Click me for the articles on Political Literacy


Tuesday, August 14, 2018

क्या हम निष्पक्ष मीडिया के लिए तैयार हैं?


साभार: दिल्ली की सेल्फी 

निष्पक्ष न्यूज-व्यूज पढ़ने-देखने के लिए हमें अपनी जेब से पैसे खर्च करने को धीरे-धीरे मन बनाना होगा। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में सबसे बड़ा प्रायोजक सरकारी विज्ञापन के बहाने सरकार ही बन जाती है। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में हम मीडिया और सरकार से इस सकारात्मक उम्मीद में होते हैं कि ये दोनों खुद राजनीतिक नैतिकता का अनुपालन करेंगे। यह अजीब स्थिति है। घर में बैठे-बैठे हम ये उम्मीद करते हैं कि मीडिया अपना काम करे और आपको न्यूज पहुँचाए और उसी भोलेपन से हम सोचते हैं कि सरकार चुन ली गई है और अब वह अपना काम करे! मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए है क्यूँकि वह सार्वजानिक पक्ष पर प्रश्न कर सकता है।

प्रश्न करने के पीछे एक तैयारी करनी होती है। इस तैयारी में जीते-जागते, पढ़े-लिखे लोग होते हैं, जिनके दिन का 18-20 घंटा लगता है, उन्हें भी उसी रेट पर बाजार सामान देता है, उन्हें भी अपना परिवार चलाना है, यह तैयारी ही उनका रोजगार है। ग्लोबलाईजेशन और तगड़े बाजारवाद के दौर में एक पत्रिका, एक अखबार और एक चैनल चलाना बेहद ही चुनौती भरा काम है। एकबार पैसा लगाने के बाद अपना संस्थान बचाना ही इतना कठिन हो जाता है कि निष्पक्षता और पारदर्शिता का आदर्श बेहद निष्ठुर लगने लगता है। इन आदर्शों से उबकाई आने लगती है जब विज्ञापनों के लिए उन्हीं लालाओं और सरकार के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है जिनके अनियमितताओं के विरुद्ध न्यूज बनानी और चलानी होती है। यह संभव ही नहीं है तो इसलिए ऐसा होता भी नहीं। होता यही है कि न्यूज संस्थान धीरे-धीरे दलाल और धमकाऊ होते जाते हैं। न्यूज के नाम पर वे बेचते हैं जिनको वो एडिटर रूम में नहीं बेच पाते हैं।

इस क्षेत्र की बाजारू प्रतिस्पर्धा मीडिया मालिकों को एक बीच का रास्ता खोजने पर मजबूर करती है। मीडिया मालिक फिर सरकार, बाजार और समाज को छोटी-बड़ी मछलियों से बने झुंड की तरह देखने लगते हैं। मीडिया मालिक बड़े ही ध्यान से फिर मछली मारने के काम में खुद को लगा लेता है। जो मछलियाँ नई होती हैं उनकी एक छोटी गलती भी अखबार और चैनल पर पहाड़ बनकर दिखती है। यह स्थापित मछलियों के लिए चेतावनी भी होती है। सरकार सबसे बड़ी शार्क होती है, ऐसे में! उसके पास तो नुकीले दातों का भी बढ़िया इंतजाम होता है। फिर मीडिया एक ऐसा धंधा बन जाता है जिसमें ग्राहक को लगभग कुछ चुकाना ही नहीं पड़ता। जैसे ही हम नागरिक मीडिया के ग्राहक बन पाने की योग्यता खोते हैं, मीडिया हमारे उम्मीदों के आदर्श का कागज हवाई जहाज बनाकर उड़ाने लग जाता है। ऐसा करते हुए वे अपनी आत्मा का सौदा कर चुके होते हैं, लेकिन उन्हें भ्रष्ट कह आगे बढ़ जाना एक खतरनाक भूल होगी।

उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करते हैं हम और आप, क्योंकि हम और आप न्यूज मुफ्त में पढ़ना-देखना चाहते हैं। यहाँ हम अपनी जेबें ढीली करने को तैयार हों तो मीडिया इतनी सशक्त होगी कि सरकार के बहुतेरे पक्षों से भ्रष्टाचार पर लगाम लगे और नतीजा ये होगा कि चीजें जो बेवज़ह महंगी हैं वे सस्ती होंगी और क्रय शक्ति भी बढ़ेगी। मीडिया पर खर्च करना राष्ट्रहित में एक देशभक्ति का काम भी होगा और यह नागरिक कर्तव्यों की भी पूर्ति करेगा। प्रायोजित न्यूज सामग्री पढ़कर और देखकर सार्वजानिक मामलों पर निष्पक्ष राय बनायी ही नहीं जा सकती। ऐसा सोचना कोरा भोलापन है कि सरकार जिसे अपना भारी-भरकम विज्ञापन देगी, वह सरकार की कोई भी और कैसी भी आलोचना कर सकेगा! मीडिया प्रतिष्ठान का वह मॉडल जिसमें विज्ञापन दिखाने-छापने के लिए व्यवसायी पैसे खर्च करते थे, बेहद पुराना और सरल मॉडल है। अब जबकि सत्ता और उद्योग का गठजोड़ जगजाहिर है ऐसे में इस मॉडल से निकलने वाले किसी भी न्यूज की विश्वसनीयता पर गहरे संकट हैं। बड़े-छोटे पत्रकार निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि सरकारें उनपर दबाव रखती हैं और यह कम-अधिक हर दौर में होता रहता है। परिचित कई मीडियाकर्मी स्वीकार करते हैं कि निष्पक्ष न्यूज कोई कैसे दे जबकि एक रुपया भी ग्राहक कोई एक लेख पढ़ने अथवा देखने में खर्चना नहीं चाहता। यदि दर्शक और पाठक एक रुपए भी प्रति लेख खर्चने को तैयार हो जाए तो मीडिया मछलियों को ठेंगा दिखाने लगें, फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाये।

मीडिया पर एकतरफा आदर्श निभाने का दबाव इसे और खोखला करेगा। एक अच्छा नेता हमारी तरफ दशकों से देख रहा कि हम उसे वोट देंगे और जिताएंगे। एक पत्रकार दशकों से हमारी तरफ देख रहा कि जब जान जोखिम में डाल वो न्यूज निकालेगा तो हम जनता उसकी सुरक्षा का, उसकी रोजी-रोटी का ख्याल रखेंगे। एक हम हैं कि लगभग मुफ्त में न्यूज चैनल देख रहे और लगभग 25 से 30 रुपये प्रति लागत के अखबार को 4 से 8 रुपए में पढ़ रहे हैं। हम भ्रष्ट हैं दरअसल। कभी लाइन में लगना नहीं चाहते। हमें यह इल्म ही नहीं कि एक एक बेहतर समाज और शासन के लिए नागरिकों को क्या-क्या करना पड़ता है? हमें लगता है कि सबकुछ अपने-आप हो जाएगा। अजी, अगर हम चाहते हैं कि मीडिया अपना काम जिम्मेदारी से करे, कि सरकार अपना काम जिम्मेदारी से करे, कि अधिकारी अपना काम जिम्मेदारी से करें तो सबसे पहले हम जनता को अपना कर्तव्य पहचान उसे जिम्मेदारी से निभाना होगा! और यह बात कोई किताबी आदर्श नहीं है, यह एकदम यथार्थ है, दूसरी कोई जुगत ही नहीं है, सूरत ही नहीं है।

मीडिया के प्रतिबद्ध लोगों को चाहिए कि सबसे पहले संस्थान का ऐसा टिकाऊ मॉडल विकसित करें जिसमें निर्भरता केवल और केवल जनता पर हो। यह कठिन लगता है पर जनता पर विश्वास रखिए, ईमानदारी से इसे शुरू तो करिए। मीडिया के कुछ लोगों ने इसे शुरू भी किया है। कुछ पोर्टल पर आपको यह संदेश दिखता भी होगा जहाँ वे निष्पक्ष पत्रकारिता के नाम पर आपसे कुछ अर्थदान की विनती कर रहे हैं! एक सशक्त नागरिक-समाज के लिहाज से यह शर्मनाक है कि निष्पक्ष पत्रकारिता की कोशिश करने वाला विनती कर रहा है। दोस्तों! आइए आगे बढ़कर ऐसे पत्रकारों, ऐसे प्लेटफॉर्म्स को सपोर्ट करें जो अपनी निर्भरता केवल जनता पर रखना चाहते हैं। आइए न्यूज के लिए अपनी जेबें ढीली करें! क्या आप तैयार हैं? क्या हम तैयार हैं?

Printfriendly