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Friday, November 24, 2017

चुनाव सुधार और नेपाल चुनाव



डॉ. श्रीश पाठक

नेपाल ने पिछले सात दशकों में सात संविधान देखे हैं। देश के पिछले तीन दशक बेहद त्रासद राजनीतिक अस्थिरता के रहे हैं, जिसमें तकरीबन दस साल भयंकर हिंसाके हैं। नेपाल में १९९० में बहुदलीय लोकतंत्रीय संसदीय व्यवस्था को अपनाया तो गया पर पिछले सत्ताईस सालों में देश में पच्चीस सरकारें आईं और एकबार बलात राजकीय सत्ता परिवर्तन भी हुआ। १९९९ में पिछली बार चुनाव संपन्न हुआ पर दो साल के भीतर ही २००१ में आपातकाल लागू कर दिया गया। २००५-०६ में भारत सरकार के प्रयासों से माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल किया गया और नए गणतांत्रिक नेपाल के नए संविधान के गठन के लिए २००८ में प्रथम संवैधानिक सभा बनाई गयी। विभिन्न अस्मिताओं वाले नागरिकों के सम्यक प्रतिनिधित्वके मुद्दे पर खींचातानी चलती रही और २०१३ में द्वितीय संवैधानिक सभा का गठन किया गया। ये संविधान सभाएँ संविधान-निर्माण के लिए सहमति जोहती रहीं और साथ-साथ शासन-प्रशासन भी किसी प्रकार चलाती रहीं। अप्रैल, २०१५ में जहाँ नेपाल ने भूकंप की भयानक विभीषिका झेली, वहीं देश को सितम्बर, २०१५ में नया संविधान मिला जिसके अनुसार नेपाल एक गणतांत्रिक लोकतंत्र होगा, जिसमें राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान और प्रधानमंत्री के पास वास्तविक शक्तियाँ होंगी और देश सात राज्यों का एक संघीय ढाँचा बनेगा ।२०१३ के बाद से पिछले चार साल में चार सरकारें आ चुकी हैं जो नेपाली कांग्रेस के सुशील कोईराला, शेर बहादुर देउबा और माओवादी गठबंधन के प्रचंड और केपी ओली के नेतृत्व में बनीं। नए संविधान के मुताबिक देश में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, जिसमें केंद्रीय संसदीय स्तर, राज्यस्तर और निकायों का स्थानीय स्तर भी समावेशित है। 



फिलहाल राहत की बात यह है कि निकाय स्तर के चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो चुके हैं और उन चुनावों में तीन बड़े दल क्रमशः कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल-यूनिफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट, नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल (माओइस्ट सेंटर) उभरे हैं। इन्हीं तीन दलों के चुने हुए प्रत्याशी अब नेपाल के उच्च सदन के सदस्य चुनेंगे। जनवरी २०१८ तक नए संविधान के अनुसार नयी सरकार गठित कर ली जाए और पिछले कई दशकों की उठापटक से उपजी भयंकर बेरोज़गारी का जवाब एक सुनियोजित विकास से दिया जा सके, इसलिए ही नेपाल ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्य और केंद्र के चुनाव एक साथ ही दो चरणों में कराने का निर्णय लिया है। इस केंद्र-राज्य समकालिक चुनाव व्यवस्था से संसाधनों कामितव्ययी  प्रयोग होगा और सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित देश को एक सशक्त प्रधानमंत्री भी मिलेगा, ऐसी अपेक्षा है। यह यकीनन एक प्रगतिवादी कदम है और आशा की जानी चाहिए कि नेपाल अपने इस लोकतांत्रिक प्रयोग में सफल होकर एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ पायेगा। दक्षिण एशिया में श्रीलंका में भी यह विमर्श जारी है कि कम से कम सभी राज्यों के चुनाव एक साथ कराये जाएँ ! 

नेपाल ने एक बेहतरीन सुधार और अपने चुनाव प्रणाली में किया है, जो सचमुच उल्लेखनीय है। नेपाल ने समानांतर मतदान प्रणाली व्यवस्था को चुना है जिसमें विभिन्न प्रत्याशी दो रीतियों से चुने जायेंगे। तकरीबन साठ प्रतिशत प्रत्याशी फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट-एफपीपी (ज्यादा मत पाया, वह जीता ) पद्धति से और बाकी प्रत्याशी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से चुने जायेंगे। जहाँ एफपीपी पद्धति एक सरल चुनाव पद्धति है वहीं आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति जटिल तो है परन्तु प्रत्याशियों का सम्यक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है। नेपाल के संविधान-निर्माताओं ने अपने स्तर पर यह कोशिश की है कि गठित होने वाली आगामी संसद में सभी हित और अस्मिताएं सम्यक प्रतिनिधित्व के साथ प्रशासन में योग दें, ताकि देश फिर किसी अन्तर्संघर्ष की स्थिति में न फँसें।

उथल-पुथल से भरे नए-नवेले राष्ट्र भारत के लिए एफपीपी चुनाव पद्धति आदर्श थी जिसके तकरीबन अठ्ठासी प्रतिशत नागरिक साक्षर भी नहीं थे। किन्तु अब जबकि भारत की साक्षरता लगभग पचहत्तर प्रतिशत के करीब है, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अपनाये जाने के लिए जरूरी विमर्श होना चाहिए क्योंकि यही पद्धति भारत की विशाल विविधताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व कर सकती है।  




आखिर एशिया में हुआ क्या है...!


लल्लनटॉप पर 

दुनिया में सबसे जियादा लोग यहीं बसते हैं। बाकी सभी महाद्वीपों के सभी लोगों को जोड़ भी लें तो कम है। दुनिया कारोबारी हो गयी है और एशिया उन्हें बाजार दिखता है। अमीर देशों के कारोबारी और ज़ियादा मुनाफे की हवस में एशिया आते हैं ताकि उन्हें सस्ते में स्किल वाले मजदूर मिलें। इस चक्कर में विकसित देशों ने एशिया में पैसा लगाया, फैक्टरियाँ लगाईं और जिन एशियाई देशों ने वक्त की नब्ज पकड़ी उन्होंने और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करके इस मौके का फायदा उठाया। एशिया में पुराने बाबा तो हैं ही, यूरोप से सटा रूस है, मालदार जापान है और अब उभरता भारत है और चकल्लस चीन है। विश्व -राजनीति में शक्ति वही नहीं होती जो हथियार और सेना से उपजती है, जोसेफ नाई के अनुसार हार्ड पावर के साथ सॉफ्ट पावर भी होता है जो कल्चरल चीजों से हर जगह, जगह बना लेता है। डांस, गाना, त्यौहार, खाना, भेष, साहित्य, फिल्म, आदि से पकड़ और मजबूत हो जाती है, इसके साथ ही अगर सेना भी मजबूत हो, हथियार नए-नवेले हों तो फिर तो धाक जम ही जाती है। सिंगापूर, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड जैसे देशों ने ग्लोबलाईजेशन का फायदा उठाया, चीन और भारत ने अपने कल्चरल माल का इस्तेमाल तो किया ही, न्यूक्लियर, सेना, हथियार और उत्पादन पर भी अच्छी प्रगति की। रूस को 1991 में अपनी सोवियत रूस की पहचान गंवानी तो पड़ी पर अपने प्राकृतिक खजानों और काबिल नेतृत्व के बल पर एक बार फिर विश्वराजनीति में हलचल पैदा करने लायक स्थिति में पहुँच गया है। दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम से नेस्तनाबूत होने के बाद जापान ने शांति और समृद्धि की राह चुनी और देखते देखते ही यह दुनिया का दूसरा मालदार देश बन बैठा है। मध्य-पूर्व एशिया में तेल की खोज हो जाने से वहाँ लूटमार शुरू हुई पर कुछ देशों जैसे युएई, सऊदी अरब, क़तर, ईरान आदि ने अपनी धाकड़ जगह जमा ली।  

कुल मिलाकर अभी एशिया में सबसे अधिक उपजाऊ जमीन है, स्किल वाले लोग हैं, बड़ा बाजार है, कल्चर है और ताकत भी।ये समय पैसा वाला है और पूरी दुनिया ही खरीदने से अधिक बेंचने के जुगाड़ में है। बेंचने के लिए जमीन का रास्ता ठीक तो है पर पूरी दुनिया जमीन का एक टुकड़ा तो है नहीं और फिर जमीन पे रिस्क कुछ कम नहीं। दुनिया भर के देश से रिश्ता बनाओ, तब माल आगे ले जाओ। रिश्ता जो बन भी जाये तो भी समुद्र का दामन पकड़ना ही होता हैसात महाद्वीप पांच महासागर में तैरते जो हैं। एशिया दो महासागर हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर की गोदी में है। यूरोप को एशिया से जोड़ने के लिए अदन की खाड़ी से होते हुए हिन्द महासागर के अरब सागर का सहारा चाहिए और एशिया को अमेरिका से जोड़ने के लिए दक्षिण चीन सागर के रास्ते प्रशांत महासागर में गोता लगाना होगा। दुनिया के सब व्यापारी लोगों का काम बिना इन दो महासागरों के समुद्री राहों के न हो सकेगा। व्यापारी सरकार बनवाता है तो सरकार सारा कूटनीति इन राहों की सलामती के लिए करती है।जब यूरोप के लोग डार्क एज से निकले तो साइंस का हाथ पकड़के जरुरत के हिसाब से नहीं मुनाफे के पैमाने पर उत्पादन करना शुरू किया और हथियार, सेना व चालाकी से दुनिया के उन देशों को गुलाम बना लिया जहाँ अभी भी लोग मशीनों के गुलाम नहीं बने थे। आज एशिया के देश आजाद हैं और अपने हक़ के लिए जागरूक भी। ये अपने जमीन और जल के लिए बारगेन करना जानते हैं।

विश्वराजनीति में आधुनिक समय में खिलाड़ी जरूरी नहीं है कि कोई देश ही होगा, बिना देश वाला कुछ लोगों का संगठन भी हलचल मचा सकता है। बढ़िया सेन्स में मल्टीनेशनल कम्पनीज हैं जिनके पास किसी एक देश की तरह हुकूमत तो नहीं है पर ये अपने माल और रसूख से किसी भी देश में मनचाहा फर्क डाल सकते हैं। घटिया सेन्स में आतंकवादी संगठन हैं जो किसी एक देश के नहीं हैं पर देशों पर असर डाल सकते हैं। एशिया को मल्टीनेशनल कम्पनीज एक बाजार और सस्ते मजदूर की लालच में देखती हैं तो आतंकवादी संगठन भी एशिया को एक आसान चारागाह और भटके स्किल/बिना स्किल वाले मजदूरों का खान समझते हैं। ऐसे में ऐसे में एशिया के समुद्री राहों को इनसे भी बचाना है और एशिया के किसी देश की दादागिरी से भी। पर यहीं तो ट्विस्ट है। पश्चिम के पुराने बाबा एशिया का बाजार चलाना चाहते हैं और एशिया के उभरते शेर अपना हिस्सा मांग रहे या फिर राहों पर अपनी चलाना चाहते हैं। अब आज का जापान सेना और हथियार पे इन्वेस्ट कर रहा है। चीन व्यापार का कारखाना बन गया है और सॉफ्ट पावर के साथ ही साथ हार्ड भी हो गया है। भारत ने भी अब अपने आपको बटोर लिया है और मैप पे अपनी जगह का फायदा उठाने को तैयार बैठा है। रूस को अब फिर से सोवियत वाला रसूख चाहिए और इतना डेस्पेरेट हैं पुतिन कि अपने जिगरी दोस्त भारत के पक्के दुश्मन पाकिस्तान को हथियार बेच रहे हैं। चीन को एशिया और दुनिया का बाबा बनना है तो बगल में भारत को दबाते रहना है। 1962 में  ड्रैगन ने शेर को खाली इसलिए घायल कर दिया कि शेर की साख दुनिया के लेवल पर बढ़े जा रहा था। भारत को घेरने के लिए पापी चीन भारत के सब पड़ोसी को पुचकारता है और हिन्द महासागर में बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान के लिए बंदरगाह बनाता है। कश्मीर का एक हिस्सा 1947 से ही पाकिस्तान के पास है और एक दूसरा हिस्सा 1962 में चीन ने हड़प लिया; यहीं से चीन ने पाकिस्तान को दोस्ती की टॉफियाँ खिला रहा है और भारत ऊर्जा के भंडार मध्य एशिया के देशों से भी कट गया। कोरिया का एक हिस्सा तानाशाही परिवार के हाथ में है और वह पाकिस्तान, चीन आदि की कृपा से नुक्लियर बम की धमकी से पूरी दुनिया को थर्रा रहा है। मानेंगे नहीं पर पूरी दुनिया को पता है कि रूस और चीन, उत्तर कोरिया को शह दे रहे हैं और उसे अपने लिए एक मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे।

जापान में शिंजो अबे फिर चुनकर आये हैं, मजबूत इरादों के साथ नया जापान गढ़ने को तैयार हैं। चीन में शी जिनपिंग की सत्ता में पकड़ मजबूत हुई है और वे भी चाइनीज ड्रीम देख रहे हैं। पुतिन गाहे-बगाहे कभी राष्ट्रपति बनकर तो कभी प्रधानमंत्री बनकर सत्ता में बने हुए हैं और लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। पाकिस्तान में चलती अभी भी सेना की ही है और भारत में भी एक मजबूत नेता की सरकार है। कहने का मतलब ये है कि अभी के निर्णायक एशियाई देश निर्णय लेने को अधिक सशक्त हैं। ऐसे में एशिया अभी सबकी नज़र में है। कोई कमाना चाहता है, कोई आतंकवाद से परेशान है।  कोई बेचना चाहता है तो कोई रस्तों के कब्जाने से परेशान है। आईएस भी यहीं है और अलक़ायदा भी। आसियान भी यहीं है और एपेक भी यहीं है। जंगल, पहाड़, समुद्र का का बायोडायवर्सिटी भी यहाँ प्रचुर है। इस सबकी वजह से अपना एशिया हिट है और हिटलिस्ट में भी है। कुछ विद्वान् कहते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध के पहले की सारी परिस्थितियाँ मौजूद हैं, यहाँ। अपना दिमाग है कि, विश्व युद्ध तो नहीं ही होगा पर एशिया अब इग्नोर होने के मूड में नहीं है।  
डॉश्रीश पाठक 
shreesh.prakhar@gmail.com

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