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Thursday, May 31, 2018

मोदी डॉक्ट्रिन नहीं पर मोदी प्रभाव




भारतीय लोकतंत्र की विपुल संभावनाएं कुछ ऐसी हैं कि इसमें यह उम्मीद करना कि प्रधानमंत्री एक प्रशिक्षित सामरिक चिंतक हों, ठीक नहीं। इसलिए जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की विदेश नीति, संस्थागत प्रयासों से अधिक व्यक्तिगत करिश्मे से अधिक संचालित की गयी। आज़ादी के बाद जन्मे नेताओं की पीढ़ी के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भी यह करिश्मा है और उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल भी किया। विश्व-नेताओं को उनके पहले नाम से संबोधित करना हो या उन्हें गर्मजोशी से गले लगाना हो, मोदी हमेशा विदेश नीति में व्यक्तिगत सिरा खंगालते रहे। अमेरिका, फ़्रांस और जापान के द्विपक्षीय संबंधों में इसका असर भी महसूस किया गया। मोदी सरकार से विदेश नीति को लेकर की जा रही अपेक्षाओं के दो बड़े आधार थे। एक तो कांग्रेस से इतर पहली बार कोई दूसरा दल प्रचंड बहुमत से सत्ता को गले लगा रहा था दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जैसे नेता शपथ ग्रहण करने जा रहे थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने दिनों में न केवल कई विदेश यात्राएँ की थीं और व्यापारिक समूहों आदि से संबंध स्थापित किये थे बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के विश्वस्त के रूप में कूटनीतिक संदर्भ में मलेशिया और आस्ट्रेलिया भी भेजे जा चुके थे। नेहरू की तरह ही, प्रधानमंत्री बनने के पूर्व से ही नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में दिलचस्पी खासी व्यक्तिगत रही है। भारत की विदेश नीति को सामयिक, शक्तिशाली और दूरगामी बनाने के ऐतिहासिक अवसर का नरेंद्र मोदी को भान था और किसी तरह की कोई ऐतिहासिक हिचक उनके सामने नहीं थी। 

चुनाव के समय लिए गए अपने कठोर प्रतिक्रियावादी रुख से उभरी आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए शपथ ग्रहण समारोह में सभी पड़ोसी राष्ट्रों के प्रमुखों को आमंत्रित कर नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वयं से उम्मीदों के पर लगा दिए। इराक से सफलतापूर्वक बचाई गयीं 46 नर्सों ने आश्वस्त किया कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ टीम मोदी, सशक्त और अपने विज़न में स्पष्ट है। फिर शुरू हुई मोदी की सतत विदेश यात्रा। कुल लगभग 36 विदेश यात्राओं के साथ, प्रधानमंत्री मोदी कोई 56 देशों की ज़मीन पर पाँव रख चुके हैं। इनमें कई देश ऐसे रहे, जहाँ अरसे बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री पहुँचा अथवा मोदी पहली बार पहुँचे। विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए भी यह एक ‘जुड़ाव’ का मौका था और इससे देश को सॉफ्ट पॉवर के रूप में भी स्थापित करने में मदद मिली है । बहुत सारे देशों में द्विपक्षीय वार्ताएं जो ठिठकी पडी थीं, वह पुनः शुरू हुई हैं। 

यह सही है कि अपनी आर्थिक क्षमता, सांस्कृतिक प्रभाव और पिछली सरकारों की वैश्विक सक्रियता से वैश्विक पटल पर भारत की एक अहमियत गढ़ी जा चुकी थी पर मोदी की एक्टिव फॉरेन पॉलिसी ने विश्व को अवश्य यह दिखलाया कि भारत अपनी वैश्विक भूमिका समझता है। पिछले चार साल, वैश्विक राजनीति के लिहाज से बेहद अनिश्चित रहे हैं, कोई खास पैटर्न अकेले इसकी व्याख्या नहीं कर सकता। दुनिया के महत्वपूर्ण देशों यथा- चीन, रूस, जापान, जर्मनी आदि देशों में शक्तिशाली नेतृत्व बना हुआ है और विश्व, द्विपक्षीयता से बहुपक्षीयता के मध्य हिचकोले लेता रहा। रूस ने चीन, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया के साथ अपनी संगति बिठाई तो जापान की पहल पर अमेरिका ने भारत और आस्ट्रेलिया को हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ज़िम्मेदारी दी। ट्रम्प का अमेरिका अपनी नीतियों में इतना मोलतोल वाला और चौंकाऊ रहा कि भारत सहित उसके साथी देश अपनी-अपनी विदेश नीति में कोई सुसंगतता स्थापित ही नहीं कर पाए। यूपीए सरकार की तरह ही बढ़ते गैर-पारंपरिक असुरक्षाओं के युग में भी पारंपरिक हथियारों की खरीददारी में मोदी सरकार अव्वल रही और ईयू, फ़्रांस, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि से व्यापारिक-सामरिक समझौते भी संपन्न हुए। चाबहार प्रोजेक्ट, आईसीजे में दलवीर भंडारी की जीत, शस्त्र व तकनीक नियंत्रण की चार समितियों में से एमटीसीआर, डब्ल्यू ए और ऑस्ट्रेलिया समूह सहित तीन की सदस्यता, कुलभूषण जाधव की फाँसी पर रोक, कई देशों से आणविक समझौते करना, एफटीए हस्ताक्षर करना, चागोस प्रायद्वीप मुद्दे पर ब्रिटेन विरुद्ध और मारीशस के पक्ष में मतदान करना, आसियान राष्ट्रप्रमुखों को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित करना आदि यकीनन नरेंद्र मोदी सरकार की उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं। 

मोदी सबसे अधिक विफल अपने इर्द-गिर्द पड़ोस में हैं। एक भूटान को छोड़कर कहीं और भारत अपने संबंध संजो नहीं पाया है। आक्रामक चीन के सापेक्ष हमारी तैयारी बेहद शिथिल है। नौकरशाही पर नकेल कसने में असफल मोदी की विदेश नीति में न कोई रचनात्मक दृष्टि दिखी न ही तारतम्यता। तारतम्यता के अभाव ने ही मोदी-डॉक्ट्रिन जैसी कोई चीज स्थापित नहीं करने दिया है। सत्ता के आखिरी महीनों में मोदी कुछ उल्लेखनीय बटोरने की हड़बड़ी में दिखते हुए एक बार फिर चीन, रूस आदि से संपर्क साध रहे हैं पर नेहरू बनना उनके लिए कठिन हैँ और पटेल ने कोई नज़ीर छोड़ी नहीं है। 

*लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार व सम्प्रति गलगोटियाज यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं। 

‘आई हेट पॉलिटिक्स': एक पिछड़ा और गैर-जिम्मेदार जुमला





राजनीति' एक अद्भुत शब्द है। यह विषय भी है और व्यवहार भी, प्रक्रिया भी है और कला भी। इतनी घुली-मिली है कि जो इसमें रूचि नहीं लेता यह उसमें भी रूचि लेती है। राजनीति का केवल एक 'सार्वजानिक' पक्ष ही हमें दिखलाई पड़ता है और इस पक्ष के जो खिलाड़ी हैं उनके चरित्र से ही समूचे राजनीति का हम चरित्र-चित्रण कर देते हैं। राजनीति का यह 'सार्वजानिक पक्ष' भी हमें इतना प्रभावी रूप से दृष्टिगोचर इसलिए होता है क्योंकि हमनें 'लोकतांत्रिक' शासन प्रणाली अपनाई है और इसकी कई संक्रियाओं में हमें स्वयं को परिभाग करने का अवसर मिलता है। किन्तु 'राजनीति' को केवल उसके इस सार्वजानिक पक्ष से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उससे पहले यह इस सार्वजानिक पक्ष का दर्शन तैयार करती है, इस प्रश्न का उत्तर तैयार करती है कि आखिर हमें कोई व्यवस्था क्यों चाहिए और अंततः यह व्यवस्था हम कैसे आत्मसात करने जा रहे हैं! यह सभी महत्वपूर्ण बिंदु हैं।

विषय के रूप में 'राजनीति' पल-पल बदलते व्यक्ति के बहुमुखी विकास की चिंता करती है। व्यवहार के रूप में 'राजनीति' उन प्रक्रियाओं की तमीज देती है, जिनसे 'अधिकतम का वृहत्तम हित' सधे। कला के रूप में 'राजनीति' विरोधाभासी हितों में संतुलन की प्रेरणा देती है। चूँकि लोकतंत्र सभी को राजनीति में परिभाग करने की स्वतंत्रता देती है तो 'राजनीतिक अध्ययन' से अधिक 'राजनीतिक व्यवहार' की महत्ता दिखने लगती है। गाड़ी चलाने वाला हर ड्राइवर न ट्रैफिक नियम जानता है और न ही वह निश्चितरूप से ट्रैफिक की गलतियाँ ही करता है। प्राकृतिक विज्ञानों के अलावा ज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में 'अनुभवजन्य बोध' भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं जितने कि सैद्धांतिक बोध क्योंकि यहाँ ऑब्जेक्ट डायनामिक ह्यूमन बींग है। इसलिए अच्छा ड्राइवर होना और एक अच्छा मोटर इंजीनियर होने में फर्क है और ‘पोलिटिकल लिटरेसी’ समय की मांग है। 

राजनीति के लोकतांत्रिक हस्तक्षेप ने मिस्त्री लोगों को भी पर्याप्त अवसर दिया है और वे हर बार निराश ही नहीं कर रहे हैं। समझना होगा ये हम हैं कि अपने लोकतंत्र के लिए 'इंजीनियर' के ऊपर 'मिस्त्री' प्रेफर कर रहे हैं। अरस्तु ने राजनीति को 'विषयों का विषय' कहा है और प्लेटो ने राजनीति में सबके आवाजाही की मनाही की है। प्लेटो राजा भी दार्शनिक चाहते हैं। इसलिए ही अरस्तु ने 'लोकतंत्र' को भीड़तंत्र कहा है क्योंकि इसमें योग्यता से अधिक संख्या का महत्त्व हो जाता है।

लोकतंत्र फिर क्यों? क्योंकि औद्योगीकरण के पश्चात् ज्यों-ज्यों पूंजी की हवस बढ़ी, उपनिवेशवाद आया जिसने व्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलना शुरू किया। उपनिवेश ज्यों-ज्यों स्वतंत्र होते गए उन्होंने सबसे पहले अपने नागरिकों वह देना चाहा, जिससे वह वंचित थे, वह था व्यक्ति का व्यक्तित्व-स्वतंत्रता। केवल लोकतंत्र में ही समानता संभव है और उपनिवेशवाद ने समूचे उपनिवेश के प्रत्येक व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व छीना था इसलिए आधुनिक समय में 'लोकतंत्र' एक 'व्यवस्था' से अधिक एक उदात्त 'मूल्य' बनकर उभरा।

भारत का एक औपनिवेशिक अतीत है और इतिहास कहता है कि भारत की जनसँख्या में भांति-भांति के लोगों का सुंदर सम्मिश्रण है। आजाद भारत लोकतंत्र के अलावे कोई और व्यवस्था अपना ही नहीं सकता था क्योंकि यहाँ के लोगों में विभिन्नता है और केवल लोकतंत्र उनमें 'समानता' और 'स्वतंत्रता' का विश्वास उपजा सकता था। यह विश्वास उस सद्यजात राष्ट्र को आवश्यक भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता प्रदान करता है जिसने तुरंत ही विभाजन का दंश झेला हो और जिसकी 500 से अधिक रियासतों का एकीकरण किया जाना हो। भारत के लोकतंत्र में सभी आवाजों के लिए जगह होनी चाहिए, सो सभी चुनाव लड़ सकते हैं। निर्दलीय भी। 17% साक्षरता वाले राष्ट्र को आधुनिक राजनीतिक-समाजीकरण की प्रक्रिया से साक्षात्कार कराना जरूरी थी पर यह राज्य की तरफ से न हो नहीं तो निष्पक्ष नहीं होगा और इसके बिना व्यवस्था के ढहने का भी डर था। फिर जनता के विभिन्न मांगों को पूरा करने का कोई एक तरीका ही थोपना आगे चलकर खतरनाक हो सकता था। इसलिए राजनीतिक दलों की प्रणाली लाई गयी। भारत की महान विभिन्नता देखते हुए द्विदलीय व्यवस्था को नहीं स्वीकारा गया। बहुदलीय व्यवस्था में चेक एंड बैलेंस प्रणाली भी चल सकती है। बहुमत दल का नेता सरकार बनाये अथवा मिनिमम कॉमन प्रोग्राम के हिसाब से गठबंधन की सरकार बने और शेष सांसद उनपर पैनी नज़र रखें।

विपक्ष उतना ही जरूरी है जितना की सत्ता पक्ष। दलविहीन व्यवस्था अथवा सर्वदलीय व्यवस्था में विपक्ष अनुपस्थित होगा अथवा अंतर्निहित होगा तो कमजोर होगा, जो कि एक खतरनाक स्थिति होगी। पॉँच साल तक किसी भी तरह का सार्वजानिक नियंत्रण ही नहीं होगा। लोकतंत्र की चिंता येनकेनप्रकारेण केवल सरकार बनवा देना नहीं है, बल्कि राजनीतिक मूल्यों का संवहन करते हुए राजनीतिक विकास की गुंजायश टटोलना है। एक नया चुनाव हमेशा एक सस्ता विकल्प है बनिस्बत एक भ्रष्ट स्थिर सरकार के, जिनके घोटाले ही न पकडे जा सकें और जो पकड़ें जा सकें तो कभी उनका निपटारा ही न हो सके। गठबंधन की सरकार भारत की विभिन्नता देखते हुए स्वाभाविक है और उनकी खींचातान भी जायज है क्योंकि विरोधाभासी मांगों का संतुलन यों भी कठिन है। राजनीतिक व्यवस्था अपने संविधान के अनुरूप इतनी खूबसूरत है कि बहुमत के साथ वही दल सत्ता में आ सकता है जिसके प्रतिनिधियों में विभिन्नता से प्रतिनिधित्व बंटा हो। ऐसा नहीं होता तो गठबंधन से यह शर्त पूरी होती है।

ध्यान रहे, हमारे राष्ट्र के दो अमूर्त आधार हैं: १. एकता और २. विभिन्नता। इसलिए ही यहाँ राष्ट्रपति है तो प्रधानमंत्री भी है, मुख्यमंत्री भी है और राज्यपाल भी। किसी भी दूसरे विकसित राष्ट्र से अपने राष्ट्र की सीधी तूलना नहीं हो सकती। कांग्रेस जो कभी अपराजेय थी और भाजपा जो अभी अपराजेय लगती है, राज्यसभा में उन्हें अवश्य नियंत्रण में रहना पड़ता है। हमारा संविधान बेहद शानदार है। पर परेशानी यही हैं। हम, अपना संविधान जानते कितना हैं? 

सत्ता, ऐसी शिक्षा बनाती है जिससे पीढियाँ 'राजनीतिक अध्ययन' का महत्त्व विस्मृत कर जाती हैं। इससे राज करना आसान हो जाता है क्योंकि राजनीतिक रूप से जागरूक जनता तीखे सवाल करेगी और मीडिया का निष्पक्ष न रहना उसे तुरंत दिखेगा। सत्ता, राजनीतिक-अध्ययन से मिलने वाले रोजगार पर चोट करेगी जिससे राजनीति पढ़ने वाले साधनविहीन आदर्शवादी लगेंगे। ध्यान से देखिये, सरकार चाहेगी कि सारे महत्वपूर्ण पद जहाँ इलेक्शन नहीं सिलेक्शन की जरुरत होती है, उन्हें 'कमिटेड ब्यूरोक्रेसी' से भरा जाय, जिससे शासन आसान हो। यह माहौल बनेगा जब जनता 'कोउ नृप होय, हमें का हानि' की मानसिकता में आये और हम जनता-जनार्दन अपने-अपने घरों की जो नयी पीढ़ी है उसका सबसे बेहतर टैलेंट-पूल नौकर (ब्यूरोक्रेसी अथवा डॉक्टर, इंजीनियर ) बनाने में करते हैं और लोकतंत्र में जहाँ बॉस जनता होती है उसे अपने घर का हारा-थका, लापरवाह सेक्शन मायूसी से सौंपते हैं कि कुछ नहीं तो सरकारी ठेकेदार तो बनी जायेगा । वोट नहीं देने जाते, आसानी से वोटबैंक बन जाते हैं।

राज्य और नागरिक समाज साथ-साथ ही स्वास्थ्य के साथ पनपते हैं। इनमें से एक की अक्रियता दूसरे को रुग्ण बनाती है। नागरिक समाज, राज्य के सरकार नामक तत्व पर नियंत्रण रखती है। किन्तु भ्रष्ट सरकारें और दिशाहीन अक्रिय नागरिक-समाज 'राजनीतिक-शिक्षा (पोलिटिकल लिटरेसी) के प्रचार-प्रसार में उसी तरह चुप्पी साध लेती हैं जैसे भ्रष्ट दुकानदार दवा की एक्सपायरी डेट छुपाता है। हमें अपने-अपने स्तर पर अध्ययन-मनन और व्यवहार की पद्धति से राजनीतिक जागरूकता बढ़ानी होगी।

संविधान का ड्राफ्ट तैयार होने के बाद बाबा आंबेडकर ने कहा था कि-वह नागरिक ही होते हैं, जो किसी देश के संविधान को सफल बनाते हैं। देखिये न, अमेरिका का संविधान कितना तो छोटा है और संसद की जननी ब्रिटेन में लिखित संविधान ही नहीं है। हमारे पास दुनिया के सबसे बड़े संविधानों में से एक संविधान है बस हम राजनीति में अपने-अपने रीति से योग ही नहीं कर रहे। जो चाहते हैं कि चुनाव के बाद आपको सचमुच फायदा हो तो आप प्रधानमंत्री नहीं, अपने-अपने क्षेत्र से सुयोग्य सांसद चुनिए. और हाँ, ये न कहिए कि विकल्‍प नहीं है. आपके क्षेत्र में जरूर एक संकल्पवान, ईमानदार प्रत्याशी खड़ा मिलेगा, पर शायद उसके साथ कोई खड़ा न मिले. आप अपना एक बहुमूल्य मत उसे दें, कम से कम बाकियों की तरह अपना मत व्यर्थ न होने दें. वह हारेगा भी तो संघर्ष करने का माद्दा मन में भरेगा और अगली बार फिर मैदान में होगा.

अपने-अपने क्षेत्र में आप विकल्‍प चुनिए, भारतीय राजनीति, राष्ट्रीय परिदृश्य में सहसा नए विकल्‍प उपस्थित कर देगी. यह नया विकल्‍प अपने साथ किसी उद्योगपति का बकाया नहीं लेकर आएगा, जात-पात, धरम और सेना का नाम लेकर नहीं आएगा तो खुलकर काम करेगा. आप अचानक राजनीति में परिवर्तन भर देंगे और आप तब केवल नागरिक कहलाने की सच्ची परिभाषा ही नहीं पूरी करेंगे बल्कि स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान-निर्माताओं के सपनों का भारत बनाने की दिशा में काम करने वाले सच्चे देशभक्त बनेंगे. तब राजनीति आपके लिए कोई खेल या मनोरंजन अथवा गॉसिप की चीज नहीं होगी, बल्कि इसमें आप सीधा योग करेंगे. क्योंकि, फिर कहता हूँ कि भाजपा, कांग्रेस में कोई अंतर है नहीं. एक के मुकदमे की सुनवाई की अगली तारीख दूसरा ले लेता है.

मैंने जो कहा है वह आपको यूटोपियन लग सकता है, इसलिए नहीं कि मै गलत कह रहा, बल्कि इसलिए कि पहले तो आप मत देने जाएंगे ही नहीं और जो जाएंगे भी तो अपना मत किसी परिचित, जात वाले, धरम वाले को देकर आ जाएंगे. फिर जो आपको अपना वोटबैंक समझते हैं, उन्हें ही वोट देकर आप सोचेंगे कि मेरा वोट व्यर्थ नहीं गया, जबकि आपका मत केवल व्यर्थ ही नहीं होता इससे, बल्कि अगले पांच साल का भविष्य दाँव पर लग जाता है और अगली पीढ़ी भी आपकी तरह 'आई हेट पॉलिटिक्स' का पिछड़ा, गैर-जिम्मेदार जुमला कहने लग जाती है.



त्रेता में मोदी और कल में ओली

साभार: गंभीर समाचार 



जब हम पैदल होते हैं तो तेज रफ़्तार गाड़ियों पर कोफ़्त होती है और जब हम गाड़ी में होते हैं तो कई बार बीच में आ जाने वाले पैदल यात्रियों पर कोफ़्त होती है। यहाँ, नैतिकता से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न वरीयता का है। विश्व-राजनीति में कुछ इस तरह ही अपने राष्ट्र के हित ही वरीय होते हैं चाहे हमारा अतीत कुछ भी हो और वर्तमान जैसा भी हो। एक समझदार राष्ट्र और उसके कुशल कूटनीतिज्ञ यह समझते हैं कि अपने राष्ट्र के राष्ट्रहित किसी दूसरे राष्ट्र के सापेक्ष तभी और उसी सीमा तक साधे जा सकते हैं, जब और जिस सीमा तक हमारे हितों की आयोजना में उस राष्ट्र को अपना राष्ट्रहित भी दिखे। भारत-नेपाल संबंधों में भारतीय कूटनीति से यह त्रुटि हाल के वर्षों में हुई है। 

भारत अपने गहरे सांस्कृतिक संबंधों की थाती पर नेपाल और भूटान से आधुनिक संबंधों का निर्वहन करता रहा है। इसलिए ही भारत से लगी दोनों राष्ट्रों की सीमायें ‘ओपन बॉर्डर सिस्टम’ में हैं और दोनों राष्ट्रों के नागरिक भारतीय सीमा में आवाजाही कर सकते हैं। राष्ट्रहित कोई स्थिर मूल्य नहीं हैं। वैश्विक राजनीतिक हलचलों के अनुरूप उनमें गतिक सम्भावना बनती रहती है। पड़ोस में उभरते शक्तिशाली चीन के बीचो-बीच भूटान और नेपाल, भारत के लिए बफर-स्टेट हैं, इसलिए ही भारत के दोनो  राष्ट्रों से संबंध अहम हैं। भूटान और नेपाल के चीन के साथ संबंधों का कोई मजबूत पारंपरिक आधार नहीं रहा है और इसलिए भी भूटान और नेपाल, भारत के साथ अपनी नजदीकियाँ स्वाभाविक मानते रहे और चीन से उनकी कमोबेश दूरियाँ बनी रहीं। दोनों ही देश स्थलबद्ध (लैंडलॉक्ड) देश हैं और सामुद्रिक व्यापार के लिए भारत पर निर्भर हैं। बुद्ध की मंदस्मित से भूटान और राम की आदरणीय दृष्टि से नेपाल, भारत को देखता रहा। ‘मुक्त सीमाओं’, पर होने वाले पारस्परिक लाभों के अनुपात में भ्रष्ट भारतीय नौकरशाही से होने वाली हानियाँ नज़रअंदाज़ की जाती रहीं। 

संपूर्ण विश्व के लिए एक शानदार उदाहरण बनाते हुए भूटान के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक ने अपने देश में पहले लोकतांत्रिक संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक चुनाव कराया और 2007-2008 में यह देश राजशाही छोड़ एक लोकतांत्रिक सांविधानिक राजशाही वाला देश बन गया, जहाँ संसद के दो-तिहाई बहुमत से राजा पर महाभियोग भी आरोपित किया जा सकता है। इधर अपने तीन दशक के त्रासद राजनीतिक अस्थिरता से जूझते नेपाल ने भी राजशाही समाप्त कर और माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में लाकर 2008 में संविधान-सभा गठित कर लोकतंत्र को अपनाने की प्रक्रिया शुरू की । नेपाल के तिब्बत से सटे ऊंचाई पर बसे इलाके हिमाल कहलाते हैं, पहाड़ के लोग मध्य नेपाल के निवासी हैं और भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार से जुड़े सीमाई लोग मधेसी अस्मिता वाले तराई के कहलाते हैं। यह विभाजन इतना सरल नहीं है, पर नेपाली राजनीति में इनकी जटिलताएं महत्त्वपूर्ण हैं और इसीलिए नेपाल की संविधान निर्माण की यात्रा इतनी दुरूह रही है। सितम्बर 2015 में  दूसरा नया लोकतांत्रिक संविधान स्वीकार किया गया। इस नए संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक नेपाल में नयी सरकार वामपंथी गठबंधन के खड्ग प्रसाद ओली के नेतृत्व में बन चुकी है और फ़िलहाल वामपंथी गठबंधन 17 मई 2018 को दो अध्यक्षों के साथ एक दल ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी’ में परिणत हो गया।  

एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की चुनी हुई सरकार किसी भी अन्य चीजों की बजाय अपना राष्ट्रहित ही प्रथम रखेगी। इसलिए ही डोकलम मुद्दे के बाद प्रधानमंत्री शेरिंग ताबगे का भूटान सचेष्ट हुआ है और ओली का नेपाल, भारत और चीन के मध्य बफर स्टेट की स्थिति के लाभों के दोहन को लेकर आतुर हुआ है। लगभग इसी दशक में शक्तिशाली चीन ने दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसियों से संपर्क घना करते हुए भारत को अपनी स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स की नीति से घेरना शुरू किया है। चीन ने अपने शक्तिशाली नेता शी जिनपिंग को अब उनके पूरे जीवनकाल के लिए चुन लिया है। ग्लोब पर नेपाल तीन तरफ से भारत से घिरा हुआ है और ऊपर की और उत्तर में इसका मुहाना चीन की ओर खुलता है। भारत की नेपाल से 1950 में की गयी ‘फ्रेंडशिप ट्रीटी’ के ‘मुक्त-सीमा प्रबंधन’की तर्ज पर सजग चीन ने 1968 में अपनी सीमा भी ‘फ्रेंडशिप हाइवे’ के नाम से लगभग खोल ही दी। अब जबकि नए नेपाल में वामपंथी सरकार बनी है, चीन और नेपाल के संबंध निश्चित ही प्रगाढ़ होने वाले हैं। 

नेपाल विषय पर कहना होगा कि मोदी सरकार से बार-बार ग़लतियाँ हुई हैं। प्रधानमंत्री बनते ही नेपाल उन देशों में रहा जहाँ मोदी ने शुरू में ही यात्रा की। लेकिन राजनीति में परसेप्शन और प्रतीकों का महत्त्व जानने वाले समझते हैं कि अपनी पहली यात्रा और हालिया की गयी तीसरी यात्रा में मोदी ने वही ग़लतियाँ दोहराई हैं। संभवतः भारतीय कूटनीतिक कुटुंब अभी भी नेपाल को हिन्दू राजतंत्र की तरह ही देख रहा है। मोदी की पहली यात्रा अगस्त 2014 में एक ऐसे समय में हुई जब नेपाल में विभिन्न नागरिक-अस्मिताएँ आगामी संविधान में अपनी जगह बनाने को संघर्षरत थीं। राजशाही के बाद यह तय था कि आगामी लोकतांत्रिक संविधान में जो नया नेपाल गढ़ा जायेगा वह महज बहुसंख्यक हिन्दू अस्मिता को सर्वोपरि नहीं रखेगा। विश्व-राजनीति के वैश्वीकरण और इंटरनेट के इस दौर में नेपाल की जनता सजग होकर कदम उठा रही थी कि नए नेपाल की राजनीतिक पहचान महज धार्मिक कत्तई न हो। ऐसे में मोदी की पहली यात्रा में जो उनकी छवि निर्मित हुई वह पशुपतिनाथ मंदिर में 2500 किग्रा चंदन चढ़ाने वाले और धर्मशाला के लिए 25 करोड़ रूपये देने वाले एक ऐसे भारतीय नेता की हुई जो अपनी धार्मिक पहचान को राष्ट्रप्रमुख रहते हुए भी व्यक्त करना चाहते हैं। 

इसके कुछ महीने बाद ही सार्क सम्मेलन (नवंबर 2014 ) में हिस्सा लेने गए मोदी चाहते थे कि वे नेपाल के धार्मिक स्थल जनकपुर, मुक्तिनाथ व लुंबिनी के दर्शन भी करें पर उन्हें अनुमति नहीं मिली थी। नेपाली राजनीति में राजशाही के दौर से ही हिमाल और पहाड़ के बाहुन और खेत्री/छेत्री समुदाय लगभग 29% जनसंख्या के साथ सर्वाधिक प्रभावी रहे हैं और तराई के मधेशी, 35% जनसंख्या के साथ भी राजनीति में सीमान्त ही रहे हैं। मधेसी समुदाय, भारतीय सीमा में घुला-मिला समुदाय है और भारत से इनके गहरे आर्थिक-सांस्कृतिक संबंध हैं। नेपाल के प्रोविंस नंबर-2 में मधेस सर्वाधिक तादात में हैं और जनकपुर इस प्रोविंस का हेडक्वार्टर भी है। सार्क-सम्मेलन के दौरान जबकि नेपाल में नए संविधान के पूरे होने की समय-सीमा में महज दो महीने शेष थे, संविधान सभा की कार्यकारी सरकार ने मोदी की जनकपुर यात्रा पर मुहर नहीं लगाई ताकि किसी किस्म की लामबंदी न हो। 

अप्रैल 2015 में आये विनाशक भूकंप में भारत और चीन ने नेपाल की मानवीय मदद की, किन्तु प्रधानमंत्री मोदी के उत्कट लोकसभा विजय-अभियान की ख़ुमारी में ही रहने वाले कुछ अतिवादी मीडिया टीवी चैनल की अतिवादी प्रस्तुति ने भारतीय कूटनीति के कमाए गुडविल फैक्टर को लील लिया। चीन ने मौके का फायदा उठाया और नेपाल की कई अवसरंचनात्मक प्रोजेक्ट्स में निवेश किया। नेपाल ने उसके महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (एक मेखला एक मार्ग ) नीति से जुड़ने में भी दिलचस्पी दिखाई। पिछले तीन सालों से चीन के जिस प्रस्ताव की खूब चर्चा है और जिसपर मौजूदा ओली सरकार काफी गंभीर भी है उसमें चीन अपने केरोंग क्षेत्र से काठमांडू और काठमांडू से पोखरा और लुंबिनी तक रेलवे लाइन बिछाने पर काम करने को इच्छुक है। यकीनन इससे चीन की पहुँच भारतीय सीमा तक होगी। चीन और नेपाल, मुक्त व्यापार समझौते की तरफ भी बढ़ रहे हैं। 

2015 के सितम्बर महीने में ही रक्सौल-बीरगंज पॉइंट पर स्थानीय मधेसियों द्वारा की गई पांच महीने की नाकाबंदी, जिससे कि दैनंदिन आवश्यक चीजों की आपूर्ति बाधित हुई और नेपालीजन को काफी मुश्किलात का सामना करना पड़ा था, भारत सरकार इस घटना पर सावधानी नहीं बरत पाई तथा नेपाल का आम जनमानस आज भी मानकर चलता है कि यह भारत की ओर से अघोषित नाकाबंदी थी और भारत ने इसकी समाप्ति के लिए कोई ठोस कदम भी नहीं उठाया। हालाँकि, भारत ने बार-बार दुहराया था कि यह नाकाबंदी नेपाल के आंतरिक तनावों की देन है, पर हालिया चुनावों में इस प्रकरण का वामपंथी दलों ने भरपूर लाभ उठाया। दरअसल, वामपंथ के मुख्यधारा में आने के कारण नेपाल में आम विमर्शों की तर्क आयोजना ही बदल गई है, पर भारत का कूटनीतिक कुटुंब अब भी नेपाल को उसी पारंपरिक दृष्टि से देखे जा रहा है, जहां नेपाल अपनी सुरक्षा और आर्थिक जीवन के लिए अधिकांशतया भारत पर निर्भर रहता था। लगभग साढ़े तीन साल बाद की गयी मोदी की तीसरी नेपाल यात्रा (11-12 मई) में उस तथाकथित नाकाबंदी का प्रभाव देखा जा सकता है जब सोशल मीडिया में नेपाली नागरिकों ने फब्तियां कसीं। इसी साल अप्रैल के पहले हफ्ते में हुई नेपाली प्रधानमंत्री के पी ओली की भारत यात्रा के महज छत्तीस दिनों के भीतर ही भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की तीसरी नेपाल यात्रा हुई। अधिकांश महत्त्व के समझौतों जैसे- भारत व नेपाल के इनलैंड जलमार्ग, तेल पाइपलाइन, पंचेश्वर-तराई रोड, कृषि, आदि ओली की भारत-यात्रा के दौरान ही संपन्न हुए। 

नेपाल-यात्रा के दौरान नेपाल के नवगठित सरकार के मुखिया खड्ग प्रसाद ओली ने इसबार प्रधानमंत्री मोदी की जनकपुर और मुक्तिनाथ धाम जाने की मंसा पूरी कर दी। इसप्रकार अपनी पहली यात्रा की तरह ही एक बार फिर मोदी की इस यात्रा में भी मंदिर, पूजा, पुजारी छाये रहे और रामायण सर्किट की घोषणा के साथ ही जनकपुर से अयोध्या तक की बस आवागमन की सुविधा का उद्घाटन भी किया गया, जिसकी अगवानी स्वयं योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में की। 900 मेगावाट का अरुण हायडेल प्रोजेक्ट, रक्सौल-काठमांडू रेल लिंक के लिए सर्वे आदि घोषणाओं के साथ अंततः मोदी की धार्मिक अस्मिता ही अधिक उजागर हुई। उसी समय चल रहे कर्नाटक चुनाव से भी इसे जोड़ा तो गया ही बल्कि  नेपाल के भीतर भी प्रोविंस नंबर-4 के मुख्यमंत्री पृथ्वी सुब्बा गुरुंग ने मोदी के मंदिर विजुअल्स पर आपत्ति जताई। 

मोदी की इस नेपाल यात्रा की जैसी कवरेज भारतीय मीडिया ने की, उससे संभवतः भारतीय मतदाता पर एक खास प्रभाव पड़े, लेकिन मुकाबले में जहाँ चीन हो, भारत ऐसी विदेश नीति के साथ तो अपने द्विपक्षीय संबंधों में फिर ऊष्मा नहीं ला सकेगा। प्रधानमंत्री ओली का यह कहना कि वह भारत की चिंता समझते हैं तथा कभी भी नेपाल की ज़मीन का इस्तेमाल भारत विरोधी हितों में नहीं होने देंगे और फिर अपने संसद में जोर देकर जल्द ही चीन की यात्रा करने का आश्वासन देना; यह दिखलाता है कि नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की नज़र जहाँ नेपाल के कूटनीतिक कल पर है वहीं 2019 के आम चुनाव को देखते हुए भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की नज़र त्रेता के राम पर है। 




Tuesday, May 22, 2018

बस डोलता बस बोलता बिस्मार्क

मोदी सरकार के चार वर्ष: विदेश नीति समीक्षा




"लोग उतना झूठ कभी नहीं बोलते जितना कि शिकार के बाद, युद्ध के दरम्यान और चुनाव के पहले बोलते हैं। " - ऑटो वॉन बिस्मार्क
अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के विदेश नीति का आधार, झुकाव और कार्यशैली कमोबेश एक-सी रही। उसमें ‘परिवर्तन और सततता’ का गुण विद्यमान था। अवसर अनुकूल जोखिम लिए गए और मूलभूत मुद्दों पर दृढ़ता बनी रही। दोनों सरकारों ने अपने क्षेत्र के पड़ोसियों से संबंध बनाये रखने का महत्त्व समझा था और विश्व-राजनीति में एक स्पष्ट रुख रखते हुए जहाँ-तहाँ संबंधों को बनाने की दिशा में प्रयासरत रहे। विश्व-राजनीति का एकल ध्रुव अमेरिका बना हुआ था और उसके सबप्राइम क्राइसिस से दुनिया उबरी ही थी। भारत के संबंध अमेरिका से क्रमशः प्रगाढ़ हो रहे थे और रूस से संबंध सततता में थे। पर्यावरण, खाद्य-सुरक्षा और संयुक्त राष्ट्र सुधार जैसे मुद्दों पर भारतीय रुख स्पष्ट था और लोकतांत्रिक समानता पर आधारित था। भारत के पड़ोस में परेशानियाँ थीं फिर भी दक्षेस की बैठकें जारी थीं।
भारत में जब मई, 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बहुमत से चुनी गयी थी उस समय दुनिया में वैश्विक आतंकवाद का चेहरा दाएश (आईएस), पश्चिम एशिया में अपनी जड़ें जमा रहा था, रूस यूक्रेन मुद्दे से अपने को कोकून से निकाल रहा था, चीन, दक्षिणी चीन सागर पर अपनी धमक बनाने की कोशिश कर रहा था, यूरोपीय यूनियन ग्रीस संकट से निपट रहा था और अमेरिका आर्थिक मोर्चे पर अपनी कमजोरियाँ दुरुस्त कर रहा था। अटल-मनमोहन से इतर मोदी को स्पष्ट जनादेश मिला जो विदेश नीति संचलन दृष्टि से आदर्श स्थित्ति थी। मोदी सरकार ने विदेश मंत्री के पद पर अनुभवी, तेजतर्रार सुषमा स्वराज को, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर दृढ़ मिज़ाज अजीत डोवाल को और विदेश सचिव एस. जयशंकर को चुनकर अपने इरादे और प्राथमिकता स्पष्ट कर दी।
अब जबकि यह उपयुक्त समय है कि मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति का सम्यक आकलन किया जाय, यह उचित होगा कि इन चार सालों में विश्व-राजनीति में हुए बदलावों पर भी चर्चा हो क्योंकि विदेश नीति, विश्व-राजनीति के सापेक्ष ही गढ़ी जाती है। नब्बे के दशक से यों लगने लगा था कि अमेरिका ही विश्व-राजनीति का एकल ध्रुव है किन्तु नयी सहस्राब्दि के पहले दशक के गुजरते-गुजरते विश्व-राजनीति बहुध्रुवीय प्रकृति की दिखने लगी। अमेरिका के अलावे, चीन, जापान, ईयू (जर्मनी, फ़्रांस, आदि ), रूस, दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील, दक्षिण कोरिया, ईरान, सऊदी अरब, आसियान आदि दूसरे ध्रुव दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में उभरने लगे और विश्व द्विपक्षीयता से बहुपक्षीयता के तौर-तरीकों से चलता दिखा। दुनिया के देश हार्ड पॉवर (सैन्य, अर्थ, गणनीय क्षमता) बनने के साथ-साथ सॉफ्ट पॉवर (सांस्कृतिक, अगणनीय क्षमता) बनने की दिशा में भी कार्यशील हुए। विश्व-राजनीति में एशिया का महत्त्व सर्वाधिक बढ़ा और विकसित सभी देश अपने एशियाई पार्टनरों को पुचकारने लगे। लेकिन वैश्विक आतंकवाद, आणविक विकास स्पर्धा और विश्व-राजनीति के वैश्वीकरण ने एकबार फिर दुनिया को कुछ-कुछ शीतयुद्ध सदृश गुटबाज़ी में मशगूल कर दिया। पिछले चार सालों में विश्व में दो गुट फिर से दिखने लगे हैं जिसे चतुष्क और प्रतिचतुष्क कहा जा रहा है। चीन, रूस, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान के रणनीतिक प्रतिचतुष्क के जवाब में अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत का चतुष्क कार्यरत हो गया। विश्व-राजनीति में ऐसे नेता उभर रहे हैं जो अपनी घरेलू राजनीति में लगभग अपराजेय रहते हुए अपने देश की अपराजेयता के स्वप्न पाल बैठे हैं। रूस के पुतिन, जापान के शिंजो अबे, चीन के शी जिनपिंग, जर्मनी की एंजेला मोर्केल, आदि सभी नेता आज की विश्व-राजनीति में बेहद निर्णायक हैं। इन दोनों गुटों में चीन सबसे आक्रामक दिखाई पड़ता है और गुटनिरपेक्ष राजनीति करने वाला भारत अमेरिका से बने नए द्विपक्षीय समझ के तहत एक गुट में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। रूस, कूटनीतिक इतिहास में पहली बार पाकिस्तान को हथियार भेज रहा है और पाकिस्तान, चीन के साथ एक गुट में है। हिन्द महासागर और प्रशांत में बढ़ती चीन की दखलंदाजी को देखते हुए अमेरिका ने भारत की भूमिका बढ़ाने की गरज से इस समूचे क्षेत्र को ‘इंडो-पैसिफिक रीज़न (हिन्द-प्रशांत क्षेत्र )’ कहना शुरू किया है।
मोदीयुगीन ‘एक्टिव फॉरेन पॉलिसी’
‘एक्टिव फॉरेन पॉलिसी’ इस शब्द-युग्म की बड़ी चर्चा थी जब उम्मीदों की मोदी सरकार ने शपथ लिया था। मोदी, व्यक्तिगत रूप से विदेश नीति में बेहद रूचि लेते रहे और उन्होंने विदेश यात्राओं की झड़ी लगा दी। इस लेख के लिखे जाने तक मोदी 36 विदेश यात्रायें कर चुके हैं जिसमें कुल 56 देशों की ज़मीन पर मोदी पांव रख चुके हैं। इनमें से कई ऐसे देश हैं जहाँ काफी समय से कोई भारतीय प्रधानमंत्री पहुँचा ही नहीं। विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए भी यह एक ‘जुड़ाव’ का मौका होता है और इस तरह की यात्रायें निश्चित तौर पर देश को सॉफ्ट पॉवर के रूप में भी स्थापित होने का मौका देती हैं। बहुत सारे देशों में द्विपक्षीय वार्ताएं जो ठिठकी पडी थीं, वह पुनः शुरू हुई हैं।
अफ्रीका महाद्वीप से संबंध हमारे हिंद महासागर क्षेत्र की सुरक्षा की गारंटी देते हैं। मनमोहन सिंह के समय से शुरू हुई हर तीन साल पर होने वाली ‘इंडिया-अफ्रीका समिट’ को मोदी ने 2015 में बेहद भव्य तरीके से आयोजित किया। जुलाई, 2016 में मोदी ने अपनी अफ्रीका यात्रा में मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका, तंज़ानिया, केन्या आदि देशों की यात्रा की और जापान के साथ मिलकर ‘अफ्रीका विकास बैंक’ के संदर्भ में गुजरात के गांधी नगर में बैठक करते हुए ‘एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर’ पर काम शुरू किया। दक्षिण चीन सागर विवाद और आसियान, जापान, उभरते चीन, फिर से होड़ में आने को बेताब रूस आदि की वज़ह से पूर्व एशिया व प्रशांत क्षेत्र की बढ़ती सामरिक महत्ता ने भारत को विवश किया कि वह हिलेरी क्लिंटन की सुझाई ‘ऐक्ट ईस्ट’ शब्दावली को अपनाये और इधर अपनी सक्रियता बढ़ाये। मोदी ने अपनी ‘ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के तहत म्यांमार और थाईलैंड को अपना स्तम्भ बनाया और इनसे द्विपक्षीय संबंधों पर श्रम किया। कनेक्टिविटी, कॉमर्स और कल्चर के नारे के साथ मोदी उस सामरिक हिचक से बाहर आये जिसमें भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्रों के रणनीतिक जगहों का अवसरंचना विकास जानबूझकर नहीं किया जाता था ताकि कोई अन्य देश इसका फायदा न उठा ले। मई, 2017 में आसाम में मोदी ने एक सड़क पुल का उद्घाटन किया और ‘भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय हाइवे परियोजना’ में निवेश किया। जापान और आस्ट्रेलिया इस क्षेत्र में भारत के विश्वसनीय साझेदार बनकर उभरे हैं। जापान ने जहाँ भारत से आणविक संधि संपन्न की वहीं उसने ‘बुलेट ट्रेन’ और ‘दिल्ली-मुंबई इन्डस्ट्रीअल कॉरिडोर’ परियोजना में निवेश किया है। मोदी ने, आस्ट्रेलिया, जापान, फ़ीजी, मंगोलिया समेत सभी आसियान देशों की यात्रा की और इस वर्ष 26 जनवरी की परेड में सभी आसियान देशों के प्रतिनिधि उनके निमंत्रण पर भारत भी आये। तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर की औचक अमेरिका-पैसिफिक हेडक़्वार्टर कैंप स्मिथ की यात्रा बताती है कि दक्षिणी चीन सागर की सुरक्षा को लेकर भारत, अमेरिका प्रतिबद्ध हैं।
2017 में मोदी ने यूरोपीय देशों यथा- जर्मनी, फ़्रांस, स्पेन और रूस की यात्रा की और ईयू के सर्वाधिक प्रभावशाली देश जर्मनी से अपनी साझेदारी बेहतर की। भारत और फ़्रांस अपने सामरिक संबंधों को लेकर बेहद गंभीर हैं और नवनिर्मित सामरिक गुट चतुष्क में भी अपनी सहभागिता की मंशा जतलाई है। भारत में दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक समुदाय मुसलमानों का है, इसलिए भारत और मध्य-पूर्व दोनों ही पारस्परिक संबंधों का महत्त्व समझते हैं। भारत के व्यापारिक अन्तर्क्रियाओं के लिए अरब सागर की सुरक्षा और लाल सागर में प्रवेश की सुविधा भी अहम् मुद्दे हैं। मोदी ने अपनी संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, इजरायल, फलस्तीन, ओमान, क़तर, जॉर्डन की यात्राओं से अपनी ‘लिंक वेस्ट पॉलिसी’ को ‘थिंक वेस्ट पॉलिसी’ में परिणत कर दिया और इज़रायल व फलस्तीन दोनों से संबंधों का संतुलन बनाने की कोशिश की। मोदी सरकार की तारीफ करनी होगी जब अमेरिका के येरूशलम राजधानी घोषणा करने पर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अरब समुदाय के पक्ष में मत दिया और इराक, यमन आदि देशों में फँसे भारतीयों को निकालने में तत्परता दिखाई।
नेबरहुड फर्स्ट से नेबरहुड लॉस्ट
मध्य एशिया में जहाँ गैसीय ऊर्जा के भंडार क्षेत्र हैं, एक अरसे से वहाँ रूस का दबदबा है और रूस की सहायता से ही चीन की पकड़ बन रही है; मोदी ने काँग्रेसी पूर्व मंत्री ई. अहमद की शब्दावली उधार ली और अपनी सक्रियता ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया पॉलिसी’ के नारे के साथ जुलाई 2015 में क्षेत्र के पांच देशों की यात्रा की। चीन-पाकिस्तान आर्थिक सहयोग गलियारा जो भारत का मध्य एशिया से संपर्क समाप्त कर देता है उसका जवाब मोदी सरकार ने ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित कर तुर्कमेनिस्तान और कजाखस्तान रेलवे परियोजना का लाभ लेते हुए पुनः संपर्क स्थापित करके दिया। प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशियाई देशों के राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता दिया और वे सम्मिलित भी हुए। दक्षिण एशिया में भी मोदी सरकार ने बांग्लादेश के साथ ‘लैंड बॉर्डर एग्रीमेंट’ कर ‘एन्क्लेव्स’ मुद्दे को समाप्त किया। नेपाल में भूकंप आने पर यथासंभव मदद दी। प्रधानमंत्री बनते ही पहली यात्रा के तौर पर भूटान को चुना डोकलाम मुद्दे पर डटे भी रहे। अलग-अलग समयों में मोदी की गयी अमेरिका, कनाडा, मेक्सिको, ब्राज़ील की यात्रा बताती है कि उनके लक्ष्य में अमेरिकी महाद्वीप भी शामिल हैं। मोदी सरकार की अन्य उपलब्धियों में निश्चित ही इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस हेग में दलवीर भंडारी की जीत, शस्त्र व तकनीक नियंत्रण की चार समितियों में से एमटीसीआर, डब्ल्यू ए और ऑस्ट्रेलिया समूह सहित तीन की सदस्यता, कुलभूषण जाधव की फाँसी पर रोक, कई देशों से आणविक समझौते करना, एफटीए हस्ताक्षर करना, चागोस प्रायद्वीप मुद्दे पर ब्रिटेन विरुद्ध और मारीशस के पक्ष में मतदान करना आदि अवश्य शामिल किये जाने चाहिए।

मोदी सरकार की शुरुआत तो बड़े जोरशोर से ‘नेबरहुड फर्स्ट’ के नारे से हुई थी पर मोदी सबसे अधिक विफल कहीं हैं तो अपने इर्द-गिर्द पड़ोस में हैं। विश्व-राजनीति का अध्ययन कहता है कि बिना अपने आस-पड़ोस को सम्हाले कोई राष्ट्र, विश्व-राजनीति में कहीं टिक ही नहीं सकता। इस ‘नेबरहुड लॉस्ट’ से मोदी की सारी ‘एक्टिव फॉरेन पॉलिसी’ की कवायद यकीनन धरी की धरी रह जाएगी। अपने पड़ोस में चीन सहित दक्षिण एशियाई सभी पड़ोसी देशों से आर्थिक साझेदारी वहीँ धीमी गति से चल रहे हैं और कूटनीतिक संबंध खिंचे हुए हैं। चीन ने अपनी ‘ओबोर नीति’ के तहत भारत के लगभग सभी पड़ोसी देशों से अवसंरचना विकास के नाम पर भारी निवेश किया है और हालिया डोकलम विवाद से भी एक दबाव बनाने की कोशिश की। पाकिस्तान से संबंध कभी सामान्य हुए ही नहीं और मोदी सरकार ने कोई रचनात्मक शुरुआत भी नहीं की। कुछ विश्लेषकों की राय में चीन का एक आर्थिक-सांस्कृतिक असर अवश्य भूटान पर भी पड़ने लगा है और 2018 के देश के तीसरे आम चुनाव में नेपाल के हालिया चुनाव की तरह ही यहाँ भी भारत-विरोधी भावनाओं का उभार दिख सकता है । हाल के रोहिंग्या संकट पर भारत का कमोबेश ठंडा रवैया बांग्लादेश को ठीक तो नहीं ही लगा है। नेपाल के नए संविधान की घोषणा के तुरंत बाद ही असंतुष्ट मधेसियों के द्वारा रक्सौल-बीरगंज पॉइंट नाकाबंदी पर भारत का शांत रह जाना जहाँ वाम दलों और आम नेपालियों को खला है और अब वामपंथियों के सत्ता में आने से और उनकी चीन की तरफ तथाकथित झुकाव से भी भारत-नेपाल संबंध नाजुक तो हुए ही हैं, यह नेपाली प्रधानमंत्री की यात्रा में भी महसूस किया गया । हाल-फ़िलहाल भारत के श्रीलंका से संबंध भी खास चर्चा में नहीं हैं और श्रीलंका ने अभी अपने एक प्रमुख बंदरगाह का स्वामित्व चीन को एक समयसीमा के लिए के लिए सौपा है। चीन ने दक्षिणी चीन सागर और हिन्द महासागर में अंडरवाटर सर्वेलियांस नेटवर्क्स बिछाकर यकीनन जहाँ हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है। मालदीव विवाद में भी भारत की अनदेखी की गयी और बिसात पर चालें चीन चलता रहा। एक चिंता की बात यह भी है कि इधर भारत के पड़ोस में अलग अलग कारणों से भारत विरोधी भावनाओं में इज़ाफा हुआ है। पाकिस्तान के बाद, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में यह देखा जा सकता है। कुछ कारण ऐतिहासिक हैं तो कुछ सम-सामयिक हैं। चीन इस स्थिति का अक्सर यह कहते हुए लाभ उठाता है कि उसका दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंध बराबरी पर आधारित हैं।

बस डोलता बस बोलता बिस्मार्क
मोदी, सरदार वल्लभ भाई पटेल को आदर्श मानते हैं, जिनके लिए प्रशा के शक्तिशाली चांसलर बिस्मार्क का नाम प्रयुक्त होता है। शुरू में ऐसा लगा कि बिलकुल बिस्मार्क की तरह मोदी हर स्टीरियोटाइप तोड़ देंगे और भारत का राष्ट्रहित साधने के लिए कोई भी जोखिम लेंगे। मोदी का शपथग्रहण, सर्जिकल स्ट्राइक, पाकिस्तान में जाकर सहसा बिरयानी खाना, इज़रायल की यात्रा, वेनेजुएला का गुटनिरपेक्ष सम्मेलन जानबूझकर छोड़ना, सार्क सम्मेलन में दिलचस्पी न लेना, फलस्तीन-जॉर्डन की यात्रा, भारत के संयुक्त राष्ट्र में किये गए मत आदि ढेरों अवसरों पर मोदी विश्लेषकों को चौंकाते रहे पर इतनी उछलकूद का जब हासिल खोजा जाए तो ठोस उपलब्धियाँ नदारद मिलती हैं। रूस की पारंपरिक दोस्ती मोदी को छोड़ कोई भी भारतीय सरकार नहीं गंवाना चाहेगी। सार्क को पुनर्जीवित करने की कोई कोशिश नहीं की गयी। मालदीव में जब अमेरिका सहित समूचा पश्चिम भारत की ओर देख रहा था, मोदी मौन रहे। ईरान ने चाबहार पर व्यापार करने के लिए पाकिस्तान को भी न्यौता दे दिया है। पास के ग्वादर बंदरगाह पर पहले ही चीन और पाकिस्तान काबिज हैं। भारत, येरुशलम मुद्दे पर मध्यस्थता कर सकने की पहल कर सकता था पर चीन पहले ही अरब-इजरायल संवाद का आयोजक है। मोदी उम्मीद तो बिस्मार्क की तरह जगाते रहे और उनके अधिकारी चीन की नाराजगी के भय से दलाई लामा का ‘थैंक यू इंडिया’ कार्यक्रम तक स्थगित करा दिया।
मोदी की विदेश नीति में दरअसल एक विजन और तारतम्यता का अभाव दिखा। प्लान बी की झलक कहीं नहीं मिली। विदेश नीति के हलचलों को भी चुनावों में पॉजिटिव परसेप्शन बिल्डिंग के लिए पहली बार बेशर्मी से प्रयोग किया गया। इराक़ में चालीस मजदूरों की मौत महज इसलिए छिपाई गयी कि यह पॉजिटिव परसेप्शन बिल्डिंग बर्बाद न हो जाये। विदेश नीति के क्षेत्र की उपलब्धियाँ और नाक़ामियाँ दोनों ही दूरगामी प्रभावों वाली होती हैं। सफलता, दूसरी कई सफलताओं के रास्ते खोलती है वहीं असफलताएँ आसानी से रफू नहीं होतीं क्यूँकि विश्व-राजनीति के अधिकांश कारक बाहरी होते हैं। मोदी सामरिक चतुष्क के सदस्य बनकर भी न मालदीव, न अफ़ग़ानिस्तान और न प्रशांत क्षेत्र में कोई रचनात्मक हस्तक्षेप करते हैं और न ही चीन, रूस, पाकिस्तान से संबंध सुधारकर दक्षिण कोरिया-उत्तर कोरिया की तरह महाशक्तियों की क्षेत्र में दखलंदाजी रोकने की कवायद करते हैं। मोदी विदेश नीति को संचालित करने वाली उस स्थाई नौकरशाही में भी कोई संरचनात्मक सुधार नहीं करते जो अभी भी कितने ही पर्सेप्शन्स में उन्हीं पुराने तरीकों से काम करती है, जिससे किसी नवीन दृष्टिकोण की उम्मीद नहीं की जा सकती। मोदी, विश्व और अपने पड़ोस के लिए अमेरिका, चीन, रूस, जापान की तर्ज पर कोई आर्थिक सहायता मॉडल भी नहीं बनाते जिससे राष्ट्रों को आर्थिक सहयोग तंत्र से जोड़ा जा सके। यों तो मोदी कार्यकाल के लगभग दस महीने शेष हैं पर इसमें अधिक से अधिक अपनी नीतियों का फॉलो-अप ही यदि ले सकें तो भारतीय विदेश नीति को लाभ होगा। क्योंकि विश्व भर की यात्राओं का जितना हासिल है भी वह भी यह सरकार इसलिए खोती नज़र आ रही है क्योंकि फॉलो-अप उचित रीति से नहीं किये जा रहे । कहना होगा कि प्रधानमंत्री रहते हुए मोदी को स्पष्ट बहुमत, खुला अमेरिकी समर्थन और चतुष्क की सदस्यता का जो सुन्दर अवसर प्राप्त हुआ था, वह अवसर वह लगभग गँवा चुके हैं बल्कि आने वाली सरकारों को एक बार फिर से रूस सहित एशिया के बाकी देशों से संबंध दुरुस्त करने में नाको चने चबाने होंगे। भारत को निश्चित ही अपनी विदेश नीति के लिए एक बिस्मार्क सरीखा शक्तिशाली राजनीतिक नेतृत्व नसीब हुआ तो था पर वह अमूमन बस डोलता बस बोलता बिस्मार्क साबित हुआ। वैसे बिस्मार्क ने यह भी कहा था :
“राजनीति अगले बेहतरीन को पाने की कला है !”



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