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Friday, January 5, 2018

पाकिस्तान पर दबाव बनाने के पीछे कहीं अमेरिका की ये रणनीति तो नहीं


"अमेरिका ने मूर्खतापूर्ण रीति से पिछले पंद्रह सालों में सहायता के नाम पर तैतीस बिलियन से भी अधिक राशि पाकिस्तान को दी है, और उन्होंने हमें बस झूठ, धोखा दिया है कि जैसे हमारे नेता मूर्ख हों। उन्होंने उन आतंकवादियों को सुरक्षित पनाह दी, जिन आतंकवादियों को हम अफ़ग़ानिस्तान में उनकी थोड़ी सहायता से खोज रहे थे। … अब नहीं !"

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने नए साल के अपने छठे ट्वीट से दक्षिण एशियाई, खासकर पाकिस्तानी राजनीति में खलबली मचा दी। ट्रम्प के बयानों को लेकर विश्लेषक कुछ पसोपेस में रहते हैं, जो अक्सर अस्पष्ट, विरोधाभासी और सनसनीखेज होते हैं, किन्तु यह ट्वीट बेहद करारा, स्पष्ट और निर्णायक था। भारत-अमेरिकी रिश्तों की तुलना में अमेरिकी-पाकिस्तानी रिश्ते ज्यादा गहरे और शीतकालीन समय के जांचे-परखे रिश्ते रहे हैं, ऐसे में जबकि भारत-अमेरिका रिश्तों की ऊष्मा बढ़ रही तो भारत के लिए भी यह ट्वीट खास मानी गयी। 

ट्रम्प के इस ट्वीट के बाद पाकिस्तान की तिलमिलाहट साफ़ दिखी और पाकिस्तान के विदेश मंत्री जनाब ख्वाजा मोहम्मद आसिफ साहब ने उसी ट्विटर पर कई करारे जवाब दिये और लिखा कि जल्द ही पाकिस्तान ट्रम्प को जवाब देगा और सच और झूठ अलग-अलग हो जायेंगे। पाकिस्तान ने अमेरिकी राजदूत डेविड हेल को इस सन्दर्भ में तलब किया और प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी की अध्यक्षता में राष्टीय सुरक्षा समिति (एन.एस.सी.) की बैठक हुई जिसमें हाल-फिलहाल कई स्तरों से की जा रही देश की अमेरिकी आलोचनाओं पर बात हुई। पाकिस्तान-अमेरिका के रिश्तों में ठंडक की सुगबुगाहट कम-अधिक एक अरसे से दिख रही है पर दिसंबर से यह सर्द सतह पर नजर आने लगी है। दिसंबर में अमेरिकी रक्षा सचिव जेम्स मैटिस ने पाकिस्तान की अपनी यात्रा में अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रयासों में उसकी सिकुड़ी भूमिका की कई बार आलोचना की। फिर तो इसी मुद्दे के बहाने अमेरिकी अधिकारियों के बयानों की झड़ी लगती रही, कभी विदेश सचिव रेक्स टिलरसन, कभी निकी हैले तो कभी जेम्स मैटिस और कई मंचों पर कई बार राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी पाकिस्तान की खिंचाई की। अपनी पहली राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के मसविदे में भी अमेरिका ने पाकिस्तान की आलोचना की। पाकिस्तान को दी जा रही नॉन नाटो रक्षा सहूलियतों में कटौती की बात की गयी और निकी हैले के हवाले से पाकिस्तान को दी जाने वाली 255 मिलियन डॉलर की सहायता राशि को फ़िलहाल स्थगित करने की सुचना दी गयी। 

अमेरिका और पाकिस्तान के ऐतिहासिक रिश्तों की प्रकृति हमेशा से सामरिक रही है जिसमें ‘आदान-प्रदान’ की मुख्य भूमिका रही है और यह रिश्ता एक विश्व-शक्ति का एक क्षेत्रीय राष्ट्र से था। विश्व-राजनीति में विश्व-शक्ति होने का एक व्यावहारिक अर्थ यह भी है कि वह ग्लोब के प्रत्येक सामरिक क्षेत्रों में उसका एक क्षेत्रीय प्रतिनिधि होना चाहिए जो उस क्षेत्र-विशेष में उसके हितों को सुनिश्चित करने में मदद करे। पाकिस्तान ने वह भूमिका अपने लिए स्वीकार कर ली। ब्रिटिश दासता से मुक्ति के पश्चात् जहाँ भारत ने स्वतंत्र विदेश नीति की चाह में निर्गुट आंदोलन की राह पकड़ी, वहीं पाकिस्तान ने अमेरिकी गुट में शामिल होना मुफीद समझा। अमेरिका ने पाकिस्तान की भू-राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाया और पाकिस्तान को रक्षा और आर्थिक सहायता मिलती रही। जब भी इस लेन-देन में किसी भी पक्ष से कसर रही, आपसी रिश्तों में खींचातानी देखने को मिली। 1971 तक अमेरिका, भारत और पाकिस्तान दोनों से ही सामरिक रिश्तों की जुगत में लगा रहा ताकि अमेरिका के पास सौदेबाजी की शक्ति (बार्गेनिंग) बनी रहे और एशिया क्षेत्र में वह निर्णायक बना रहे। हालाँकि अमेरिका के रिश्ते पाकिस्तान से ही प्रगाढ़ रहे, भारत से रिश्तों में एक हिचक ही बनी रही। फिर 1998 के परमाण्विक परीक्षण के बाद अमेरिकी उप विदेश सचिव स्ट्रोब टालबोट और तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह की अट्ठारह राउंड की भारतीय लिहाज से बेहद सफल वार्ता हुई जिसके के बाद से ही अमेरिका-भारत के रिश्तों की नयी मजबूत बुनियाद पड़ी। 

ट्रम्प के ट्वीट में पिछले पंद्रह सालों का हवाला दिया है। स्पष्ट है कि ओसामा बिन लादेन को पकड़ने की एबोटाबाद ऑपरेशन तक के पाकिस्तानी सहयोग को चिन्हित किया गया है और उसके बाद के पाकिस्तानी सहयोग को ‘बहुत थोड़ा और विरोधाभासी’ कहा गया है। निश्चित ही साल 2012 पाकिस्तान-अमेरिका रिश्तों में एक महत्वपूर्ण साल है। अमेरिका के एबोटाबाद ऑपरेशन की पाकिस्तान की भीतरी राजनीति में बेहद आलोचना हुई। एक तो ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तानी मिलिटरी बेस के भीतर सुरक्षित पाया जाना और फिर अमेरिका का एकतरफा ऑपरेशन जिसमें पाकिस्तानी सरकार कुछ यों पेश आयी कि उन्हें कुछ मालूम ही नहीं था; इसे पाकिस्तानी संप्रभुता का भीषण हनन माना गया और जो था भी। इससे पहले परवेज़ मुशर्रफ ने 2009 में खुलकर स्वीकार कर लिया था कि अमेरिकी सहायता का एक बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ पाकिस्तानी रक्षा बजट में खर्च किया जाता है। फिर इधर अमेरिका के रिश्ते जितने ही भारत से बढ़ते गए, पाकिस्तान के रिश्ते उभरते विश्व शक्ति चीन से बढ़ते गए। भारत से अमेरिकी मेलजोल जहाँ पाकिस्तान को रास नहीं आ रहा था वहीं चीन से पाकिस्तानी मेलजोल अमेरिका को पसंद नहीं था। बदलते विश्व-राजनीति में पाकिस्तान के हितों के लिए एक मजबूत पड़ोसी के रूप में चीन से संबंध निश्चित ही मुफीद है जो कि भारत-चीन के खट्टे रिश्तों को देखते हुए पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर के भारत-विरोध को भी तुष्ट करता है। फिर चीन न केवल भौतिक रूप से पाकिस्तान से अधिक सम्बद्ध है अपितु आर्थिक और सामरिक परिप्रेक्ष्य में भी यह तब और अनुकूल हो जाता है जब इस समीकरण में महत्वाकांक्षी पुतिन का रूस भी शामिल हो जाता है। अमेरिकी नाराजगी के मूल में महज पाकिस्तान से ‘अफग़ानिस्तान में अपेक्षित सहयोग’ का मिलना ही नहीं हैं, बल्कि पाकिस्तान का धीरे-धीरे चीन, रूस और उत्तर कोरिया के साथ सम्बद्ध हो जाना है। अफगानिस्तान कार्ड तो महज एक दबाव की कार्यनीति है। चीन की ओबोर नीति और बढ़ती सामरिक सक्रियता ने ही अमेरिका को मजबूर किया है कि वह दक्षिण एशिया क्षेत्र को एशिया-प्रशांत क्षेत्र की वृहद् दृष्टि से देखे, जिसमें चीनी सामरिक प्रभाव को भारतीय केंद्रीय भूमिका से संतुलित किया जा सके। 

दरअसल चीन-रूस-पाकिस्तान-उत्तर कोरिया के प्रतिचतुष्क (एंटीक्वाड) के जवाब में ही अमेरिका-भारत-जापान-आस्ट्रेलिया का चतुष्क (क्वाड) निर्मित किया गया है और ट्रम्प का यह ट्वीट और अमेरिकी अधिकारियों द्वारा की जा रही लगातार आलोचना एंटीक्वाड की एक प्रमुख धुरी पाकिस्तान पर दबाव बनाकर इसी एंटीक्वाड को  कमजोर करने की रणनीति है। व्यवसायी ट्रम्प की राजनीतिक शैली वैश्वीकरण के दौर की प्रचलित मल्टीलैटरलिज्म (बहुपक्षीयवाद) के स्थान पर बाईलैटरलिज्म (द्विपक्षीयवाद) की है जो ट्रम्प की संरक्षणवादी ‘अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी’ से भी मेल खाती है और अमेरिकी प्रभुत्व को मिलने वाली बहुपक्षीयवाद की चुनौती से भी सुरक्षा मिलती है। द्विपक्षीयवाद नीति में ट्रम्प अपने प्रत्येक सहयोगी राष्ट्र से  उनकी भूमिका की जवाबदेही स्पष्ट चाहते हैं, जिसके एवज में उन्हें अमेरिकी तवज्जो दी जाती है। इस साल नवम्बर में अमेरिका में कांग्रेस के मध्यावधि चुनावों की सम्भावना ट्रम्प को अमेरिकी अवाम के नजर में सक्रिय और अमेरिकी डॉलर व अमेरिकी हितों के लिए प्रतिबद्ध दिखते रहने को मजबूर करती है। ट्रम्प के चुनावी वादे ही हैं जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति के जान-माल के नुकसानों को न्यूनतम करने के उद्देश्य से पाकिस्तान और भारत से अफ़ग़ानिस्तान में और अधिक सक्रियता की बार-बार मांग करते हैं। यकीनन, अमेरिका के रिश्ते भारत से मजबूत हो रहे हैं और पाकिस्तान से उनके रिश्तों में तनाव है पर भू-राजनीतिक चुनौतियों को देखते हुए अमेरिका का पाकिस्तान से रिश्तों में तनाव की दीर्घकालिक सम्भावना तलाशना कठिन ही है।  

Tuesday, January 2, 2018

2017: भारतीय कूटनीति का लेखा-जोखा



पिछला साल महज उपलब्धियों वाला नहीं रहा है, अपितु भारतीय कूटनीति के लिए कई सबक देकर यह वर्ष विदा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के अभिकरण इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में भारतीय जज दलवीर भंडारी की पुनर्नियुक्ति भारत की जबरदस्त कूटनीतिक विजय मानी गयी पर उसी संयुक्त राष्ट्र का लोकतंत्रीकरण करने के लिए सरंचनात्मक सुधार करते हुए सुरक्षा परिषद् में भारत की वीटोसहित सदस्यता के भारतीय प्रयासों में ठंडक बनी रही। यदा-कदा आते-जाते कई देशों के भारतीय अतिथि इस मुद्दे पर भारतीय पक्ष लेते रहे पर कुछ भी ठोस प्रगति नहीं हुई। भारत से अपने संबंधों में एक उन्नत स्तर की समझ की दुहाई देने वाला अमेरिका भी अपने रवैये में ढुलमुल ही रहा। पड़ोसी चीन ने तो कभी भी इस मुद्दे पर भारत का समर्थन नहीं ही किया अपितु वह कहता रहा कि सुधारों का यह उपयुक्त समय ही नहीं है। भारत समझ सकता है कि भारत के हित उसके विश्व सहयोगियों को भी वहीं तक स्वीकार्य होंगे जहाँ तक उनके हित को कोई असुरक्षा न हो। 

चीन ने न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भी भारत की सदस्यता का पुरजोर विरोध किया। एनएसजी, परमाणु आपूर्ति राष्ट्रों का एक समूह है जो परमाणु तकनीक के प्रयोग/दुष्प्रयोग पर नियंत्रण रखती है। ध्यातव्य है कि विश्व में शस्त्र व तकनीक -नियंत्रण के लिए चार अनौपचारिक समितियाँ यथा- एनएसजी, एमटीसीआर, आस्ट्रेलिया समूह और डब्ल्यू ए , कार्य करती हैं, जिनकी सहमति से ही कोई राष्ट्र अपने विभिन्न प्रकार के शस्त्रों का निर्माण व प्रयोग कर सकता है, इसमें शस्त्र-नियंत्रण की मंशा मूल है। साधारणतया, इन समितियों में सदस्यता के लिए परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) एवं व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करना आवश्यक है, किन्तु  अपवाद रूप से दूसरे कई देश भी हैं, जिन्होंने बिना इन संधियों पर हस्ताक्षर किये भी इनमें से कुछ समितियों के सदस्य हैं। फिर, 2008 के अमेरिका के साथ हुए भारत के परमाणु समझौते में स्पष्ट था कि आने वाले दिनों में अमेरिका इन समितियों की सदस्यता के लिए भारत की मदद करेगा। अमेरिका ने जब तब मदद की भी है और भारतीय कूटनीतिक श्रम के साथ देश को एमटीसीआर और डब्ल्यू ए की सदस्यता मिल भी चुकी है। जहाँ आस्ट्रेलिया ग्रुप में सदस्यता के लिए भारत लगभग आश्वस्त है वहीं एनएसजी की सदस्यता में सर्वाधिक अड़ंगा चीन की तरफ से है। एक रुचिकर बात यह भी है कि चीन स्वयं भी अभी डब्ल्यू ए की सदस्यता के लिए प्रयासरत है और भारत का कूटनीतिक कुटुंब डब्ल्यू ए में अपने निर्णायक भूमिका के चलते सौदेबाजी की सुन्दर स्थिति में है। 

आज के वैश्वीकरण की विश्व-राजनीति में उत्तर-दक्षिण विभाजन जैसी शब्दावली अब उतनी प्रासंगिक नहीं मानी जाती किन्तु मुद्दा यदि पर्यावरण का और खाद्य-सुरक्षा का हो तो यह विभाजन पूरी तरह हर वर्ष सतह से ऊपर आ जाता है। भारत जैसे विकासोन्मुख और औपनिवेशिक अतीत वाले देश अभी भी अपनी अर्थव्यवस्था में कृषि पर एक निर्णायक स्तर तक निर्भर हैं। किन्तु विश्व बैंक का प्रभावी गुट, विभिन्न देशों के द्वारा दी जा रही कृषि सहायता पर खासा नियंत्रण लगाना चाहता है। इन देशों की खाद्य सुरक्षा-अधिकारों के प्रति अमेरिका न केवल असंवेदनशील है बल्कि उसने विकसित पश्चिमी शक्तियों के साथ सुर मिलाते हुए इन देशों की मांग को नज़रअंदाज भी कर दिया। फ़िलहाल, 2013 के ‘शांति-अनुच्छेद’ से यथास्थिति बरकरार रही और ब्यूनस आयर्स में हुई इस वर्ष की ग्यारहवीं मंत्रीस्तरीय अभिकरण की बैठक में भारत के पक्ष को चीन सहित सभी विकासशील देशों का पुरजोर समर्थन मिला। इसीप्रकार, जहाँ यूरोपीयन यूनियन सहित लगभग विश्व के सभी देशों ने पर्यावरण मुद्दे पर स्मार्ट कृषि तकनीकों के विकास और पर्यावरण के संरक्षण लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की, वहीं ट्रम्प के अमेरिका ने इस प्रतिबद्धता से यह कहकर अपने हाथ खींच लिए कि यह अमेरिकी हितों के अनुरूप नहीं है। 

तीन तरफ से जल से घिरे और उत्तर से स्थलबद्ध भारत के विभिन्न हित तब तक सुरक्षित नहीं हो सकते जबतक हिन्द महासागर को सामरिक दृष्टिकोण से सुरक्षित न कर लिया जाय। हिन्द महासागर की सुरक्षा के लिए भारत का  अफ्रीका महाद्वीप के देशों के साथ अच्छे संबंधों की अनिवार्यता सर्वविदित है। कम से कम जहाँ भारत दशकों से दिखाई ही नहीं देता था, वहॉं भारत की सक्रियता दिखने लगी है और दक्षिण अफ्रीका के साथ रक्षा सहयोग समझौते के बाद यकीनन इसमें तेजी भी आयी है। भारत ने इस महाद्वीप में अपनी गतिविधियाँ बहुपक्षता और आर्थिक प्राथमिकताओं में गढ़ी है। अपने से पूरब में भारत ने ऐक्ट ईस्ट नीति पर अमल किया है और सकारात्मक परिणाम भी आये हैं। म्यांमार और थाईलैंड ने भारत की इस मंशा में रूचि दिखाई है। अमेरिका के साथ सामरिक भागेदारी में भारत को जापान, आस्टेलिया के साथ बहुचर्चित चतुष्क (क्वाड) में शामिल किया गया और अमेरिका द्वारा बारम्बार सम्पूर्ण एशिया-प्रशांत क्षेत्र को इंडो-पैसिफिक कहकर भारत की उभरती वैश्विक संभावनाओं को रेखांकित भी किया गया। भारत ने भारत-एसियान कनेक्टिविटी पर बल दिया और जापान के साथ सफलतापूर्वक अपने सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ करने की कोशिश की। 

इस वर्ष मोदी की विदेश यात्राओं में यूरोप प्रमुखता से छाया रहा, इससे भारत की ईयू से सम्बद्धता में सुधार भी देखने को मिला है। मध्य-पूर्व एशिया में जहाँ भारत के संबंध ईरान से बेहतर हुए हैं वहीं सऊदी अरब से भी संबंधों में ऊष्मा बनी रही। भारत ने मध्य-पूर्व एशिया में एक सुन्दर कूटनीतिक संतुलन साधा है।  इधर मध्य एशिया के साथ भारत ने  कनेक्ट सेन्ट्रल एशिया नीति के तहत अपने कदम बढ़ाये हैं और इससे लाभ यह हुआ है कि  ईरान के चाबहार बंदरगाह के खुल जाने के बाद तुर्कमेनिस्तान-कजाखिस्तान सीमा रेलवे परियोजना का लाभ उठाते हुए भारत मध्य एशिया से तो जुड़ेगा ही अपितु इसकी पहुँच यूरोप तक हो जाएगी। अमेरिका महाद्वीप में भी कनाडा और मेक्सिको से भारत के संबंधों में तरलता आयी है और ब्राजील, क्यूबा से कूटनीतिक संबंध पहले से बेहतर बने हैं। 

भारत ने इस वर्ष दो अवसरों पर अपनी प्रौढ़ होती कूटनीति के भी दर्शन कराये। अपना एक चुनावी वादा पूरा करते दिखने की चाह में ट्रम्प ने असमय ही जेरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने की घोषणा करते हुए अपने दुताबास वहीं स्थानांतरित करने की बात की। ट्रम्प के इस सहसा स्टंट के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में मध्य-पूर्व एशियाई देशों के नेतृत्व में महासभा ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें द्विपक्षीय विवाद में तृतीय पक्ष के अहस्तक्षेप की सामान्य परम्परा दुहराई गयी थी। भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया और अमेरिका, इजरायल सहित कई विश्लेषकों को चौंका दिया। दरअसल, भारत ने न केवल संयुक्त राष्ट्र में हवा का ताप मह्सूस कर लिया बल्कि यह भी परख लिया कि इस प्रस्ताव से कोई भी जमीनी बदलाव नहीं होने जा रहा। इस मत से एकतरफ जहाँ भारत की विदेश नीति की स्वतंत्रता की पुष्टि हुई वहीं भारत फलस्तीन मुद्दे पर अपनी पारम्परिक नीति पर भी कायम रह सका। 

इसीप्रकार जून में भी भारत ने ब्रिटेन के विरुद्ध और अपने हिन्द महासागर में पड़ोसी मॉरीशस के उस प्रस्ताव के पक्ष में मत कर दिया जिसमें विवादित चागोस द्वीपसमूह के स्वामित्व-निर्णयन के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस जाने की बात कही गयी थी। हालाँकि, हिन्द-एशिया क्षेत्र में चीन की आक्रामक घेरेबंदी की नीति को ब्रिटिश-अमेरिकी और भारत की मिलीजुली सामरिक व्यवस्था से ही संतुलन मिलता है जो कि इसी विवादित चागोस के डियागो गार्सिआ पर स्थति है। गौरतलब है कि मॉरीशस ने ताईवान मुद्दे पर चीन को हमेशा समर्थन दिया है ताकि संयुक्त राष्ट्र में चीन अपने वीटो अधिकार से मॉरीशस के हितों की रक्षा कर सके। यहाँ, भारत ने अपनी भू-राजनैतिक यथार्थ को महत्त्व दिया और कूटनीतिक रूप से प्रौढ़ कदम उठाया।  निश्चित ही, इसी प्रकार भारत को सभी देशों से संतुलन साधते हुए अपने राष्ट्रहितों को लेकर प्रतिबद्ध रहना होगा क्योंकि आगे भी चुनौतियाँ आसान तो नहीं रहने वाली हैं।  


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