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Monday, August 13, 2018

आर्मी अरमानों के कप्तान इमरान


साभार: गंभीर समाचार 

पहचान की औपनिवेशिक जिद की बुनियाद पर बने पाकिस्तान का इतिहास इतना उलटफेर वाला है कि एक राष्ट्र के तौर पर इसकी इमारत को कभी मुकम्मल छत नसीब ही नहीं हुई। भारत को जहाँ 1950 में ही एक दुरुस्त संविधान मिला, वहीं पाकिस्तानी अवाम को उनका आईन आजादी के 26 साल बाद नसीब हुआ। इन बीते छब्बीस सालों में एक सशक्त राजनीतिक व्यवस्था और कुशल नेतृत्व के दारुण अभाव ने पाकिस्तान के ‘राजनीतिक विकास’ को गहरी चोट पहुंचाई और यहाँ लोकतंत्र आकाशकुसुम सा बन गया। जैसा कि औपनिवेशिक अतीत के नवस्वतंत्र राष्ट्रों में होता है कि बहुधा वहाँ ईमानदार, कुशल, लोकतांत्रिक नेतृत्व के अभाव में ‘सहज राजनीतिक विकास की प्रक्रिया’ अवरुद्ध हो जाती है और लोकतंत्र के पनपने की जमीन पर अनायास अनचाही तानाशाही की घास उग आती है, दक्षिण एशियाई परिदृश्य में पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । 

अदृश्य हाथ वाला इस्टैब्लिशमेंट और उसका डीप स्टेट 
पाकिस्तान में इस अनचाही तानाशाही घास की खेती कभी प्रकट तो कभी अप्रकट रहकर सेना करती है। लोकतंत्र के सामान्य लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है, नियमित अंतराल पर स्वच्छ व निष्पक्ष चुनाव करवाया जाना। पाकिस्तान के सबसे सफल तानाशाहों में से एक रहे, जनरल परवेज मुशर्रफ की तानाशाही के बाद पाकिस्तान में क्रिकेटर इमरान खान के नेतृत्व में बनने वाली यह तीसरी लोकतांत्रिक सरकार होगी जब देश के इतिहास में इन इकहत्तर सालों में पहली बार लगातार दो शांतिपूर्ण सत्ता-हस्तांतरण संभव हुआ। पाकिस्तान के व्यतिक्रमित इतिहास और ठिठके राजनीतिक विकास ने औपनिवेशिक परंपरा से संगठित सेना में सत्ता और शक्ति के लिए एक अलोकतांत्रिक हवस पैदा कर दी। औपनिवेशिक अतीत शिक्षा का पारम्परिक ढाँचा तोड़ देता है और आधुनिकता का ऐसा अनिच्छुक अधपका शैक्षिक ढांचा थोपता है। इस कारण ही पाकिस्तान में कठमुल्लों को भी सियासती सौदागर बनने का मौका मिलता है। 

भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था जब जर्जर लोकतंत्र की छननी में से जनता की आकाँक्षाओं को छानकर उन्हें पूरा करने में अक्षम होती है तो वह देशभक्ति के नारों के बीच अपनी असफलता छिपाती है और सेना के संगीनों के साये में राष्ट्रवादी द्वेष का तंबू तानती है। भारत से संघर्षों और युद्धों के लिए जरूरी खाद-पानी पाकिस्तानी हुकूमतों की नाकामयाबी से मिलता है और उनके नापाक इरादों का खामियाजा मुल्कों की अवाम को भुगतना पड़ता है। हुक्मरानों के भ्रष्टाचारों से बेहाल मुल्क, जो कि एक असफल राज्य में तेजी से तब्दील हो सकता है; वह आसानी से विश्व-शक्तियों का मुहरा बन जाता है। इससे द्विपक्षीय संबंधों में जटिलता तो बढ़ती ही है, क्षेत्र की राजनीति को भी यह प्रवृत्ति कठिन बना देती है। इसलिए ही यह स्पष्ट है कि अमेरिका के बाद पाकिस्तान ने अब चीन और रूस का कंधा कसकर पकड़ रखा है। सेना, नौकरशाही, कठमुल्ले आदि मिलकर पाकिस्तानी सत्ता का प्रतिष्ठान (इस्टैब्लिशमेंट) रचते हैं। इस्टैब्लिशमेंट का अदृश्य हाथ, पाकिस्तानी स्टेट के भीतर का ‘डीप स्टेट’ गढ़ता है जो असल में सत्तासुख भोगता है। अपनी सत्तालोलुपता और भ्रष्टता छिपाने के लिए यह इस्टैब्लिशमेंट सन 2008 से दो बार लोकतंत्र का लबादा सिलकर ओढ़ चुका है और अब तीसरी बार तैयारी पूरी हो गयी है। एक संगठित सेना कितनी ही बार क्यों न राष्ट्र को टूटने से बचाये फिर भी उसे लोकतंत्र निर्णायक शक्ति नहीं देता। लोकतंत्र में निर्णायक शक्ति सर्वदा ही लोक में निहित होती है जो उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। उथलपुथल इतिहास वाले पाकिस्तान में सेना की साख एक उद्धारक की तरह है और जब-तब चुने गए नागरिक सरकार के भ्रष्टाचार के उदाहरणों ने सेना के भ्रष्टाचार को सहनीय बना दिया है। 

नवाज़ से मुशर्रफ फिर मुशर्रफ से नवाज़ 
1999 में जब जनरल मुशर्रफ ने चुनी हुई नवाज़ शरीफ सरकार को अचानक पदच्युत किया था तो अनुशासित शक्तिशाली सेना के शासन में भ्रष्टाचारमुक्त राष्ट्र बनाने का स्वप्न गढ़ा था। एक अध्यादेश से पाकिस्तान में तब नेशनल एकाउंटिबिलिटी ब्यूरो (एनएबी) का गठन किया गया था जो स्वायत्त एवं सांविधानिक निकाय था। यकीनन एनएबी ने भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किये और सजा भी दिलवाई, पर सेना और न्यायपालिका के मसलों पर यह औपचारिक तर्कों से काम चला लेती है। दुनिया के हर तानाशाह की ख्वाहिश होती है कि दुनिया उसे लोकतांत्रिक कहे और उसके शासन को तानाशाही कहकर उसके कतिपय योगदानों को कमतर न आँका जाय। 9/11 की घटना के बाद मुशर्रफ एक चालाक व सफल कूटनीतिक सिद्ध हुए थे, जिन्होंने पाकिस्तान को एक राष्ट्र के तौर पर जीवनदान दिया था। इस्टैब्लिशमेंट पर अपनी पकड़ रखते हुए तानाशाह मुशर्रफ अपनी लोकप्रियता को लोकप्रिय लोकतांत्रिक नेता की लोकप्रियता से बदलने को आतुर थे। 2002 में मुशर्रफ ने संविधान में अपने अनुरूप बदलाव करते हुए लीगल फ्रेमवर्क आर्डर जारी किया और उसी साल के आम चुनाव में पीएमएल-क्यू पार्टी के साथ जीत हासिल कर अपने शासन को वैधता देने की कोशिश की। कुछ समय बाद ही कार्यपालिका शक्ति मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री को दे दी। भ्रष्टाचार के आरोपों से स्वयंनिष्काषित लोकप्रिय नेता बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ 2007 में पाकिस्तान लौटे। बेनज़ीर भुट्टो का जहाँ क़त्ल हो गया वहीं सऊदी अरब के हस्तक्षेप से नवाज़ शरीफ दस साल राजनीति से दूर रहने की शर्त को मानने को बाध्य हुए। पांच साल और राष्ट्रपति पद चाहने वाले मुशर्रफ को 2007 में पाकिस्तान में फिर से आपातकाल लागू करना पड़ा और सक्रिय न्यायपालिका व अमरीकी हस्तक्षेप से फरवरी-मार्च 2008 में आम चुनाव करवाने पड़े। यह चुनाव पाकिस्तान के इतिहास के सबसे लोकतांत्रिक, स्वच्छ व निष्पक्ष चुनाव माने जाते हैं जिसमें सहानुभूति की लहर पर सवार बेनज़ीर भुट्टो की पार्टी ने में जीत दर्ज की। नवाज़ शरीफ और सत्तारूढ़ पीपीपी  एकमत होकर मुशर्रफ पर पद छोड़ने का दबाव बनाया और महाभियोग की औपचारिक प्रक्रिया शुरू की। अंततः अगस्त, 2008 में मुशर्रफ ने त्यागपत्र दे दिया और नवम्बर 2008 में देश छोड़ दिया। यह मौका पाकिस्तानी राजनीति के कुछ विरले लोकतांत्रिक अध्यायों में से एक है जब नागरिक सरकार के पास लोकप्रिय जनसमर्थन रहा हो और सेना अपनी निश्चित भूमिका में हो। लेकिन कालांतर में पीपीपी सरकार अपने लोकप्रिय जनसमर्थन को इतनी मजबूत नहीं बना पायी कि इस्टैब्लिशमेंट को मजबूत होने से पुनः रोक पाती। पीपीपी सरकार के भ्रष्टाचार के हवालों ने इसे और कमजोर बनाया। सक्रिय नागरिक समाज, न्यायपालिका और वैश्विक दबाव में पाकिस्तान ने सफलतापूर्वक एक और आम चुनाव संपन्न किया और 2013 में पीएमएल (एन) के नवाज़ शरीफ ने बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाई।  

पनामा पेपर्स का प्रकोप: नवाज़ और एनएबी 
देश से बाहर के व्यक्तिगत निवेशों के कानूनी मामलों को देखने वाली दुनिया की चौथी सबसे बड़ी फर्म मोजैक फोंसेका जो कि पनामा देश में स्थित है उसके ऑफिस से अभूतपूर्व रूप से तकरीबन सवा करोड़ दस्तावेज लीक हुए और जर्मन समाचारपत्र सुईदाईचे जाइटुंग द्वारा एक गुमनाम स्रोत से अर्जित किये वे रिकॉर्ड्स इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स को साझा किये गए। यह सूचनाएँ फिर सहभागी द गार्जियन, बीबीसी आदि से साझी की गयीं और इसतरह इन्होने दुनिया भर के राजनयिकों, धनिकों आदि के उन संपत्तियों का हवाला दिया जिनपर उनका देश कोई कर नहीं लगा सकता था क्योंकि इसकी जानकारी ही नहीं थी। यह सीधा-सीधा करचोरी का मामला है। इन खोजी जानकारियों को ही दुनिया भर में पनामा पेपर्स के नाम से जाना गया। यों तो इतिहास के इस सबसे बड़े लीक में अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या रॉय, केपी सिंह, विनोद अडानी जैसे कई नाम हैं और कई मुल्कों के कई दिग्गज इसके घेरे में हैं, पर पाकिस्तान की पॉलिटिक्स में पनामा पेपर्स ने भूचाल ही ला दिया। 1999 में स्थापित नेशनल अकाउंटिबिलिटी ब्यूरो (एनएबी) जो कि भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल करती है उसने पनामा पेपर्स में आये नवाज़ शरीफ परिवार के लोगों पर इस आधार पर ही शिकंजा कसना शुरू किया। नवाज़ शरीफ पाकिस्तान के उन नेताओं में से हैं जो सेना की भूमिका को एक स्तर से अधिक बर्दाश्त नहीं करना चाहते। सेना और नवाज़ शरीफ की तनातनी पाकिस्तानी राजनीति का एक ज़ाहिराना तथ्य है। नवाज़ एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे पर पनामा पेपर्स के सहसा खुलासे के लिए वे तैयार नहीं थे। एनएबी अपनी स्थापना से ही सेना के प्रभाव में रही है और इसका स्वायत्त व सांविधानिक होना इसे और भी शक्तिशाली बनाता है। एनएबी के अधिकारियों ने आख़िरकार नवाज़ शरीफ, उनकी बेटी मरयम, आदि को न्यायालय तक घसीट ही दिया। शरीफ़ को अंततः उनके पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया और नवाज़ शरीफ़ ने जब 29 जुलाई 2017 को अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया तो उनके सरकार में ही सेना के करीबी माने जाने वाले कम विवादित पेट्रोलियम प्रभार सम्हालने वाले शाहिद खाकान अब्बासी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गयी। 

इमरान का उभार और आम चुनाव 2018 
आम चुनाव 2018 के परिणाम यह निश्चित करते हैं कि पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री तहरीके इंसाफ (पीटीआई) के इमरान खान होंगे। यह परिणाम चुनाव पंडितों के कयासों से थोड़ा विपरीत है। ज्यादातर का मानना था कि क़ौमी मजलिस (नेशनल असेंबली-निम्न सभा) इसबार त्रिशंकु रहेगी। नवाज़ शरीफ़ की पीएमएल (एन) पनामा पेपर्स से त्रस्त थी तो बिलावल भुट्टो की पीपीपी इसबार बिलकुल भी आक्रामक नहीं थी। इसके अलावा पाकिस्तानी राजनीति में उसके राज्य मुख्यधारा के दलों के पारम्परिक वोटबैंक भी माने जाते हैं, जो यह चुनाव परिणाम भी सिद्ध करते हैं। जैसे- पंजाब को पीएमएल (एन) का तो सिंध को पीपीपी का और खैबर पख्तूनख्वा को पीटीआई का पारम्परिक गढ़ समझा जाता है। बाकी राज्यों में इन बड़ी पार्टियों के बाद ज्यादातर धार्मिक पहचान वाले दल हावी रहते हैं। धार्मिक पहचान वाले दलों में ब्लेस्फेमी (ईशनिंदा) मुद्दे के साथ खादिम हुसैन रिजवी के आक्रामक नेतृत्व में सहसा मजबूत हुई पार्टी तहरीके लब्बाइक से कयास लगाया जा रहा था कि यह पार्टी छितराए धार्मिक कट्टर मतों को ध्रुवीकृत कर लेगी। ऐसी बाकी पार्टियों के मुकाबले इस पार्टी का प्रदर्शन कम से कम निराशाजनक नहीं कहा जायेगा क्योंकि अधिकांश जगहों पर यह नंबर दो की पार्टी रही। इससे यह भी पता चलता है कि अगले आम चुनावों तक यह पार्टी अपने पूरे दमखम के साथ चुनौती पेश करेगी। इन वजहों से ही ऐसा लगने लगा था कि संभवतः नेशनल असेंबली में किसी एक दल को भी सरकार बनाने लायक सीट न मिले। सभी का मानना था कि इमरान खान की पार्टी पीटीआई को अच्छी खासी बढ़त मिलेगी पर जिसतरह से न्यायपालिका, एनएबी और चुनाव आयोग ने एक के बाद एक ऐसे फैसले किये और ऐसे-ऐसे समय में किये जिनसे नवाज़ शरीफ और बिलावल की पार्टी को अपरोक्ष-परोक्ष नुकसान उठाना पड़ा और इमरान की पार्टी को जिससे सीधा फायदा पहुँचा, उससे कई चुनावी पंडित खुलकर कहने लगे थे- कि इमरान कप्तान बनेंगे। नवाज शरीफ़ और उनकी बेटी मरयम का आख़िरी समय में देश आकर गिरफ्तारी देने के फैसले से उम्मीद की गयी थी कि एक प्रकार की सहानुभूति उपजेगी पर वह भी कहीं दिखी नहीं। 

क्रिकेटर इमरान अपने रिवर्स स्विंग के लिए जाने जाते रहे हैं। उनका प्रदर्शन यों ही चौंकाऊ रहता है, वह वापस आकर बढ़िया कर जाते हैं । व्यक्तिगत जीवन में भी उतार-चढाव रहा, उनके क्रिकेट जीवन में भी उतार-चढ़ाव रहा और ठीक इसी तरह उनके राजनीतिक जीवन को भी उतार-चढ़ावों से ही भरा कहेंगे। एक बात तो तय है कि इमरान जीतने में यकीन रखते हैं चाहे कितने ही रंग बदलने पड़ें। लाहौर में जन्मे पश्तून इमरान खान ने दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र विषय के साथ ऑक्सफ़ोर्ड से स्नातक किया है। यह पृष्ठभूमि उन्हें खासा आधुनिक सोच का बनाती है। क्रिकेटर इमरान खान की पारी काफी ग्लैमरस रही। सन्यास के बाद लौटे और पाकिस्तान को अपनी कप्तानी में वर्ल्ड कप दिलाया। फिर 1996 में अपनी नयी पार्टी के साथ राजनीतिक पारी खेलने के लिए आ जुटे। यकीनन, उन्हें किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया और वे खुद भी 2011 तक कुछ गंभीर नहीं लगे। इनकी तीनों बीबियों की पृष्ठभूमि ध्यान से देखें तो उससे भी अंदाजा लगता है कि उनकी प्राथमिकताएं क्रमशः बदली हैं। राजनीति में भी उनके कई रंग देखने को मिले। 1996 के इमरान, खासा आदर्शवादी रहे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 2008 के आम चुनावों का उन्होंने बहिष्कार किया था, फिर 2010-11 आते-आते उनमें एक चालाक आक्रामक राजनीतिज्ञ दिखने लगा। आज के इमरान जानते हैं कि बिना इस्टैब्लिशमेंट में पैठ बनाये पाकिस्तान की सत्ता तक पहुंचना नामुमकिन है। इमरान खान की आज की राजनीति के फॉर्मूले में दुनिया की दूसरी युवा आबादी को अपील करने वाली उनकी खिलंदड़ छवि है, पाकिस्तान के डीएनए में रचा धर्म है, इस्टैब्लिशमेंट की रीढ़ सेना को समर्थन करते हुए उसकी अनुशासित छवि भुनाने का शऊर है और उम्मीद रखने वालों के लिए ‘नया पाकिस्तान’ का जुमला है। इसका असर चुनाव परिणामों पर कुछ इस कदर हुआ कि पाकिस्तान के चुनाव-परिणाम मैप को देखने से लगता है कि एकमात्र पीटीआई पार्टीं ही सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी है।   

इमरान खान की जीत में कुछ और दूसरे महत्वपूर्ण अपरोक्ष कारकों का उल्लेख करना जरूरी है। चुनाव आयोग आख़िरी समय तक प्रत्याशियों की उम्मीदवारी ख़ारिज करता रहा। मतदान के तुरत बाद में पाकिस्तान में मतगणना की परम्परा है और फिर परिणामों की घोषणा कर दी जाती है, पर इसबार अचानक रात के दो बजे मतगणना रोक दी गयी और परिणाम तयशुदा समय से लगभग छप्पन घंटे की देरी से आया। पीएमएल (एन) के आवाज उठाने पर चुनाव आयोग ने प्रेस कांफ्रेंस किया और कारण तकनीकी बताकर पल्ला झाड़ लिया। बिलावल भुट्टो ने ट्विटर पर जगह-जगह फॉर्म-45 न देने की बात कही। फॉर्म-45 चुनाव मतगणना के बाद पार्टी एजेंटों को दिया गया आधिकारिक एवं हस्ताक्षरित वह प्रपत्र है जिसमें उस बूथ के मतदान और परिणाम की प्रत्येक जानकारी होती है। कई जगह इसे सादे कागज पर ही दे दिया गया। लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए ईयू ने पाकिस्तान के पिछले तीन आम चुनावों की भाँति इसबार भी अपना पर्यवेक्षक दल भेजा पर उनका वीजा क्लियरेंस में पाकिस्तान ने इसबार देरी की। इसबार दबे स्वर से लगभग सभी विश्लेषकों ने माना कि मीडिया सेंसरशिप अघोषित रूप से लागू रही। पर्यवेक्षक टीम के मुखिया माइकल गाहलर के हवाले से पाकिस्तान का डॉन जहाँ यह छापता है कि चुनाव संतोषजनक रहे और 2013 के आम चुनाव से भी स्वच्छ व निष्पक्ष रहे वहीं ब्रिटिश अख़बार द गार्जियन के अनुसार माइकल गाहलर ने इन चुनावों के मुकाबले 2013 के चुनावों को अधिक स्वच्छ व निष्पक्ष कहा। पहली बार ऐसा हुआ कि पांच प्रमुख दलों ने पुनर्मतदान एवं धांधलियों की कराने की माँग की। आतंकी घटनायें इस चुनाव में भी होती रहीं, बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा में चुनाव के दिन ही आत्मघाती हमला हुआ और तकरीबन पैतीस लोग मारे गए और पैतालीस से अधिक घायल हुए। सेना की भारी तैनाती जमी रही और चुनाव में फिर भी मत प्रतिशतता पहले के मुकाबले अधिक बताई जा रही। इस्टैब्लिशमेंट की पकड़ इस चुनाव में कुछ इस कदर है कि चुनाव परिणामों के बाद विपक्षी दलों ने मिलकर धांधलियों की जांच की मांग उठाने का फैसला किया लेकिन पीपीपी के बिलावल और पीएमएल के नवाज़ अंततः उस साझे विरोध से पीछे हट गए। 

लोकतंत्र की प्रक्रिया में ‘राजनीतिक क्षय’
प्रसिद्द राजनीति विज्ञानी सैमुअल पी हटिंगटन ने नवस्वतंत्र देशों के राजनीतिक यात्रा को समझने के लिए एक बेहतरीन सिद्धांत दिया है। उनका कहना है कि किसी देश में राजनीतिक विकास तब होता है जब राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना एवं उनका विकास उसी अनुपात में हो जितनी उस देश की जनता की राजनीतिक मुद्दों के प्रति जुटान (पॉलिटिकल मोबिलाईजेशन) हो। यदि किसी देश में राजनीतिक संस्थीकरण की प्रक्रिया किसी कारण से तीव्र हो और उस अनुपात में पॉलिटिकल मोबिलाइजेशन न हो, अथवा जितनी मात्रा में पॉलिटिकल मोबिलाइजेशन हो उस अनुपात में किसी कारण से राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना न हो पा रही हो तो समय के सापेक्ष राजनीतिक विकास न होकर ‘राजनीतिक क्षय’ होता है जो उस देश की राजनीतिक संस्कृति को अंततः नुकसान पहुँचाता है। 

पाकिस्तान के उथल-पुथल राजनीतिक इतिहास में मुशर्रफ के बाद बड़े प्रयासों से 2008 में एक लोकतांत्रिक सरकार यथासंभव स्वच्छ व निष्पक्ष रीति से चुनी गयी थी, जो यदि प्रतिबद्धता से कार्य करती तो लोकतांत्रिक संस्थाएं अपनी-अपनी मर्यादा में रहती और सेना अपने बैरकों में ही रहती। पीपीपी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और 2013 के चुनाव में पाकिस्तान के इतिहास का पहला शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण सम्भव हुआ और नवाज़ शरीफ़ को सत्ता मिली। दुर्भाग्य से पीएमएल सरकार भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे और शरीफ सरकार, सेना और कटटरपंथियों के समक्ष घुटने टेकती रही। दो चुनी हुई सरकारों का लचर प्रदर्शन पाकिस्तान के संभावित ‘राजनीतिक विकास’ को अब ‘राजनीतिक क्षय’ में बदलेगा क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया दुहराई तो गयी है पर निभायी नहीं गयी है। इन सरकारों के भ्रष्टाचारों व लचर प्रदर्शनों ने एकबार फिर आम अवाम का सेना के अनुशासन के प्रति दृष्टिकोण सकरात्मक किया है, इस्टैब्लिशमेंट फिर से शक्तिशाली हुई है और उस इमरान खान की पार्टी इसबार सत्ता में आयी है जो सेना को पाकिस्तान का एकमात्र हीरो मानता है और नवाज़ शरीफ को महज इसलिए देश का गद्दार मानता है कि उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुलाकातें कीं। यों तो इमरान खान अपने जीवन में अचानक रिवर्स स्विंग कराने लगते हैं और विरोधी उन्हें मास्टर ऑफ़ युटर्न्स भी कहते हैं, तो सम्भव है कि इमरान कुछ रिस्क लें और सचमुच एक ‘नया पाकिस्तान’ बनाने की कोशिश नज़र आये, वरना अभी तो वह बस इस्टैब्लिशमेंट का लोकतांत्रिक लिहाफ लग रहे जिसके भीतर रहकर वह सत्तासुख सेना भोगने को आतुर है। 

इमरान खान के लिए चुनौतियाँ 
पाकिस्तान भीषण जलसंकट और नकदी के संकट से गुजर रहा है। अर्थव्यवस्था जर्जर है और बेरोजगारी चरम पर है। अर्थव्यवस्था के लिए आईएमएफ से दूसरे आर्थिक पैकेज की माँग और पूर्ति कठिन होने वाली है। जल संरक्षण तकनीक व नहरों के निर्माण में समय व धन की दरकार है। उग्र आतंकवादी संगठनों से निपटना अगली बड़ी चुनौती है और इससे निपटना इसलिए भी आसान नहीं होगा क्योंकि इमरान के सुर धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए खासा अच्छे रहे हैं और वे उसी इस्टैब्लिशमेंट के हिस्से हैं, जिन्होंने इमरान खान की पार्टी को मदद पहुंचाई है। विदेश नीति में अमेरिका से होते खट्टे रिश्तों को पटरी पर लाना असली चुनौती होगी तो इसके साथ ही अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, रूस और चीन से संगति बिठाना आसान नहीं होगा। पिछले दो-तीन सालों से भारत के साथ रिश्ते भी बिलकुल जमे से हैं, जिद्दी इस्टैब्लिशमेंट के साथ उन जमी रिश्तों को आंच देना काफी मुश्किल होगा। यह रिस्की भी होगा क्योंकि पाकिस्तान में कहते हैं कि कोई चुनी हुई नागरिक सरकार तभी खतरे में आती है जब सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में सेना से इतर फैसले लेती है, जो कि उसका पारम्परिक क्षेत्र माना जाता है और इसमें ‘लाडले इमरान’ की दखलंदाजी भी सेना बर्दाश्त तो नहीं करेगी।   


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