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Monday, April 27, 2020

Political Literacy: संप्रभुता (Sovereignty)


28/04/2020

Image Source: Thesaurus.Plus





संभव हो और आप अर्थशास्त्र से अर्थ निकाल लें, मनोविज्ञान से मन, बैंकिंग से बैंक, समाजशास्त्र से समाज और इतिहास से अतीत, तो इन सब्जेक्ट्स में कुछ बाकी नहीं रहेगा l ठीक उसीप्रकार राजनीतिशास्त्र में यदि संप्रभुता की अवधारणा निकाल दी जाय तो यह सब्जेक्ट अपना केन्द्रक खो देगा और निष्प्राण हो जाएगा l राजनीति के विद्यार्थी हों और संप्रभुता की अवधारणा से अनभिज्ञ या अस्पष्टता हो, तो अन्य सभी प्रयत्न अर्थहीन हैं l राजनीति का अध्ययन करते हुए बार-बार यह महसूस होगा कि एब्स्ट्रेक्ट इतने भी शक्तिशाली हो सकते हैं l राजनीति में जिन तथ्यों की साधिकार चर्चा की जाती है उनमें से अधिकांश कोई भौतिक सत्ता नहीं रखते, टैंजीबल नहीं हैं l लेकिन अपने प्रभाव में वे इतने प्रबल हैं कि उनका एब्स्ट्रेक्ट होने पर सहसा विश्वास नहीं होता l राज्य भी एक अवधारणा ही है, इसे आप स्पर्श नहीं कर सकते, यह हमारे मन में क्रमशः स्थापित एक अवधारणा है l हाँ, अवश्य ही राज्य के अन्यान्य एजेंसियों और एजेंटों से हम रूबरू होते हैं l यों ही संप्रभुता की अवधारणा भी एक एब्स्ट्रेक्ट ही है लेकिन यह राजनीति की कोशिका का केन्द्रक है l

संप्रभुता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति का होना है l संप्रभु की निर्णायक विशेषता ही संप्रभुता है l किसी निश्चित भूभाग पर संप्रभु वह निकाय अथवा व्यक्ति है जिसे केवल आज्ञा देने की आदत है, आज्ञा लेने की आदत नहीं है l आज्ञा लेते ही वह सर्वोच्च शक्ति कहाँ रह जाएगा? चूँकि वह सर्वोच्च शक्ति है तो इसकी इच्छा ही कानून है l कानून की एक सरल परिभाषा यह भी है कि वह संप्रभु की इच्छा है l अब संप्रभु की इच्छा तक पहुँचने की प्रक्रिया इतनी सरल नहीं l यहीं से राजनीतिक तंत्र (पोलिटिकल सिस्टम) की चर्चा की शुरुआत होती है l सर्वाधिक ध्यान देने वाली बात संप्रभुता की यह है कि इसे काटा नहीं जा सकता, बाँटा नहीं जा सकता और न ही इसे किसी को प्रत्यायोजित/प्रत्यायुक्त (delegate) किया जा सकता है; अर्थात इसे विखंडित कर विभाजित नहीं किया जा सकता है और न ही यह ऐसी कोई वस्तु है जिसे कुछ समय के लिए किसी और को सौंपा ही जा सकता है l यह समझा भी जा सकता है क्योंकि यदि इसे काटा जाए, बांटा जाए अथवा इसे किसी को एक परिमाण में सौंप दिया जाए तो यह सर्वोच्च शक्ति न रह सकेगी l संप्रभुता, राजनीतिशास्त्र की आत्मा है जिसे काटा, बांटा और साझा नहीं किया जा सकता l यहाँ यह भी समझें कि संप्रभुता सर्वोच्च शक्ति का होना है, लेकिन शक्ति की अवधारणा और संप्रभुता की अवधारणा में अंतर है l शक्ति का विभाजन संभव है, लेकिन संप्रभुता विभाजित होते ही अपने परम पद से च्युत (suspend) हो जाएगी और विनष्ट हो जाएगी l

संप्रभु की जरुरत क्यों है, यह समझ लेना आवश्यक है l संप्रभु के अस्थिपंजर के ऊपर ही राज्य के अवधारणा की मांस-मज्जा सजती है l राज्य के केंद्र में यदि सर्वशक्तिशाली संप्रभु न बैठा हो तो वह भरभराकर गिर उठेगा l संप्रभु के अभाव में राज्य संभव नहीं और राज्य के अभाव में व्यवस्था संभव नहीं और व्यवस्था का अभाव अराजकता (एनार्की) को जन्म देता है जिससे मानव के अस्तित्व पर ही संकट आ जाता है l जीवन की सततता और उसका विकास किसी केयोस (Chaos) में संभव नहीं l इसलिए हमें संप्रभु की निर्णायक विशेषता संप्रभुता की आवश्यकता है l

आगे चलकर व्यवस्था और अधिकार के विमर्श संभव हो सके l यह समझा गया कि सुव्यवस्था वही है जिसमें अंतिम व्यक्ति के अधिकार की भी व्यवस्था हो l संप्रभुता में शक्ति का केन्द्रीकरण है क्योंकि वह सर्वोच्च शक्ति है तो वह व्यक्ति का अधिकार संजोएगा इसमें संशय है l अब चूँकि हम संप्रभुता की अवधारणा को शक्तिहीन नहीं कर सकते लेकिन उसकी बनने की प्रक्रिया और स्रोत को नियंत्रित कर सकते हैं, तो यह माना गया कि यदि जिसके अधिकार सुरक्षित करने हैं, उसी को संप्रभु कहा जाए तो इस समस्या से पार पाया जा सकता है l लोकतंत्र इसी समझ का परिणाम है l लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निवास करती है l जनता-जनार्दन से सर्वोच्च शक्ति कोई दूसरी नहीं l यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि व्यक्ति विशेष में सम्रभुता नहीं होती या कोई एक व्यक्ति लोकतंत्र में संप्रभु नहीं होता अपितु जनता संप्रभु होती है l एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समस्त हो संप्रभुता का निर्माण करते हैं l चूँकि संप्रभुता विभाजन स्वीकार नहीं करती तो कोई एक नागरिक में यह निवास कर ही नहीं सकती l एक राजनीतिक व्यवस्था में (विशेषकर लोकतंत्र'में ) राष्ट्र का अध्यक्ष अपने अधिकारों में सर्वोच्च हो सकता है, अथवा संसद अपने अधिकारों में सर्वोच्च हो सकती है लेकिन संप्रभु होना संभव नहीं, यह निर्णायक रूप से अंततः जनता में ही निवास करती है l इसलिए ही एक व्यक्ति के आवाज उठाने में और जनता के आवाज उठाने में निर्णायक अंतर होता है l व्यक्ति के जायज मांगों को जनता की मांग में तब्दील करने का काम राजनीतिक कार्यकर्त्ता और दलों का हैं और मीडिया उस जनता की आवाज की पिच को तेज, भारी और सर्वव्यापी बनाती है, इसलिए महत्वपूर्ण है l

#Political_Literacy
#श्रीशउवाच 


Saturday, April 25, 2020

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

डॉ. श्रीश पाठक* 


वही लाल सूरज जो कल शाम डूबा था, अल सुबह उगने को है l ये नवजात लाल सूरज ताजे चौबीस घंटों की नयी सौगात बेदम हिम्मतों को देने को आतुर है l उम्मीदों की सुतली को इतनी चिंगारी काफी है कि सुबह होगी, लाल सूरज फिर खिलेगा l डटे रहने के लिए, इतना आसमान काफी है कि मौसम बदलेगा l चमकते तारों के दीदार को रात के काले अँधेरे की दरकार होती है l अपने-अपने घरों में डटे हम लोग आजकल जिंदगी को जरा ज्यादा करीब से महसूस कर पा रहे हैं, अब इस मज़बूरी की अंधियारी रात में साथ के चमकते तारों को तो ढूँढना होगा l ये वही लोग हैं, जिनके साथ सुख सुकून शांति से रहने के लिए हम सहूलियतें जुटाते हुए दरबदर बाहर भटकते रहे हैं l कहीं पहुँचने के लिए दौड़ना तेज था, अब तेजी के लिए रोज दौड़े जा रहे हैं, लगी इस लत को समझने के लिए जिस ठहराव की जरुरत थी, उस ठहराव में हैं हम l यह ठहराव हमें अवसर दे रहा पुनरावलोकन का l 


Dainik Bhaskar (Aha Zindgi)


स्मृति तो हर जीव में न्यूनाधिक होती है लेकिन मनुष्य, कल्पना का वरदान लिए जन्मता है l स्मृति के सहयोग से कल्पना, मनुष्य में भविष्य का उमंग भरती जाती है और इस उत्ताल उमंग से वर्तमान का दुर्घर्ष सहनीय और सुगम्य होता जाता है l स्वप्नदर्शी होना, प्रत्येक मनुष्य को गतिशील बनाता है l स्वप्न हैं अपने-अपने, स्वप्नों के अपने-अपने परिक्रमण पथ पर सभी अग्रशील होते हैं l ये स्वप्न सभी को अनूठा व्यक्तित्व और अनुपम संयोजन देते हैं l यह अनूठापन ही जगत-व्यापार में अलग-अलग भूमिकाएँ पाने में मदद करता है l जीवन के सतरंगी सागर में इसप्रकार अनगिन अलबेली नौकाएँ तिरती-फिरती रहती हैं l यूँ तो जगत का हर जीव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है, हारता है, उठता है, जीतता है फिर लड़ता है, लेकिन मानव ने बहुधा स्वयं को दाँव पर लगाकर मानवता की रक्षा की है l चौदहवीं सदी के ब्युबोनिक प्लेग जिसने दुनिया के एक-तिहाई लोगों को अपना निशाना बना लिया था, से लेकर आज तक महामारियों का इतिहास सुझाता है कि जानकारी और सावधानी का अभाव ही बीमारियों को त्रासदी में तब्दील करते हैं l मानवता का ज्ञात इतिहास दर्जन भर से अधिक महामारियों की त्रासदियों से अटा पड़ा है l इतिहास के उन पन्नों से गुजरते हुए अनिश्चितता, असुरक्षा, भय के वही भाव उसी शिद्दत से उभरते हैं, जिनमें कमोबेश आज फिर मानवता है l त्रासदियों के इतिहास का हर अध्याय बताता है कि उसके तुरंत बाद मानवता के सुनहरे पन्ने लिखे गए l इन सुनहरे पन्नों के लेखकों की नींव उन्हीं ने बनायीं थी जो उन भयंकर त्रासदियों से गुज़रे थे l दुनिया सामंतवाद के बेलगाम शोषण से मुक्त होने में और अधिक सदियाँ लेती जो महामारी ने मानवता को मजबूर न किया होता l फिर शेष लोगों ने विपत्ति को बेहद जरूरी सामाजिक सुधार के लिए एक बड़े अवसर में तब्दील कर दिया l आधुनिकता की नींव जिस  पुनर्जागरण आन्दोलन पर टिकी है वह मानवता की सबसे भीषण त्रासदी ब्युबोनिक प्लेग के बाद उपजी थी जिसने यूरोप की आधी आबादी को इस कदर लील लिया था कि उस जनसंख्या के फिर उसी संख्या में पहुँचने में अगले २०० साल लग गए थे l काले प्लेग की त्रासदी के बाद मानव अनोटोमी पर जो शोध हुए उनपर ही आज आधुनिक मेडिकल साइंस की ईमारत खड़ी है l प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका ने स्त्री सुधारों का रास्ता खोला तो स्पेनिश फ्लू के बाद सार्वजनिक चिकित्सा कल्याण कार्यक्रमों ने मानव की औसत जीवन प्रत्याशा की दर अभूतपूर्व रूप से किसी भी गुज़री सदी से बेहतर कर दी l एक समय जिस विजेता नेपोलियन से समूचा यूरोप दहला हुआ था, उसी नेपोलियन ने कैरीबियाई देश हैती को विजित करने के लिए एक बड़ा जहाजी बेड़ा भेजा, ताकि गुलामों का बाजार बना रहे l नेपोलियन की सेना हारी, हैती को उसकी स्वतंत्रता मिली क्योंकि हैतीवासी उन बीमारियों के खिलाफ अपने शरीर में प्रतिरक्षा विकसित कर चुके थे जो यूरोप में फैलती थीं l उनका ग़ुलाम के रूप में यूरोप में काम करना किसी भयंकर त्रासदी से कम नहीं था लेकिन उसी त्रासदी ने उन्हें प्रतिरक्षा भी दी थी l पिछली गुजरी कितनी ही त्रासदियों में तो हमारे पास इन्टरनेट नहीं था, विज्ञान इतना उन्नत नहीं था, बीमारी के कारक ही पता नहीं होते थे, फिर भी मानवता न केवल उनसे पार पा सकी बल्कि प्रत्येक त्रासदी से अपने लिए पारितोषिक भी अर्जित किया l आज विज्ञान उन्नत है, हफ़्तों में महामारी की पहचान हो जाती है, महीनों में उसके टीके, इलाज या उनसे निबटने के तरीकों का ईजाद हो जाता है l गुजरी कितनी ही महामारियों-त्रासदियों में जो लोग शेष रहे, उनके समक्ष भी अनिश्चितता, असुरक्षा और भय का वही बड़वानल था लेकिन उनके पास था एक अदम्य विश्वास जो अनिश्चितता पर भारी पड़ा, वे लबालब थे एक अटूट उम्मीद से जो भय पर भारी पड़ी, और वे ओतप्रोत सजग थे मानवता से जो उस असुरक्षा के माहौल से उन्हें बाहर खींच लायी l 


नाउम्मीदी से बड़ी बीमारी अब तक मानव ने कोई दूसरी नहीं बनाई है और त्रासदियों में सबसे विकराल चुनौती इसी नाउम्मीदी की बीमारी को महामारी में बदलने से रोकने की होती है l व्यक्ति के स्तर पर ऐसे समय में इससे बड़ी मदद कोई और नहीं हो सकती कि आप उम्मीदों की मशाल को पूरी मजबूती से थामे रहें, जिसे देख दूसरों को भी संबल मिले, यह आसान नहीं है l यह जर्मनी के राज्य वित्त मंत्री थॉमस शेफर से नहीं हो सका यह, उन्होंने आत्महत्या कर ली l मौजूदा महामारी के संकट के बीच उन्हें लगा कि उनका राज्य हेसी कभी आर्थिक संकट से मुक्त न हो सकेगा l उम्मीद की एक लौ बुझती है तो बाकि बत्तियां भी ठिठकती हैं l लौ ही सही, बुझना नहीं है, उम्मीद की बाती को हिम्मत के तेल से तर रखना है ताकि मानवता की आंच आती रहे l धीरे-धीरे पूरा आँगन रौशन होगा और हम देखेंगे कि हम केवल इस पार ही नहीं आये हैं, बल्कि गुणात्मक रूप से रूपांतरित भी हुए हैं l यह समय यकीनन सामाजिक दुरीकरण का है लेकिन इसे सामाजिक विरागीकरण में परिवर्तित नहीं होने देना है l रिश्तों की खोज-खबर लेकर, उन्हें संजोकर हमें संबंधों का पूल बनाना है, ज्ञान-विज्ञान के बोध साझा कर अनुभव का पूल बनाना है और एक-दुसरे के आशयों के लिए आवश्यक संवेदनशीलता विकसित करनी है ताकि मानवता अपनी अस्तित्व अपनी पूरी महत्ता में बचा सके l  


हमारी सभ्यता, हमारी परम्पराएँ और हमारे जीवन मूल्य, त्रासदियों से जूझने के दौरान अर्जित किये गए पाठों के अनुशीलन से बने हैं l ‘एपिडेमिक्स एंड सोसाइटी: फ्रॉम द ब्लैक डेथ टू द प्रेजेंट’ के लेखक प्रोफ़ेसर फ्रैंक एम. स्नोडेन कहते हैं कि ‘त्रासदियाँ, मानवता के लिए दर्पण का काम करती हैं l हमें इनसे पता चलता है कि एक व्यक्ति के तौर पर हमारा हमारे वातावरण से कैसा रिश्ता है और समाज के तौर पर हम एक-दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं, कहीं वैश्विक अंतर्सम्बद्धता का सूत्र हमसे छूट तो नहीं गया है l’ त्रासदियाँ आती हैं, जाती हैं पर हमें वह शेष बनना है जो अपने भीतर उम्मीद की लौ को बुझने नहीं देते क्योंकि वे जानते हैं कि समय यह भी कुछ देकर जाएगा l इन्हीं शेष में से फिर मानवता का अशेष उपजता है जो जीवन की सततता को शक्ति देते हैं l जब चहुंओर अनिश्चितता, भय, अवसाद की ख़बरें आती हों, जब लोग एक-दूसरे पर ही संदेह करने लगे हों, जब समुदाय एक-दूसरे का साथ देने को प्रेरित कर पाने में अक्षम हो रहे हों, एक व्यक्ति के तौर पर इस महामारी में केवल हाथों को साफ़ रखना काफी नहीं होगा। हमारी आँखों को भी खुले रहना होगा उन सभी कोनों की ओर जहाँ से उम्मीद की, विश्वास की, सकारात्मकता की कहानियाँ दिखती हों, क्योंकि ये कहानियाँ ही हमारी जिजीविषा की जरूरी ईंधन हैं जिनपर वृहत्तम शेष अपने अशेष की बुनियाद रखेंगे। 


*लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी में विश्व राजनीति के शिक्षक हैं. 


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