साभार: दिल्ली की सेल्फी |
जटिल परतदार समस्याओं के समाधान भारतीय संविधान में नीति निदेशक तत्वों में रखे गए हैं। नीति निदेशक तत्व सरकार व समाज के लिए बाध्यकारी नहीं होते किन्तु उन तत्वों का नीति निदेशक तत्वों में होना यह बताता है कि वे तत्व संविधाननिर्माताओं के भविष्य के भारत में एक अनिवार्य तत्व के रूप में हैं, इसका सीधा मतलब यह है कि वे सभी तत्व जो नीति निदेशक तत्वों की श्रेणी में हैं, उन्हें भविष्य में कभी न कभी भारत की जमीनी हकीकत में उतारना ही है। उनमें से एक तत्व ‘समान नागरिक संहिता’ भी है।
आइये पहले समझते हैं कि क्या है यह ‘समान नागरिक संहिता’ ?
एक व्यक्ति के जीवन के कई आयाम होते हैं और वे सभी आयाम दूसरे व्यक्तियों को भी प्रभावित करते हैं। राजनीतिक जीवन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन में भी दायित्व और उत्तरदायित्व का तत्व राजनीतिक और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है जिससे अंततः किसी राष्ट्र का सर्वांगीण विकास संभव होता है। बहुधा दायित्व और कर्तव्य के मार्गदर्शन के लिए एक-दूसरे पर बनती निर्भरता अपनी भूमिका निभाती है, किन्तु दायित्व-निर्वहन के न होने की स्थति में अथवा न्यून होने की स्थिति में उत्तरदायित्व का प्रश्न खड़ा होता है। कानून द्वारा निर्धारित उत्तरदायित्व की जाँच-परख तो कानूनी रूप से संभव है किन्तु मानव जीवन के वे व्यवहार जो समाज और धर्म द्वारा सामान्यतः निर्धारित होते हैं, वहाँ कानून-व्यवस्था असहाय हो जाती है। यदि किसी उचित रीति से मानव-जीवन के मूलभूत व्यवहारों में ‘दायित्व और उत्तरदायित्व’ की एकरूप नीति बनाई जा सके, जिसके आधार पर कानून व्यवस्था भी उन व्यवहारों का मूलाधिकार व मानवीय आधार पर नियमन व निर्वहन करा सके, तो उस व्यवस्था को ‘समान नागरिक संहिता पर आधारित व्यवस्था’ कहेंगे।
समान नागरिक संहिता और धर्म का पेंच
राजनीति की संस्थाओं का जन्म मानव-विकास की हालिया उपलब्धि है। इन संस्थाओं के जन्म के बहुत पहले यदि मानव विकास के रुपहले सोपान चढ़ सका तो उसमें ‘धर्म’ की भूमिका सबसे अहम् है। सभी प्रकार की आधुनिक राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक-आर्थिक आदि संस्थाओं के विकास के पहले का स्पेस ‘धर्म’ की विभिन्न संरचनाओं के द्वारा भरा गया। इसलिए ही मानव सभ्यताओं के विकास के प्रत्येक स्थलों पर धर्म की प्रभावी उपस्थिति मिलती है। धर्म के महत्त्व से किसी भी आधुनिक विचारक को इंकार नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म ने वह सभी शून्य भरे जहाँ विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र अब आधुनिक समय में कुशलतापूर्वक कार्यरत हैं। इसप्रकार से देखें तो आधुनिक समस्त उपलब्धियाँ विश्व के प्रत्येक धर्मों की ऋणी हैं, क्योंकि धर्मों के द्वारा बनाये गए प्रावधानों के क्रमशः सुधार का नाम ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान है। किसी एक भूगोल में रहने वाली मानव जाति अपने-अपने परिवेश की उत्तरजीविता (Survival) के अनुरूप जीवन के कतिपय अभ्यासों (Practices) को दोहराती है, जो कालांतर में परम्पराएँ, मूल्यों, रूढ़ियाँ, उत्सव, सभ्यताओं में बदलती हैं। एक अदृश्य आस्था धर्म बनकर इन सभी survival facts को जोड़े चलती है। विज्ञान के विकास ने विश्व के प्रत्येक भूगोल को परस्पर जोड़ दिया है। अब किसी राष्ट्र के भीतर इसलिए ही विभिन्न प्रकार के समाज मिलते हैं जो विभिन्न धर्मों को मानने वाले हो सकते हैं। विभिन्न धर्मों मानने सामाजिक-व्यवहार निश्चित ही भिन्न होगा। यहाँ किसी एक धर्म के व्यवहार को श्रेष्ठ अथवा निम्न नहीं कहा जा सकता क्योंकि सभी धर्म अपने-अपने भूगोल और उत्तरजीविता के तथ्यों से निर्मित हुए हैं। इसी के साथ ही आधुनिक राजनीति जब राज्य के भीतर रहने वाले समुदायों के सामाजिक-व्यवहारों के लिए ‘दायित्व व उत्तरदायित्व’ को तय करने की कोशिश करती है तो धर्म और राजनीति के मध्य एक द्वंद प्रारम्भ हो जाता है।
यहाँ यह सवाल भी मौजू है कि आखिर क्यों राज्य, धर्म के पारंपरिक स्कोप में दखल देना चाहता है? दरअसल, राज्य के चार मूलभूत अंग संप्रभुता (Sovereignty), जनता, सरकार और भू-भाग हैं। इन चारों अंगों को केवल ‘राष्ट्रीयता’ ही जोड़कर एक साथ रख सकती है। राष्ट्रीयता वह सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता है जिससे किसी एक निश्चित भू-भाग के व्यक्ति अपना जुड़ाव महसूस करते हैं। लेकिन व्यक्ति की सामाजिक-धार्मिक विभिन्नता अक्सर ‘संघर्ष’ की स्थिति पैदा करती है तथा यह विभिन्नता व्यक्ति के उस मौलिक अधिकारों के संरक्षण में भी आड़े आती है जिसकी बुनियाद पर राज्य व संविधान टिके होते हैं। यहीं राज्य, धर्म के परम्परागत क्षेत्र में प्रवेश करने को बाध्य हो जाता है। ‘आधुनिक विज्ञान व जीवन-शैली’ चूँकि एक आधुनिक राज्य के निश्चित तथ्य है तो राज्य की यह दखलंदाजी तर्कसंगत भी हो जाती है। संवैधानिक युग में ‘मौलिक अधिकार’ सार्वजनिक जीवन के सर्वोच्च मूल्य हैं, जिनका संरक्षण देश का सर्वोच्च न्यायालय स्वयं करता है।
पेंच कहाँ ?
कानून शून्य में नहीं बनते। उनके स्रोतों में मूल्य, अभिसमय, परम्पराएँ, धर्म भी हैं। इसलिए ही भारत का संविधान अपने नागरिकों को ‘धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार (Art. 25)’ भी देता है और यह भारत की राजनीति को ‘पंथनिरपेक्षता (Secularism)’ का स्वरुप भी देता है। इसलिए ‘समान नागरिक संहिता’ की स्थिति तबतक नहीं बन सकती जबतक भारत में रहने वाले सभी धार्मिक समुदायों में इसके लिए एक सर्वमान्य स्वीकृति न हो। सर्वमान्य स्वीकृति के लिए लगभग भारत में रहने वाले सभी धार्मिक समुदायों की ‘आधुनिक विज्ञान व जीवन-शैली’ के प्रति बराबर जागरूकता (जो कि उचित शिक्षा से सम्भव है ) और उनका एक सामान्य मानकीय जीवन स्तर (यह, आर्थिक विकास से सम्भव है) आवश्यक है। जिस देश ने शताब्दियों की टूट-फुट और गुलामी देखी हो, वहाँ इस प्रकार की प्रगति के लिए कुछ वक्त की दरकार होती है, इसलिए हमारे देश के संविधाननिर्माताओं ने ‘समान नागरिक संहिता’ को 1950 से ही लागू न कर उसे भविष्य के लिए ‘नीति-निदेशक तत्वों’ में डालकर छोड़ दिया।
क्या हमारे देश में भी "समान नागरिक संहिता" लागू होनी चाहिए?
ऊपर के विश्लेषण के पश्चात् अब इस प्रश्न का एक वाक्य में उत्तर होगा कि यदि भारत में रहने वाले सभी धार्मिक समुदायों की ‘आधुनिक विज्ञान व जीवन-शैली’ के प्रति बराबर जागरूकता और उनका एक सामान्य मानकीय जीवन स्तर वर्तमान समय तक हो चुका हो तो यकीनन समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। सरकारी आंकड़ें ही बताते हैं कि ऐसी स्थिति से काफी दूर हैं, अभी हम। इस स्थिति के पहले यदि समान नागरिक संहिता को मुद्दा बनाया जाता है तो यह केवल ‘अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक वोटबैंक’ के लोभ में राजनीतिक दलों द्वारा फैलाया गया कोलाहल ही है।