डॉ. श्रीश पाठक
नेपाल ने पिछले सात दशकों में सात संविधान देखे हैं। देश के पिछले तीन दशक बेहद त्रासद राजनीतिक अस्थिरता के रहे हैं, जिसमें तकरीबन दस साल भयंकर हिंसाके हैं। नेपाल में १९९० में बहुदलीय लोकतंत्रीय संसदीय व्यवस्था को अपनाया तो गया पर पिछले सत्ताईस सालों में देश में पच्चीस सरकारें आईं और एकबार बलात राजकीय सत्ता परिवर्तन भी हुआ। १९९९ में पिछली बार चुनाव संपन्न हुआ पर दो साल के भीतर ही २००१ में आपातकाल लागू कर दिया गया। २००५-०६ में भारत सरकार के प्रयासों से माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल किया गया और नए गणतांत्रिक नेपाल के नए संविधान के गठन के लिए २००८ में प्रथम संवैधानिक सभा बनाई गयी। विभिन्न अस्मिताओं वाले नागरिकों के सम्यक प्रतिनिधित्वके मुद्दे पर खींचातानी चलती रही और २०१३ में द्वितीय संवैधानिक सभा का गठन किया गया। ये संविधान सभाएँ संविधान-निर्माण के लिए सहमति जोहती रहीं और साथ-साथ शासन-प्रशासन भी किसी प्रकार चलाती रहीं। अप्रैल, २०१५ में जहाँ नेपाल ने भूकंप की भयानक विभीषिका झेली, वहीं देश को सितम्बर, २०१५ में नया संविधान मिला जिसके अनुसार नेपाल एक गणतांत्रिक लोकतंत्र होगा, जिसमें राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान और प्रधानमंत्री के पास वास्तविक शक्तियाँ होंगी और देश सात राज्यों का एक संघीय ढाँचा बनेगा ।२०१३ के बाद से पिछले चार साल में चार सरकारें आ चुकी हैं जो नेपाली कांग्रेस के सुशील कोईराला, शेर बहादुर देउबा और माओवादी गठबंधन के प्रचंड और केपी ओली के नेतृत्व में बनीं। नए संविधान के मुताबिक देश में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, जिसमें केंद्रीय संसदीय स्तर, राज्यस्तर और निकायों का स्थानीय स्तर भी समावेशित है।
फिलहाल राहत की बात यह है कि निकाय स्तर के चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो चुके हैं और उन चुनावों में तीन बड़े दल क्रमशः कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल-यूनिफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट, नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल (माओइस्ट सेंटर) उभरे हैं। इन्हीं तीन दलों के चुने हुए प्रत्याशी अब नेपाल के उच्च सदन के सदस्य चुनेंगे। जनवरी २०१८ तक नए संविधान के अनुसार नयी सरकार गठित कर ली जाए और पिछले कई दशकों की उठापटक से उपजी भयंकर बेरोज़गारी का जवाब एक सुनियोजित विकास से दिया जा सके, इसलिए ही नेपाल ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्य और केंद्र के चुनाव एक साथ ही दो चरणों में कराने का निर्णय लिया है। इस केंद्र-राज्य समकालिक चुनाव व्यवस्था से संसाधनों कामितव्ययी प्रयोग होगा और सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित देश को एक सशक्त प्रधानमंत्री भी मिलेगा, ऐसी अपेक्षा है। यह यकीनन एक प्रगतिवादी कदम है और आशा की जानी चाहिए कि नेपाल अपने इस लोकतांत्रिक प्रयोग में सफल होकर एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ पायेगा। दक्षिण एशिया में श्रीलंका में भी यह विमर्श जारी है कि कम से कम सभी राज्यों के चुनाव एक साथ कराये जाएँ !
नेपाल ने एक बेहतरीन सुधार और अपने चुनाव प्रणाली में किया है, जो सचमुच उल्लेखनीय है। नेपाल ने समानांतर मतदान प्रणाली व्यवस्था को चुना है जिसमें विभिन्न प्रत्याशी दो रीतियों से चुने जायेंगे। तकरीबन साठ प्रतिशत प्रत्याशी फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट-एफपीपी (ज्यादा मत पाया, वह जीता ) पद्धति से और बाकी प्रत्याशी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से चुने जायेंगे। जहाँ एफपीपी पद्धति एक सरल चुनाव पद्धति है वहीं आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति जटिल तो है परन्तु प्रत्याशियों का सम्यक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है। नेपाल के संविधान-निर्माताओं ने अपने स्तर पर यह कोशिश की है कि गठित होने वाली आगामी संसद में सभी हित और अस्मिताएं सम्यक प्रतिनिधित्व के साथ प्रशासन में योग दें, ताकि देश फिर किसी अन्तर्संघर्ष की स्थिति में न फँसें।
उथल-पुथल से भरे नए-नवेले राष्ट्र भारत के लिए एफपीपी चुनाव पद्धति आदर्श थी जिसके तकरीबन अठ्ठासी प्रतिशत नागरिक साक्षर भी नहीं थे। किन्तु अब जबकि भारत की साक्षरता लगभग पचहत्तर प्रतिशत के करीब है, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अपनाये जाने के लिए जरूरी विमर्श होना चाहिए क्योंकि यही पद्धति भारत की विशाल विविधताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व कर सकती है।
उथल-पुथल से भरे नए-नवेले राष्ट्र भारत के लिए एफपीपी चुनाव पद्धति आदर्श थी जिसके तकरीबन अठ्ठासी प्रतिशत नागरिक साक्षर भी नहीं थे। किन्तु अब जबकि भारत की साक्षरता लगभग पचहत्तर प्रतिशत के करीब है, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अपनाये जाने के लिए जरूरी विमर्श होना चाहिए क्योंकि यही पद्धति भारत की विशाल विविधताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व कर सकती है।