिकांश हिंदी के अख़बारों में वैश्विक मामलों पर प्रस्तुतीकरण अत्यल्प है। हिंदी अख़बारों के लिए अभी भी विदेश सात समंदर पार है। उनमें छपने वाले संपादकीय आलेखों में बेहद कम आलेख वैश्विक राजनीति पर होते हैं और वह भी अधिकांश कुछ यों होते है जिसमें भारतीय विदेश नीति की उपलब्धियाँ बता दी जाती हैं। यह दौर विश्व- राजनीति के वैश्वीकरण का है और राष्ट्रीय घटनाक्रम, वैश्विक घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में यदि नहीं देखे और विश्लेषित किये जा रहे तो देश समानांतर बड़े मीडिया कोलाहलों के बीच भी लगातार अधूरे सच में जी रहा है। होना यह चाहिए कि मीडिया में यह शऊर आना चाहिए कि वह हर खबर को वैश्विक परिदृश्य में परोसे और विश्लेषण की गुंजायश बनाये। बिना इसके कोई भी मीडिया कवरेज सामान्यतः वैश्वीकरण के प्रभावों का नकार है, जो सही नहीं है। इस दोषपूर्ण कवरेज का असर भारतीय जनमत पर यों हुआ है कि जहाँ दुनिया के ज्यादातर देशों के आम चुनावों में विदेश नीति और वैश्विक मामले प्रमुख चुनावी मुद्दे होते हैं वहीं भारतीय आमचुनावों में इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो वैश्विक मुद्दे, चुनावी मुद्दे बनते ही नहीं। एक ऐसा देश जिसे जवाहर लाल नेहरू के रूप में ऐसा प्रधानमंत्री मिला था जो एक वैश्विक नेता रहे, एक ऐसा देश जो आजादी के शुरुआती दशकों में ही निर्गुट आंदोलन के माध्यम से तीसरी दुनिया के देशों का अगुआ बन गया, एक ऐसा देश जिसकी भू-राजनीतिक स्थिति लार्ड कर्जन की नजर में भी विशिष्ट थी और आज भी जो देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र की वैश्विक राजनीति के केंद्र में है, वहाँ वैश्विक मामलों की मुख्यधारा मीडिया द्वारा की जा रही अनदेखी कितनी शोचनीय व दुखद है। यह सच है कि ‘वैश्वीकरण का प्रभाव’ मीडिया में खासा चर्चा घेरता है पर ज्यादातर वह आर्थिक व सामाजिक स्तर पर ही विश्लेषित होता है। उसीप्रकार जबकि मीडिया सूचनाओं के लिए अब इंटरनेट पर खासा निर्भर है तो भी वैश्विक मामलों का महत्त्व यदि नहीं समझा जायेगा तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। समकालीन तथ्य के रूप में मीडिया द्वारा वैश्वीकरण और वैश्विक मामलों की अनदेखी राष्ट्रहित के लिए घातक है। 

मीडिया साम्राज्यवाद व विश्व राजनीति 

उदारवादी बाहुल्य ने विश्व के प्रत्येक देश के अभिजन को व्यक्तिवादी होकर पूँजी बटोरने और सहेजने में मदद दी है। वैश्वीकरण मीडिया मॉडल इतने खर्चीले हैं कि वे परम्परागत आर्थिक मॉडल पर चल ही नहीं सकते। बाजारवाद और उपभोक्तावाद की अतिशयता ने आधुनिक जीवन मूल्यों में जो घुसपैठ की है उससे मीडिया को नागरिक आधारित मॉडल चलाने में बड़ी ही परेशानियाँ हैं। यह आर्थिक विकलांगता मीडिया घरानों को विज्ञापन के लिए या तो सरकार या फिर बाजार के समक्ष घुटने टेकने को मजबूर करती है। पूरी दुनिया में यह सामान्य प्रवृत्ति बनी है कि मीडिया घराने अब किसी न किसी औद्योगिक घरानों की इकाइयाँ बन गयी हैं। यह स्थिति अभिजन को निर्भीक हो पूँजी बटोरने और सहेजने में मदद देती है। उपयुक्त चुनाव-सुधार न होने की वजह से चुनाव इतने खर्चीले होते गए हैं कि यहाँ भी चंदों के माध्यम से औद्योगिक घरानों को राजनीतिक हस्तक्षेप की भूमिका मिल जाती है। वैश्वीकरण ने दुनिया भर के औद्योगिक घरानों को हाथ मिलाने का जो मौका दिया है उससे मीडिया घरानों का भी क्रमशः वैश्वीकरण हुआ है। यह स्थिति वैश्विक जनमत निर्माण में  मीडिया को बेहद ताकतवर बना देती है। सीएनएन, बीबीसी, नेटवर्क-18 आदि के अनगिन मीडिया प्रकोष्ठ अमेरिकी इशारे पर चीन को शांतिपूर्ण पांडा नहीं खतरनाक ड्रैगन से प्रदर्शित करते हैं। इजरायल का महिमा-मंडन स्वाभाविक रीति से होगा तो ईरान एक विलेन की तरह नज़र आएगा। आतंकवाद और इस्लाम का फर्क मिटेगा और उत्तर कोरिया का तानाशाह शैतान लगने लगेगा। 

आशय यह नहीं है कि अमेरिका अथवा पश्चिमी शक्तियाँ अनिवार्य रूप से गलत ही हैं अथवा अन्य शक्तियाँ अनिवार्य रूप से सही ही हैं, लेकिन यह सुस्पष्ट है कि उदारवादी बाहुल्य के वैश्वीकरण में पश्चिमी शक्तियाँ अवश्य ही विश्व-जनमत को प्रभावित कर पाने की स्थिति में हैं।  यह एकदम अकारण और सहसा नहीं है कि आजकल अधिकांश वैकल्पिक मीडिया माध्यम इंटरनेट पर जो प्रचलित हैं उनका मूलस्थान देश अमेरिका है, जैसे- फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प, गूगल, जीमेल आदि। इंटरनेट पर एकदम खुले आम अमेरिकी साम्राज्यवाद नज़र आएगा। एक व्यक्ति जब एप्पल, एंड्राइड या विंडो के सेलफोन से क्रोम ब्राउजर में गूगल सर्च से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, विकिपीडिया पर पहुँचता है, सामग्री डाउनलोड कर माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस से संपादन करता है फिर जीमेल का प्रयोग कर उसे एक मित्र के पास प्रेषित करता है, तो उसे भान भी नहीं रहता कि वह उन्हीं माध्यमों का प्रयोग कर रहा है जिनसे मीडिया साम्राज्यवाद की पृष्ठभूमि बनती है, क्योंकि उनका स्रोत एक ही देश अमेरिका है। 

इस संदर्भ में एक भारतीय उदाहरण बेहद समीचीन है जहाँ वैश्विक मीडिया कवरेज और बहुधा उनकी सूचनाओं पर आधारित भारतीय मीडिया के प्रभावित होकर कार्य करने से घरेलू और क्षेत्रीय राजनीति पर खासा प्रभाव पड़ा। मनमोहन सिंह सरकार में कुशल कूटनीतिज्ञ नटवर सिंह, देश के विदेश मंत्री थे। नटवर सिंह ईरान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान गैस पाइपलाईन पर काम कर रहे थे जो भारत होते हुए चीन तक पहुँचती और इन देशों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करती। इस राह में चुनौतियाँ कई थीं पर इसके सफल होने पर भारत की केवल ऊर्जा जरुरत ही नहीं पूरी होती बल्कि इसके दूसरे महत्वपूर्ण कूटनीतिक परिणाम भी होते। ऊर्जा जरूरतों के माध्यम से पाकिस्तान, भारत व चीन की पारस्परिक कटुता यकीनन कम होती, मध्य-पूर्व एशिया से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक एक सहयोगी क्षेत्र उभरता, जिससे अमेरिकी अथवा रूसी जैसी किसी सुपरपॉवर शक्ति के क्षेत्र में दखलंदाजी भी कम होती। एक नया ऊर्जा गलियारा विकसित होता जो कूटनीतिक रूप से भी शक्तिशाली होता और क्षेत्र में शांति और विकास की गारंटी होती। ज़ाहिर है यह क्षेत्र में अमेरिकी हितों को एक चुनौती होती। अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के संचलन में बेहद प्रमुख आर्थिक योगदानकर्ता है। मध्य-पूर्व एशिया में ‘तेल के बदले अनाज योजना’ में हुए भ्रष्टाचार की संयुक्त राष्ट्र समर्थित स्वतंत्र एजेंसी (वोल्कर कमिटी) से जाँच कराई गयी, जिसमें विभिन्न देशों के राजनयिकों के नाम आये। एक नाम उसमें नटवर सिंह का भी था। वैश्विक मीडिया में इस वोल्कर कमिटी रिपोर्ट की खूब चर्चा हुई पर फिर भी किसी और देश में किसी का इस्तीफ़ा नहीं लिया गया। लेकिन भारत में स्थानीय मीडिया ने वैश्विक मीडिया के इनपुट्स पर वो हंगामा किया जिसकी आड़ में मनमोहन सरकार ने आखिर नटवर सिंह से इस्तीफा ले लिया। ऐसा नहीं है कि इस्तीफे के बाद नटवर सिंह पर कोई अभियोजन या जांच चलायी गयी, वह मामला वहीं ठप रहा। इसके कुछ ही समय बाद भारत-अमेरिका परमाणू समझौते को अमली जामा पहनाया गया और गैस पाइपलाइन योजना का आज कोई जिक्र भी नहीं करता।     

वैश्विक मीडिया का एक सकारात्मक उभार 

इन सभी चिंताओं के बीच फिर भी काफी कुछ सकारात्मक भी है। वैश्विक मीडिया ने वह संतुलन साधने की कोशिश की है जिसमें सरोकारिता और मुनाफा दोनों में संतुलन बिठाया जा सके। इंटरनेट पर सीधे पाठकों से मूल्य वसूलकर समाचार व विश्लेषण देने का आत्मनिर्भर मॉडल विकसित हो रहा है। दुनिया भर के अभिजनों ने अपने-अपने देश में टैक्सचोरी करते हुए जो दूसरे मुल्कों में धन संचित किया है, उसका डेटा लीक होकर वैश्विक मीडिया के तहत राष्ट्रगत मीडिया में भी रिसकर आ रहा। विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन के लीक्स ने पूरी दुनिया के सामने कुछ शक्तिशाली सरकारों के दूसरे देशों में की जा रही जासूसी का भंडाफोड़ कर दिया, इसमें अमेरिका सर्वप्रमुख था। यह भी इससे पता चला कि विश्व की शक्तिशाली सरकारें, बाकी सरकारों पर गोपनीय सूचनाओं के जरिये नियंत्रण रखती हैं और कई बार मुख्यधारा की मीडिया का वें इस्तेमाल भी करती हैं। पैराडाइज पेपर्स व पनामा पेपर्स जैसे कई लीक्स ने पूरी दुनिया को झिंझोड़ दिया और इस खतरे की तरफ ध्यान दिलाया कि वैश्विक मीडिया व शक्तिशाली सरकारों का गठजोड़ बेहद घातक साबित हो सकता है। अब दुनिया में कई समूह काम कर रहे हैं जिनका नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय है और वे इसतरह के लीक्स के लिए जरूरी अवसंरचना और उनके सटीक वितरण पर जिनका ध्यान है। उदाहरण के लिए एक नाम इंटरनेशनल कंसोरिटियम ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स का लिया जा सकता है जिसमें भारतीय इंडियन एक्सप्रेस मीडिया समूह भी प्रतिभाग करता है। यह सकारात्मक विकास है जो इस वैश्वीकरण युग की वैश्विक मीडिया के प्रति आशाएँ जगाता है। मीडिया पर जनजागरूकता बेहद जरूरी है अथवा कब जनमन नियंत्रित होने लग जाये, यह पता ही नहीं चलता और भाग्यविधाता फिर वही शक्तियाँ बन जाती हैं जो अपनी प्रकृति में अधिनायक हैं। 

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