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Saturday, November 25, 2017

यूँ ही नहीं पनपती संविधानवाद की परंपराएँ

डॉ. श्रीश पाठक*

धुनिक समय में लोकतंत्र महज एक राजनीतिक व्यवस्था से कहीं अधिक एक राजनीतिक मूल्य बन चुका है जिसे इस विश्वव्यवस्था का प्रत्येक राष्ट्र अपने संविधान की विशेषता बताना चाहता है, भले ही वहाँ लोकतांत्रिक लोकाचारों का नितांत अभाव हो. संविधान किसी देश के शासन-प्रशासन के  मूलभूत सिद्धांतों और संरचनाओं का दस्तावेज होते हैं, जिनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था संचालित-निर्देशित होती है. जरूरी नहीं कि कोई लिखित प्रारूप हो, कई बार उस देश की दैनंदिन जीवन की सहज परंपरा और अभिसमय ही इतने पर्याप्त होते हैं कि उनसे उस देश की राजनीतिक व्यवस्था पुष्पित पल्लवित रहती है, जैसे ब्रिटेन. संविधान की भौतिक उपस्थिति से अधिक निर्णायक है किसी राष्ट्र में संविधानवाद की उपस्थिति. यदि किसी देश में संचालित राजनीतिक संस्थाएँ अपनी अपनी मर्यादाएँ समझते हुए कार्यरत हों तो समझा जाएगा कि संविधान की भौतिक अनुपस्थिति में भी निश्चित ही वहाँ एक सशक्त संविधानवाद है. पाकिस्तान जैसे देशों में संविधान की भौतिक उपस्थिति तो है किन्तु संविधानवाद की अनुपस्थिति है.  
संविधानवाद की परंपराएँ पनपने में समय लगता है. देश की जनता के अंदर राजनीतिक चेतना यों विकसित हो कि वह अपने अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक राजनीतिक संस्थाओं के स्थापना के लिए सजग होने लगे तो राजनीतिक विकास की संभावना बनने लगती है. यह प्रक्रिया सहज ही एक सुदृढ़ सांविधानिक राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती है जिसमें समाज के आखिरी नागरिक के अधिकारों की भी आश्वस्ति हो और वह देश की व्यापक राजनीतिक संक्रियाओं से जुड़ाव महसूस कर सके. यह सहज राजनीतिक विकास एशियाई देशों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अनुभव ने अवरुद्ध कर दिया. उपनिवेशवाद ने उपस्थित राजनीतिक संरचनाओं को कमजोर और अप्रासंगिक होने दिया और उनके स्थान पर नए संवैधानिक सुधार उतने ही होने दिए जिससे उनका औपनिवेशिक शासन बना रहे. इसी अवस्था के कारण सामान्य राजनीतिक चेतना और समयानुरूप राजनीतिक विकास का जो संबंध था वह दक्षिण एशिया के सभी देशों में भी छिन्न-भिन्न हो गया.  औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के बाद भी यह संबंध कुछ ठीक न हो सका और दक्षिण एशियाई देशों में प्रायः सैन्य विद्रोह, संविधान निर्माण की प्रक्रिया का अवरुद्ध होना, लोकतांत्रिक परम्पराओं का निर्वहन ना होना आदि संकट जब तब सुनायी पड़ते हैं.


ऐसे में देश के आम जनों में राजनीतिक उदासीनता दिखायी पड़ती है जिसमें नागरिक मानता है कि राजनीति से सिर्फ नेताओं को लाभ होता है और राजनीति से आमोख़ास का कोई लाभ संभव नहीं है. उस महान राजनीतिक विश्वास का लोप हो जाता है जिसमें नागरिक समझता है कि राजनीति से उसके जीवन में कोई गुणात्मक सुधार संभव है. यह अविश्वास ही राजनीतिक सहभागिता न्यून करता है और फलतः देश की राजनीति ऐसे लोगों की कठपुतली बनने को अभिशप्त हो जाती है जिनकी  राष्ट्रीयता केवल स्वार्थ होती है. आम राजनीतिक सहभागिता की न्यूनता पुनश्च राजनीतिक विकास को रोकती है और संविधानवाद प्रभावित होता है. देश का नागरिक समाज भी कोई निर्णायक गुणात्मक हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं रहता. 

पाकिस्तान को अपना पहला पूर्णकालिक संविधान 1973 में ही जाकर मिल पाया.  पाकिस्तान की संविधान सभा जो कि अविभाजित भारत की संविधान सभा से ही विभाजित होकर निर्मित थी और विभाजन के बाद उसे ही पाकिस्तान के लिए संविधान बनाना था. बांग्लादेश को अपना संविधान 1972 में मिला, श्रीलंका को 1978 में तो अफ़ग़ानिस्तान को 2004 में ही संविधान मिल सका. भूटान और मालदीव को अपना पहला लोकतांत्रिक संविधान 2008 में मिला. नेपाल अभी 2015 के अपने नए संविधान के अनुसार पहला आम चुनाव कराने की प्रक्रिया में है. पाकिस्तान को, सैनिक शासन बार बार सहना पड़ा, नेपाल में राजशाही के खात्मे से लेकर नए संविधान के बन जाने तक अनगिनत उठापटक झेलने पड़े, श्रीलंका में लिट्टे विद्रोह और अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद का प्रकोप हुए. 

अपवादस्वरूप भारत को ही अपना संविधान आजादी के दो साल के भीतर ही 26 नवंबर 1949 को ही मिल गया और आज तक हम अपने उसी संविधान के अनुरूप देश को प्रगति के पथ पर ले कर चल रहे हैं. ध्यान से यदि भारत की गौरवशाली राजनीतिक परंपरा को देखा जाय तो भारत की यह उपलब्धि फिर अपवादस्वरूप नहीं लगती. भारत की विविधता को स्वर और उसके विकास को गति देना चुनौती तो थी पर जन जन पर अमिट प्रभाव वाले राष्ट्र नेता हमारे देश को उपलब्ध थे जिन्होंने समय के प्रश्न का सामना किया और प्रत्युत्तर में एक बेहतरीन समावेशी संविधान प्रदान किया. अफ्रीका के अपने राजनीतिक प्रयोगों से प्रसिद्ध और भारत के आखिरी व्यक्ति तक की पहुंच वाले महात्मा गांधी ने जहाँ आने वाले आजाद भारत के लिए संविधान की आवश्यकता पर ध्यान आकृष्ट कराया वहीं, मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में एक मसविदा तैयार भी कर लिया गया जिसके आधार पर ही जवाहरलाल नेहरू ने आज के संविधान के ऑब्जेवटिव रिजॉल्यूशन (उद्देश्य प्रस्ताव) की नींव रखी. अंबेडकर कानून के बेहतरीन जानकार तो थे ही संयोग से भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से जो कि हाशिये पर था उसका नेतृत्व भी करते थे. देश की नब्ज समझने वाले गाँधी भविष्य के भारत की नींव में समावेशी मूल्य सुरक्षित तो करना चाहते ही थे, देशहित में उन्होने अंबेडकर जी की प्रतिभा का लाभ संविधान निर्माण और उसके पश्चात बनी पहली आम सरकार जिसकी नए नवेले संविधान को जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी थी, उसमें उनकी भूमिका निश्चित करवायी. पटेल जैसे सशक्त नेता ने देश के नागरिकों के लिए मूल अधिकारों से जुड़ी समिति की अपनी भूमिका का निर्वहन किया. देश में मौलाना आजाद जैसे नेताओं की उपस्थिति ने सेकुलरिज्म की अपनी संवैधानिक नीति को अमली जामा पहनाने में योग दिया. भारत इन अर्थों में बेहद भाग्यशाली रहा कि स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र निर्माण के लिए उसके पास बेहतरीन राजनीतिक नेतृत्व उपलब्ध था. 

आज जबकि भारत देश में राजनीति जनता के लिए कमोबेश मनोरंजन का एक समानांतर विकल्प बनकर रह गई है, नेताओं के जुमले चुटकुले बन हवा में तैरने लगे हैं, गंभीर विमर्श टीवी के प्राइम समयों में किसी डेली सोप की तरहा सिमटते जा रहे हों, मुद्दे, जनता से नेता तक नहीं अपितु मीडिया के माध्यम से नेता से जनता तक पहुंचने लगे हों, ऐसे में विरासत में मिले सुदृढ़ संविधानवाद की हमें रक्षा करनी चाहिए और राजनीतिक सहभागिता के लिए मौजूदा नागरिक समाज को अभिनव प्रयास करने चाहिए. 

*लेखक राजनीतिक विश्लेषक है

भारतीय राष्ट्रवाद की विशिष्टता

डॉ.श्रीश पाठक


दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के काफी पहले सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप ने लगातार चलने वाले तीस वर्ष के युद्ध से जूझता रहा।  जर्मनी के वेस्टफेलिया क्षेत्र में आखिरकार एक शांति-संधि की गयी, जिसमें सभी पक्षों ने एक दूसरे की सीमाओं का आदर करने और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का संकल्प लिया। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की विश्व राजनीति इस क्षण से हमेशा के लिए बदल गयी। किसी राष्ट्र-राज्य के संप्रभु होने की अवधारणा का भी विकास हुआ और साथ ही ज्यों ज्यों यूरोप में साम्राज्यवाद के फलस्वरूप सम्पन्नता आती गयी अपने ही क्षेत्रीय-सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय पहचान में तब्दील कर उसे महानता का स्तर देकर राष्ट्रवाद की संकल्पना उपजती गयी। इस उत्कट राष्ट्रवाद ने यूरोप को प्रगति तो दी पर आगे चलकर विश्वयुद्धों का अविस्मरणीय दंश भी दिया।  उपनिवेशवाद के जवाब के फलस्वरूप उत्तर-औपनिवेशिक प्रयासों के तहत भारत जैसे राष्ट्रों ने भी राष्ट्रवाद की संकल्पना को अपनाकर सम्पूर्ण देश की विविधता के विखंडन को रोकने की कोशिश की। स्पेन के कैटेलोनिया सहित यूरोप में दो दर्जन से अधिक छोटे-बड़े क्षेत्र स्वतन्त्र राष्ट्र बन जाने का स्वप्न देख रहे हैं। ऐसे में भारत जो विभाजन के बाद बचे हिस्सों के साथ पाँच सौ से अधिक रियासतों के विलय पश्चात् स्वतंत्र भारत के वर्तमान स्वरुप में आया, अलगाववादी आंदोलन के उदाहरण सचमुच बेहद कम हैं और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को समय के साथ और भी मजबूती मिलती जा रही है। एक राष्ट्र के तौर पर महज सत्तर सालों में ही भारत की यह बेहद उल्लेखनीय उपलब्धि है।  


भारत में भानमती के कुनबे बहुत है । ये इसकी खूबसूरती है, पहचान भी और है इसकी मजबूती भी । अपने देश में जाने कितने देश बसते हैं । तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की आदतें, रस्में तरह-तरह की और तहजीबें तरह-तरह की । तरह-तरह के पकवान, तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह की बोलियाँ और तरह-तरह के त्यौहार ।अपना देश तो त्योहारों का देश है और भारत देश है मेलों का भी । हमारे यहाँ मंडी तो नहीं पर मेलों की रिवायत रही है । कोस-कोस पे पानी का स्वाद बदलता है और तीन-चार कोस पे बोली बदल जाती है और तकरीबन हर पंद्रह-बीस कोस बाद भारत में कोई न कोई मेले का रिवाज मिल जायेगा ।प्रसिद्द मेलों की बड़ी लम्बी फेहरिश्त है और कमोबेश पूरे भारत में है यह । मेले जो कभी हर महीने लगते हैं, कुछ बड़े मौसम-परिवर्तन पर लगते हैं और कुछ साल के अंतराल पर लगते हैं । इन सतरंगी मेलों में भांति-भांति के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, एक-दूसरे की खासियतें समझते हैं, जरूरतें साझा करते हैं, रिश्ते बनते हैं, नाटक, खेल देखते हैं, इसप्रकार मेले दरअसल स्थानीयता का उत्सव होते हैं । त्योहारों का भी मूलभूत दर्शन उत्सव ही है । कभी प्रकृति-परिवर्तन का उत्सव है, कभी संबंधों का उत्सव है, कभी फसल पकने का उत्सव है तो कभी आस्था का उत्सव है । आस-पास की प्रत्येक वस्तु की महत्ता समझना, हो रहे हर परिवर्तन का स्वागत करना सिखलाते हैं ये उत्सव, ये त्यौहार ।

भारत का राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद से मूलतः भिन्न है । पश्चिमी राष्ट्रवाद के हिसाब से चलते तो इस देश के जाने कितने विभाजन सहसा ही हो जाते और यकीन मानिए लोकतंत्र की राह को अपनाने वाला भारत लोकतंत्र के अंतर्गत आने वाले ‘आत्मनिर्णयन के अधिकार  की वज़ह से उन्हें शायद ना रोक पाता ना नाज़ायज ही ठहरा पाता..! पर स्वतंत्रता-संघर्ष के जमाने से ही लड़ते-भिड़ते हमारे युगनायकों ने भविष्य के भारत की यह तस्वीर भांप ली थी और उन्होंने राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण के मूलभूत मायने ही बदल दिए । भारतीय राष्ट्रवाद ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत पर चलता है । यह हेट्रोजेनेयटी  (विभिन्नता-विविधता) का आदर करता है जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद  होमोजेनेयटी  (समुत्पन्नता-समरूपता) पर आधारित है। हमारे देश के राष्ट्रवाद की करारी नींव में जो इटें जमी हैं वे सतरंगी हैं, वे एक रंग की नहीं हैं । इसलिए जैसे ही और जिस मात्रा में हम साम्प्रदायिक होते हैं, उतनी ही मात्रा में हम राष्ट्रवादी नहीं रह जाते । आँख मूंदकर हम पश्चिमी राष्ट्रों से तुलना करते हैं और उनके राष्ट्रवाद के मानकों से हम अपने सतरंगी समाज के बाशिंदों को चाहते हैं एक ही रंग में रंगना, यहीं चूक होती है । 

भानमती के भिन्न-भिन्न कुनबों से भारत एक राष्ट्र बन सका है तो राष्ट्रवाद की स्वदेशी संकल्पना से ही । राष्ट्रवाद की यह स्वदेशी संकल्पना ‘अनेकता में एकता’ की चाशनी में भीगी-पगी है और आधुनिक राष्ट्रवाद के मानकों को भी संतुष्ट करती है । समझने की जरुरत है कि –भारत की एकता, ‘एक-जैसे’ होने से नहीं हैं बल्कि भारत की एकता, अनेकताओं की मोतियों को एक सूत्र में जोड़ने वाली भारतीय राष्ट्रप्रेम से उर्जा पाती है और निखरती जाती है । जिस क्षण से हमने भारत की विविधता को मान देना समाप्त किया, हमारा राष्ट्रीय कलेवर, सारा ताना-बाना बिखर जायेगा । चर्चिल जैसे लोग हमारे राष्ट्रवाद में अन्तर्निहित कमजोरी देखते थे, मजाक उड़ाते थे, कहते थे-आजादी के पंद्रह साल भीतर ही यह कुनबा बिखर जाएगा, हमने उन्हें गलत साबित किया; हमने जता दिया कि पश्चिमी राष्ट्रवाद जिसकी विश्व कवि रवीन्द्र खुलकर आलोचना करते थे, उस राष्ट्रवाद से विश्वयुद्ध उपजते हैं, यूरोप में छोटे-बड़े कई विभाजन होते हैं, कई छोटे राष्ट्र उभरते हैं, पर भारतीय राष्ट्रवाद से अलग-अलग, तरह-तरह के लोग भी साथ मिलजुलकर उसकी अस्मिता अक्षुण्ण रखते हैं । 

भारतीय राष्ट्रवाद सफल हो सका, अपनी परम्पराओं को निभाने की जीवटता से । अलग-अलग धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, नृजाति, प्रजाति, समुदाय, खान-पान होने के बावजूद सभी लोग उत्साह से सभी के त्योहारों में शामिल होते हैं । सभी उत्सव धूमधाम से मनाये जाते हैं । सरकारें भी इन त्योहारों को मनाती हैं और अपना समसामयिक सहयोग देती हैं । फिर समय-समय पर जगह-जगह आयोजित मेले, पारस्परिक मेलजोल का खूब मौका देते है । भारतीय रेल ने भारतीय राष्ट्रवाद के सफ़र में निर्णायक अप्रतिम  योगदान दिया है और यह जारी है । ऐसे समय में जब राष्ट्रवाद की जननी यूरोप स्वयं में राष्ट्रवाद की अपनी सैंद्धांतिक कमी का नुकसान उठाने की रह पर है, भारतीय राष्ट्रवाद की इस विविधता में एकता की खूबी को समझकर हमें उसे सराहने और अपनाने की आवश्यकता है।  यह एक विशिष्ट उपलब्धि है हमारे पास जिसे हमारे स्वतंत्रता-संघर्ष के नायकों ने प्रदान किया और भारतीय जनों ने मिलकर उसे निभाया है। ऐसी कोई भी कोशिश जो भारत की विविधता पर अंकुश लगाती है, उसका विरोध एकस्वर में समवेत देना होगा।  




Friday, November 24, 2017

चुनाव सुधार और नेपाल चुनाव



डॉ. श्रीश पाठक

नेपाल ने पिछले सात दशकों में सात संविधान देखे हैं। देश के पिछले तीन दशक बेहद त्रासद राजनीतिक अस्थिरता के रहे हैं, जिसमें तकरीबन दस साल भयंकर हिंसाके हैं। नेपाल में १९९० में बहुदलीय लोकतंत्रीय संसदीय व्यवस्था को अपनाया तो गया पर पिछले सत्ताईस सालों में देश में पच्चीस सरकारें आईं और एकबार बलात राजकीय सत्ता परिवर्तन भी हुआ। १९९९ में पिछली बार चुनाव संपन्न हुआ पर दो साल के भीतर ही २००१ में आपातकाल लागू कर दिया गया। २००५-०६ में भारत सरकार के प्रयासों से माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल किया गया और नए गणतांत्रिक नेपाल के नए संविधान के गठन के लिए २००८ में प्रथम संवैधानिक सभा बनाई गयी। विभिन्न अस्मिताओं वाले नागरिकों के सम्यक प्रतिनिधित्वके मुद्दे पर खींचातानी चलती रही और २०१३ में द्वितीय संवैधानिक सभा का गठन किया गया। ये संविधान सभाएँ संविधान-निर्माण के लिए सहमति जोहती रहीं और साथ-साथ शासन-प्रशासन भी किसी प्रकार चलाती रहीं। अप्रैल, २०१५ में जहाँ नेपाल ने भूकंप की भयानक विभीषिका झेली, वहीं देश को सितम्बर, २०१५ में नया संविधान मिला जिसके अनुसार नेपाल एक गणतांत्रिक लोकतंत्र होगा, जिसमें राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान और प्रधानमंत्री के पास वास्तविक शक्तियाँ होंगी और देश सात राज्यों का एक संघीय ढाँचा बनेगा ।२०१३ के बाद से पिछले चार साल में चार सरकारें आ चुकी हैं जो नेपाली कांग्रेस के सुशील कोईराला, शेर बहादुर देउबा और माओवादी गठबंधन के प्रचंड और केपी ओली के नेतृत्व में बनीं। नए संविधान के मुताबिक देश में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, जिसमें केंद्रीय संसदीय स्तर, राज्यस्तर और निकायों का स्थानीय स्तर भी समावेशित है। 



फिलहाल राहत की बात यह है कि निकाय स्तर के चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो चुके हैं और उन चुनावों में तीन बड़े दल क्रमशः कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल-यूनिफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट, नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल (माओइस्ट सेंटर) उभरे हैं। इन्हीं तीन दलों के चुने हुए प्रत्याशी अब नेपाल के उच्च सदन के सदस्य चुनेंगे। जनवरी २०१८ तक नए संविधान के अनुसार नयी सरकार गठित कर ली जाए और पिछले कई दशकों की उठापटक से उपजी भयंकर बेरोज़गारी का जवाब एक सुनियोजित विकास से दिया जा सके, इसलिए ही नेपाल ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्य और केंद्र के चुनाव एक साथ ही दो चरणों में कराने का निर्णय लिया है। इस केंद्र-राज्य समकालिक चुनाव व्यवस्था से संसाधनों कामितव्ययी  प्रयोग होगा और सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित देश को एक सशक्त प्रधानमंत्री भी मिलेगा, ऐसी अपेक्षा है। यह यकीनन एक प्रगतिवादी कदम है और आशा की जानी चाहिए कि नेपाल अपने इस लोकतांत्रिक प्रयोग में सफल होकर एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ पायेगा। दक्षिण एशिया में श्रीलंका में भी यह विमर्श जारी है कि कम से कम सभी राज्यों के चुनाव एक साथ कराये जाएँ ! 

नेपाल ने एक बेहतरीन सुधार और अपने चुनाव प्रणाली में किया है, जो सचमुच उल्लेखनीय है। नेपाल ने समानांतर मतदान प्रणाली व्यवस्था को चुना है जिसमें विभिन्न प्रत्याशी दो रीतियों से चुने जायेंगे। तकरीबन साठ प्रतिशत प्रत्याशी फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट-एफपीपी (ज्यादा मत पाया, वह जीता ) पद्धति से और बाकी प्रत्याशी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से चुने जायेंगे। जहाँ एफपीपी पद्धति एक सरल चुनाव पद्धति है वहीं आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति जटिल तो है परन्तु प्रत्याशियों का सम्यक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है। नेपाल के संविधान-निर्माताओं ने अपने स्तर पर यह कोशिश की है कि गठित होने वाली आगामी संसद में सभी हित और अस्मिताएं सम्यक प्रतिनिधित्व के साथ प्रशासन में योग दें, ताकि देश फिर किसी अन्तर्संघर्ष की स्थिति में न फँसें।

उथल-पुथल से भरे नए-नवेले राष्ट्र भारत के लिए एफपीपी चुनाव पद्धति आदर्श थी जिसके तकरीबन अठ्ठासी प्रतिशत नागरिक साक्षर भी नहीं थे। किन्तु अब जबकि भारत की साक्षरता लगभग पचहत्तर प्रतिशत के करीब है, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अपनाये जाने के लिए जरूरी विमर्श होना चाहिए क्योंकि यही पद्धति भारत की विशाल विविधताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व कर सकती है।  




आखिर एशिया में हुआ क्या है...!


लल्लनटॉप पर 

दुनिया में सबसे जियादा लोग यहीं बसते हैं। बाकी सभी महाद्वीपों के सभी लोगों को जोड़ भी लें तो कम है। दुनिया कारोबारी हो गयी है और एशिया उन्हें बाजार दिखता है। अमीर देशों के कारोबारी और ज़ियादा मुनाफे की हवस में एशिया आते हैं ताकि उन्हें सस्ते में स्किल वाले मजदूर मिलें। इस चक्कर में विकसित देशों ने एशिया में पैसा लगाया, फैक्टरियाँ लगाईं और जिन एशियाई देशों ने वक्त की नब्ज पकड़ी उन्होंने और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करके इस मौके का फायदा उठाया। एशिया में पुराने बाबा तो हैं ही, यूरोप से सटा रूस है, मालदार जापान है और अब उभरता भारत है और चकल्लस चीन है। विश्व -राजनीति में शक्ति वही नहीं होती जो हथियार और सेना से उपजती है, जोसेफ नाई के अनुसार हार्ड पावर के साथ सॉफ्ट पावर भी होता है जो कल्चरल चीजों से हर जगह, जगह बना लेता है। डांस, गाना, त्यौहार, खाना, भेष, साहित्य, फिल्म, आदि से पकड़ और मजबूत हो जाती है, इसके साथ ही अगर सेना भी मजबूत हो, हथियार नए-नवेले हों तो फिर तो धाक जम ही जाती है। सिंगापूर, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड जैसे देशों ने ग्लोबलाईजेशन का फायदा उठाया, चीन और भारत ने अपने कल्चरल माल का इस्तेमाल तो किया ही, न्यूक्लियर, सेना, हथियार और उत्पादन पर भी अच्छी प्रगति की। रूस को 1991 में अपनी सोवियत रूस की पहचान गंवानी तो पड़ी पर अपने प्राकृतिक खजानों और काबिल नेतृत्व के बल पर एक बार फिर विश्वराजनीति में हलचल पैदा करने लायक स्थिति में पहुँच गया है। दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम से नेस्तनाबूत होने के बाद जापान ने शांति और समृद्धि की राह चुनी और देखते देखते ही यह दुनिया का दूसरा मालदार देश बन बैठा है। मध्य-पूर्व एशिया में तेल की खोज हो जाने से वहाँ लूटमार शुरू हुई पर कुछ देशों जैसे युएई, सऊदी अरब, क़तर, ईरान आदि ने अपनी धाकड़ जगह जमा ली।  

कुल मिलाकर अभी एशिया में सबसे अधिक उपजाऊ जमीन है, स्किल वाले लोग हैं, बड़ा बाजार है, कल्चर है और ताकत भी।ये समय पैसा वाला है और पूरी दुनिया ही खरीदने से अधिक बेंचने के जुगाड़ में है। बेंचने के लिए जमीन का रास्ता ठीक तो है पर पूरी दुनिया जमीन का एक टुकड़ा तो है नहीं और फिर जमीन पे रिस्क कुछ कम नहीं। दुनिया भर के देश से रिश्ता बनाओ, तब माल आगे ले जाओ। रिश्ता जो बन भी जाये तो भी समुद्र का दामन पकड़ना ही होता हैसात महाद्वीप पांच महासागर में तैरते जो हैं। एशिया दो महासागर हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर की गोदी में है। यूरोप को एशिया से जोड़ने के लिए अदन की खाड़ी से होते हुए हिन्द महासागर के अरब सागर का सहारा चाहिए और एशिया को अमेरिका से जोड़ने के लिए दक्षिण चीन सागर के रास्ते प्रशांत महासागर में गोता लगाना होगा। दुनिया के सब व्यापारी लोगों का काम बिना इन दो महासागरों के समुद्री राहों के न हो सकेगा। व्यापारी सरकार बनवाता है तो सरकार सारा कूटनीति इन राहों की सलामती के लिए करती है।जब यूरोप के लोग डार्क एज से निकले तो साइंस का हाथ पकड़के जरुरत के हिसाब से नहीं मुनाफे के पैमाने पर उत्पादन करना शुरू किया और हथियार, सेना व चालाकी से दुनिया के उन देशों को गुलाम बना लिया जहाँ अभी भी लोग मशीनों के गुलाम नहीं बने थे। आज एशिया के देश आजाद हैं और अपने हक़ के लिए जागरूक भी। ये अपने जमीन और जल के लिए बारगेन करना जानते हैं।

विश्वराजनीति में आधुनिक समय में खिलाड़ी जरूरी नहीं है कि कोई देश ही होगा, बिना देश वाला कुछ लोगों का संगठन भी हलचल मचा सकता है। बढ़िया सेन्स में मल्टीनेशनल कम्पनीज हैं जिनके पास किसी एक देश की तरह हुकूमत तो नहीं है पर ये अपने माल और रसूख से किसी भी देश में मनचाहा फर्क डाल सकते हैं। घटिया सेन्स में आतंकवादी संगठन हैं जो किसी एक देश के नहीं हैं पर देशों पर असर डाल सकते हैं। एशिया को मल्टीनेशनल कम्पनीज एक बाजार और सस्ते मजदूर की लालच में देखती हैं तो आतंकवादी संगठन भी एशिया को एक आसान चारागाह और भटके स्किल/बिना स्किल वाले मजदूरों का खान समझते हैं। ऐसे में ऐसे में एशिया के समुद्री राहों को इनसे भी बचाना है और एशिया के किसी देश की दादागिरी से भी। पर यहीं तो ट्विस्ट है। पश्चिम के पुराने बाबा एशिया का बाजार चलाना चाहते हैं और एशिया के उभरते शेर अपना हिस्सा मांग रहे या फिर राहों पर अपनी चलाना चाहते हैं। अब आज का जापान सेना और हथियार पे इन्वेस्ट कर रहा है। चीन व्यापार का कारखाना बन गया है और सॉफ्ट पावर के साथ ही साथ हार्ड भी हो गया है। भारत ने भी अब अपने आपको बटोर लिया है और मैप पे अपनी जगह का फायदा उठाने को तैयार बैठा है। रूस को अब फिर से सोवियत वाला रसूख चाहिए और इतना डेस्पेरेट हैं पुतिन कि अपने जिगरी दोस्त भारत के पक्के दुश्मन पाकिस्तान को हथियार बेच रहे हैं। चीन को एशिया और दुनिया का बाबा बनना है तो बगल में भारत को दबाते रहना है। 1962 में  ड्रैगन ने शेर को खाली इसलिए घायल कर दिया कि शेर की साख दुनिया के लेवल पर बढ़े जा रहा था। भारत को घेरने के लिए पापी चीन भारत के सब पड़ोसी को पुचकारता है और हिन्द महासागर में बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान के लिए बंदरगाह बनाता है। कश्मीर का एक हिस्सा 1947 से ही पाकिस्तान के पास है और एक दूसरा हिस्सा 1962 में चीन ने हड़प लिया; यहीं से चीन ने पाकिस्तान को दोस्ती की टॉफियाँ खिला रहा है और भारत ऊर्जा के भंडार मध्य एशिया के देशों से भी कट गया। कोरिया का एक हिस्सा तानाशाही परिवार के हाथ में है और वह पाकिस्तान, चीन आदि की कृपा से नुक्लियर बम की धमकी से पूरी दुनिया को थर्रा रहा है। मानेंगे नहीं पर पूरी दुनिया को पता है कि रूस और चीन, उत्तर कोरिया को शह दे रहे हैं और उसे अपने लिए एक मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे।

जापान में शिंजो अबे फिर चुनकर आये हैं, मजबूत इरादों के साथ नया जापान गढ़ने को तैयार हैं। चीन में शी जिनपिंग की सत्ता में पकड़ मजबूत हुई है और वे भी चाइनीज ड्रीम देख रहे हैं। पुतिन गाहे-बगाहे कभी राष्ट्रपति बनकर तो कभी प्रधानमंत्री बनकर सत्ता में बने हुए हैं और लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। पाकिस्तान में चलती अभी भी सेना की ही है और भारत में भी एक मजबूत नेता की सरकार है। कहने का मतलब ये है कि अभी के निर्णायक एशियाई देश निर्णय लेने को अधिक सशक्त हैं। ऐसे में एशिया अभी सबकी नज़र में है। कोई कमाना चाहता है, कोई आतंकवाद से परेशान है।  कोई बेचना चाहता है तो कोई रस्तों के कब्जाने से परेशान है। आईएस भी यहीं है और अलक़ायदा भी। आसियान भी यहीं है और एपेक भी यहीं है। जंगल, पहाड़, समुद्र का का बायोडायवर्सिटी भी यहाँ प्रचुर है। इस सबकी वजह से अपना एशिया हिट है और हिटलिस्ट में भी है। कुछ विद्वान् कहते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध के पहले की सारी परिस्थितियाँ मौजूद हैं, यहाँ। अपना दिमाग है कि, विश्व युद्ध तो नहीं ही होगा पर एशिया अब इग्नोर होने के मूड में नहीं है।  
डॉश्रीश पाठक 
shreesh.prakhar@gmail.com

Thursday, November 23, 2017

हेग विजय और संयुक्त राष्ट्र संघ सुधार

डॉ.श्रीश पाठक

भारत की ब्रिटेन से आजादी के ही साल जन्मे जस्टिस दलवीर भंडारी इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे ), हेग की पंद्रह सदस्यीय पैनल में लगातार दुसरी बार अगले नौ साल के लिए चुन गए जब उनके खिलाफ रहे ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र ग्रीनवुड ने आखिरी समय में अपनी दावेदारी वापस ले ली। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश रहे दलवीर भंडारी जोधपुर के हैं और उनका परिवार विधिज्ञों की विरासत वाला है। दलवीर भंडारी से आठ साल छोटे क्रिस्टोफर ग्रीनवुड भी आईसीजे में अपना नौ साल का समय पूरा कर लेने के बाद अगले नौ साल की नियुक्ति के लिए ब्रिटेन की तरफ से मैदान में थे। सर क्रिस्टोफर जॉन ग्रीनवुड लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में विधि के प्रोफ़ेसर हैं और इनकी आलोचना इनके उन विधिक तर्कों के लिए पुरे विश्व में की जाती है जिसके सहारे ब्रिटेन ने  २००२ में इराक पर अपने सैनिक बल प्रयोग को उचित ठहराया गया था। ब्रिटेन ने यह कहते हुए अपनी दावेदारी वापस ले ली कि जबकि उनका देश यह चुनाव नहीं जीत सकता, उन्हें खुशी है कि उनके नज़दीकी मित्र भारत ने यह दावेदारी जीत ली है और वे संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक पटल पर भारत का सहयोग करते रहेंगे। हालाँकि ब्रिटिश और अमरीकी मीडिया ने ब्रिटेन की इस हार को शर्मनाक बताया है क्योंकि संस्थापक सदस्य ब्रिटेन पिछले ७१ साल में पहली बार इस पंद्रह सदस्यीय जजों के पैनल से बाहर होगा और चीन के बाद यह दूसरा मौका होगा जब कोई वीटो शक्तियुक्त  देश इस पैनल में अपना स्थान बनाने से चूक गया है।   

आईसीजे संयुक्त राष्ट्र संघ का विधिक अधिकरण है जो सदस्य राष्ट्रों के मध्य उपजे विवादों पर अंतरराष्ट्रीय विधि के अनुसार निर्णयन करती है। हाल ही में आईसीजे ने भूतपूर्व भारतीय नेवी ऑफिसर कुलदीप जाधव, जो अपहृत होने के पूर्व ईरान में व्यवसाय कर रहे थे; पाकिस्तान की सैनिक न्यायालय के द्वारा सुनायी गयी फाँसी की सजा पर रोक लगा दी थी जो उन्हें तथाकथित जासूसी के आरोप में सुनायी गयी थी। ईरान के शामिल हो जाने के कारण यह मामला द्विपक्षीय न होकर त्रिपक्षीय हो गया था और इसी कारण भारत ने इस अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में अर्जी लगाई थी। आईसीजे के मुख्य न्यायाधीश रॉनी अब्राहम द्वारा सुनाये गए और पंद्रह सदस्यीय न्यायाधीशों के समूह द्वारा तैयार किये गए  इस फैसले में दलवीर भंडारी भी शामिल थे।



दलवीर भंडारी की पुनर्नियुक्ति दरअसल भारतीय कूटनीति की स्पष्ट विजय का द्योतक है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने  अपने दूसरे भारतीय अधिकारी सहयोगियों के साथ नयी दिल्ली के निर्देशन में एक बेहतर लामबंदी की और नतीजा भारत के पक्ष में कर दिया। यह जीत वाकई कठिन थी क्योंकि नियुक्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् और महासभा दोनों में ही बहुमत की आवश्यकता होती है। वीटो शक्तियुक्त पाँच स्थाई सदस्यों (अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस और चीन ) और वीटो शक्तिरहित दस अस्थायी देश (बोलीविया, मिस्र, इथोपिया, इटली, जापान, कजाखस्तान, सेनेगल, स्वीडन, यूक्रेन और उरुग्वे ) से बनी सुरक्षा परिषद् में भारत को कुल पंद्रह में से महज पाँच मतों का समर्थन था किन्तु महासभा जो कि सभी सदस्य राष्ट्रों से निर्मित सभा है, उसमें ब्रिटेन के मुकाबले भारत ने ग्यारह चरणों में हमेशा ही दो-तिहाई से अधिक मतों का समर्थन हासिल किया है। यह प्रतिस्पर्धा ऊपरी तौर पर दलवीर भंडारी और क्रिस्टोफर ग्रीनवुड के मध्य थी, पर हकीकत में यह प्रतिस्पर्धा सुरक्षा परिषद् और महासभा की मंशाओं एवं संयुक्त राष्ट्र में सुधारों के खिलाफ और सुधारों के पक्षकारों के मध्य थी। एक लम्बे समय से भारत सुरक्षा परिषद में सुधारों का हिमायती है और जापान, जर्मनी व ब्राज़ील की साथ मिलकर लामबंदी भी करता रहा है। सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थाई सदस्यों में जहाँ केवल फ्रांस ही वीटोयुक्त भारतीय सदस्यता को समर्थन देता है, वहीं चीन के मुताबिक सुधारों का यह उचित समय नहीं है और अमेरिका सहित बाकी देश सुरक्षा परिषद का विस्तार वीटोशक्तिविहीन सदस्यता के तौर पर दबे स्वर में स्वीकार करते हैं।  

प्रथम विश्व युद्ध की दारुण विभीषिका के बाद राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी ताकि ऐसी किसी घटना की पुनरावृत्ति ना हो, किन्तु बाईस सालों के भीतर ही द्वितीय विश्वयुद्ध की भेरी बज गयी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध जापान के न्यूक्लियर नेस्तनाबूत हो जाने के साथ ही संपन्न हुआ और एक बार फिर विश्व शांति की गरज से संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन १९४५ में किया गया। सभी सदस्य राष्ट्र जहाँ महासभा के सदस्य बने, वहीं द्वितीय विश्व-युद्धों के विजेता देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर ही सर्वाधिक निर्णायक सुरक्षा परिषद का गठन किया। सुरक्षा परिषद के निर्णयों के लिए पूर्ण सहमति एक अनिवार्य शर्त है और इसकी क्रियान्वयन के लिए ही वीटो शक्ति का प्रावधान किया गया जिसमें चार के मुकाबले एक सदस्य भी किसी निर्णय में यदि असहमति दर्ज करता है तो कोई प्रस्ताव पास नहीं होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कमोबेश वैश्विक आर्थिक व्यवस्था इन्हीं पश्चिमी देशों के हितों के अनुरूप चलती रही बस, ब्रिटेन की जगह अमेरिका ने ले ली। अब जबकि विश्वराजनीति वैश्वीकरण के दौर से गुज़र रही है और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और कूटनीतिक संबंधों की धुरी यूरोप से खिसककर एशिया में आ गयी है, संयुक्त राष्ट्र संघ की वर्षों पुरानी उत्तर-युद्ध संरचना में सुधार अनिवार्य हैं बशर्ते ये निर्णायक राष्ट्र तैयार हों।

केवल इसलिए नहीं कि ये पाँच निर्णायक राष्ट्र विश्व-व्यवस्था में मनमाना रवैया रखते हैं बल्कि इनके नेतृत्व वाली संयुक्त राष्ट्र संघ न ही आज की बहुपक्षीय आर्थिक-राजनीतिक विश्वप्रणाली का प्रतिनिधित्व करती है और ना ही यह बहुधा वैश्विक विवादों का समाधान ही दे पा रही है। दारफूर संकट, जंजावीड उन्माद, स्रेबेनिका सामूहिक हत्या, इजराइल-अरब संघर्ष, कुवैत संकट और रवांडा संकट के समाधान पर पक्षपात आदि मसलों में संयुक्त राष्ट्र संघ की विफलता इसकी सुधारों के प्रति उदासीनता को पुष्ट करती है। पांचों वीटोयुक्त देश स्वयं ही आणविक शक्तियों से लैस हैं और भारी शस्त्रों का भण्डारण भी किये हुए हैं।  जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ लगभग पचहत्तर प्रतिशत राहत कार्य अफ्रीका पर केंद्रित है, अफ्रीका महाद्वीप का कोई देश सुरक्षा परिषद् में नहीं है। विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था, सबसे बड़ा लोकतंत्र, संयुक्त राष्ट्र की शांतिरक्षक टुकड़ियों में सर्वाधिक योगदानकर्त्ता देशों में से एक और बेहतरीन राजनीतिक साख वाला देश भारत सुरक्षा परिषद् की सदस्यता से वंचित है।  भारत ने साफ़ कर दिया है कि वह वीटोशक्तिरहित सदस्यता स्वीकार नहीं करेगा।  

आईसीजे में दलवीर भंडारी की नियुक्ति के मसले से पूर्व भी जून २०१७ में संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर महासभा और सुरक्षा परिषद की मंशाओं के मध्य विभाजन तब स्पष्ट हो गया था जब लगभग एक स्वर से महासभा ने मॉरीशस के आईसीजे में जाने के उस प्रस्ताव को समर्थन दिया था चागोस द्वीपसमूह पर अपनी संप्रभुता का दावा ब्रिटेन के विरुद्ध पेश किया था। उस वक्त भी संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधारों की चर्चा जोरशोर से भारत ने उठाई थी इसने  इस प्रस्ताव पर मॉरीशस के पक्ष में अपना मत दिया था। यहाँ भारत के लिए कूटनीतिक चुनौतियाँ बेहद ही जटिल हैं, पर मानना होगा कि भारत ने निर्णय लिए हैं। यूरोपीय संघ ने इस मतदान में भाग नहीं लिया किंतु बाकी सभी पारंपरिक शक्तियों ने ब्रिटेन का साथ दिया। हिन्द महासागर में चीन की भारतीय उपमहाद्वीप को घेरने की ओबोर और पर्ल ऑफ़ स्ट्रिंग पॉलिसी के खिलाफ मॉरीशस के इसी चागोस द्वीपसमूह के एक द्वीप डियागो गार्सिआ पर स्थित भारतीय-अमेरिकी सैन्य अड्डे से सुरक्षा मिलती है। डियागो गार्सिआ ब्रिटिश संप्रभुता में आता रहा है जिसे रक्षा सहमतियों में अमेरिका और भारत से साझा किया गया है। बल्कि ब्रिटेन ने भारत से इस मामले में अपना प्रभाव का प्रयोग कर मॉरीशस से वार्ता का आग्रह भी किया है। उधर मॉरीशस ने ताईवान मुद्दे पर हमेशा ही चीन का साथ दिया है और सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य होने के नाते चीन से यह अपेक्षा रखता है की वह चागोस संप्रभुता मसले पर मॉरीशस का ही साथ देगा। इस प्रकार भारत के लिए जटिलताएँ बेहद पैनी हैं, पर दलवीर भंडारी की पुनर्नियुक्ति ने यह आश्वस्ति दी है कि वैश्विक पटल पर भारतीय कूटनीति अपने राष्ट्रहित को बेहतर रीति से सुरक्षित कर पा रही है।  

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