डॉ.
श्रीश
पाठक
दुबई
में राजनीतिक रूप से स्वनिर्वासित
जीवन जी रहे पाकिस्तान के
भूतपूर्व सैनिक तानाशाह और
राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ
ने गत शुक्रवार (१०.११.१७)
को
विडिओ टेलीकांफ्रेंसिंग के
जरिये हुई एक प्रेसवार्ता
में एक बार फिर पाकिस्तान
लौटकर सक्रिय राजनीति में
परिभाग की अपनी मंशा जताई है.
उनका
कहना है कि वे सत्तारुढ़
‘पाकिस्तान मुस्लिम लींग
(नवाज़)’
और
पिछली बार सरकार बनाने वाली
‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’
को देश को बर्बाद नहीं करने
देंगे.
बेनजीर
भुट्टो हत्या मामले में न्यायालय
ने मुशर्रफ को राजद्रोह का
दोषी और भगौड़ा करार दिया था.
न्यायालय
और नागरिक सरकार से काफी
जद्दोजहद के बाद आखिरकार
चिकित्सा का कारण बताने पर
उन्हें मार्च २०१६ में दुबई
जाने की इजाज़त मिली.
तब
से मुशर्रफ ने कई बार देश लौटकर
राजनीति से देश सेवा करने की
बात दोहराई है पर कभी सुरक्षा
कारणों से अथवा कभी किसी वजह
से यह टलता रहा है.
इस
बार की उनकी मंशा में पुरी
तैयारी भी दिख रही है.
उन्होंने
कुल तेईस अन्य दलों के साथ
मिलकर अपने नेतृत्व में एक
महागठबंधन बनाने की भी घोषणा
की है,
जिसका
नाम ‘पाकिस्तान अवामी एतेहाद’
रखा है और जिसका मुख्यालय
इस्लामाबाद में होगा.
हालांकि
महागठबंधन के ये दल,
देश
के कोई बड़े प्रभाव वाले दल
नहीं हैं,
किन्तु
मुशर्रफ के अपने दल ‘आल पाकिस्तान
मुस्लिम लींग’ सरीखे ही
यत्र-तत्र
प्रभाव अवश्य ही रखते हैं.
नवाज़
शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ शरीफ
ने मुशर्रफ़ की इस घोषणा पर
अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में
उन्हें निशान-ए-
इबरत
(कलंक)
की
संज्ञा दे डाली है.
दिल्ली
की पैदाइश और लखनऊ के नौनिहाल
मुशर्रफ पाकिस्तानी राजनीति
के माहिर खिलाड़ी हैं और इस
वक्त पाकिस्तान के किसी भी
प्रभावी राजनीतिक हस्ती से
केवल उम्र में ही नहीं बल्कि
अनुभव में भी बीस पड़ते हैं.
उनकी
हालिया तैयारी एक ऐसे समय में
है जब पनामा पेपर्स विवाद ने
नवाज़ शरीफ को उनके पद से हटा
दिया है और शरीफ परिवार पर
भ्रष्टाचार के आरोप में न्यायलय
का डंडा अभी और चलने को है.
इस
बीच नवाज़ शरीफ के बाद दल में
दूसरा प्रमुख चेहरा समझी जाने
वाली उनकी बड़बोली बेटी मरियम
नवाज़ शरीफ ने परिवार के भीतर
ही राजनीतिक उत्तराधिकार की
बहस को बेवक्त ही सतह पर ला
दिया है.
नवाज़
शरीफ के ही चुने हुए सेना प्रमुख
मुशर्रफ ने १९९९ में सैनिक
तख्तापलट करते हुए शरीफ सरकार
को अपदस्थ कर दिया था और फिर
आपातकाल के बाद फिर चुनाव
कराकर स्वयं ही देश के राष्ट्रपति
बन बैठे थे.
मुशर्रफ
का कार्यकाल यों तो बेहद ही
विवादों से भरा रहा है पर कारगिल
के इस मास्टरमाइंड ने अपने
देश पाकिस्तान को ९/११
की घटना के बाद अमेरिकी गुस्से
से न केवल बचाया था बल्कि
पाकिस्तानी पारम्परिक शक्ति-
प्रतिष्ठान
(एस्टाब्लिशमेंट)
की
पुरानी नीति में सहसा बदलाव
लाते हुए पाकिस्तानी सेना को
अफ़गानिस्तान में तालिबान
के विरुद्ध झोंककर अमेरिकी
सौगात भी बटोरी थी.
पाकिस्तान
में यों तो लोकतंत्र है पर
१९४७ में अपने अस्तित्व में
आने बाद से ही औपनिवेशिक विरासत
में मिले मजबूत सांगठनिक
नौकरशाही और सेना,
धार्मिक
कट्टरता का ही नीति निर्णयन
और क्रियान्यवन में हाथ रहा
है.
बार-बार
उपजते राजनीतिक संकट और वैश्विक
पटल पर शीत युद्ध की आवक ने
इसमें अमेरिकी दखलंदाजी भी
जुड़ गयी.
यह
सब मिलकर ही पाकिस्तान का
शक्तिशाली शक्ति-प्रतिष्ठान
निर्मित करते हैं.
अपनी
तानाशाही में मुशर्रफ ने
पाकिस्तान को वैश्विक पटल पर
तो सुरक्षित रखा परन्तु लोकतंत्र
की कमर ही तोड़ दी.
वैश्विक
परिदृश्य बदला,
पाकिस्तानी
नागरिक समाज ने एकजुट होकर
न्यायपालिका के साथ मिलकर
मुशर्रफ को लोकतान्त्रिक
दिखावा करने को मजबूर कर दिया.
२००७
में निर्वासन से नवाज़ शरीफ
भी आये और बेनजीर भुट्टो भी
वापस लौटीं.
पाकिस्तान
में चुनावों की घोषणा हुई और
बेनजीर भुट्टो की निर्मम हत्या
के पश्चात उनके दल ‘पाकिस्तान
पीपुल्स पार्टी’ ने २००८ में
सरकार बनाई.
पांच
साल के बाद पाकिस्तान ने अपने
इतिहास का पहला शांतिपूर्ण
लोकतान्त्रिक सत्ता-परिवर्तन
देखा और नवाज़ शरीफ के दल ने
जून,
२०१३
में पूर्ण बहुमत की सरकार
बनाई.
कतिपय
अपवादों को छोड़ दें तो इन दस
सालों में मुशर्रफ पाकिस्तानी
राजनीति में अप्रासंगिक रहे.
लेकिन
पिछली ‘पाकिस्तान पीपुल्स
पार्टी’ की सरकार ने जहाँ
पाकिस्तानी पारम्परिक
शक्ति-प्रतिष्ठान
के समक्ष समझौते करती रही,
वहीं
‘पाकिस्तान मुस्लिम लींग
(नवाज़)’
की
मौजूदा सरकार ने जब तब नागरिक
सरकार की ताकत का एहसास सेना
प्रशासन को कराया है.
पाकिस्तानी
पारम्परिक शक्ति-प्रतिष्ठान
जहाँ एक कमजोर नागरिक सरकार
के साथ लोकतांत्रिक छवि बनाते
हुए मनमाना करते रहना चाहते
हैं,
वहीं
पाकिस्तान के पारम्परिक मित्र
अमेरिका के लिए भी वांछित
स्थिति यही रही है कि एक ऐसा
शक्ति प्रतिष्ठान पाकिस्तान
में शक्तिशाली रहे जो दक्षिण
एशियाई मामलों में अमेरिकी
हितों के अनुरूप त्वरित निर्णय
ले सके.
किसी
भी तानाशाह की सत्ता का अंत
पाकिस्तान में सुखद नहीं रहा,
पर
यह मुशर्रफ की राजनीतिक कुशलता
ही है कि वह अब भी राजनीतिक
रूप से सक्रिय होने की कोशिश
कर रहे हैं.
इसमें
यकीनन उनकी पाकिस्तानी सेना
और शक्ति-प्रतिष्ठान
में पकड़ का अंदाजा लगता है.
संभव
है कि शक्ति-प्रतिष्ठान
उनमें एक राजनीतिक विकल्प
ढूंढ रही हो.
गौरतलब
है कि मुशर्रफ ने अपने इस
टेलीकांफ्रेंसिंग प्रेसवार्ता
में यह भी कहा कि यदि चुनाव
पाकिस्तान की समस्याओं का हल
नहीं देते हैं तो देश को वापस
उसकी रह पर लाने के लिए दुसरे
उपाय किये जाने चाहिए.
महागठबंधन
बनाकर उन्होंने वरीयता में
चुनाव को ही रखा है किन्तु
राजनीतिक सौदेबाजी के जादूगर
मुशर्रफ के इरादे भांपना आसान
नहीं है.
पाकिस्तान
में अगले आम चुनाव २०१८ में
होने हैं.
पिछले
दस साल में सत्ता दो ही बड़े दल
‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’
और ‘पाकिस्तान अवामी लींग
(नवाज़)’
के
पास रही है.
दक्षिण-पारम्परिक
विचारधारा वाला नवाज़ के दल
का गढ़-राज्य
देश का सबसे धनी राज्य पंजाब
है वहीं देश का दूसरा महत्वपूर्ण
राज्य सिंध लोकतान्त्रिक
समाजवादी विचारधारा वाला दल
पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी
के प्रभावों का राज्य है.
सिंध
के पड़ोस में बलूचिस्तान राज्य
है जो आतंकग्रस्त है.
अफ़ग़ानिस्तान
सीमा से लगा फाटा (फेडरली
एडमिनिस्टर्ड ट्राईबल एरियाज
),
खैबर
पख्तुनखवा और गिलगित-बाल्टीस्तान
और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर
भी अशांत क्षेत्र हैं;
यहाँ
कोई एक दल प्रभाव की स्थिति
में नहीं है.
ऐसे
में मुशर्रफ के महागठबंधन को
हलके में लेना भूल हो सकती है.
मौजूदा
कौमी असेम्बली (निम्न
सदन)
में
पाकिस्तानी क्रिकेटर का दल
‘पाकिस्तान तहरीके इंसाफ
(पीटीआई)’
दुसरे
नंबर का दल है और खैबर पख्तुनखवा
राज्य में इसी दल की सरकार है.
मुशर्रफ
गाहे-बगाहे
इमरान खान की प्रशंसा करते
रहते हैं और उन्होंने अपने
प्रेसवार्ता में उनके दल से
अपील की है कि उनके महागठबंधन
को समर्थन दें.
नवाज़
के दल से अलग हुई ‘पाकिस्तान
मुस्लिम लींग (क्यू)’
ने
पहले ही महागठबंधन को अपना
समर्थन दे दिया है.
सिंध
राज्य का कराची,
पाकिस्तान
का वाणिज्यिक शहर है और यह
मुहाजिर राजनीति का अखाड़ा भी
है.
विभाजन
के पश्चात् पाकिस्तान आये
मुस्लिम मुहाजिर कहलाये जो
अमूमन उर्दू बोलते हैं और
जिन्हें पाकिस्तान में अपने
लिए खासा जद्दोजहद करनी पड़ी.
मुशर्रफ
स्वयं मुहाजिर हैं और मुहाजिरों
का सबसे बड़ा दल जो छात्र राजनीति
से निकलकर आया वह ‘मुत्तहिदा
कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम)’
है
जिसे फ़िलहाल लन्दन में रह रहे
अल्ताफ हुसैन ने खड़ा किया था.
पाकिस्तान
में एमक्यूएम को फारुक सत्तार
ने सम्हाला था,
जो
अगस्त २०१६ में सत्तार के ही
नेतृत्व में ‘मुत्तहिदा कौमी
मूवमेंट (पाकिस्तान)’
के
नाम से एक नया दल बन गया.
अल्ताफ
हुसैन के ही दल से कराची के
मेयर रहे तेज-तर्रार
सैयद मुस्तफा कमाल ने भी मार्च
२०१६ में अलग होकर एक नया दल
‘पाक सरज़मीन पार्टी’ बना ली
और अल्ताफ हुसैन सिंधी राजनीति
में फिलहाल अलग-थलग
पड़ गए हैं.
पिछले
दिनों पाकिस्तानी शक्ति-प्रतिष्ठान
के प्रभाव में फारुक सत्तार
और सैयद मुस्तफा कमाल के दल
ने एक गठबंधन बनाने की घोषणा
की.
मुशर्रफ
ने इसे अप्राकृतिक गठबंधन
कहा पर मुहाजिरी एकता पर संतोष
भी व्यक्त किया.
फ़िलहाल
यह गठबंधन बन नहीं सका है और
काफी नाटकीय ढंग से सहयोग की
गुंजायश बनी हुई है.
मुशर्रफ
ने बोल टीवी पर अपने साप्ताहिक
साक्षात्कार कार्यक्रम से
और अपने बयानों से पूरे साल
पाकिस्तान में सुर्खियाँ
बटोरी हैं और आगामी आम चुनाव
के मद्देनज़र उन्होंने अपनी
कमर कस ली है.
आने
वाले समय में यदि मुशर्रफ
पाकिस्तान लौटते हैं तो निश्चित
ही वह एक प्रभावी कोण बनकर
उभरेंगे.
मुशर्रफ
को पाकिस्तानी न्यायालयों
पर सहसा विश्वास हो आया है और
वे देश वापस आकर अपने खिलाफ
सभी मामलों का सामना करने को
तैयार हैं.
मुशर्रफ
के मुताबिक पहले न्यायालय
नवाज़ के इशारे पर चल रही थीं,
पर
अब तो नवाज़ को ही न्यायलय ने
सबक दे दिया है.
पाकिस्तान
की राजनीति में यदि मुशर्रफ
फिर उभरते हैं तो इससे पाकिस्तान
के भारत और अमेरिका से संबंधों
पर तो असर होगा ही,
क्षेत्रीय
राजनीतिक समीकरणों में भी
सुगबुगाहट कुछ कम न रहेगी.