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Saturday, November 25, 2017

यूँ ही नहीं पनपती संविधानवाद की परंपराएँ

डॉ. श्रीश पाठक*

धुनिक समय में लोकतंत्र महज एक राजनीतिक व्यवस्था से कहीं अधिक एक राजनीतिक मूल्य बन चुका है जिसे इस विश्वव्यवस्था का प्रत्येक राष्ट्र अपने संविधान की विशेषता बताना चाहता है, भले ही वहाँ लोकतांत्रिक लोकाचारों का नितांत अभाव हो. संविधान किसी देश के शासन-प्रशासन के  मूलभूत सिद्धांतों और संरचनाओं का दस्तावेज होते हैं, जिनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था संचालित-निर्देशित होती है. जरूरी नहीं कि कोई लिखित प्रारूप हो, कई बार उस देश की दैनंदिन जीवन की सहज परंपरा और अभिसमय ही इतने पर्याप्त होते हैं कि उनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था पुष्पित पल्लवित रहती है, जैसे ब्रिटेन. संविधान की भौतिक उपस्थिति से अधिक निर्णायक है किसी राष्ट्र में संविधानवाद की उपस्थिति. यदि किसी देश में संचालित राजनीतिक संस्थाएँ अपनी अपनी मर्यादाएँ समझते हुए कार्यरत हों तो समझा जाएगा कि संविधान की भौतिक अनुपस्थिति में भी निश्चित ही वहाँ एक सशक्त संविधानवाद है. पाकिस्तान जैसे देशों में संविधान की भौतिक उपस्थिति तो है किन्तु संविधानवाद की अनुपस्थिति है.  
संविधानवाद की परंपराएँ पनपने में समय लगता है. देश की जनता के अंदर राजनीतिक चेतना यों विकसित हो कि वह अपने अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक राजनीतिक संस्थाओं के स्थापना के लिए सजग होने लगे तो राजनीतिक विकास की संभावना बनने लगती है. यह प्रक्रिया सहज ही एक सुदृढ़ सांविधानिक राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती है जिसमें समाज के आखिरी नागरिक के अधिकारों की भी आश्वस्ति हो और वह देश की व्यापक राजनीतिक संक्रियाओं से जुड़ाव महसूस कर सके. यह सहज राजनीतिक विकास एशियाई देशों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अनुभव ने अवरुद्ध कर दिया. उपनिवेशवाद ने उपस्थित राजनीतिक संरचनाओं को कमजोर और अप्रासंगिक होने दिया और उनके स्थान पर नए संवैधानिक सुधार उतने ही होने दिए जिससे उनका औपनिवेशिक शासन बना रहे. इसी अवस्था के कारण सामान्य राजनीतिक चेतना और समयानुरूप राजनीतिक विकास का जो संबंध था वह दक्षिण एशिया के सभी देशों में भी छिन्न-भिन्न हो गया.  औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के बाद भी यह संबंध कुछ ठीक न हो सका और दक्षिण एशियाई देशों में प्रायः सैन्य विद्रोह, संविधान निर्माण की प्रक्रिया का अवरुद्ध होना, लोकतांत्रिक परम्पराओं का निर्वहन ना होना आदि संकट जब तब सुनायी पड़ते हैं.


ऐसे में देश के आम जनों में राजनीतिक उदासीनता दिखायी पड़ती है जिसमें नागरिक मानता है कि राजनीति से सिर्फ नेताओं को लाभ होता है और राजनीति से आमोख़ास का कोई लाभ संभव नहीं है. उस महान राजनीतिक विश्वास का लोप हो जाता है जिसमें नागरिक समझता है कि राजनीति से उसके जीवन में कोई गुणात्मक सुधार संभव है. यह अविश्वास ही राजनीतिक सहभागिता न्यून करता है और फलतः देश की राजनीति ऐसे लोगों की कठपुतली बनने को अभिशप्त हो जाती है जिनकी  राष्ट्रीयता केवल स्वार्थ होती है. आम राजनीतिक सहभागिता की न्यूनता पुनश्च राजनीतिक विकास को रोकती है और संविधानवाद प्रभावित होता है. देश का नागरिक समाज भी कोई निर्णायक गुणात्मक हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं रहता. 

पाकिस्तान को अपना पहला पूर्णकालिक संविधान 1973 में ही जाकर मिल पाया.  पाकिस्तान की संविधान सभा जो कि अविभाजित भारत की संविधान सभा से ही विभाजित होकर निर्मित थी और विभाजन के बाद उसे ही पाकिस्तान के लिए संविधान बनाना था. बांग्लादेश को अपना संविधान 1972 में मिला, श्रीलंका को 1978 में तो अफ़ग़ानिस्तान को 2004 में ही संविधान मिल सका. भूटान और मालदीव को अपना पहला लोकतांत्रिक संविधान 2008 में मिला. नेपाल अभी 2015 के अपने नए संविधान के अनुसार पहला आम चुनाव कराने की प्रक्रिया में है. पाकिस्तान को, सैनिक शासन बार बार सहना पड़ा, नेपाल में राजशाही के खात्मे से लेकर नए संविधान के बन जाने तक अनगिनत उठापटक झेलने पड़े, श्रीलंका में लिट्टे विद्रोह और अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद का प्रकोप हुए. 

अपवादस्वरूप भारत को ही अपना संविधान आजादी के दो साल के भीतर ही 26 नवंबर 1949 को ही मिल गया और आज तक हम अपने उसी संविधान के अनुरूप देश को प्रगति के पथ पर ले कर चल रहे हैं. ध्यान से यदि भारत की गौरवशाली राजनीतिक परंपरा को देखा जाय तो भारत की यह उपलब्धि फिर अपवादस्वरूप नहीं लगती. भारत की विविधता को स्वर और उसके विकास को गति देना चुनौती तो थी पर जन जन पर अमिट प्रभाव वाले राष्ट्र नेता हमारे देश को उपलब्ध थे जिन्होंने समय के प्रश्न का सामना किया और प्रत्युत्तर में एक बेहतरीन समावेशी संविधान प्रदान किया. अफ्रीका के अपने राजनीतिक प्रयोगों से प्रसिद्ध और भारत के आखिरी व्यक्ति तक की पहुंच वाले महात्मा गांधी ने जहाँ आने वाले आजाद भारत के लिए संविधान की आवश्यकता पर ध्यान आकृष्ट कराया वहीं, मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में एक मसविदा तैयार भी कर लिया गया जिसके आधार पर ही जवाहरलाल नेहरू ने आज के संविधान के ऑब्जेवटिव रिजॉल्यूशन (उद्देश्य प्रस्ताव) की नींव रखी. अंबेडकर कानून के बेहतरीन जानकार तो थे ही संयोग से भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से जो कि हाशिये पर था उसका नेतृत्व भी करते थे. देश की नब्ज समझने वाले गाँधी भविष्य के भारत की नींव में समावेशी मूल्य सुरक्षित तो करना चाहते ही थे, देशहित में उन्होने अंबेडकर जी की प्रतिभा का लाभ संविधान निर्माण और उसके पश्चात बनी पहली आम सरकार जिसकी नए नवेले संविधान को जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी थी, उसमें उनकी भूमिका निश्चित करवायी. पटेल जैसे सशक्त नेता ने देश के नागरिकों के लिए मूल अधिकारों से जुड़ी समिति की अपनी भूमिका का निर्वहन किया. देश में मौलाना आजाद जैसे नेताओं की उपस्थिति ने सेकुलरिज्म की अपनी संवैधानिक नीति को अमली जामा पहनाने में योग दिया. भारत इन अर्थों में बेहद भाग्यशाली रहा कि स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र निर्माण के लिए उसके पास बेहतरीन राजनीतिक नेतृत्व उपलब्ध था. 

आज जबकि भारत देश में राजनीति जनता के लिए कमोबेश मनोरंजन का एक समानांतर विकल्प बनकर रह गई है, नेताओं के जुमले चुटकुले बन हवा में तैरने लगे हैं, गंभीर विमर्श टीवी के प्राइम समयों में किसी डेली सोप की तरहा सिमटते जा रहे हों, मुद्दे, जनता से नेता तक नहीं अपितु मीडिया के माध्यम से नेता से जनता तक पहुंचने लगे हों, ऐसे में विरासत में मिले सुदृढ़ संविधानवाद की हमें रक्षा करनी चाहिए और राजनीतिक सहभागिता के लिए मौजूदा नागरिक समाज को अभिनव प्रयास करने चाहिए. 

*लेखक राजनीतिक विश्लेषक है

भारतीय राष्ट्रवाद की विशिष्टता

डॉ.श्रीश पाठक


दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के काफी पहले सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप ने लगातार चलने वाले तीस वर्ष के युद्ध से जूझता रहा।  जर्मनी के वेस्टफेलिया क्षेत्र में आखिरकार एक शांति-संधि की गयी, जिसमें सभी पक्षों ने एक दूसरे की सीमाओं का आदर करने और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का संकल्प लिया। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की विश्व राजनीति इस क्षण से हमेशा के लिए बदल गयी। किसी राष्ट्र-राज्य के संप्रभु होने की अवधारणा का भी विकास हुआ और साथ ही ज्यों ज्यों यूरोप में साम्राज्यवाद के फलस्वरूप सम्पन्नता आती गयी अपने ही क्षेत्रीय-सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय पहचान में तब्दील कर उसे महानता का स्तर देकर राष्ट्रवाद की संकल्पना उपजती गयी। इस उत्कट राष्ट्रवाद ने यूरोप को प्रगति तो दी पर आगे चलकर विश्वयुद्धों का अविस्मरणीय दंश भी दिया।  उपनिवेशवाद के जवाब के फलस्वरूप उत्तर-औपनिवेशिक प्रयासों के तहत भारत जैसे राष्ट्रों ने भी राष्ट्रवाद की संकल्पना को अपनाकर सम्पूर्ण देश की विविधता के विखंडन को रोकने की कोशिश की। स्पेन के कैटेलोनिया सहित यूरोप में दो दर्जन से अधिक छोटे-बड़े क्षेत्र स्वतन्त्र राष्ट्र बन जाने का स्वप्न देख रहे हैं। ऐसे में भारत जो विभाजन के बाद बचे हिस्सों के साथ पाँच सौ से अधिक रियासतों के विलय पश्चात् स्वतंत्र भारत के वर्तमान स्वरुप में आया, अलगाववादी आंदोलन के उदाहरण सचमुच बेहद कम हैं और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को समय के साथ और भी मजबूती मिलती जा रही है। एक राष्ट्र के तौर पर महज सत्तर सालों में ही भारत की यह बेहद उल्लेखनीय उपलब्धि है।  


भारत में भानमती के कुनबे बहुत है । ये इसकी खूबसूरती है, पहचान भी और है इसकी मजबूती भी । अपने देश में जाने कितने देश बसते हैं । तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की आदतें, रस्में तरह-तरह की और तहजीबें तरह-तरह की । तरह-तरह के पकवान, तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह की बोलियाँ और तरह-तरह के त्यौहार ।अपना देश तो त्योहारों का देश है और भारत देश है मेलों का भी । हमारे यहाँ मंडी तो नहीं पर मेलों की रिवायत रही है । कोस-कोस पे पानी का स्वाद बदलता है और तीन-चार कोस पे बोली बदल जाती है और तकरीबन हर पंद्रह-बीस कोस बाद भारत में कोई न कोई मेले का रिवाज मिल जायेगा ।प्रसिद्द मेलों की बड़ी लम्बी फेहरिश्त है और कमोबेश पूरे भारत में है यह । मेले जो कभी हर महीने लगते हैं, कुछ बड़े मौसम-परिवर्तन पर लगते हैं और कुछ साल के अंतराल पर लगते हैं । इन सतरंगी मेलों में भांति-भांति के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, एक-दूसरे की खासियतें समझते हैं, जरूरतें साझा करते हैं, रिश्ते बनते हैं, नाटक, खेल देखते हैं, इसप्रकार मेले दरअसल स्थानीयता का उत्सव होते हैं । त्योहारों का भी मूलभूत दर्शन उत्सव ही है । कभी प्रकृति-परिवर्तन का उत्सव है, कभी संबंधों का उत्सव है, कभी फसल पकने का उत्सव है तो कभी आस्था का उत्सव है । आस-पास की प्रत्येक वस्तु की महत्ता समझना, हो रहे हर परिवर्तन का स्वागत करना सिखलाते हैं ये उत्सव, ये त्यौहार ।

भारत का राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद से मूलतः भिन्न है । पश्चिमी राष्ट्रवाद के हिसाब से चलते तो इस देश के जाने कितने विभाजन सहसा ही हो जाते और यकीन मानिए लोकतंत्र की राह को अपनाने वाला भारत लोकतंत्र के अंतर्गत आने वाले ‘आत्मनिर्णयन के अधिकार  की वज़ह से उन्हें शायद ना रोक पाता ना नाज़ायज ही ठहरा पाता..! पर स्वतंत्रता-संघर्ष के जमाने से ही लड़ते-भिड़ते हमारे युगनायकों ने भविष्य के भारत की यह तस्वीर भांप ली थी और उन्होंने राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण के मूलभूत मायने ही बदल दिए । भारतीय राष्ट्रवाद ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत पर चलता है । यह हेट्रोजेनेयटी  (विभिन्नता-विविधता) का आदर करता है जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद  होमोजेनेयटी  (समुत्पन्नता-समरूपता) पर आधारित है। हमारे देश के राष्ट्रवाद की करारी नींव में जो इटें जमी हैं वे सतरंगी हैं, वे एक रंग की नहीं हैं । इसलिए जैसे ही और जिस मात्रा में हम साम्प्रदायिक होते हैं, उतनी ही मात्रा में हम राष्ट्रवादी नहीं रह जाते । आँख मूंदकर हम पश्चिमी राष्ट्रों से तुलना करते हैं और उनके राष्ट्रवाद के मानकों से हम अपने सतरंगी समाज के बाशिंदों को चाहते हैं एक ही रंग में रंगना, यहीं चूक होती है । 

भानमती के भिन्न-भिन्न कुनबों से भारत एक राष्ट्र बन सका है तो राष्ट्रवाद की स्वदेशी संकल्पना से ही । राष्ट्रवाद की यह स्वदेशी संकल्पना ‘अनेकता में एकता’ की चाशनी में भीगी-पगी है और आधुनिक राष्ट्रवाद के मानकों को भी संतुष्ट करती है । समझने की जरुरत है कि –भारत की एकता, ‘एक-जैसे’ होने से नहीं हैं बल्कि भारत की एकता, अनेकताओं की मोतियों को एक सूत्र में जोड़ने वाली भारतीय राष्ट्रप्रेम से उर्जा पाती है और निखरती जाती है । जिस क्षण से हमने भारत की विविधता को मान देना समाप्त किया, हमारा राष्ट्रीय कलेवर, सारा ताना-बाना बिखर जायेगा । चर्चिल जैसे लोग हमारे राष्ट्रवाद में अन्तर्निहित कमजोरी देखते थे, मजाक उड़ाते थे, कहते थे-आजादी के पंद्रह साल भीतर ही यह कुनबा बिखर जाएगा, हमने उन्हें गलत साबित किया; हमने जता दिया कि पश्चिमी राष्ट्रवाद जिसकी विश्व कवि रवीन्द्र खुलकर आलोचना करते थे, उस राष्ट्रवाद से विश्वयुद्ध उपजते हैं, यूरोप में छोटे-बड़े कई विभाजन होते हैं, कई छोटे राष्ट्र उभरते हैं, पर भारतीय राष्ट्रवाद से अलग-अलग, तरह-तरह के लोग भी साथ मिलजुलकर उसकी अस्मिता अक्षुण्ण रखते हैं । 

भारतीय राष्ट्रवाद सफल हो सका, अपनी परम्पराओं को निभाने की जीवटता से । अलग-अलग धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, नृजाति, प्रजाति, समुदाय, खान-पान होने के बावजूद सभी लोग उत्साह से सभी के त्योहारों में शामिल होते हैं । सभी उत्सव धूमधाम से मनाये जाते हैं । सरकारें भी इन त्योहारों को मनाती हैं और अपना समसामयिक सहयोग देती हैं । फिर समय-समय पर जगह-जगह आयोजित मेले, पारस्परिक मेलजोल का खूब मौका देते है । भारतीय रेल ने भारतीय राष्ट्रवाद के सफ़र में निर्णायक अप्रतिम  योगदान दिया है और यह जारी है । ऐसे समय में जब राष्ट्रवाद की जननी यूरोप स्वयं में राष्ट्रवाद की अपनी सैंद्धांतिक कमी का नुकसान उठाने की रह पर है, भारतीय राष्ट्रवाद की इस विविधता में एकता की खूबी को समझकर हमें उसे सराहने और अपनाने की आवश्यकता है।  यह एक विशिष्ट उपलब्धि है हमारे पास जिसे हमारे स्वतंत्रता-संघर्ष के नायकों ने प्रदान किया और भारतीय जनों ने मिलकर उसे निभाया है। ऐसी कोई भी कोशिश जो भारत की विविधता पर अंकुश लगाती है, उसका विरोध एकस्वर में समवेत देना होगा।  




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