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Friday, April 27, 2018

इसकी एकमात्र दवाई बेशर्मी है !



साभार: गंभीर समाचार 

एक ज़माने तक 'मैन इज मेजरमेंट ऑफ़ एवरीथिंग' का जुमला काफी चला। विज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ वह सभी कुछ तार्किक और उपयोगी समझा गया जो महज मनुष्य के काम आये। इस एकांगी दृष्टिकोण ने पशु, पादप, जलज और अंततः मनुष्य को बेहद करारी चोट पहुंचाई क्योंकि मनुष्य के अहम् को यह संज्ञान बहुत बाद में हुआ कि पर्यावरण के सभी घटक महत्वपूर्ण हैं और उनमें अंतरनिर्भरता है। वह एकांगी दृष्टिकोण तब तक सामाजिकता के सभी संस्तरों तक जा पहुँचा और फिर मानव, मानवीयता के सन्दर्भ टटोलने में ही हांफने लगा। व्यक्तिवादिता और स्वार्थ के कोष्ठकों में बंद व्यक्ति के लिए, अब 'बेनिफिट इज एवरीथिंग' ही परम लक्ष्य बन गया है। व्यक्ति जितना, समाज से इतर व्यक्तिवादिता को महत्त्व देगा उतना ही अंतरनिर्भरता (इंटरडेपेंडेन्स) से भागेगा। अपने प्राकृतिक सामाजिक स्वभाव को नकारते हुए व्यक्ति ‘निजी स्पेस’ तलाशेगा और बाजार इस विसंगति का शोषण कर ऐसी आपूर्ति करेगा कि व्यक्ति में ‘इंडिपेंडेंट’होने का छद्म भाव उपजेगा। ऐसा निर्मम बाजार अपने लिए केवल 'प्रॉफिट इज एवरीथिंग' का टैग टाँकेगा। सामाजिकता-सामूहिकता से हीन जनता के लोकतंत्र से सत्ता बनाना, बाजार को बखूबी आता है और इसलिए ही अपने महान देश भारत के राजनीतिक दलों के लिए 'विनिंग इलेक्शन इज एवरीथिंग' ही एकमात्र ध्येय शेष रह गया है।

शिक्षा जिसे वह दीप बनना था, शिक्षक जिन्हें वह प्रकाश बनना था, जो जन मन को सभी विभेदों और विभाजनों से मुक्त कर सके; महज थोथी भूमिकाओं के रस्मी निर्वहन की बेसुध परम्परा बनकर रह गए हैं । इस सारहीन शिक्षा व्यवस्था ने मानवीय मूल्यों को कुछ यों खोखला किया है कि बेशर्म हो पढ़ाने के लिए, बेशर्म हो पढ़कर और ज्यों का त्यों लिखकर टॉप करने के लिए मानवीय मूल्य बचे हैं हमारे समाज के; अन्यथा समाज में 'स्मार्ट शख़्स' वही है जो होते रेप की विडिओ यूट्यूब पर डालकर पैसे बना ले। बुद्धिमान का अर्थ चतुर और समझदार का अर्थ होशियार हो गया है। किसी दूसरे ग्रह का कोई रोबोट हमारी पृथ्वी के सारे धर्मग्रन्थ और टेक्सटबुक पढ़ ले तो निस्संदेह वह मानव के समक्ष नतमस्तक हो जायेगा किन्तु जैसे ही वह कुछ दिन इस पृथ्वी पर रहकर हमारी करतूतों को निरखेगा तो यदि उसके बस में होगा तो समस्त पुस्तकों की राख से केवल एक ही शब्द लिखेगा- पाखंडी !

बेसुध जनता की बेसुध सरकारें अस्सी के दशक में खोखली होती भारतीय अर्थव्यवस्था की कंपकंपी देख ही न सकीं और नब्बे के दशक ने ज़िद करके उदारीकरण का चोला पहन लिया । सीमायें, खोली गयीं तो भारत की उस कामकाजी पीढ़ी ने सहसा धन का वह रेला देखा जो अकल्पनीय था। रासायनिक उर्वरकों वाले हरित क्रांति ने मंडियों में अनाजों की वो आवक लगायी कि चुपके से समाज की सारी सीमायें तोड़ते बाजार पर किसी को शक़ ही नहीं हुआ। इस दशक के अभिभावक, विद्यार्थी में चरित्र नहीं अपनी पूंजी तलाश रहे थे। नब्बे के दशक में हुए मजबूरी के उदारीकरण ने एक पूरी पीढ़ी में ऐसा आर्थिक हवस भर दिया कि बच्चों को जब पढ़ने भेजा गया तो आई.ए. एस., डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए आदि का इन्वेस्टमेंट समझते हुए भेजा गया। एजुकेशन का मतलब केवल प्रोफेशनल कोर्सेज हो गया और नौकरियाँ नीलाम होने लगीं। दहेज़ से या तो रिटायरमेंट प्लान गढ़ा गया या परिवार के दूसरे सदस्यों को पूँजी उपलब्ध करवाई गयी। 

अंग्रेजों ने केवल भारत पर राज नहीं किया था उन्होंने हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने की सभी महीन रेशमी धागों को झुलसा दिया था और जब गए तो भारत कई बंजर अस्मिताओं का एक उलझा गुत्थम-गुत्था बन बचा था। हमारे स्वतंत्रता-सेनानी नेताओं ने यह समझा था और धीरे-धीरे अपने सार्वजनिक जीवन के त्याग से, उदाहरण बनते हुए नए भारत के लिए नए राष्ट्रीय प्रतीक गढ़े थे; जिनके आधार पर एक सशक्त समावेशी विविधतापोषी राष्ट्र पनप सकता था। पर वे अपने दूसरी-तीसरी पीढ़ी के नेताओं के चयन में चूक गए और राजनीतिक विकास की शैशवावस्था वाले राष्ट्र में क्रमशः राजनीति पेशा बनती गयी जिसे बाजार में अपनी पूंजी संजोनी थी। कद्दावर नेता मसखरे बनते गए, जनता की राजनीति को टीवी ने नीलाम कर दिया और जनता ने राजनीति को महज मनोरंजन मान लिया। अपने व्यक्तिगत जीवन में परम सेकुलर और लिबरल नेतागण जनता को जाति, धर्म, संप्रदाय, वर्ग में बांटकर राज करते रहे। व्यवसायोन्मुखी शिक्षा में पनपे इतिहासबोध और समाजबोध से शून्य उत्साही युवा पीढ़ी उन्माद में दंगे और बंद का आयोजन करती रही।

सामाजिकता की मर्यादा से धीरे-धीरे मुक्त हुई पीढ़ी जिसे गांव की दुपहरी से अधिक शहर की शॉपिंग भाने लगी, स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता समझने लगी और भारत के सभी वर्गों, धर्मों के विविध उत्सवों से जो एक स्वाभाविक मानसिक विरेचन (कैथार्सिस) होता था, वह थमने लगा। बाजार ने पहले हमारे सारे उत्सव, जमीन से उठाकर कार्ड्स पर उकेरे; फिर मोबाइल के ग्रुप एसएमएस ने सभी सामाजिक संबंधों को औपचारिक मंथली इएमआई बना दिया। इधर ज्यों-ज्यों हम आधुनिक सभ्य होते गए, सोशल एनिमल से तथाकथित इंडिपेंडेंट इंडिविजुअल बनते गए। बाजार ने इस इंडिपेंडेंट इंडिविजुअल को यह छद्म तोष दिया कि ‘सब-कुछ’ बिकाऊ है और ‘सब-कुछ’ खरीदा जा सकता है। जिस पीढ़ी को बचपन से ही पढ़-लिखकर इंडिपेंडेंट बनना सिखाया गया हो वह सामाजिकता का इंटरडिपेंडेंस क्यों कर समझने लगी भला ? 

सत्ता जब-जब अलोकतांत्रिक रीति से आती है वह कमजोरों का शोषण करती है। अलोकतांत्रिक सत्ता, शिक्षा को हमेशा पंगु बनाये रखना चाहती है ताकि जागरूकता अटकी रहे। शिक्षा अपना कंटेंट और मकसद बदलकर ही जिन्दा रह पाती है और धीरे-धीरे बाजार से इशारे लेने लग जाती है।  अशिक्षा नारी को हमेशा कमजोर कहती है। बाजार नारी को परोसने लग जाता है। स्वच्छंद पीढ़ी नारी को उपभोग की सामग्री समझ लार टपकाने लग जाती है। फिर गाँव-शहर हर जगह सेक्सुअल कुंठा को सांस्कृतिक कपड़ों से ढंका गया, हर दुसरी पीढ़ी अपनी रंगरेलियों के सापेक्ष अगली पीढ़ी पर असफल बंदिशें लगाती रही और हिप्पोक्रेट्स की आबादी बढ़ती रही। बच्चों को मॉडर्न कपड़े पहनाये गए और अकल पर नफरत, कुंठा, लैंगिक विभेद की स्वार्थी परतें क्रमशः जमाई गयीं।

इसी बीच आठ साल की इक प्यारी बेटी का निर्मम सामूहिक बलात्कार हुआ और भारत के सर्वाधिक जनसंख्या वाले प्रदेश में उस बाप को थाने में हँसते हुए-गालियाँ देते हुए पीट-पीट कर मार डाला गया, जिसकी सत्रह साल की बेटी की अस्मत किसी के कुलदीपक ने सरेशाम लूटी थी। लोग आहत हुए, कवियों ने कवितायेँ लिखीं, लेखकों ने लेख और फिर आख़िरकार अशिक्षा से उपजे अपने-अपने मन के विभाजनों के मुताबिक लोग एक-दूसरे को कोसने लगे। कुत्सित राजनीति फिर जीवनदान पा गयी। लोग बलात्कार के बैनर पर धर्म, जाति, राजनीतिक दल के हिसाब से आक्रोश व्यक्त करते करते फिर उन्हीं कोष्ठकों में बंद होने लगे जहाँ से कुत्सित राजनीति और बाजार को खुला मैदान तैयार और खाली मिलता है। 

बलात्कार मरते-बुझते समाज का एक लक्षण भर है, इसका हल कानूनी काफी नहीं है। अशिक्षा, राजनीतिक भ्रष्टाचार और बाजार की दखलंदाजी ने बेलगाम बरबस बलात्कार की घटनाओं को समझने में कई और गुथे-मुथे कारण जोड़े हैं। स्वाध्याय की परम्परा का धर्म, मूल्य आधारित होता है जहाँ नारी शक्ति होती है और पुरुष शिव। किन्तु स्वाध्याय का अभाव धर्म को महज कर्मकांडी बनाता है और राजनीति को मूल्यहीन और फिर यह दोनों ही अपने अस्तित्व के लिए बाजार के तराजू का बाँट बन जाते हैं। स्त्री वस्तु बनती है तो पुरुष तो पुरुष,  स्वयं स्त्री को भनक नहीं लगती। सबकुछ भोग लेने की हवस का खामियाजा केवल स्त्री ही नहीं, संस्कृति, समाज और भाषा भी भुगतती है। राष्ट्र महज राष्ट्रवाद के नारों से चलने लगता है और शासन की नाकामी सीमायें लाल करके छिपाई जाने लगती हैं। कुछ देर के लिए जब स्तब्ध हम होते हैं इन घटनाओं से तो सहसा सोचते हैं - आखिर, हम कर ही क्या सकते हैं ? इसका जवाब भीतर इस व्यवस्था ने चस्पा ही नहीं किया है तो कुछ दिन तक आक्रोशित रहते हैं फिर दोषारोपण करने लगते हैं और अंततः बाजार के सीजनल डिस्काउंट में खो जाते हैं। 

शायद हमें ऐसे ही सोये रहना है। चुनाव के वक्त हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, पिछड़ा, दलित बने रहना है। भारत माँ तो भोली है, 'नारों' से खुश हो जाती है। लोहिया-जेपी तो भोले हैं, बस 'बंद' से खुश हो जाते हैं। फूले, अम्बेडकर तो भोले हैं बस 'रैलियों' से खुश हो जाते हैं। धिक्कार है ऐसी मानवता को, ऐसी ओढ़ी हुई मैच्योरिटी को। अगर ऐसा नहीं है तो हमें देश, समाज और स्वयं की निष्ठुर स्क्रूटिनी करनी होगी। हमें समझना होगा कि शिक्षा, पीढ़ियों और लिंगभेद से ऊपर उठकर संवाद की कला नहीं दे सकी है, बुजुर्गों ने परिवर्तन पर व्यंग कर अपनी भूमिका की इतिश्री कर ली है और जवानों ने धैर्य को कमजोरों का आभूषण समझ लिया है। समझना होगा कि भारत की सामाजिक व्यवस्थाएँ सड़ चुकी हैं, इन्हें फिर से तराशना होगा। राजनीति में जमकर परिभाग करना होगा। धर्म की सतत समानांतर व्याख्याएँ समझनी होंगी, उनकी दार्शनिकता को अपनाना होगा और संकीर्णता को दफनाना होगा। विविध परम्पराओं से सामाजिकता निचोड़ एक बार फिर उत्सवधर्मिता का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना गढ़ना होगा जिसमें मानसिक विरेचन की गुंजायश बराबर हो और आदमीयत की नेकनीयती तंदुरुस्त बनी रहे।  ऐसा सजग समाज अपनी राजनीतिक व्यवस्था को जवाबदेह बनाएगा और शिक्षा को मूल्यों की जननी मानेगा। इसप्रकार बाजार अपनी हदों में लौटेगा और मंडियां फिर मेलों में तब्दील होंगी और मेलों में संस्कृतियाँ नाचेंगी, मिलेंगी और समरसता के गीत गुनगुनाएंगी।  

देश, समाज, स्वयं की निष्ठुर स्क्रूटिनी आसान नहीं होगी। यह हमारी अहम को बौना करेगी, हमारे उपलब्ध विशेषाधिकारों को सीमित करेगी और एक पंक्ति में खड़े होने को मजबूर करेगी। इतना धैर्य नहीं है जो, इतनी नीयत नहीं है जो और जो नहीं है इतना नैतिक साहस तो बंद करिये यह पाखंडी प्रलाप और ओढ़ कर सो जाइये फिर बेशर्मी की चादर। बीच-बीच में नींद उचटेगी जो कहीं फिर कोई बलात्कार की घटना दर्ज होगी। बाजार से नींद की गोली ले लीजियेगा और सपनों में गाना गाइएगा- मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरा मोती…!   

मुझे उबकाई आ रही, जानता हूँ इसकी एकमात्र दवाई बेशर्मी है!

Thursday, April 12, 2018

इराक़ में हुईं उम्मीदें राख-गंभीर समाचार



साभार: गंभीर समाचार 

यह सब कुछ अमेरिका के झूठ से शुरू हुआ। ९/११ से तिलमिलाए अमेरिका ने दुनिया को दो ही तरह से देखना शुरू किया: अमेरिका के साथ एकजुट देश और अमेरिका खिलाफ देश। अमेरिका ने इराक पर इल्जाम लगाया कि उसके पास जनविनाश के हथियार (डब्ल्यूएमडी) हैं। इराक़ में सद्दाम की मूर्ति भी नहीं बची पर इस्लामिक आतंकवाद की जड़ों को सींचने वाले लोग मिलते गए जो इस दुनिया में सुन्नी इस्लाम की सल्तनत कायम करने और क़यामत के बाद हसीं हूरों से भरे जन्नत के ख़्वाब देखने का जुनून रखते थे। इराक़ से उत्तर-पश्चिम सटे सीरिया में अल-क़ायदा के एक धड़े ने खुद को विश्व भर में इस्लामिक स्टेट बनाने का लक्ष्य दिया और इस्लामिक आतंकवादियों ने सीरिया के उत्तरी क्षेत्र के प्रमुख शहर रक़्क़ा पर मार्च, २०१३ में कब्ज़ा कर लिया। अल-फ़ुरत (यूफ्रैटीज) नदी के किनारे बसा रक़्क़ा शहर गृहयुद्ध में झुलसते सीरिया का प्रमुख सामरिक शहर है, जहाँ से दक्षिण-पूर्व में बसे पड़ोसी देश इराक़ के उत्तरी क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण सामरिक शहर मोसूल लगभग पांच सौ किमी की दूरी पर है। दाएश (आईएसआईएस/आईएसआईएल के अरबी नाम का संक्षिप्तीकरण) के दुर्दांत लड़ाके एक के बाद एक गाँव, क़स्बा, शहर पर फ़तह करते गए और सीरिया व इराक़ की सरकारी सेना पिछड़ती गयी। २०१४ जून की तारीख ४  में ये लड़ाके इराक़ के जिले मोसूल में दाखिल हुए और अगले दो हफ़्तों में दक्षिण दिशा की ओर चलते हुए इराक़ी राजधानी बग़दाद से १८६ किमी पहले शहर तिकरित पहुँच गए। दाएश के दहशतगर्दों के बीच में अचानक फंस गए थे बग़दाद से उत्तर ४०० किमी दूर मोसूल में ४० मज़दूर और तिकरित के सरकारी अस्पताल में ४६ भारतीय परिचारिकाएँ (नर्स), जिन्हें रोज़गार की तलाश ने इराक़ी रेगिस्तान में ला पहुँचाया था। 

भारत की चुनावी राजनीति धीरे-धीरे महज पॉजिटिव परसेप्शन-बिल्डिंग पर आधारित होती गयी है और मेनिफेस्टो, ज़िम्मेदारी, जवाबदेही आदि की जगह बेतरतीब नारों, चुनावी जुमलों ने ले लिया है। परसेप्शन-बिल्डिंग पर आधारित चुनावी राजनीति से चुनाव खर्चीले होते गए, जिनकी पूर्ति सत्ता में आने के बाद घोटालों और भ्रष्टाचार से की जाती रही है । मई २०१४, में भारी बहुमत से चुनी गयी सरकार का भव्य शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया और इसमें देश के सभी पड़ोसी राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया। राष्ट्राध्यक्षों की उपस्थिति से नई सरकार जनता में यह परसेप्शन गढ़ने में सफल रही कि एक मजबूत और परिणामोन्मुखी विदेश नीति वाली सरकार पदासीन हुई है। विश्व के लिए यह कठिन समय था, क्योंकि वैश्विक आतंकवाद का सबसे दुर्दांत चेहरा आई.एस.आई.एल. (दाएश), भारत से लगभग ३५०० किमी दूर इराक के एक-एक शहरों पर अपना परचम गाड़े जा रहा था। इराक के भारतीय दूतावास के लिए यह चुनौतियों से भरा समय था, क्योंकि इराक के अलग-अलग शहरों में काम कर रहे भारतीयों ने स्वयं को अकेला और फंसा हुआ पाया, जैसे-जैसे दाएश के लड़ाके शहरों पर कब्ज़ा करते जा रहे थे और स्थानीय इराक़ी अपना शहर छोड़ भाग रहे थे। अमेरिका आदि समर्थित इराक़ी फ़ौज नाकाम हो रही थी और इराक से असहनीय ख़बरें आना आम हो गया था। सत्ता-परिवर्तन, नौकरशाही के बदलाव का भी वक्त होता है पर फिर भी भारतीय दूतावास ने उल्लेखनीय कार्य किया और अधिकांश भारतीयों को सफलतापूर्वक अपने वतन पहुँचाने में कामयाब रहा । भारतीयों के लिए जून, २०१४ में इराक से दो बड़ी ख़बरें बेहद परेशान करने वाली आ रही थीं । केरल की ४६ परिचारिकाओं को इराक के तिकरित जिले के उनके अस्पताल में दाएश द्वारा बंधक बनाया जाना और पंजाब, हिमाचल प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के ४० मज़दूरों का दाएश के द्वारा मोसूल जिले पर कब्ज़ा करने के बाद ग़ायब हो जाना। ११ जून, २०१४ को मोसूल में साथ-साथ काम कर रहे ५३ बांग्लादेशी और ४० भारतीय मज़दूर दाएश के द्वारा अगवा कर लिए गए। दाएश ने ४ ही दिन बाद तिकरित की ४६ भारतीय परिचारिकाओं को उनके अस्पताल में ही बंधक बना लिया। इराक के लिए यह एक त्रासद दौर था और इसलिए भारतीय दूतावास के अधिकारियों के लिए भी यह चुनौती से भरा समय था क्योंकि देश का प्रशासनिक ढाँचा ढह रहा था और संचार व यातायात के सभी माध्यम जवाब दे रहे थे। 

इराक़ में फंसीं भारतीय परिचारिकाओं का संपर्क मोबाइल फोन से उनके परिजनों और इराक़ी भारतीय दूतावास से बना रहा। इराक़ में भारतीय राजदूत अजय कुमार को लगातार इनके टेक्स्ट मैसेज मिल रहे थे। लेकिन १५ जून, २०१४ के बाद भारतीय मज़दूरों का कुछ पता नहीं चल रहा था। भारत में परिचारिकाओं और मज़दूरों दोनों के परिजनों को यह जानकारी हो गयी थी कि उनके लोग इराक़ में दाएश के चंगुल में हैं। दाएश के लोग परिचारिकाओं के साथ फ़िलहाल ठीक से पेश आ रहे थे और उन्होंने, उन्हें तिकरित से शहर मोसूल चलकर अपना काम जारी रखने का विकल्प दिया। लोन लेकर लाखों रुपये एजेंट्स को देकर आईं इन परिचारिकाओं में से कई दाएश नियंत्रण में भी काम करने को राजी थीं, पर कुछ बेहद डरी हुईं परिचारिकाएँ भारत वापस लौटना चाहती थीं। दाएश के लोगों ने भारत वापस जाने वालीं परिचारिकाओं को आश्वासन दिया कि वे उन्हें इरबिल की सीमा तक ले जायेंगे, जहाँ से वे अपने वतन लौट सकती हैं। भारतीय दूतावास के साथ परिचारिकाओं के हुए सम्पर्क में उन्हें स्पष्ट कह दिया गया कि सभी परिचारिकाएँ इरबिल जाने के लिए कहें, जो तिकरित से २१८ किमी उत्तर स्थित है। दिल्ली में विदेश विभाग के हवाले से १७ और १८ जून, २०१४ को इन दोनों घटनाओं के बारे में राष्ट्र को बताया गया। यह कहा गया कि भारतीय परिचारिकाओं से संपर्क बना हुआ है लेकिन मज़दूर भारतीयों से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है। द वायर की वरिष्ठ पत्रकार देविरूपा मित्रा ने १८ जून , २०१४ की शाम में पत्रकारी संपर्कों से पड़ताल शुरू की और इराक़ की उस कंस्ट्रक्शन कंपनी के जरिये इराक़ से लौटे बांग्लादेश के एक मज़दूर जमाल खान से बात करने में सफल रहीं। जमाल खान ने बताया कि बांग्लादेशी और भारतीय मज़दूर साथ ही मोसूल में काम करते थे, जब उन्हें अगवा कर लिया गया था। बाद में भारतीय-बांग्लादेशी मज़दूरों को अलग-अलग कर दिया गया था। इरबिल चेक-पोस्ट पर फिर उन चालीस भारतीयों में से एक हरकित (हरजीत मसीह) मिला था जो बेहद डरा हुआ था। हरजीत बार-बार कह रहा था कि बाकी ३९ भारतीय १५ जून को मार दिए गए और हरजीत के पैर में गोली लगी, वह किसी तरह इरबिल तक पहुँचा है। इस बाबत जब विदेश विभाग से बात की गयी तो ऐसा लगा कि उन्हें इस बारे में पहले से ही पता है। हरजीत के चचेरे भाई रॉबिन मसीह ने भी बाद में बताया कि उसकी बात हरजीत से १५ जून, २०१४ को हुई थी और हरजीत ने बताया कि वह इरबिल से बोल रहा है और अगले हफ़्तों में भारत लौट आएगा। 

द हिन्दू की एक खबर के अनुसार राष्ट्रीय सलाहकार अजीत डोवाल, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आई.बी.)  के निर्देशक आसिफ इब्राहिम के साथ जून, २०१४ के आखिरी हफ्ते में बगदाद पहुंचे। भारतीय कूटनीतिक दल अपने प्रयासों से दाएश के साथ संपर्क साधने में सफल रहा और अंततः दाएश के लोगों ने ४ जुलाई, २०१४ को ४६ परिचारिकाओं को मोसूल सीमा पर भारतीय अधिकारियों को सौंप दिया। भारतीय कूटनीतिक दल की इस सफलता पर पूरा भारत झूम उठा। ४६ परिचारिकाएँ सकुशल ५ जुलाई, २०१४ को भारत वापस आ चुकी थीं। सुषमा स्वराज, अजित डोवाल और नरेंद्र मोदी के कुशल संचलन की चहुँओर भूरी-भूरी प्रशंसा थी। मलयाली निर्देशक महेश नारायण ने मार्च, २०१७ में ‘टेक ऑफ’ नाम से एक संजीदा फिल्म बनाई और भारतीय कूटनीतिक दल की इस सफलता पर बॉलीवुड ने भी दिसंबर, २०१७ में एक मसाला फिल्म ‘टाइगर ज़िंदा है ’ बनाई। 

जब मोदी सरकार चहुँओर अपनी यह सफलता भुना रही थी, उसी समय पंजाब, हिमाचल, बिहार और पश्चिम बंगाल के ४० भारतीय मज़दूरों के परिवारजनों को सरकार ने उस वक़्त के हिसाब से सबसे बेशकीमती तोहफ़ा दिया था: उम्मीद ! सरकार बार-बार कह रही थी कि ४० भारतीयों को बंधक बना लिया गया है पर सभी ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज परिवार वालों से मिलती रहीं, पूरे आत्मविश्वास से समझाती रहीं कि उनके अपने इराक में सुरक्षित हैं और ज़िंदा हैं। जुलाई २४, २०१४ को सुषमा स्वराज ने सदन को एक फिर आश्वस्त किया कि अनेक स्रोतों के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि इराक़ में ४० भारतीय सुरक्षित हैं, ज़िंदा हैं और उन्हें भोजन भी मिल रहा है। २८ जुलाई, २०१४ को सुषमा स्वराज ने फिर यह उम्मीद दोहराई। इस बार दो बेहद मजबूत स्रोतों सहित कुल आठ स्रोतों का हवाला दिया। २९ जुलाई २०१४, को हरजीत मसीह ने चचेरे भाई रोबिन मसीह को फोन किया और कहा कि उसे भारत लाया जा रहा है। सरकार ने अगस्त, २०१४ में भी दोहराया कि ४० भारतीय सुरक्षित हैं और ज़िंदा हैं, इधर हरजीत के परिवार वालों से हरजीत का संपर्क टूट चुका था और वे हरजीत का इंतज़ार कर रहे थे। 
सोर्स:DNA 

नवंबर, २०१४ में एबीपी न्यूज के पत्रकार जगविंदर पाटियाल, आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर के साथ इराक़ के शहर इरबिल पहुंचे, जहाँ जगविंदर दो बांग्लादेशी मज़दूर शफ़ी इस्लाम और हसन से मिल सके। उनका इंटरव्यू  २७ नवंबर, २०१४ को प्रसारित किया गया। बताया गया कि हरजीत के पाँव में गोली लगी थी, ४० भारतीयों में से केवल वही बच निकला था, बाकी सभी को दाएश के द्वारा मार दिया गया था और कहा गया कि भारत सरकार झूठ बोल रही है और झूठी उम्मीद दे रही है। इस इंटरव्यू के बाद सुषमा स्वराज को सदन में बयान देना पड़ा कि हरजीत दिल्ली में सरकार के ‘प्रोटेक्टिव कस्टडी’ में है और शेष ३९ भारतीय ज़िंदा हैं व सुरक्षित हैं। फरवरी, २०१५ में सुषमा स्वराज ने एकबार फिर उम्मीद बांधते हुए कहा कि कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं लेकिन सभी ३९ भारतीय ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। १५ मई, २०१५ को मोहाली में आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान के साथ हरजीत मसीह प्रेस कांफ्रेंस करते हैं और बताते हैं कि जुलाई २०१४ से उन्हें सरकार ने अपनी ‘कस्टडी’ में रखा था और पूछताछ कर रही थी। हरजीत मसीह ने इस प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि बाकी ३९ भारतीय १५ जून, २०१४ को ही दाएश के द्वारा मार दिए गए और वह किसी तरह बच निकला। इसके बाद सुषमा स्वराज का फिर बयान आया कि हरजीत झूठ बोल रहा है और उम्मीद जताई कि सभी ३९ भारतीय सुरक्षित और ज़िंदा हैं। १९ जून, २०१५ की अपनी वार्षिक प्रेस कांफ्रेंस में एक बार फिर सुषमा स्वराज ने कहा कि ३९ भारतीय ज़िंदा हैं। जनरल वी के सिंह ने २२ जुलाई, २०१५ को बयान दिया कि सभी ३९ भारतीय सुरक्षित हैं। सभी ३९ भारतीयों के परिजन दम साधे अपनों की राह देखते रहे और फरवरी, २०१६ में सरकार ने फिर कहा कि ३९ भारतीय ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। हरजीत मसीह सहित सभी अनौपचारिक सूत्र जहाँ ३९ भारतीयों के त्रासद अंत के बारे में कमोबेश निश्चित थे, अकेली सुषमा स्वराज और उनकी सरकार कह रही थी कि वे ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। 

इराकी फौजों ने दाएश के लड़ाकों से मोसूल को ९ जुलाई, २०१७ को आज़ाद करवा लिया। १० जुलाई को जनरल वी के सिंह इराक़ भेजे गए। १६ जुलाई २०१७ को सुषमा स्वराज ने कहा कि ३९ भारतीय मोसूल के बादूश जेल (मोसूल से २६ किमी उत्तर-पश्चिम) में बंद हो सकते हैं। १९ जुलाई २०१७ को इराक़ में एक पत्रकार के हवाले से खबर आयी कि बादूश जेल ढह चुकी है और वहाँ कोई भी बंदी नहीं है। भारत में इराक़ी राजदूत और जुलाई, २०१७ में ही भारत यात्रा पर आये इराक़ी विदेश मंत्री ने ३९ भारतीयों के बारे में किसी भी जानकारी के न होने की बात कही। मोसूल में जगह-जगह टीलों को देखा जा रहा था, जहाँ दाएश के लोगों ने स्थानीय लोगों सहित विभिन्न देश के लोगों को सामूहिक रूप से दफनाया था। उनकी जांच-पहचान का काम जोरों पर था। इस सिलसिले में भारत सरकार से भी आग्रह किया गया कि ३९ भारतीयों के नज़दीकी रिश्तेदारों से डीएनए सैंपल इकट्ठे कर उन्हें भेजे जाएँ। डीएनए सैंपल मंगवाए जाने लगे और सदन में सुषमा स्वराज कहती रहीं कि हरजीत झूठ बोल रहा है और बिना किसी सुबूत के किसी को मृत घोषित करना पाप होगा। हरजीत के हवाले से यह खबर आ रही थी कि उसे सरकार की तरफ से ऐसा  दबाव बनाया गया कि वह कहे कि उसे बाकी ३९ भारतीयों के बारे में कुछ नहीं पता है। ३९ भारतीयों में से एक के रिश्तेदार की शिकायत पर हरजीत पर ‘अवैधानिक प्रवसन’ का आरोप लगाया गया और तकरीबन हरजीत ६ महीने जेल में भी रहा। 

घटना के ३ साल १० महीने ३ दिन के बाद १८ मार्च, २०१८ को आखिरकार सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में कहा कि पुख्ता सुबूतों के आधार पर मै दो बातें कहना चाहती हूँ: पहला; हरजीत मसीह झूठ बोल रहा था और दूसरा ३९ भारतीय अब ज़िंदा नहीं रहे। डीएनए सैंपल, वे पुख्ता सुबूत बने जिनके आधार पर बादूश के एक टीले से पाए गए नरकंकालों की शिनाख़्त हो सकी। सुषमा स्वराज के वक्तव्य का पहला बिंदु हरजीत मसीह था और दूसरा बिंदु ३९ भारतीयों की मृत्यु से उन उम्मीदों का राख़ हो जाना था, जिन उम्मीदों को वे पिछले करीब चार सालों से ज़िंदा बताती आ रही थीं, जबकि पूरी दुनिया कुछ और कह रही थी। 

हरजीत ने फिर मीडिया को कहा कि मै क्यों झूठ बोलूँगा, हाँ अच्छा होता कि मै झूठा साबित होता और भाई लोग वापस आ जाते। जनरल वी के सिंह १ अप्रैल २०१८ को इराक लिए रवाना हो गए ताकि शवशेष लाये जा सकें और २ अप्रैल को विशेष विमान से शव अवशेष भारत लाये गए l परिजनों को जल्द से जल्द अंतिम क्रिया करने के निर्देश दिए गए और उन्हें ताबूत खोलने से मना किया गया l बहुत जिद पर कुछ ताबूत खोले गए l एक मृतक की बहन मलकीत कौर ने कहा कि उनका भाई सिख था, वह कभी कैप नहीं पहन सकता था l सोचने-समझने को काफी कुछ है पर मै स्तब्ध यह सोच रहा हूँ कि क्या किसी सरकार के लिए पॉजिटिव परसेप्शन बिल्डिंग इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह सालों-सालों एक त्रासद सच कहने में हिचकती है; महज इसलिए कि कोई यह न कहे कि सरकार नाकाम रही। लोकतंत्र इतनी गैर-जवाबदेही बर्दाश्त कर भी ले तो इतनी असंवेदनशीलता, निष्ठुरता, निर्ममता कैसे सह सकेगा? 

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