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Thursday, November 22, 2018

राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर मालदीव

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में मोहम्मद सोलिह के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के साथ ही मालदीव इस दशक के अपने सबसे बड़े राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर पहुंच गया. लोकतांत्रिक संविधान के अनुरूप चुने गये पहले राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद द्वारा शपथ लेने के तीन साल के भीतर ही, वर्ष 2012 में, त्यागपत्र देने से शुरू हुए राजनीतिक संकट ने महज सवा लाख आबादी वाले इस खूबसूरत द्वीपीय देश को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में डाल दिया था. मोहम्मद नशीद ने राष्ट्रपति रहते हुए देश की पर्यटन नीति में बदलाव किये थे.

इनसे मौमून अब्दुल गयूम और उनके भाई अब्दुल्ला यामीन के आर्थिक हितों को ठेस लगी थी. नवम्बर, 2013 में गयूम के प्रयासों से यामीन ने राष्ट्रपति की कुर्सी अपने नाम की. तबसे यामीन और नशीद के बीच राजनीतिक संघर्ष जारी था. उस समय हिंदमहासागर में चीन स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति के तहत बड़े कदम उठा रहा था.


तब, गयूम के बाद नशीद भी चीन के सामरिक व आर्थिक आकर्षण में आने को उद्यत थे. वर्ष 2011 हुए सत्रहवें दक्षेस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मालदीव में आने के एक दिन पूर्व चीनी दूतावास का उद्घाटन करने गये मोहम्मद नशीद की चीन से नजदीकी भारत को रास नहीं आयी थी.

बदलते वैश्विक परिदृश्य में चीन अपनी ओबोर नीति से अमेरिका को चुनौती पेश करने लगा, वहीं अमेरिका ने भी हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र के संयुक्त सामरिक महत्व को देखते हुए जापान, आस्ट्रेलिया व भारत के साथ एक चतुष्क (क्वाड) की सामरिक योजना रची.

महज 297 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले देश मालदीव के राजनीतिक संकट में अब भारत-चीन और अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के आयाम शामिल हो गये, जिसने समूचे हिंद महासागर क्षेत्र की राजनीतिक स्थिरता में हिलोेर भर दिया. पारंपरिक रूप से भारत की भूमिका, मालदीव में निर्णायक रही थी, किंतु यामीन के सत्ता में आने पर चीन को वरीयता मिलती गयी.

इसी तनातनी में, नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में अपना मालदीव दौरा रद्द कर दिया था. अगस्त, 2017 में तीन बड़े चीनी जहाजी बेड़े ने माले में अपना डेरा लगाया था. उसी साल दिसंबर में मालदीव ने चीन के साथ ‘मुक्त व्यापार संधि’ भी की. मालदीव के कुल राष्ट्रीय ऋण में तकरीबन 70 प्रतिशत हिस्सा अकेले चीन का था. यामीन का मालदीव चीन के इशारों पर काम कर रहा था और भारत इस देश की प्राथमिकताओं से अनुपस्थित था.

मालदीव के लिए यह दशक चरमपंथी इस्लाम के उभार का भी रहा. चीन की कठपुतली बने यामीन अपने एकतांत्रिक निर्णयों से मालदीव की लोकतांत्रिक अस्मिता को तार-तार किये जा रहे थे.

निवर्तमान राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद राजनीतिक बंदी बना दिये गये थे और अंततः देश से निर्वासित थे. इस बीच यामीन की अपने भाई गयूम से इस कदर ठन गयी कि गयूम ने नशीद से हाथ मिला लिया. गयूम भी आखिरकार जेल भेज दिये गये.

सुप्रीम कोर्ट ने जब इस साल फरवरी में मोहम्मद नशीद सहित नौ राजनीतिक बंदियों को रिहा करने और 12 सांसदों की सदस्यता बहाल करने का निर्देश दिया तो अल्पमत और महाभियोग के खतरे को भांपते हुए अब्दुल्ला यामीन ने देश में आपातकाल लागू कर दिया और सितंबर में राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा कर दी. उस वक्त नशीद ने भारत और अमेरिका से आवश्यक हस्तक्षेप कर मालदीव में लोकतंत्र बचाने की गुहार की थी. चीन ने तब इसे आंतरिक संकट कहकर टिप्पणी की थी.

सेना और पुलिस यामीन के इशारे पर काम कर रही थी, वहीं चुनाव आयोग, न्यायपालिका और नागरिक समाज लोकतांत्रिक पथ पर प्रशस्त हो चुनौतियों का सामना कर रहे थे.

मालदीव की आम जनता ने इस संघर्ष को मुकम्मल बनाया, जब माह सितंबंर में रिकॉर्ड 89.2 प्रतिशत मतदान कर नशीद, गयूम और अन्य दलों के इब्राहिम सोलिह के गठबंधन को जीत प्रदान की और अब्दुल्ला यामीन को हरा दिया.

हालांकि, यामीन ने चुनावी परिणामों पर प्रश्न उठाया, लेकिन अमेरिका की कड़ी चेतावनी के बाद सबकुछ सामान्य हो गया. नयी सरकार ने आते ही चीन के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते सहित अन्य आर्थिक समझौतों के पुनरीक्षण की घोषणा कर दी है. अंततः मालदीव में, भारत को चीन पर एक निर्णायक बढ़त मिल गयी है.

भूटान, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव के हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से, दक्षिण एशिया में चीन व भारत की रस्साकसी स्पष्ट दिखती है, जिसके क्षेत्रीय, महासागरीय व वैश्विक संदर्भ हैं.

फिलहाल, मालदीव की नयी सरकार के समक्ष कई चुनौतियां हैं- देश की आर्थिक स्थिति सुधारना, इस्लामी चरमपंथ से निपटना, चीन से समझौतों में संतुलन लाना और गठबंधन सरकार में अंतर्निहित वैचारिक भेदों के बीच मध्यम मार्ग निकालना. अब्दुल गयूम, मोहम्मद नशीद और गठबंधन के अन्य दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति सोलिह को एक संगति बिठानी होगी, जो आसान नहीं होगा. लेकिन, मालदीव में अगले वर्ष होने वाले संसदीय चुनावों में नागरिक-समाज की प्रतिबद्धता को देखते हुए यह शुभाशा की जा सकती है कि यह खूबसूरत द्वीप स्वाभाविक राजनीतिक स्थिरता प्राप्त करने में सफल होगा.

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