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Sunday, August 30, 2020

अहा जिंदगी आमुख आलेख: ऑनलाइन गुरु कितने कामयाब



डॉ. श्रीश पाठक*

कोरोना महामारी के बीच जहाँ अब लोग घरों से निकल जीवन के जद्दोजहद में एक बार फिर से जुट गए हैं, वहीं विधार्थियों की पीढ़ी को अभी भी भौतिक दूरीकरण निभाते हुए विद्यालयों, विश्वविद्यालयों से यथासंभव दूर ही रखने का प्रयास किया जा रहा। शिक्षा के आदान-प्रदान की प्रक्रिया में पारस्परिक अंतःक्रिया का महत्त्व प्रारंभ से ही पूरी दुनिया में स्थापित है l भौतिक दूरीकरण की विवशता ने शिक्षातंत्र के समक्ष यह भारी चुनौती पेश कर दी कि आखिर पारस्परिकता से लबालब कक्षाएँ अब कैसे हो सकेंगी l शिक्षातंत्र के ठिठकने का अर्थ होता, एक पूरी पीढ़ी के भविष्य की तैयारियों का ठिठकना और यह राष्ट्र के भविष्य पर भी प्रतिगामी असर छोड़ता। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनिओ गुतरेस ने कहा कि- विद्यालयों के बंद होने की वजह से दुनिया पीढ़ीगत त्रासदी से जूझ रही है l तकनीक ने यह चुनौती स्वीकार की और शिक्षा जगत ऑनलाइन कक्षाओं की ओर मुड़ गया l चूँकि चुनौती सहसा आयी थी तो जाहिर है इसकी तैयारी कोई मुकम्मल तो थी नहीं। इससे पहले ऑनलाइन कक्षाओं को अनुपूरक माध्यम की तरह ही सराहा गया था और दुनिया भर के शिक्षाविद इसे एक मजबूत वैकल्पिक माध्यम नहीं मानने को लेकर एकमत रहे हैं l कोविडकाल में ऑनलाइन कक्षाएँ एकमात्र माध्यम बनकर समक्ष आयीं और कोशिश जारी है कि यह एक मजबूत माध्यम बन सके। सहसा आयी इस आपदा ने अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के ही समक्ष नवीन चुनौतियों का अंबार लगा दिया। तकनीक अभिशाप या वरदान के शीर्षक वाले निबंधों में नए तर्क सम्मिलित हुए। तकनीकी असमानता, ऑनलाइन कक्षाओं की एकरूपता, गुणवत्ता का प्रश्न, स्क्रीन समय में बढ़ोत्तरी व स्वास्थ्य संबंधी दुश्वारियाँ, अंतर्वैयक्तिक अनुभव का अभाव, आदि कुछ ऐसी चुनौतियाँ विद्यार्थियों के समक्ष सहसा उभर आयीं, जिनसे तुरत उबरना आसान नहीं l इसी तरह, विधार्थियों के जिज्ञासु टकटकी और फिर उनके संतुष्ट आँखों का आदी अध्यापक भी सहसा कई चुनौतियों मसलन - ऑनलाइन तकनीकी माध्यम की सीमाएँ, इंटरनेट पर पूर्ण निर्भरता, उसी पाठ्यक्रम के साथ ऑनलाइन कक्षाओं में ऑफलाइन कक्षाओं के अनुभव को उतारने का दबाव, सीमित देहभाषा प्रयोग, आदि से घिर गए l 


शैक्षणिक सत्र बचाने के समान दबाव के बीच विद्यार्थी एवं अध्यापक उन चुनौतियों से जूझे जा रहे हैं। डिजिटल डिवाइड की खाई को देखते हुए सोलापुर, महाराष्ट्र के नीलमनगर के अध्यापकों ने पाठ पढ़ाने का एक प्रभावी एवं प्रेरक तरीका ढूँढ निकाला है l पाठ्यपुस्तकों के सरल पाठ आसपास के घरों की तक़रीबन 300 से अधिक बाहरी दीवारों पर रुचिपूर्ण एवं कलात्मक रीति से उकेर दिया है l लगभग सभी भारतीय राज्यों ने अपने अध्यापकों की सहायता से ऑनलाइन कक्षाएँ, रिकार्डेड व्याख्यान, मोबाईल ऐप, टेलीविजन आदि के माध्यम से पठन-पाठन को निर्बाध करने की कोशिश की है l तकनीकी ने यकीनन अपनी भूमिका निभायी है लेकिन जैसा  कि माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स कहते हैं कि तकनीकी तो केवल एक यंत्र है, असली महत्ता तो अध्यापकों की है l लगभग सभी स्तरों पर अध्यापकों ने अपनी नयी भूमिका के अनुरूप ढालना शुरू किया है और एक हद तक ही सही संभावित शैक्षणिक निर्वात को ख़ारिज कर दिया है। 


इन सब के बीच इस भीषण समय में एक समानांतर वाद-विमर्श भी सर उठाए है। कुछ लोगों को लगता है कि कोविडकाल के बाद संभवतः अध्यापकों की मूल महत्ता पर ही प्रश्न उठने शुरू हो जाएँ। अब जबकि बहुतेरी पाठ्यसामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है, विद्यार्थी पहले ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, तो क्या अध्यापकों की पारंपरिक भूमिका शेष रह गयी है? मशहूर भारतीय कंप्यूटर वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद सुगाता मित्रा ने वर्ष 1999 में द होल इन द वॉल प्रयोग शुरू किया था, जहाँ उन्होंने भारत के विभिन्न स्थलों पर कंप्यूटर सिस्टम को एक दीवाल में अस्थायी रूप से कुछ समय के लिए लगाकर छोड़ दिया। उन्होने पाया कि बच्चे स्वयं ही काफी चीजें धीरे-धीरे सीख गए, इसमें भाषा और वर्ग का अवरोध भी आड़े नहीं आया। उन्हें किसी निर्देशित वातावरण की आवश्यकता नहीं पड़ी। लेकिन उन्होंने भी माना कि यह सीखना एक सीमा तक ही संभव है और इसमें कहीं से भी अध्यापक की भूमिका समाप्त नहीं हो जाती। दुनिया भर के शिक्षाविद इस प्रश्न के उत्तर में अध्यापन-प्रविधि के अद्यतन करने की बात तो स्वीकार करते हैं लेकिन कोई भी अध्यापक एवं अध्यापन के विकल्प का तर्क नहीं मानते। यह सही भी है क्योंकि अध्यापन महज सूचनाओं का सम्प्रेषण मात्र नहीं है, यह सूचना, ज्ञान, बोध और विद्यार्थियों के समक्ष सम्यक चुनौतियों को वाजिब अनुपात में परोसने की कला है। फिर, सीखने की प्रक्रिया सतत प्रेरणा एवं रचनात्मक हस्तक्षेप की माँग करती है l फ्रेंच कवि, पत्रकार एवं उपन्यासकार अनातोली फ्रांस मानते हैं कि- शिक्षा का दस में से नौवां हिस्सा प्रोत्साहन है l अध्यापकों के जीवंत प्रोत्साहन का विकल्प मॉनिटर पर उभरे एकरस प्रोत्साहन-प्रतीक नहीं कर सकते l फिर सभी विद्यार्थी एक जैसे नहीं हैं, न ही वे एक पृष्ठभूमि के होते हैं और न ही उनकी समझ और रूचि की विमाएँ एक सी होती हैं। इस भिन्नता को विविधता में साधने का कार्य केवल अध्यापकीय कौशल से संभव है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक विलियम जी. स्पेडी कहते हैं कि- सभी विद्यार्थी सीख सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं लेकिन एक ही समय और एक ही रीति से नहीं l इंटरनेट पर अध्ययन सामग्री उपलब्ध हो सकती है, लेकिन दिशा-निर्देशन माउस के क्लिक पर उपलब्ध नहीं है। एकांत के स्वाध्याय से निपुणता उन्हीं विषय-सामग्री पर पायी जा सकती है जहाँ अध्यापक ने विषय-प्रवेश करा रूचि जाग्रत कर दी है l वर्ष 2012 के आसपास यह समझा गया था कि इंटरनेट पर उपलब्ध मैसिव ऑनलाइन ओपन कोर्सेज (मूक) शिक्षा में क्रांति रच देंगे और धीरे-धीरे अध्यापकों की परंपरागत भूमिका को समाप्त कर देंगे, लेकिन अनुभव बताते हैं कि उनमें विद्यार्थियों ने उतनी रूचि नहीं ली क्योंकि वहाँ व्यक्तिगत-मानवीय हस्तक्षेप की गुंजाईश कम रही और विधार्थी-विशेष की आवश्यकताओं पर ध्यान देना वहाँ संभव न रहा। अनुपूरक रूप से सभी अध्यापन प्रविधियों एवं माध्यमों की महत्ता निश्चित ही है लेकिन इनमें से किसी भी माध्यम में अकेले अथवा संयुक्त रूप से मानवीय भूमिका को स्थानांतरित करने की क्षमता नहीं है l यह अभीष्ट भी नहीं है, क्योंकि मानव एक सजग प्राणी है, उसे जीवंत बोध की दरकार रहती है, सूखी सूचनाएँ उसके लिए पर्याप्त नहीं है। जापान की एक लोकप्रिय कहावत कहती है कि - हजार दिनों के अध्ययन-परिश्रम से अधिक बेहतर सच्चे अध्यापक के एक दिन का साथ है और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में ऐसा इसलिए है क्योंकि सच्चे अध्यापक हमें हमारे बारे में सोचना सिखाते हैं।  


*लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी, नोयडा में विश्व-राजनीति विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।  


Monday, April 27, 2020

Political Literacy: संप्रभुता (Sovereignty)


28/04/2020

Image Source: Thesaurus.Plus





संभव हो और आप अर्थशास्त्र से अर्थ निकाल लें, मनोविज्ञान से मन, बैंकिंग से बैंक, समाजशास्त्र से समाज और इतिहास से अतीत, तो इन सब्जेक्ट्स में कुछ बाकी नहीं रहेगा l ठीक उसीप्रकार राजनीतिशास्त्र में यदि संप्रभुता की अवधारणा निकाल दी जाय तो यह सब्जेक्ट अपना केन्द्रक खो देगा और निष्प्राण हो जाएगा l राजनीति के विद्यार्थी हों और संप्रभुता की अवधारणा से अनभिज्ञ या अस्पष्टता हो, तो अन्य सभी प्रयत्न अर्थहीन हैं l राजनीति का अध्ययन करते हुए बार-बार यह महसूस होगा कि एब्स्ट्रेक्ट इतने भी शक्तिशाली हो सकते हैं l राजनीति में जिन तथ्यों की साधिकार चर्चा की जाती है उनमें से अधिकांश कोई भौतिक सत्ता नहीं रखते, टैंजीबल नहीं हैं l लेकिन अपने प्रभाव में वे इतने प्रबल हैं कि उनका एब्स्ट्रेक्ट होने पर सहसा विश्वास नहीं होता l राज्य भी एक अवधारणा ही है, इसे आप स्पर्श नहीं कर सकते, यह हमारे मन में क्रमशः स्थापित एक अवधारणा है l हाँ, अवश्य ही राज्य के अन्यान्य एजेंसियों और एजेंटों से हम रूबरू होते हैं l यों ही संप्रभुता की अवधारणा भी एक एब्स्ट्रेक्ट ही है लेकिन यह राजनीति की कोशिका का केन्द्रक है l

संप्रभुता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति का होना है l संप्रभु की निर्णायक विशेषता ही संप्रभुता है l किसी निश्चित भूभाग पर संप्रभु वह निकाय अथवा व्यक्ति है जिसे केवल आज्ञा देने की आदत है, आज्ञा लेने की आदत नहीं है l आज्ञा लेते ही वह सर्वोच्च शक्ति कहाँ रह जाएगा? चूँकि वह सर्वोच्च शक्ति है तो इसकी इच्छा ही कानून है l कानून की एक सरल परिभाषा यह भी है कि वह संप्रभु की इच्छा है l अब संप्रभु की इच्छा तक पहुँचने की प्रक्रिया इतनी सरल नहीं l यहीं से राजनीतिक तंत्र (पोलिटिकल सिस्टम) की चर्चा की शुरुआत होती है l सर्वाधिक ध्यान देने वाली बात संप्रभुता की यह है कि इसे काटा नहीं जा सकता, बाँटा नहीं जा सकता और न ही इसे किसी को प्रत्यायोजित/प्रत्यायुक्त (delegate) किया जा सकता है; अर्थात इसे विखंडित कर विभाजित नहीं किया जा सकता है और न ही यह ऐसी कोई वस्तु है जिसे कुछ समय के लिए किसी और को सौंपा ही जा सकता है l यह समझा भी जा सकता है क्योंकि यदि इसे काटा जाए, बांटा जाए अथवा इसे किसी को एक परिमाण में सौंप दिया जाए तो यह सर्वोच्च शक्ति न रह सकेगी l संप्रभुता, राजनीतिशास्त्र की आत्मा है जिसे काटा, बांटा और साझा नहीं किया जा सकता l यहाँ यह भी समझें कि संप्रभुता सर्वोच्च शक्ति का होना है, लेकिन शक्ति की अवधारणा और संप्रभुता की अवधारणा में अंतर है l शक्ति का विभाजन संभव है, लेकिन संप्रभुता विभाजित होते ही अपने परम पद से च्युत (suspend) हो जाएगी और विनष्ट हो जाएगी l

संप्रभु की जरुरत क्यों है, यह समझ लेना आवश्यक है l संप्रभु के अस्थिपंजर के ऊपर ही राज्य के अवधारणा की मांस-मज्जा सजती है l राज्य के केंद्र में यदि सर्वशक्तिशाली संप्रभु न बैठा हो तो वह भरभराकर गिर उठेगा l संप्रभु के अभाव में राज्य संभव नहीं और राज्य के अभाव में व्यवस्था संभव नहीं और व्यवस्था का अभाव अराजकता (एनार्की) को जन्म देता है जिससे मानव के अस्तित्व पर ही संकट आ जाता है l जीवन की सततता और उसका विकास किसी केयोस (Chaos) में संभव नहीं l इसलिए हमें संप्रभु की निर्णायक विशेषता संप्रभुता की आवश्यकता है l

आगे चलकर व्यवस्था और अधिकार के विमर्श संभव हो सके l यह समझा गया कि सुव्यवस्था वही है जिसमें अंतिम व्यक्ति के अधिकार की भी व्यवस्था हो l संप्रभुता में शक्ति का केन्द्रीकरण है क्योंकि वह सर्वोच्च शक्ति है तो वह व्यक्ति का अधिकार संजोएगा इसमें संशय है l अब चूँकि हम संप्रभुता की अवधारणा को शक्तिहीन नहीं कर सकते लेकिन उसकी बनने की प्रक्रिया और स्रोत को नियंत्रित कर सकते हैं, तो यह माना गया कि यदि जिसके अधिकार सुरक्षित करने हैं, उसी को संप्रभु कहा जाए तो इस समस्या से पार पाया जा सकता है l लोकतंत्र इसी समझ का परिणाम है l लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निवास करती है l जनता-जनार्दन से सर्वोच्च शक्ति कोई दूसरी नहीं l यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि व्यक्ति विशेष में सम्रभुता नहीं होती या कोई एक व्यक्ति लोकतंत्र में संप्रभु नहीं होता अपितु जनता संप्रभु होती है l एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समस्त हो संप्रभुता का निर्माण करते हैं l चूँकि संप्रभुता विभाजन स्वीकार नहीं करती तो कोई एक नागरिक में यह निवास कर ही नहीं सकती l एक राजनीतिक व्यवस्था में (विशेषकर लोकतंत्र'में ) राष्ट्र का अध्यक्ष अपने अधिकारों में सर्वोच्च हो सकता है, अथवा संसद अपने अधिकारों में सर्वोच्च हो सकती है लेकिन संप्रभु होना संभव नहीं, यह निर्णायक रूप से अंततः जनता में ही निवास करती है l इसलिए ही एक व्यक्ति के आवाज उठाने में और जनता के आवाज उठाने में निर्णायक अंतर होता है l व्यक्ति के जायज मांगों को जनता की मांग में तब्दील करने का काम राजनीतिक कार्यकर्त्ता और दलों का हैं और मीडिया उस जनता की आवाज की पिच को तेज, भारी और सर्वव्यापी बनाती है, इसलिए महत्वपूर्ण है l

#Political_Literacy
#श्रीशउवाच 


Saturday, April 25, 2020

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

डॉ. श्रीश पाठक* 


वही लाल सूरज जो कल शाम डूबा था, अल सुबह उगने को है l ये नवजात लाल सूरज ताजे चौबीस घंटों की नयी सौगात बेदम हिम्मतों को देने को आतुर है l उम्मीदों की सुतली को इतनी चिंगारी काफी है कि सुबह होगी, लाल सूरज फिर खिलेगा l डटे रहने के लिए, इतना आसमान काफी है कि मौसम बदलेगा l चमकते तारों के दीदार को रात के काले अँधेरे की दरकार होती है l अपने-अपने घरों में डटे हम लोग आजकल जिंदगी को जरा ज्यादा करीब से महसूस कर पा रहे हैं, अब इस मज़बूरी की अंधियारी रात में साथ के चमकते तारों को तो ढूँढना होगा l ये वही लोग हैं, जिनके साथ सुख सुकून शांति से रहने के लिए हम सहूलियतें जुटाते हुए दरबदर बाहर भटकते रहे हैं l कहीं पहुँचने के लिए दौड़ना तेज था, अब तेजी के लिए रोज दौड़े जा रहे हैं, लगी इस लत को समझने के लिए जिस ठहराव की जरुरत थी, उस ठहराव में हैं हम l यह ठहराव हमें अवसर दे रहा पुनरावलोकन का l 


Dainik Bhaskar (Aha Zindgi)


स्मृति तो हर जीव में न्यूनाधिक होती है लेकिन मनुष्य, कल्पना का वरदान लिए जन्मता है l स्मृति के सहयोग से कल्पना, मनुष्य में भविष्य का उमंग भरती जाती है और इस उत्ताल उमंग से वर्तमान का दुर्घर्ष सहनीय और सुगम्य होता जाता है l स्वप्नदर्शी होना, प्रत्येक मनुष्य को गतिशील बनाता है l स्वप्न हैं अपने-अपने, स्वप्नों के अपने-अपने परिक्रमण पथ पर सभी अग्रशील होते हैं l ये स्वप्न सभी को अनूठा व्यक्तित्व और अनुपम संयोजन देते हैं l यह अनूठापन ही जगत-व्यापार में अलग-अलग भूमिकाएँ पाने में मदद करता है l जीवन के सतरंगी सागर में इसप्रकार अनगिन अलबेली नौकाएँ तिरती-फिरती रहती हैं l यूँ तो जगत का हर जीव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है, हारता है, उठता है, जीतता है फिर लड़ता है, लेकिन मानव ने बहुधा स्वयं को दाँव पर लगाकर मानवता की रक्षा की है l चौदहवीं सदी के ब्युबोनिक प्लेग जिसने दुनिया के एक-तिहाई लोगों को अपना निशाना बना लिया था, से लेकर आज तक महामारियों का इतिहास सुझाता है कि जानकारी और सावधानी का अभाव ही बीमारियों को त्रासदी में तब्दील करते हैं l मानवता का ज्ञात इतिहास दर्जन भर से अधिक महामारियों की त्रासदियों से अटा पड़ा है l इतिहास के उन पन्नों से गुजरते हुए अनिश्चितता, असुरक्षा, भय के वही भाव उसी शिद्दत से उभरते हैं, जिनमें कमोबेश आज फिर मानवता है l त्रासदियों के इतिहास का हर अध्याय बताता है कि उसके तुरंत बाद मानवता के सुनहरे पन्ने लिखे गए l इन सुनहरे पन्नों के लेखकों की नींव उन्हीं ने बनायीं थी जो उन भयंकर त्रासदियों से गुज़रे थे l दुनिया सामंतवाद के बेलगाम शोषण से मुक्त होने में और अधिक सदियाँ लेती जो महामारी ने मानवता को मजबूर न किया होता l फिर शेष लोगों ने विपत्ति को बेहद जरूरी सामाजिक सुधार के लिए एक बड़े अवसर में तब्दील कर दिया l आधुनिकता की नींव जिस  पुनर्जागरण आन्दोलन पर टिकी है वह मानवता की सबसे भीषण त्रासदी ब्युबोनिक प्लेग के बाद उपजी थी जिसने यूरोप की आधी आबादी को इस कदर लील लिया था कि उस जनसंख्या के फिर उसी संख्या में पहुँचने में अगले २०० साल लग गए थे l काले प्लेग की त्रासदी के बाद मानव अनोटोमी पर जो शोध हुए उनपर ही आज आधुनिक मेडिकल साइंस की ईमारत खड़ी है l प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका ने स्त्री सुधारों का रास्ता खोला तो स्पेनिश फ्लू के बाद सार्वजनिक चिकित्सा कल्याण कार्यक्रमों ने मानव की औसत जीवन प्रत्याशा की दर अभूतपूर्व रूप से किसी भी गुज़री सदी से बेहतर कर दी l एक समय जिस विजेता नेपोलियन से समूचा यूरोप दहला हुआ था, उसी नेपोलियन ने कैरीबियाई देश हैती को विजित करने के लिए एक बड़ा जहाजी बेड़ा भेजा, ताकि गुलामों का बाजार बना रहे l नेपोलियन की सेना हारी, हैती को उसकी स्वतंत्रता मिली क्योंकि हैतीवासी उन बीमारियों के खिलाफ अपने शरीर में प्रतिरक्षा विकसित कर चुके थे जो यूरोप में फैलती थीं l उनका ग़ुलाम के रूप में यूरोप में काम करना किसी भयंकर त्रासदी से कम नहीं था लेकिन उसी त्रासदी ने उन्हें प्रतिरक्षा भी दी थी l पिछली गुजरी कितनी ही त्रासदियों में तो हमारे पास इन्टरनेट नहीं था, विज्ञान इतना उन्नत नहीं था, बीमारी के कारक ही पता नहीं होते थे, फिर भी मानवता न केवल उनसे पार पा सकी बल्कि प्रत्येक त्रासदी से अपने लिए पारितोषिक भी अर्जित किया l आज विज्ञान उन्नत है, हफ़्तों में महामारी की पहचान हो जाती है, महीनों में उसके टीके, इलाज या उनसे निबटने के तरीकों का ईजाद हो जाता है l गुजरी कितनी ही महामारियों-त्रासदियों में जो लोग शेष रहे, उनके समक्ष भी अनिश्चितता, असुरक्षा और भय का वही बड़वानल था लेकिन उनके पास था एक अदम्य विश्वास जो अनिश्चितता पर भारी पड़ा, वे लबालब थे एक अटूट उम्मीद से जो भय पर भारी पड़ी, और वे ओतप्रोत सजग थे मानवता से जो उस असुरक्षा के माहौल से उन्हें बाहर खींच लायी l 


नाउम्मीदी से बड़ी बीमारी अब तक मानव ने कोई दूसरी नहीं बनाई है और त्रासदियों में सबसे विकराल चुनौती इसी नाउम्मीदी की बीमारी को महामारी में बदलने से रोकने की होती है l व्यक्ति के स्तर पर ऐसे समय में इससे बड़ी मदद कोई और नहीं हो सकती कि आप उम्मीदों की मशाल को पूरी मजबूती से थामे रहें, जिसे देख दूसरों को भी संबल मिले, यह आसान नहीं है l यह जर्मनी के राज्य वित्त मंत्री थॉमस शेफर से नहीं हो सका यह, उन्होंने आत्महत्या कर ली l मौजूदा महामारी के संकट के बीच उन्हें लगा कि उनका राज्य हेसी कभी आर्थिक संकट से मुक्त न हो सकेगा l उम्मीद की एक लौ बुझती है तो बाकि बत्तियां भी ठिठकती हैं l लौ ही सही, बुझना नहीं है, उम्मीद की बाती को हिम्मत के तेल से तर रखना है ताकि मानवता की आंच आती रहे l धीरे-धीरे पूरा आँगन रौशन होगा और हम देखेंगे कि हम केवल इस पार ही नहीं आये हैं, बल्कि गुणात्मक रूप से रूपांतरित भी हुए हैं l यह समय यकीनन सामाजिक दुरीकरण का है लेकिन इसे सामाजिक विरागीकरण में परिवर्तित नहीं होने देना है l रिश्तों की खोज-खबर लेकर, उन्हें संजोकर हमें संबंधों का पूल बनाना है, ज्ञान-विज्ञान के बोध साझा कर अनुभव का पूल बनाना है और एक-दुसरे के आशयों के लिए आवश्यक संवेदनशीलता विकसित करनी है ताकि मानवता अपनी अस्तित्व अपनी पूरी महत्ता में बचा सके l  


हमारी सभ्यता, हमारी परम्पराएँ और हमारे जीवन मूल्य, त्रासदियों से जूझने के दौरान अर्जित किये गए पाठों के अनुशीलन से बने हैं l ‘एपिडेमिक्स एंड सोसाइटी: फ्रॉम द ब्लैक डेथ टू द प्रेजेंट’ के लेखक प्रोफ़ेसर फ्रैंक एम. स्नोडेन कहते हैं कि ‘त्रासदियाँ, मानवता के लिए दर्पण का काम करती हैं l हमें इनसे पता चलता है कि एक व्यक्ति के तौर पर हमारा हमारे वातावरण से कैसा रिश्ता है और समाज के तौर पर हम एक-दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं, कहीं वैश्विक अंतर्सम्बद्धता का सूत्र हमसे छूट तो नहीं गया है l’ त्रासदियाँ आती हैं, जाती हैं पर हमें वह शेष बनना है जो अपने भीतर उम्मीद की लौ को बुझने नहीं देते क्योंकि वे जानते हैं कि समय यह भी कुछ देकर जाएगा l इन्हीं शेष में से फिर मानवता का अशेष उपजता है जो जीवन की सततता को शक्ति देते हैं l जब चहुंओर अनिश्चितता, भय, अवसाद की ख़बरें आती हों, जब लोग एक-दूसरे पर ही संदेह करने लगे हों, जब समुदाय एक-दूसरे का साथ देने को प्रेरित कर पाने में अक्षम हो रहे हों, एक व्यक्ति के तौर पर इस महामारी में केवल हाथों को साफ़ रखना काफी नहीं होगा। हमारी आँखों को भी खुले रहना होगा उन सभी कोनों की ओर जहाँ से उम्मीद की, विश्वास की, सकारात्मकता की कहानियाँ दिखती हों, क्योंकि ये कहानियाँ ही हमारी जिजीविषा की जरूरी ईंधन हैं जिनपर वृहत्तम शेष अपने अशेष की बुनियाद रखेंगे। 


*लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी में विश्व राजनीति के शिक्षक हैं. 


Sunday, January 12, 2020

कैसे समझें वामपंथ (Leftist), दक्षिणपंथ (Rightist) और केन्द्रस्थ (Centrist) राजनीति का अंतर

डॉ. श्रीश 

यों तो यह उम्मीद करना कि सामान्य बोलचाल की भाषा में राजनीतिक शब्दावलियों का सटीक प्रयोग ही हो, इतना आसान नहीं है; लेकिन थोड़े भी संवेदनशील एवं जागरूक व्यक्ति के लिए यह जरुरी हो जाता है कि वह राजनीतिक शब्दावलियों का कम से कम लिजलिजा प्रयोग न करे. चूँकि राजनीति सबको प्रभावित करती है तो इसके शब्दों का असंयत, अनुचित प्रयोग बेजा का भ्रम पैदा करेगी और सहयोग के स्थान पर संघर्ष की स्थितियां निर्मित करेंगी. इस लेख में हम वामपंथ और दक्षिणपंथ के सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंतर को समझने की कोशिश करेंगे और इस कोशिश के साथ ही हम समाजवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद (कम्युनिज्म), पूंजीवाद, केन्द्रस्थ राजनीति (Centrist Politics), फांसीवाद और कन्जर्वेटिज्म (रुढ़िवादी/संकीर्णतावादी) आदि शब्दावलियों को प्रसंगानुसार देखेंगे.

आज हम सभी राजनीतिक विकास के जिस चरण में हैं उसकी प्रकृति में प्रत्येक देश की राजनीतिक संस्कृति के अनुरूप विविधताएँ हैं. राजनीतिक विकास का पथ सीधा सपाट नहीं रहा है इसलिए ही राजनीतिक शब्दावलियाँ कम से कम सामान्य बोलचाल में खासा भ्रमपूर्ण हो जाती हैं. लगभग संपूर्ण विश्व में राजनीतिक विकास की यात्रा, राजतंत्र से लोकतंत्र एवं एक व्यक्ति (सामान्यतया राजा) के शासन से नागरिक शासन की ओर उन्मुख हुई है. इस यात्रा में कई टेढ़े-मेढ़े घुमाव हैं जिनकी वज़ह से ही  प्रचलित राजनीतिक शब्दावलियों के आम प्रयोग में इतना घालमेल है.

सिद्धांत के स्तर पर दर्शन की दो धाराओं ने मानव जाति की प्रगति का नेतृत्व किया है. एक धारा यह मानकर चली कि जो कुछ भी है उसके मूल में पदार्थ है (पदार्थवाद) और विचार, पदार्थ से ही व्युत्पन्न है. दूसरी धारा इसके उलट विचार को प्रथम मानती है (विचारवाद/आदर्शवाद) और पदार्थ को महत्ता में दूसरी वरीयता में रखती है. दोनों ही वैचारिक धाराओं में पदार्थ और विचार की चर्चा है, लेकिन अन्तर प्राथमिकता का है. आगे दोनों ही धाराओं में मानव विकास के सापेक्ष जटिलताएं आती गयी हैं.

राजनीतिक स्तर पर ‘विकास’ एवं ‘सुंदर जीवन (Idea of Good Life)’ की गरज से दो दिशाओं में वैचारिक विमर्श आगे बढ़ा. एक विमर्श ने ‘समाज’ को वरीयता दी तो दूजे ने ‘व्यक्ति’ को. प्रारंभ में यह विभाजन इतना स्पष्ट नहीं था. बल्कि दोनों ही धाराओं ने अपने-अपने तरीकों से ‘एक व्यक्ति के शासन (राजतन्त्र)’ के स्थान पर धीरे-धीरे ‘नागरिक का शासन/जनता के शासन (लोकतंत्र/जनतंत्र)’ को वरीयता दी है. राजतन्त्र के खिलाफ जनता ने क्रांति आन्दोलन किये. परिणाम ये रहा कि या तो राजतन्त्र के स्थान पर जनतंत्र की स्थापना हुई अथवा राजतन्त्र ने व्यापक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राथमिकता देते हुए जनता के शासन को आत्मसात कर लिया. राजनीति के भीतर इस व्यापक बदलाव के बाद जब राजनीति लगभग जनता के हाथों में आ गयी तो विचारधारा के स्तर पर ‘व्यक्ति’ और ‘समाज’ प्रेरित सिद्धांतों का अंतर न केवल स्पष्ट होता गया बल्कि यह दैनंदिन राजनीति में एक निर्णायक पहलू के तौर पर उभरता चला गया है.

कालान्तर में राजनीतिक विकास कुछ यों हुए कि ज्यादातर विचारधाराएँ जो अपने वैचारिक विकास के केंद्र में ‘व्यक्ति’ को रखना पसंद करते थे वे विचारवादी/आदर्शवादी परम्परा (Idealism) से जुड़ गए और अन्य ज्यादातर विचारधाराएँ जिन्होंने ‘समाज’ को केंद्र में रखकर अपना वैचारिक सौष्ठव गढ़ा, वे पदार्थवादी परम्परा (Materialism) से संलग्न हो गए. सुंदर बात यह थी कि दोनों ने शोध की वैज्ञानिक प्रविधि को अपनाया. यहाँ यह बात समझने योग्य है कि इस वैचारिक विकास में प्रत्येक देश ने अपने-अपने इतिहास, समाज, भूगोल एवं पर्यावरण के मुताबिक इसमें योगदान दिया है और विविधता संजोयी है. कोई एक परिभाषा, कोई एक समझ इसमें अंतिम नहीं है.

समाजवादी वैचारिक परम्परा (Collectivism) के चार सोपान माने जाते हैं- 1. स्वप्नदर्शी समाजवाद (यूटोपियन सोशलिज्म), 2. वैज्ञानिक समाजवाद (मार्क्सवाद) 3. समाजवादी लोकतंत्र/संयत समाजवाद (सोशलिस्ट डेमोक्रेसी/मोडरेट सोशलिज्म) 4. सोशल गोस्पेल (उदारवादी धर्मसिद्धान्त). यूटोपियन सोशलिज्म, वह शुरुआती समाजवादी वैचारिक विकास को कहते हैं जो कार्ल मार्क्स के पहले हुआ. इसमें उतनी स्पष्टता तो नहीं है लेकिन व्यक्ति के ऊपर समाज को वरीयता देने की प्रवृत्ति विद्यमान है. इसके विचारकों को स्पष्टता से पदार्थवादी या आदर्शवादी परम्परा में रखना मुश्किल है, क्योंकि उनमें दोनों प्रवृत्तियां घुली-मिली हैं. मार्क्सवाद, समाजवादी वैचारिकी का मार्क्स द्वारा स्थापित संस्करण है. चूँकि यह पुनर्जागरण के बाद हुई तर्कवाद की प्रगति से निकले आधुनिकतावाद (Modernism) से ओतप्रोत है, और व्याख्या के प्रत्येक पर खासा तार्किक है, इसलिए इसे वैज्ञानिक समाजवाद कहा गया. मार्क्स के द्वारा दिए गए  समाजवाद के संस्करण में स्वतः स्फूर्त क्रांति के पश्चात् हुए सत्ता परिवर्तन को लक्ष्य किया गया है जिसमें अंततः शासन सत्ता की बागडोर शोषितों के हाथ में आ जाती है और आर्थिक संसाधनों पर शोषितों का सामूहिक अधिकार स्थापित हो जाता है. इस व्यवस्था में प्रत्येक को उसके योगदानों के अनुरूप भुगतान की बात होती है. मार्क्स इस अवस्था से संतुष्ट नहीं होते. वह एक और अवस्था की चर्चा करते हैं जिसे वह कम्युनिज्म (साम्यवाद) का नाम देते हैं. स्वतः स्फूर्त रीति से ही फिर समाज में वर्ग व्यवस्था (Class System) ख़त्म हो जाएगी. समाज का विकास राष्ट्र की संकीर्ण दीवारों से इतर हटकर मानव मात्र के विकास की ओर उन्मुख हो जायेगा. इस राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को उसके योगदान के अनुरूप नहीं अपितु उसके जरूरतों के मुताबिक ही भुगतान की व्यवस्था होगी क्योंकि सामूहिक लाभ को सभी के लिए उपलब्ध करने की मंशा से यह व्यवस्था कार्य करेगी जिसमें किसी भी प्रकार के भेदभाव एवं शोषण के लिए स्थान नहीं होगा. उपनिवेशवाद से मुक्त होने के बाद अधिकांश देशों ने समाजवाद के तीसरे सोपान को अपनाया जिससे समाजवादी लोकतंत्र कहते हैं. यहाँ समाजवादी मूल्यों को तो वरीयता दी गयी लेकिन राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में सहयोग (Cooperation) और होड़ (Competition) दोनों की गुंजाईश रखी गयी. सार्वजनिक उपक्रम एवं निजी उपक्रम दोनों के लिए जगह छोड़ी गयी लेकिन झुकाव कल्याणकारी एवं सार्वजनिक कार्यकलापों पर ही रखा गया. चौथा सोपान खासा धार्मिक स्तर पर है जिसमें यह आशा व्यक्त की गयी कि एक दिन आध्यात्मिक स्तर पर वैश्विक एकता स्थापित होगी और जिसमें भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं होगी.

आदर्शवादी वैचारिक परम्परा भी अपने विकास में चार चरणों को पार करती है. औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजी आधारित व्यापार की शुरुआत होती है और धीरे-धीरे पूंजीवाद (पहला चरण) मानव जीवन के प्रत्येक आयाम की अपने स्तर से व्याख्या करने लग जाता है. जिसके पास पूंजी (योग्यता) होगी, वही व्यक्ति (व्यक्तिवाद) राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों का नियामक होगा (दूसरा चरण). यही वो वैचारिक विकास का पड़ाव है जहाँ पूरी स्पष्टता से समाज के ऊपर व्यक्ति को वरीयता देने की परम्परा की शुरुआत होती है. व्यक्तिवाद ने राज्य से व्यक्ति के अधिकारों की मांग पूरे जोर से की और ज्यों-ज्यों राज्य का लोकतंत्रीकरण होता गया, व्यक्ति के पास ऐसे मूल अधिकार होते गए, जिन्हें पूरा करना राज्य की जिम्मेदारी बनती गयी. इसे ही ‘लोककल्याणकारी राज्य’ की संकल्पना कहते है (तीसरा चरण/उदारवादी चरण). वैश्वीकरण के सतत प्रक्रियाओं ने जहाँ एक तरफ से दुनिया भर के देशों को अपनी सीमा खोलकर आर्थिक सहयोग के लिए उकसाया वहीं दुसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण, विनिवेश आदि प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप संरक्षणवादी राज्य (कंजर्वेटिज्म) की संकल्पना (चौथा चरण) को जन्म दिया जिसमें राज्य का लोककल्याणकारी स्वरुप संकुचित होता जा रहा.

इन राजनीतिक शब्दावलियों को यदि व्यवहार के स्तर पर देखें तो ध्यान देने वाली बात यह है कि पूंजीवाद और व्यक्तिवाद के चरम ने एक तरफ दुनिया को साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की त्रासदी दी तो दूसरी तरफ इसने उत्कट राष्ट्रवाद को ऐसी हवा दी कि दुनिया को दो-दो महायुद्धों का सामना करना पड़ा. सरकारें जिन्होंने समाजवाद की परम्परा को व्यावहारिक स्तर पर अपनाने की कोशिश की, उनमें भी तानाशाही, राष्ट्रवादी प्रवृत्तियां इतनी हावी हुईं कि या तो वे अब उदारवादी लोकतंत्र को अपना चुके हैं या अब वे अपने मूल समाजवादी चरित्र से ही भटक चुके हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध से लगभग समूचे विश्व में उदारवादी लोकतंत्र को धीरे-धीरे अपनाया जा रहा, जिसमें कहीं-कहीं समाजवादी तो कहीं-कहीं कंजर्वेटिव प्रवृत्तियां विद्यमान हैं.

वामपंथ एवं दक्षिणपंथ राजनीति को यदि हम समझने की कोशिश करें तो पहले हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यावहारिक राजनीतिक विकास के सापेक्ष जो राजनीतिक वैचारिकी का विकास हुआ है, दोनों ने दोनों को प्रभावित किया है और दोनों ने ही दोनों को अपने शुद्धतम रूप में नहीं रहने दिया है. पुरी दुनिया में इसीलिए ही किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने शुद्धतम रूप में किसी भी राजनीतिक वैचारिकी का उदाहरण नहीं कहा जा सकता. सिद्धांत और व्यवहार का इतना अंतर तर्कसंगत भी है. सामान्यतया अब कलेक्टिज्म की सभी परम्पराओं को लोकप्रिय राजनीति में वामपंथ कह कर पुकारा जाता है और विचारवाद/आदर्शवाद की सभी परम्पराओं को दक्षिणपंथ कहकर पुकारा जाने लगा है. इसकी एक वज़ह तो ये है कि वैचारिक धाराएँ समय के साथ इतनी जटिल होती गयीं, जिन्हें सामान्य राजनीतिक व्यवहार में ठीक-ठीक समझना कठिन होता गया है. ऊपर आपने ये जटिलताएं महसूस भी की होंगी. उत्तर-दक्षिण पंथ की पदावली सहज है और तुरत ही समझ आती है. लेकिन इस उत्तर-दक्षिण की इस शब्दावली को समझने के लिए फ़्रांसिसी क्रांति की ओर मुड़ना होगा. क्रांति के बाद राष्ट्रीय सांविधानिक सभा जब इस बात का निर्णय करने के लिए बैठी कि नए राजनीतिक व्यवस्था में क्या राजा के पास कोई निषेधाधिकार दिया जाय अथवा नहीं. राजा को निषेधाधिकार देने के हिमायती राष्ट्रपति के दाहिनी ओर बैठे (Girondists) और जो राजा को बेहद सीमित अधिकार देना चाहते थे, वे बांयी ओर बैठे (Montagne). ईसाई परम्परा में भी ईश्वर अथवा परिवार के मुखिया (भोजन के मेज के सन्दर्भ में ) के दाहिनी ओर बैठना सम्मान की बात मानी जाती है. सामान्यतया राजा के हिमायती जो समाज के उच्च प्रतिष्ठित जन (नोबेल), राजसी पदाधिकारी, समर्थक होते थे वे राजा के दाहिनी ओर स्थान पाते थे और साधारण जन राजा के बांयी ओर स्थान पाते थे. यह सहज विभाजन आधुनिक राजनीति में इस तरह लोकप्रिय होता गया कि जो सामान्यतया पारम्परिक राजनीतिक मूल्यों के हिमायती थे उन्हें दक्षिणपंथी कहा जाने लगा और जो परिवर्तन और नवीन, आधुनिक राजनीतिक मूल्यों के हिमायती थे उन्हें वामपंथी कहा जाने लगा. इसके साथ ही किसी भी राजनीतिक मंच पर बहुधा स्थापित परम्परा के हिमायती दक्षिणपंथी कहलाये और उसमें परिवर्तन के समर्थक वामपंथी कहलाये, इसके लिए पूंजीवादी, उदारवादी या समाजवादी होना अनिवार्य नहीं है. यहीं एक और महत्वपूर्ण बात समझने को है. वैश्विक लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में वामपंथी परम्परा का योगदान न्यून नहीं किया जा सकता क्योंकि वे परिवर्तन के हिमायती थे. चूँकि अब विश्व में लगभग सभी देशों में उदारवादी लोकतंत्र या इसके जैसी कोई व्यवस्था अस्तित्व में है जो वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सांस ले रहे हैं और घोषित तौर समाजवादी व्यवस्थाएं हाशिये पर हैं तो अमूमन लगभग सभी राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिणपंथी शब्द उदारवादी राजनीति को व्यक्त करने लगा है और वामपंथी शब्द समाजवादी राजनीति को व्यक्त करने लगा है. इसप्रकार अगर वामपंथी शब्द का इतिहास देखें तो यह स्वयं में आधुनिक राजनीतिक परिवर्तन के गौरवशाली इतिहास को समेटे है.

कोई व्यक्ति वामपंथी है तो इसका यह अर्थ अवश्य निकलता है कि वह सत्ता के स्थापित मूल्यों में परिवर्तन का हिमायती है, बहुत सम्भावना है कि वह समाजवादी हो, संभव है कि वह साम्यवादी हो, लेकिन एक सम्भावना यह भी है कि वह किसी खास राष्ट्रीय राजनीति में उदारवादी होते हुए भी वहाँ की सत्ता के स्थापित मूल्यों का विरोध कर रहा हो और उसमें परिवर्तन का हिमायती हो तो लोकव्यवहार में वहाँ उसे वामपंथी कहा जा रहा हो.

केन्द्रस्थ राजनीति समझने के लिए हम वाम-दक्षिण-केंद्र की राजनीतिक पेंडुलम उपमा का उपयोग करेंगे. केन्द्रस्थ राजनीति का अर्थ है कि राजनीति का विचार के स्तर पर मध्यमार्गी होना, जहाँ पेंडुलम बिलकुल अपनी आदर्श स्थिति यानि बीच में स्थित होता है. केन्द्रस्थ राजनीति मिक्स इकोनोमी की वकालत करती है, मूलभूत नागरिक सेवाओं को सार्वजनिक स्रोतों से करने की हिमायती होती है और साथ ही नागरिक को निजी सेवाएं लेने को भी हतोत्साहित नहीं करती. पूंजीवादी मूल्यों और समाजवादी मूल्यों में एक सतत साम्य बनने को उद्यत रहती है. कनाडा की राजनीति इसका बेहतर उदाहरण है.

यही पेंडुलम जब दक्षिण की ओर ऊपर उठ जाती है तो इसे दक्षिणपंथी राजनीति कहते हैं. पूंजीवाद, प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिवाद (ONE before all), बाजार, निजीकरण, विनिवेश, राज्य की जिम्मेदारी कम होते जाना, उत्तरदायी सरकार, सार्वजनिक निकायों से अधिक निजी उपक्रम को स्पेस मिलना और वैश्विक आर्थिकी में संरक्षणतावादी होना, आदि-आदि. इसका सबसे बेहतर उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका है. राष्ट्रवाद इस व्यवस्था का प्रमुख पोषक विचार है. इस दक्षिणपंथी राजनीति में जब जनतांत्रिक मूल्य घटते जाते हैं, कुछ खास लोग ही बारम्बार सत्ता पर काबिज हो जाते हैं अथवा कुछ खास प्रतिनिधि विचार ही सभी जनता के ऊपर बारम्बार आरोपित किये जाते हैं, जब कोर्पोरेट ही देश की नीतियां गढ़ने लग जाते हैं और नागरिक समाज या तो प्रश्न नहीं करता सत्ता से अथवा प्रश्न करने लायक अपनी क्षमता खो देता है और राष्ट्रवाद की अति उग्र अवधारणा जब पनपती है, तो इसे फांसीवादी राजनीति कहते हैं. यह दक्षिणपंथ का एक विद्रूप संस्करण है. 1922 से 1945 का इटली इसका सबसे बेहतर उदाहरण है.

यहीं पेंडुलम जब केन्द्रस्थ राजनीति को छोड़कर वाम की ओर ऊपर उठ जाती है तो इसे वामपंथी राजनीति कहते हैं. समाजवादी मूल्यों में आस्था रखना, सामाजिकता-सामूहिकता (ALL for ONE and ONE for ALL), सार्वजनिक उपक्रमों को प्राथमिकता, जनतांत्रिक व्यवस्था, उत्तरदायी सरकार, आदि-आदि. इसका व्यावहारिक उदाहरण फ़्रांस है. अब यदि यही पेंडुलम वाम की ओर तनिक और उठ जाए, जिसमें सार्वजनिक संपत्ति का सामूहिक स्वामित्व हो, व्यक्ति के सापेक्ष समाज (राज्य/सरकार) की महत्ता हो तो इसे साम्यवादी/समाजवादी राजनीति कहेंगे. इसका सटीक उदाहरण 1918 से 1991 तक अस्तित्व में रहे सोवियत संघ है. यहाँ अंतर्राष्ट्रीयवाद एक प्रमुख पोषक विचार है. लेकिन जैसे ही इसमें भी सोवियत के नाम पर एक व्यक्ति शासन हुआ, इस राजनीति में भी तानाशाही की बीमारी आई.

यहाँ यह भी ध्यान दें कि अब दक्षिणपंथ शब्द और वामपंथी शब्द अब अपने उग्र स्वरूप के लिए इस्तेमाल होने लगे हैं, जब तक उदारवादी पूंजीवाद की राजनीति है या केन्द्रस्थ राजनीति है अथवा समाजवादी मूल्यों वाली राजनीति है, तब तक सामान्यतया वामपंथ या दक्षिणपंथ का प्रयोग आमजन में नहीं होता.

इतना अवश्य ही स्पष्ट हुआ होगा कि विचार परम्परा के स्तर पर देखें तो सभी पंथ की राजनीति का अच्छा और बुरा संस्करण मौजूद है, सिद्धांत में भी और इतिहास में भी. इसलिए इतना अवश्य ही समझ आता है कि जब तक किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नागरिक राजनीतिक रूप से सुशिक्षित और जागरूक नहीं हो जाते, तब तक नेतागण उन्हें इन राजनीतिक शब्दावलियों के प्रयोग-कुप्रयोग में ही घुमाते रहते हैं और अपनी जिम्मेदारी से वे निर्द्वंद भागते रहते हैं.

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