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Saturday, March 24, 2018

संघर्ष के एक मुहाने पर फिर श्रीलंका


जबसे हिंद महासागर की अंगड़ाई लेती लहरें चीन की नज़रों में चढ़ी है, क्षेत्र के द्वीपीय देशों को जैसे उसकी नज़र ही लग गयी है। मालदीव की सरकार के द्वारा देश में आपातकाल की सीमा बढ़ाये जाने के एक पखवाड़े बाद ही श्रीलंका के कुछ ऐसे हालात हो गए कि सरकार को आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। वैसे यह दोनों आपातकाल किसी भी रीति से आपस में संबद्ध नहीं हैं; यह ज़रुर है कि दोनों देशों का औपनिवेशिक अतीत ही है जिससे वर्तमान में भी शांति और विकास आकाश कुसुम बने हुए हैं l मालदीव का आपातकाल सत्तालोलुपता में जहाँ लोकतंत्र के खिलाफ है वहीं श्रीलंका का आपातकाल सत्तासीन सरकार द्वारा सांप्रदायिक शक्तियों के मंसूबों के खिलाफ लिया गया एक सख्त कदम है जो देश के लोकतंत्र को मजबूती देगा l भारत के नज़रिये से देखें तो दोनों ही देशों के आंतरिक मामलों में अलग-अलग समयों में भारत द्वारा हस्तक्षेप किया गया है l दोनों ही अवसरों पर भारत को आमंत्रित किया गया l श्रीलंका में 1987 में भारत उलझ गया था वहीं 1988 में मालदीव में शांति स्थापित करने में सफल रहा था l भारत अपनी ऐतिहासिक वैश्विक एवं क्षेत्रीय भूमिका को देखते हुए हिन्द महासागर की इन घटनाओं से निरपेक्ष नहीं रह सकता l 

ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-प्राकृतिक रूप से श्रीलंका बेहद ही समृद्ध और वैविध्यशाली रहा है l तकरीबन ईसा के पांच सौ साल पहले भारत के उत्तर क्षेत्र से इंडो-आर्यन प्रवसन श्रीलंका में हुआ माना जाता है, जिसमें सिंहली प्रजाति ने पूरे द्वीप पर अपना प्रसार किया l इसके करीब दो सौ सालों बाद भारत के तमिल इस खूबसूरत द्वीप पर पहुंचे l सन 1505 ई. में पहली बार इस द्वीप पर जब पुर्तगाली बेड़ा पहुँचा तो श्रीलंका ने उपनिवेशवाद के चरण में प्रवेश किया l आखिरकार 1815 ई. में इस द्वीप के सबसे बड़े साम्राज्य कैंडी को ब्रिटिश शक्ति ने पराजित कर दिया और अपने चाय, क़ॉफ़ी, नारियल के वाणिज्यिक बागानों में काम कराने के लिए अपने सबसे बड़े उपनिवेश भारत के दक्षिणी क्षेत्र से तमिल लोगों को मंगवाया l श्रीलंका का अतीत में सिंहलद्वीप से सीलोन कहलाया जाना, इसकी ऐतिहासिक यात्रा को प्रदर्शित करता है l संस्कृत का ‘सिंहल’ शब्द ही पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी आदि प्रभावों के क्रमशः योग से अंग्रेजी का सीलोन बन गया l इसप्रकार यह देश एक बहुप्रजातीय एवं बहुसांस्कृतिक इकाई बन गया l आधुनिक काल की राजनीतिक व्यवस्था में यदि लोकतंत्र की स्थापना अपने सरोकारों और परंपराओं के साथ क्रमशः नहीं हुई तो निश्चित ही अस्मिता-संघर्ष उपजता है।  ब्रिटिश दासता से 1948 ई.में मुक्त हुआ यह देश अपने औपनिवेशिक नाम सीलोन से 1972 ई. में तो मुक्त होकर श्रीलंका बन सका, किन्तु देश प्रजातिगत खूनी संघर्षों में सन 2009 ई. तक जकड़ा रहा l 1956 ई. की अपनी पहली आज़ाद सरकार के साथ ही श्रीलंका में ‘सिंहली राष्ट्रवाद’ अपनी कुंडली मारकर बैठ गया और आजतक डंस रहा है l श्रीलंका के प्रसिद्ध अख़बार डेली मिरर के नियमित स्तंभकार श्री डी. बी. एस. जेयराज के अनुसार- ‘आज़ादी की लड़ाई में सिंहली फिर भी डोमिनियन स्टेटस की मांग से संतुष्ट थे और कहीं न कहीं अपरोक्ष रूप से ब्रिटिश सत्ता का लाभ ले रहे थे किन्तु तमिल सहित अन्य समूह साम्राज्यवादी शक्ति के खिलाफ प्रखर संघर्ष कर रहे थे l ‘ 


किन्तु आज़ादी आयी भी तो बस बहुसंख्यकों के इशारों की जैसे ग़ुलाम बनकर रह गयी l प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक जे. एस. मिल ने लोकतंत्र की इसी प्रवृत्ति को ‘बहुसंख्यक की निरंकुशता’ कहा है जो लोकतंत्र की आत्मा को ही कुचल देती है l औपनिवेशिक अतीत के कमोबेश सभी देश इस कुप्रवृत्ति के शिकार हो जाते हैं l श्रीलंका में प्रजातिगत वितरण सिंहली, तमिल, मलय, मूर, बर्घर्स और वेददा आदि, क्रमशः 74.9%, 15.2%, 0.22%, 9.3%, 0.19% और 0.13% है और यह क्रमशः बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम (मलय और मूर), ईसाई, आदि धर्म विश्वास को मानते हैं l सिंहली राष्ट्रवाद, इसप्रकार बौद्ध राष्ट्रवाद भी रहा और अन्य मतावलंबी समूह व प्रजातियाँ अस्मिता-संघर्ष में संलिप्त हो गयीं l बहुसंख्यकों के सापेक्ष अल्पसंख्यकों में पनपी असुरक्षा को सत्ता ने कभी गंभीरता से नहीं लिया और लोकतांत्रिक रीति से एकात्मक शासन व्यवस्था के संघीय वितरण पर कभी भी ध्यान नहीं दिया गया l प्रजातिगत संघर्ष के साथ-साथ धार्मिक संघर्ष भी सतह पर जब-तब उभरते रहे l सिंहली बहुसंख्यक जहाँ बौद्ध मतावलंबी हैं वहीं तमिल और मलय-मूर प्रजातियाँ क्रमशः हिन्दू और इस्लाम मतावलंबी हैं l प्रारंभ में सिंहली बहुसंख्यकवाद के विरूद्ध हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही एक स्वर में विरोध कर रहे थे किन्तु समय-समय पर होते हिन्दू-बौद्ध-मुस्लिम दंगों और अंततः 1981 ई. में ‘श्रीलंका मुस्लिम कांग्रेस’ के हुए गठन ने यह स्पष्ट असुरक्षा गहरी कर दी कि जाफना जैसे क्षेत्रों के स्वतंत्र होने की स्थिति में भी मुस्लिम महज अल्पसंख्यक ही बनकर रह जायेंगे l सोलोमन भंडारनायके के नेतृत्व वाली देश की पहली स्वतंत्र सरकार 1956 ई. में सिंहली राष्ट्रवाद के लहर में चुनकर आयी और इस सरकार ने कई ऐसे कार्य किये जिससे अन्य अस्मिताएं स्वयं को केंद्र से इतर सीमा पर महसूस करने लगीं l बागानों के तमिल मज़दूरों सहित कइयों को मताधिकार से वंचित कर दिया गया l सिंहली को अकेले ही राज्यभाषा घोषित कर दिया गया l 

हालाँकि, 1978 ई. के नए संविधान में सिंहली के साथ तमिल को भी राज्य की भाषा घोषित किया गया और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं में तेजी लाने के लिए अंग्रेजी को लिंक-लैंग्वेज के तौर पर मान्यता दी गयी, किन्तु इस संविधान के लागू होने के बाद भी व्यावहारिक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जीवन में  ‘सिंहल राष्ट्रवाद’ की विषबेलि फलती-फूलती रही l ‘बहुसंख्यक की इस निरंकुशता’ के जवाब में देश में श्रीलंका से अलग एक तमिल राष्ट्र बनाने का हिंसक आन्दोलन एक उग्र संगठन (एल.टी.टी.ई.: लिट्टे) के रूप में पैदा हुआ और इसने पूरे राष्ट्र को 2009 ई. तक गृहयुद्ध की भयंकर आग में झोंके रखा l यह आग इतनी भयानक थी कि इसमें कितने ही तमिल, कितने ही सिंहली व अन्य मारे गए और इसने भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की भी बलि ले ली l लिट्टे एक संगठन के तौर पर समाप्त हो गया है किन्तु अलगाववादी सोच अभी भी जिंदा ज़रुर है और साथ ही सिंहली राष्ट्रवाद की लपट भी एक बार फिर से सर उठा रही है l 

श्रीलंका की मौजूदा सरकार एक गठबंधन की सरकार है जिसमें श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के मैत्रीपाल सिरिसेना, राष्ट्रपति और युनाईटेड नेशनल पार्टी के रानिल विक्रमसिंघे प्रधानमंत्री पद पर विराजमान हैं। यह एक उदारवादी सरकार ज़रूर है किन्तु कमजोर गठबंधन की सरकार है। लिट्टे-आतंक समाप्ति के नायक पूर्व राष्ट्रप्रमुख महिंद्रा राजपक्षे द्वारा समर्थित पार्टी एस. एल. पी. पी. ने स्थानीय चुनावों में ज़ोरदार जीत दर्ज की है, जिसमें सत्तारुढ़ दलों सहित अन्य सभी दलों का प्रदर्शन निष्प्रभावी रहा है और इसी से आम चुनावों की भी मांग तेज आकर दी गयी है। विश्लेषक कहते हैं कि राजपक्षे ‘सिंहल राष्ट्रवाद’ के पोषक हैं और बहुत संभव है कि सत्तालोभ में सांप्रदायिक तनावों को हवा दे दी गयी हो अन्यथा कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा एक बौद्ध ड्राइवर की गयी हत्या इतना उग्र रूप न ले लेती। श्रीलंका से लगभग बाइस सौ किमी दूर म्यांमार में भी हाल ही में बौद्ध-मुस्लिम दंगे हुए और लाखों रोहिंग्या (मुस्लिम) शरणार्थी, बांग्लादेश में जाने को मजबूर हुए। धर्म और राजनीति का कुत्सित मिश्रण बेहद खतरनाक है नहीं तो समता पर आधारित इस्लाम, विविधता का सनातन धर्म और शांति का बौद्ध धर्म, हिंसा की इतनी भौंडी आग से न खेलते। 



राहत की बात फिलहाल यह रही कि सिरिसेना सरकार ने सांप्रदायिक तनावों को देखते हुए तुरंत कार्यवाही की और आपातकाल की घोषणा कर दी। सांप्रदायिक तनाव जैसी समस्याओं पर सामान्यतया किसी देश में आपातकाल जैसे बड़े कदम नहीं लिए जाते, किन्तु श्रीलंका का आधुनिक राजनीतिक-सामाजिक इतिहास यही कहता है कि एक आंतरिक वर्ग-संघर्ष से उबरे अभी जिस देश को एक दशक भी न हुए हों, किसी दूसरी इसप्रकार की संभावना को आपातकाल लगाकर समाप्त करना जरूरी हो जाता है। सिरिसेना का आपातकाल की घोषणा के महज तीन दिनों बाद ही ‘इंटरनेशनल सोलर अलायंस’ की बैठक में हिस्सा लेने के लिए भारत आना और फिर जापान की यात्रा पर निकलना यह इंगित करता है कि फ़िलहाल इस समस्या से पूरे आत्मविश्वास के साथ निपटा जा रहा है। मालदीव की आपातकाल की समस्या पर जहाँ क्षेत्रीय शक्तियों और भारत-चीन सहित अन्य महाशक्तियों की भौंहें टिका रखी हैं वहीं सिरिसेना सरकार ने गठबंधन की सरकार होने के बावजूद समस्या से अपने दम भिड़ने का दमखम दिखाया है और महाशक्तियों को फ़िलहाल देश की आंतरिक राजनीति से यथासंभव दूर ही रखा है। इस बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष को हलके में नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि अभी भी देश में सिंहल राष्ट्रवाद अपनी उग्रता में है, बौद्ध उग्रवादी अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों के संपर्क में हो सकते हैं और विश्व में इस्लामिक आतंकवाद की समस्या बनी हुई है। एक छोटी सी असावधानी इस संघर्ष को न केवल श्रीलंका का दूसरा बड़ा आंतरिक वर्ग-संघर्ष बना सकती है अपितु इसके वैश्विक आयाम और भी खतरनाक हो सकते हैं।    

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