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Saturday, July 7, 2018

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों

हकीकत: 1964 

 डॉ.श्रीश पाठक 

दो-दो भयानक महायुद्धों वाली शताब्दी अपने छठे दशक में पहुँच रही थी। शीत युद्ध की लू चल रही थी जरूर,  पर लगता था कि विश्व अब वैश्विक विनाश की ओर फिर नहीं  बढ़ेगा। दुनिया के कई देश आज़ादी की हवा का स्वाद चख रहे थे और स्वयं को इस दुविधा में पा रहे थे कि लोकतंत्र के नारे के साथ ब्रितानी विरासत ढोते अमेरिका के कैम्प में जगह बनाई जाय अथवा समाजवाद के नारे के साथ मोटाते सोवियत रूस का दामन पकड़ा जाए। ऐसे में एक तीसरे सम्मानजनक विकल्प के साथ सद्यस्वतंत्र राष्ट्र भारत सज्ज हो कह रहा था कि साथ मिलकर एक नवीन राजनीतिक-आर्थिक वैश्विक क्रम की स्थापना सम्भव है। इस विकल्प में किसी भी कैम्प में जुड़ने की बाध्यता नहीं थी, कोई प्रायोजित शत्रुता मोल लेने की आवश्यकता नहीं थी और सबसे बड़ी बात दोनों ही कैम्प के देशों के साथ सहयोग और विकास का जरिया खुला हुआ था। एक ऐसा समय जब लग रहा था कि भारत का कुशल नेतृत्व विश्व में शांति और समानता स्थापित करने में एक प्रमुख कारण बन सकता है। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता दुनिया में नए स्तर को स्पर्श कर रही थी तो सहसा हिंदी के भाई चीनी ने भारत पर अकारण ही आक्रमण कर दिया।  

आज़ादी के साथ ही विभाजन का दंश झेलने के बाद फिर उसी साल पाकिस्तान से युद्ध में भारत ने जीत हासिल की थी। साठ का दशक आते-आते प्रधानमंत्री सहित समूचे राजनीतिक नेतृत्व एवं सेना का मनोबल अपने चरम पर था। विदेश नीति में एक भौगोलिक रूप से इतने बड़े पड़ोसी चीन का महत्त्व नेहरू नज़रअंदाज नहीं कर सकते थे तो उन्होंने चीन की वैश्विक पटल पर हर संभव मदद की, संयुक्त राष्ट्र के स्थाई सुरक्षा परिषद में सदस्यता तक को अनुमोदित किया । लेकिन शांतिप्रिय गाँधी के देश को युद्धप्रिय माओ के देश ने आख़िरकार धोखा दे ही दिया। देश ने आज़ादी के बाद का पहला और आख़िरी पराजय देखा। नेहरू चल बसे। बागडोर गाँधीवादी लालबहादुर शास्त्री के हाथों में आयी जो ‘जय जवान, जय किसान’ के प्रभावी नारे के साथ एक तरफ सीमा-सुरक्षा को लेकर चौकस थे वहीं देशव्यापी अनाज संकट से उन दिनों जूझ रहे थे। पराजित जर्मनी को तानाशाह हिटलर मिला तो उसने दूसरे बड़े महायुद्ध की पृष्ठभूमि लिख दी; अपने देश भारत ने अधूरी तैयारियों के साथ ही सही लोकतंत्र का हाथ थामा था और संयोग से सादगी की प्रतिमूर्ति शास्त्री जी देश की बागडोर सम्हाल रहे थे, जिन्होंने 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए दूसरे युद्ध में भारत को विजयश्री दिला ही दी। लेकिन चीन से हार के बाद देश का माहौल दैन्यभाव से भरा था। आज़ाद भारत पराजय का दाग लेकर नहीं जी सकता था। 

इसी बीच निर्देशक चेतन आनंद के नए-नवेले प्रोडक्शन हाउस हिमालया फिल्म्स ने चीनी-आक्रमण त्रासदी के एक नेपथ्य घटना को आधार बनाते हुए 1964 में जो फिल्म बनाई वह भारतीय सिने-इतिहास की पहली यथार्थपरक युद्ध फिल्म बनी: हकीकत। इस फिल्म को मानो एक अंडरटोन संदेश के लिए बनाया गया था। उस संदेश को निबाहने वाला पात्र था- एक छोटा लद्दाखी लड़का-सोनम। फिल्म के दूसरे पात्रों को निभाने वाले ढेरों कलाकारों  के असल नाम मिल जाते हैं पर इस छोटे से लड़के का पात्र किसने निभाया, उस बालकलाकार का नाम मुझे नहीं मिला। इसे क्या कहें, इससे बालकलाकारों के प्रति हमारी उदासीनता का परिचय मिलता है। सोनम, लद्दाख की खूबसूरत वादी में रहता है अपनी बहन अनग्मो और अपनी माँ के साथ। फ़ौज में शामिल होने की उसकी मंशा है सो कैप्टन बहादुर सिंह के साथ ड्रिल की ट्रेनिंग लेता है। भारतीय सेना चीनी आक्रमण में पीछे आने को मजबूर हुई थी तो उसी आलोक में निर्देशक ने कप्तान बहादुर सिंह से , सोनम को  बुजदिली के खिलाफ पाठ पढ़ाता दिखाया है। चीनी आक्रमण के साथ ही जब भारतीय चौकियाँ एक के बाद एक चीनी गिरफ्त में आने लगती हैं तो सोनम अपनी बहन अनग्मो के साथ कैप्टन बहादुर सिंह की चौकी को सेना की एक सूचना देने पहुँचता है। अपनी बहन अनग्मो और कैप्टन बहादुर सिंह सहित भारतीय जवानों की मार्मिक शहादत देखने के बाद भी फिल्म के आख़िरी दृश्य में जब वह ब्रिगेडियर सिंह को सलामी देता है तो उस सलामी में वह वही सन्देश देता है जिसकी जरुरत भारत की आम अवाम को चीनी हार के बाद थी और वो ये कि हम मर्माहत हैं पर बुजदिल नहीं है और अगली किसी नयी चुनौती के लिए पीढ़ियाँ तैयार है। 

पंजाब सरकार के सहयोग से बनाई गयी फिल्म को लिखा चेतन आनंद ने ही। फिल्म हकीकत, जवाहरलाल नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए शुरू होती है और इसका नाम हकीकत, उस वक्त भारत-चीन युद्ध के सन्दर्भ में फैले जाने कितने अपवादों के जवाब की तरह थी। लद्दाख के जैसे दृश्य चेतन ने शूट किये हैं वह भी एक युद्ध फिल्म के लिए; यह वाकई जबरदस्त बात है कि इतने लॉजिस्टिक के साथ यह सब कैसे संभव किया होगा उन्होंने उस समय और मन में ख्याल भी आता है कि काश ये दृश्य रंगीन फ्रेम में होते। लाहौर में जन्में चेतन आंनद, कांग्रेस में सक्रिय रहे फिर बीबीसी में काम किया और फिर दून विद्यालय में अध्यापकी की। सिविल की परीक्षा पास नहीं कर पाए फिर अंततः मायानगरी का दामन पकड़ लिया और पहली ही बॉल पर बाउंड्री लगा दी। अपनी पहली फिल्म नीचानगर से भारतीय सिनेजगत को गौरवान्वित कर दिया जब इस फिल्म को 1946 में फ़्रांस के प्रतिष्ठित केन्स समारोह में उत्कृष्ट फिल्म का पुरस्कार मिला। गुलाम मुल्क के एक निर्देशक के लिए यह यकीनन बड़ी बात थी। 

हकीकत फिल्म में मुख्य भूमिका में थे मशहूर बलराज साहनी, विजय आनंद, संजय खान, जयंत, सुधीर, बमुश्किल दस फिल्मों में काम कर चुके धर्मेंद्र और इस फिल्म से आगाज करने वालीं शिमला में पैदा हुईं और लन्दन में पली-बढ़ी, बेहद खूबसूरत प्रिया राजवंश। प्रिया, असल ज़िंदगी में चेतन आनंद की प्रेमिका रहीं और अपनी सारी फ़िल्में उन्होंने फिर चेतन के साथ ही कीं। फिर चेतन की पत्नी के उनसे अलग होने पर वे उनके साथ रहने भी लगीं थीं। प्रिया, फिल्म में सोनम की बहन अनग्मो बनी हैं जिससे धर्मेंद्र प्रेम करते हैं। इनका प्रेम परवान चढ़ पाता कि चीनी सीमा पर आ चढ़ते हैं।  इस त्रासदी में ‘युद्धों में प्रायः स्वाभाविक बलात्कार’ की शिकार होती है, अनग्मो लेकिन अपनी जिजीविषा से फिर उठकर कुछ चीनियों को मारकर ही मरती है। प्रिया अपनी असल ज़िंदगी में भी त्रासदी की शिकार हुईं जब चेतन आनंद के बेटों ने ही उनकी सन 2000 में हत्या कर दी। 

यह फिल्म युद्ध से अधिक युद्ध की मनोदशा पर है। कुछ बहुत शानदार बिंब निर्देशक ने रचे हैं जो दर्शक को झिंझोड़ देते हैं। कैसे बलराज साहनी के किरदार को जीवन में प्रेम नसीब नहीं होता, उसकी अंगूठी दो-दो बार ठुकरा दी जाती है। पहाड़ियों के बीच फंसे भारतीय सैनिक कैसे पहाड़ की ऊंचाइयों से होते हुए लौटते हैं और उनका कप्तान बलराज साहनी दिवाली साथ मनाने की बात करता है। एक सैनिक जब अपने जुराबें उतारता है तो पैर के धब्बे यों ही देखे नहीं जा सकते थे जैसे चीनी हार के बाद भारतीय मनोदशा असहनीय हो जाती है। एक सैनिक घर से आयी मिठाई बाँटने को जब उद्यत होता है तो उसमें से मिटटी निकलती है। साथी सैनिक उसपर हँस ही रहे होते हैं कि तबतक उसकी पत्नी के लिखे खत में कुछ ऐसा होता है कि सब लाजवाब हो जाते हैं। उसकी पत्नी ने अपनी घर की क्यारी की मिटटी के साथ सैनिक के पसंदीदा फूलों के बीज भेजे हैं ताकि वह उन्हें यहाँ बर्फीले रेगिस्तान में उगा सके। फूल उगते हैं और आगे के दृश्यों में चीनी उसे फेंकते दिखाई देते हैं। बलराज साहनी का अभिनय तो है ही भावप्रवण, इस श्वेत-श्याम फिल्म में सजीले जवान धर्मेंद्र अलग ही जंचते हैं। उनकी भूमिका बहुत चुनौतीपूर्ण तो नहीं पर क्लाइमेक्स उन्हीं के हिस्से आता है, जिसमें वो ‘कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों’ गीत के साथ विदा लेते हैं।  फिल्म का एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष था कला निर्देशन और प्रतिभाशाली एम. एस. सत्यू को इसी फिल्म ने दिलाया था फिल्मफेयर बेस्ट आर्ट डायरेक्शन अवार्ड। 

हकीकत की आत्मा उसके गीत-संगीत में बसती है। चूँकि यह फिल्म एक मनोवैज्ञानिक दबाव को लगातार अभिव्यक्त करती है तो इसके गीतों में और संगीत में वह कशिश होनी थी जिससे उस पूरे मंजर को जतलाया जा सके। कैफ़ी आजमी साहब जब अपनी कलम चलाएं और मदन मोहन उसे धुन से सजाएँ तो यह अद्भुत समां बधना ही था।  डेढ़ दशक फिल्मों में गीत लिखते बिता चुके और अपने दौर के उम्दा अज़ीम शायर कैफ़ी साहब ने जो हर्फ़ इस्तेमाल किये हैं उन्हें सुनकर रौंगटें खड़े हो जाते हैं। मदन मोहन की धुनें अपने समय से आगे की थीं। उनके संगीत में विश्व संगीत और भारतीय संगीत का मधुर संयोग मिलता है। इराक के शहर इरबिल में पैदा हुए मदन मोहन कौल का बचपन मध्य एशिया में गुजरा था। अपनी जवानी के दिन मनमोहन फौज में बिता चुके थे तो वह उनका अनुभव धुन बनकर सैनिकों के इस फिल्म हक़ीक़त के गानों में महकता भी है। मदनमोहन जी का समय संगीत में बेहद कड़े प्रतिस्पर्धा का था और उन दिनों अपने-अपने बैनर के चुने हुए संगीतकार होते थे। ऐसे में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वीर जारा में उनकी कुछ प्रयोग में नहीं आईं धुनें उनके बेटे संजीव कोहली ने प्रयोग कीं और नयी पीढ़ी ने नए इंस्ट्रूमेंट्स में मदन मोहन का जादू महसूस किया। लता जी भी मानती हैं कि उस वक्त मदन मोहन जी की धुनों को गाने में मशक्कत करनी होती थी।
  
फिल्म का पहला गाना विजय आंनद पर फिल्माया गया है। ‘मस्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का’, आजमी साहब के लफ्ज और मनमोहन जी की धुन में मोहम्मद रफ़ी कमाल ढा रहे हैं। रफ़ी साहब बिलकुल मस्ती में हैं। वे ‘तराना’, ‘खजाना’ लफ़्ज़ों में ‘ना’ को कुछ वैसे ही लहराकर गाते हैं जैसे दो साल पहले आयी फिल्म ‘दिल तेरा दीवाना’ के शीर्षक गीत में ‘दीवाना’ लफ्ज़ में ना को छेड़ते हैं मस्ती में। रफ़ी साहब ताजा आवारा हवा के झोंकों जैसी आवाज के मालिक थे और मदन मोहन ने उस रवानी से ही इसे उनसे गवाया भी। कैफ़ी आजमी के लिखे इस गाने की कुछ पंक्तियाँ पढ़ आप भी मुस्कुरा उठेंगे:
‘मुखड़े से जुल्फ जरा सरकाउंगा, सुलझेगा प्यार उलझ मै जाऊँगा
पाके भी हाय बहुत पछताऊंगा, ऐसा सुकून कहाँ फिर पाऊंगा।’ 

कैफ़ी साहब ने अपनी कैफ़ियत के शबाब पर हैं जब हक़ीक़त का यह गाना लिखते हैं। फिर इसमें मदन मोहन साहब ने अपने समय के शीर्ष तीन बड़े पार्श्वगायकों से एकसाथ गवाया है। रफ़ी साहब, मन्ना डे, तलत अजीज के साथ अभिनेता भूपिंदर ने भी इसमें स्वर दिया है।  

“होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा
होके मजबूर...

भूपिंदर: दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क़ आँखों ने पिये और न बहाए होंगे
बन्द कमरे में जो खत मेरे जलाए होंगे
एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

रफ़ी: उसने घबराके नज़र लाख बचाई होगी
दिल की लुटती हुई दुनिया नज़र आई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा
होके मजबूर...

तलत: छेड़ की बात पे अरमाँ मचल आए होंगे
ग़म दिखावे की हँसी ने न छुपाए होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आए होंगे - (२)
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

मन्ना डे: ज़ुल्फ़ ज़िद करके किसी ने जो बनाई होगी
और भी ग़म की घटा मुखड़े पे छाई होगी
बिजली नज़रों ने कई दिन न गिराई होगी
रँग चहरे पे कई रोज़ न आया होगा
होके मजबूर…”


यों तो कैफ़ी साहब के ही लिखे तीन गानों को मदन मोहन जी ने लताजी से गवाया है और वे गाने दर्द, बिछोह, बेबसी और इंतज़ार को संजीदा तरीके से प्रकट भी करते हैं पर असल महफ़िल लूटी है रफ़ी साहब ने ही। यह फिल्म कभी न भुलाई जा सकेगी जिस गाने के लिए वो गाना है इस फिल्म का आख़िरी गीत। ‘कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों’ गीत की पृष्ठभूमि युद्धस्थल है। लाशों के ढेर दिखाई पड़ रहे। सोनम, अपने प्रिय कैप्टन बहादुर सिंह और अपनी प्यारी बहन अनग्मो की लाशें देखकर तड़पकर चिल्लाता है और फिर यह रौंगटें खड़े कर देने वाला यह गाना शुरू होता है। यह गाना 1964 से लेकर आजतक देशभक्ति के गानों में सबसे अलहदे पायदान पर है और हमेशा रहेगा। 1965 की लड़ाई में हुई फ़तह बताती है कि संदेश सफल रहा। एक-एक भारतीय जवान, दस-दस चीनी मारकर अब इस दुनिया से यह कहते हुए रुखसत हो रहे हैं:

“कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने के रुत रोज़ आती नहीं
हस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे
वह जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

आज धरती बनी है दुलहन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

राह कुर्बानियों की न वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नए काफ़िले
फतह का जश्न इस जश्न‍ के बाद है
ज़िंदगी मौत से मिल रही है गले

बांध लो अपने सर से कफ़न साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूँ से ज़मी पर लकीर
इस तरफ आने पाए न रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छू न पाए सीता का दामन कोई
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियो

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो!”

फिल्म यकीनन एक शानदार आख्यान है उस चीनी त्रासदी के समय उत्पन्न हुई मानसिक संत्रास का। बिम्ब सीधे मस्तिष्क में पहुँच झिंझोड़ते हैं। संदेश, स्पष्ट और प्रभावकारी है। फिल्म एकदम यथार्थ महसूस कराती है क्योंकि ज्यादातर शूटिंग लद्दाख में ही हुई। कहना होगा कि कहीं न कहीं फिल्म अनावश्यक धीरे हुई है, लेकिन 1964 के हिसाब से यह स्वाभाविक लगता है। दरअसल, महज एक फिल्म की तरह इसे नहीं देखा जा सकता। यह उस वक्त की कॉमन सोशल साइकी को कैथार्सिस का मौका देती है। उस समय फ़िल्में इकलौती दृश्य मनोरंजन माध्यम हैं जो उपलब्ध हैं तो बेहद असरकारी भी हैं। इस फिल्म के कई दृश्यों को देखकर सहज ही उनका विकास बाद की भारतीय युद्ध फिल्मों के दृश्यों व घटनाक्रमों में दिखाई पड़ता है। 

कश्मीरी कशमकश: नेपथ्य कथ्य

साभार: गंभीर समाचार 


जम्मू एवं कश्मीर के मायने सबके लिए एक नहीं हैं। सबकी अपनी-अपनी नज़र है और अपनी-अपनी समझ। इन सबके अपने-अपने नारे हैं और सब अपने-अपने सवालों के साथ हैं। इतिहास में आपस में लड़ते अध्याय हैं। राजनीति विरोधाभासी माँगों के जायज़-नाजायज़ होने में उलझी है। भूगोल इन सबसे बेखबर पर्यावरण की चुनौतियों को खामोशी से सह रहा। अर्थशास्त्र उस हिसाब में है कि केंद्र ने कश्मीर और जम्मू को कितना भेजा। लोक प्रशासन दफ्तर की फाइलों में हुए विकास और जमीन पर हुए विकास का अंतर मन मसोस स्वीकार कर रहा। शिक्षा, इस राज्य में अपना कोई लक्ष्य ही नियत नहीं कर पा रही। विज्ञान महज उन्हें उपलब्ध है जिनकी पहचान कश्मीरी तो है पर आबोहवा किसी मेट्रो शहर की है। दर्शन में कश्मीरीयत है पर उसकी मकबूलियत कश्मीरी नहीं है। साहित्य और भाषा के अपने संकट हैं, लिखे जा रहे तो पढ़े नहीं जा रहे, पढ़े जा रहे तो समझे नहीं जा रहे, समझे जा रहे तो फिर बोले नहीं जा रहे, बहसें एकतरफ़ा हैं लोग लामबंद हैं। 

जो जम्मू है वह कश्मीर नहीं है। लद्दाख अपनी साख अलग ही छिपाए बैठा है। चीड़, चिनार, देवदार आपसे में बात नहीं कर रहे। झेलम, चिनाब, सिंधु, तवी एक-दूसरे के दुखों से अनजान हैं। पाकिस्तान और चीन एक-एक हिस्सा अपने पास दबाये बैठे हैं। मुंबई के लिए जो कश्मीर है वही दिल्ली के लिए नहीं है। और तो कितने शहरों के लिए कश्मीर महज एक खबर है जो चौबीस घंटे अनसुनी सी चलती रहती है। भारत के आम अवाम के लिए यह राज्य देशभक्ति और राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट है। भाजपा को यहाँ धारा 370 की याद आती है तो कांग्रेस को यहाँ महज अल्पसंख्यक याद आते हैं। 

कश्मीर को लेकर कश्मीरी नेता भी ईमानदार नहीं हैं। भविष्य की कोई रुपरेखा नहीं, बस राजनीतिक लाभ की सियासत। मुस्लिम दिल्ली से नाराज हैं कि वह केवल दमन की भाषा जानती है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के साथ हुए ज्यादतियों के बारे में उनकी युवा पीढ़ी न केवल अनभिज्ञ है बल्कि इसे लेकर उनके मन में किसी गलती का भाव भी नहीं है। मुस्लिम समाज ने कश्मीरी पंडितों से वार्ता और सामंजस्य का कोई उदाहरण भी पेश नहीं किया है और एक सर्वमान्य हल के रूप में उनके पास कोई सकारात्मक योजना भी नहीं है। कश्मीरी पंडित, दिल्ली से खफा होते हैं कि उनकी सुधि कोई नहीं लेता। सत्ता जब पक्ष में हो तो सामंजस्य की कोशिशों का सर्वाधिक महत्त्व होता है। आगे बढ़कर कश्मीरियत के लिए इनके प्रयास भी नगण्य ही हैं। प्रतिकार की राजनीति दलों को लाभ देती है लेकिन समाज को तो तोड़ती ही है। ये दोनों कौमें अपनी भावी पीढ़ियों को वही सब कुछ विरासत में देने वाली हैं जो इन्हें मिला हुआ है। इतिहास किसी के लिए भी कुछ अधिक टेसुएँ नहीं बहायेगा। कमोबेश उन्हीं जुमलों और तर्कों से भाजपा ने पीडीपी के साथ हाथ मिलाकर कश्मीर में सरकार बनाई थी जिनका हवाला देकर तीन साल बाद गठबंधन तोड़ा है। हिंसा इन तीन सालों में अधिक बढ़ी ही और शांति के तर्क से दमन के कुछ तरीकों को पूरी बेशर्मी के साथ जायज़ करार देने की कोशिशें भी हुईं। शांति के लिए कौन लड़ रहा इस समय कश्मीर में कहना मुश्किल है। क्या राजनीतिक दल, क्या मुस्लिम, क्या हिन्दू, क्या युवा, क्या बुजुर्ग, क्या सेना क्या समाज। सभी बस डटे हुए हैं अपनी-अपनी शैली में दिशाहीन।  

कश्मीर को लेकर हर एक की जवाबदेही है, कुछ ज़िम्मेदारी है। देश की स्वतंत्रता के बाद एक बड़ी चुनौती राष्ट्र-निर्माण की थी, जो अभी भी पूरी नहीं हुई है। राष्ट्र-निर्माण महज एक सरकारी मिशन नहीं है। नागरिक समाज की भी इसमें भूमिका है। अलग-अलग संस्कृतियों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में उनका अपना निजी स्पेस देकर ही बांधा जा सकता है, कहीं न कहीं ऐसी कोशिशें असफल हुई हैं। शिक्षा व्यवस्था ने भारत के आम-अवाम को कश्मीर के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के बारे में कोई व्यापक समझ नहीं दी है। कश्मीरी सरकारों ने भी देश के दूसरे राज्यों से अपनी सरोकारिता कितनी निभायी है। दिल्ली, कश्मीर में महज चुनाव करवाकर लोकतंत्र की लाज बचाती रही है। पाकिस्तान और भारत के हुक्मरान अपनी-अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए जीते-जागते कश्मीर को महज एक खौलता मुद्दा बनाते रहे । राजनीतिक दल केवल सत्ता की ओर ताकते रहे। सारे कश्मीरी गुट इसमें अपना-अपना सियासी हिस्सा तलाशते रहे। देश तब तो एकजुट होकर साथ देने को उद्यत हो जाता है जब भारत-पाकिस्तान युद्ध में उतरते हैं, भले ही वह मैदान खेल का हो, लेकिन रोजमर्रा के वारदातों पर लगाम लगाने की कोशिशों पर देश का अवाम दिल्ली पर एकजुट होकर दबाव नहीं बनाता। देश का अवाम अपने केंद्र सरकार से जम्मू-कश्मीर के स्कूलों, अस्पतालों, खेतों, बागों, घरों, महिलाओं, बच्चों, बेरोजगारों, बुजुर्गों की हिफाजत पर सवाल नहीं पूछता। अवाम, सेना की ज्यादतियों पर उसीतरह आँख फेर लेती है जिसतरह कश्मीर पत्थरबाजों पर। एक राज्य है भारत का जम्मू व कश्मीर, जिसमें जिंदा कौमें रहती हैं, जिनकी जिंदगी जहन्नुम बनती है तो यह सवाल बनकर भारत के प्रत्येक नागरिक के गले में अटकता क्यों नहीं?

जो महज अख़बार और टीवी के पक्षपातपूर्ण रपटों से इतर जम्मू और कश्मीर को जानने की मंशा हो, देश से प्यार जो समूचा हो, जो समझते हों कि देश महज राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत, तिरंगा और अशोक चक्र नहीं, कि देश महज नदी, पहाड़, जंगल, सड़क, नहर नहीं, कि देश महज शहर, कारखाना, मॉल नहीं, बल्कि देश सबसे पहले उसके नागरिकों से बनता है, आप और हम ही देश को बनाते हैं तो यह समझना भी आसान नहीं कि ‘कश्मीर हमारा है’ से अधिक महत्वपूर्ण नारा ‘कश्मीरी हमारे हैं’ है और अपनों से पेश आने की एक तहजीब होती है। जैसे ही ‘जम्मू व कश्मीर’ टीवी, अख़बार से निकलकर एक जीता-जागता समुदाय महसूस होगा तो फिर तुरत ही समझ आएगा कि कश्मीर के राजनीतिक धड़े, राजनीतिक दल और भाजपा-कांग्रेस महज चुनाव की तैयारी कर रहे हैं और अपने-अपने वोटबैंक सहेजने की कोशिश में हैं। इन्हें प्यार महज सत्ता से है क्योंकि कश्मीर इनके लिए राज्य न होकर महज एक मुद्दा है, जिसे जिन्दा रखना जरूरी है भले ही कश्मीर एक जिन्दा लाश बना रहे। ये यूँ इसलिए हैं क्योंकि हम, भारत के लोग सवाल नहीं कर रहे, क्योंकि सही और गलत की पड़ताल किये बिना हम अपना वोट जाया कर रहे, क्योंकि हमें इतिहास, भूगोल और राजनीति बकवास लगते हैं, क्योंकि हमने अपनी अगली पीढ़ी का मकान और मुकाम अमेरिका और यूरोप में तलाशना शुरू कर दिया है।   

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