साभार: गंभीर समाचार
यह सब कुछ अमेरिका के झूठ से शुरू हुआ। ९/११ से तिलमिलाए अमेरिका ने दुनिया को दो ही तरह से देखना शुरू किया: अमेरिका के साथ एकजुट देश और अमेरिका खिलाफ देश। अमेरिका ने इराक पर इल्जाम लगाया कि उसके पास जनविनाश के हथियार (डब्ल्यूएमडी) हैं। इराक़ में सद्दाम की मूर्ति भी नहीं बची पर इस्लामिक आतंकवाद की जड़ों को सींचने वाले लोग मिलते गए जो इस दुनिया में सुन्नी इस्लाम की सल्तनत कायम करने और क़यामत के बाद हसीं हूरों से भरे जन्नत के ख़्वाब देखने का जुनून रखते थे। इराक़ से उत्तर-पश्चिम सटे सीरिया में अल-क़ायदा के एक धड़े ने खुद को विश्व भर में इस्लामिक स्टेट बनाने का लक्ष्य दिया और इस्लामिक आतंकवादियों ने सीरिया के उत्तरी क्षेत्र के प्रमुख शहर रक़्क़ा पर मार्च, २०१३ में कब्ज़ा कर लिया। अल-फ़ुरत (यूफ्रैटीज) नदी के किनारे बसा रक़्क़ा शहर गृहयुद्ध में झुलसते सीरिया का प्रमुख सामरिक शहर है, जहाँ से दक्षिण-पूर्व में बसे पड़ोसी देश इराक़ के उत्तरी क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण सामरिक शहर मोसूल लगभग पांच सौ किमी की दूरी पर है। दाएश (आईएसआईएस/आईएसआईएल के अरबी नाम का संक्षिप्तीकरण) के दुर्दांत लड़ाके एक के बाद एक गाँव, क़स्बा, शहर पर फ़तह करते गए और सीरिया व इराक़ की सरकारी सेना पिछड़ती गयी। २०१४ जून की तारीख ४ में ये लड़ाके इराक़ के जिले मोसूल में दाखिल हुए और अगले दो हफ़्तों में दक्षिण दिशा की ओर चलते हुए इराक़ी राजधानी बग़दाद से १८६ किमी पहले शहर तिकरित पहुँच गए। दाएश के दहशतगर्दों के बीच में अचानक फंस गए थे बग़दाद से उत्तर ४०० किमी दूर मोसूल में ४० मज़दूर और तिकरित के सरकारी अस्पताल में ४६ भारतीय परिचारिकाएँ (नर्स), जिन्हें रोज़गार की तलाश ने इराक़ी रेगिस्तान में ला पहुँचाया था।
भारत की चुनावी राजनीति धीरे-धीरे महज पॉजिटिव परसेप्शन-बिल्डिंग पर आधारित होती गयी है और मेनिफेस्टो, ज़िम्मेदारी, जवाबदेही आदि की जगह बेतरतीब नारों, चुनावी जुमलों ने ले लिया है। परसेप्शन-बिल्डिंग पर आधारित चुनावी राजनीति से चुनाव खर्चीले होते गए, जिनकी पूर्ति सत्ता में आने के बाद घोटालों और भ्रष्टाचार से की जाती रही है । मई २०१४, में भारी बहुमत से चुनी गयी सरकार का भव्य शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया और इसमें देश के सभी पड़ोसी राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया। राष्ट्राध्यक्षों की उपस्थिति से नई सरकार जनता में यह परसेप्शन गढ़ने में सफल रही कि एक मजबूत और परिणामोन्मुखी विदेश नीति वाली सरकार पदासीन हुई है। विश्व के लिए यह कठिन समय था, क्योंकि वैश्विक आतंकवाद का सबसे दुर्दांत चेहरा आई.एस.आई.एल. (दाएश), भारत से लगभग ३५०० किमी दूर इराक के एक-एक शहरों पर अपना परचम गाड़े जा रहा था। इराक के भारतीय दूतावास के लिए यह चुनौतियों से भरा समय था, क्योंकि इराक के अलग-अलग शहरों में काम कर रहे भारतीयों ने स्वयं को अकेला और फंसा हुआ पाया, जैसे-जैसे दाएश के लड़ाके शहरों पर कब्ज़ा करते जा रहे थे और स्थानीय इराक़ी अपना शहर छोड़ भाग रहे थे। अमेरिका आदि समर्थित इराक़ी फ़ौज नाकाम हो रही थी और इराक से असहनीय ख़बरें आना आम हो गया था। सत्ता-परिवर्तन, नौकरशाही के बदलाव का भी वक्त होता है पर फिर भी भारतीय दूतावास ने उल्लेखनीय कार्य किया और अधिकांश भारतीयों को सफलतापूर्वक अपने वतन पहुँचाने में कामयाब रहा । भारतीयों के लिए जून, २०१४ में इराक से दो बड़ी ख़बरें बेहद परेशान करने वाली आ रही थीं । केरल की ४६ परिचारिकाओं को इराक के तिकरित जिले के उनके अस्पताल में दाएश द्वारा बंधक बनाया जाना और पंजाब, हिमाचल प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के ४० मज़दूरों का दाएश के द्वारा मोसूल जिले पर कब्ज़ा करने के बाद ग़ायब हो जाना। ११ जून, २०१४ को मोसूल में साथ-साथ काम कर रहे ५३ बांग्लादेशी और ४० भारतीय मज़दूर दाएश के द्वारा अगवा कर लिए गए। दाएश ने ४ ही दिन बाद तिकरित की ४६ भारतीय परिचारिकाओं को उनके अस्पताल में ही बंधक बना लिया। इराक के लिए यह एक त्रासद दौर था और इसलिए भारतीय दूतावास के अधिकारियों के लिए भी यह चुनौती से भरा समय था क्योंकि देश का प्रशासनिक ढाँचा ढह रहा था और संचार व यातायात के सभी माध्यम जवाब दे रहे थे।
इराक़ में फंसीं भारतीय परिचारिकाओं का संपर्क मोबाइल फोन से उनके परिजनों और इराक़ी भारतीय दूतावास से बना रहा। इराक़ में भारतीय राजदूत अजय कुमार को लगातार इनके टेक्स्ट मैसेज मिल रहे थे। लेकिन १५ जून, २०१४ के बाद भारतीय मज़दूरों का कुछ पता नहीं चल रहा था। भारत में परिचारिकाओं और मज़दूरों दोनों के परिजनों को यह जानकारी हो गयी थी कि उनके लोग इराक़ में दाएश के चंगुल में हैं। दाएश के लोग परिचारिकाओं के साथ फ़िलहाल ठीक से पेश आ रहे थे और उन्होंने, उन्हें तिकरित से शहर मोसूल चलकर अपना काम जारी रखने का विकल्प दिया। लोन लेकर लाखों रुपये एजेंट्स को देकर आईं इन परिचारिकाओं में से कई दाएश नियंत्रण में भी काम करने को राजी थीं, पर कुछ बेहद डरी हुईं परिचारिकाएँ भारत वापस लौटना चाहती थीं। दाएश के लोगों ने भारत वापस जाने वालीं परिचारिकाओं को आश्वासन दिया कि वे उन्हें इरबिल की सीमा तक ले जायेंगे, जहाँ से वे अपने वतन लौट सकती हैं। भारतीय दूतावास के साथ परिचारिकाओं के हुए सम्पर्क में उन्हें स्पष्ट कह दिया गया कि सभी परिचारिकाएँ इरबिल जाने के लिए कहें, जो तिकरित से २१८ किमी उत्तर स्थित है। दिल्ली में विदेश विभाग के हवाले से १७ और १८ जून, २०१४ को इन दोनों घटनाओं के बारे में राष्ट्र को बताया गया। यह कहा गया कि भारतीय परिचारिकाओं से संपर्क बना हुआ है लेकिन मज़दूर भारतीयों से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है। द वायर की वरिष्ठ पत्रकार देविरूपा मित्रा ने १८ जून , २०१४ की शाम में पत्रकारी संपर्कों से पड़ताल शुरू की और इराक़ की उस कंस्ट्रक्शन कंपनी के जरिये इराक़ से लौटे बांग्लादेश के एक मज़दूर जमाल खान से बात करने में सफल रहीं। जमाल खान ने बताया कि बांग्लादेशी और भारतीय मज़दूर साथ ही मोसूल में काम करते थे, जब उन्हें अगवा कर लिया गया था। बाद में भारतीय-बांग्लादेशी मज़दूरों को अलग-अलग कर दिया गया था। इरबिल चेक-पोस्ट पर फिर उन चालीस भारतीयों में से एक हरकित (हरजीत मसीह) मिला था जो बेहद डरा हुआ था। हरजीत बार-बार कह रहा था कि बाकी ३९ भारतीय १५ जून को मार दिए गए और हरजीत के पैर में गोली लगी, वह किसी तरह इरबिल तक पहुँचा है। इस बाबत जब विदेश विभाग से बात की गयी तो ऐसा लगा कि उन्हें इस बारे में पहले से ही पता है। हरजीत के चचेरे भाई रॉबिन मसीह ने भी बाद में बताया कि उसकी बात हरजीत से १५ जून, २०१४ को हुई थी और हरजीत ने बताया कि वह इरबिल से बोल रहा है और अगले हफ़्तों में भारत लौट आएगा।
द हिन्दू की एक खबर के अनुसार राष्ट्रीय सलाहकार अजीत डोवाल, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आई.बी.) के निर्देशक आसिफ इब्राहिम के साथ जून, २०१४ के आखिरी हफ्ते में बगदाद पहुंचे। भारतीय कूटनीतिक दल अपने प्रयासों से दाएश के साथ संपर्क साधने में सफल रहा और अंततः दाएश के लोगों ने ४ जुलाई, २०१४ को ४६ परिचारिकाओं को मोसूल सीमा पर भारतीय अधिकारियों को सौंप दिया। भारतीय कूटनीतिक दल की इस सफलता पर पूरा भारत झूम उठा। ४६ परिचारिकाएँ सकुशल ५ जुलाई, २०१४ को भारत वापस आ चुकी थीं। सुषमा स्वराज, अजित डोवाल और नरेंद्र मोदी के कुशल संचलन की चहुँओर भूरी-भूरी प्रशंसा थी। मलयाली निर्देशक महेश नारायण ने मार्च, २०१७ में ‘टेक ऑफ’ नाम से एक संजीदा फिल्म बनाई और भारतीय कूटनीतिक दल की इस सफलता पर बॉलीवुड ने भी दिसंबर, २०१७ में एक मसाला फिल्म ‘टाइगर ज़िंदा है ’ बनाई।
जब मोदी सरकार चहुँओर अपनी यह सफलता भुना रही थी, उसी समय पंजाब, हिमाचल, बिहार और पश्चिम बंगाल के ४० भारतीय मज़दूरों के परिवारजनों को सरकार ने उस वक़्त के हिसाब से सबसे बेशकीमती तोहफ़ा दिया था: उम्मीद ! सरकार बार-बार कह रही थी कि ४० भारतीयों को बंधक बना लिया गया है पर सभी ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज परिवार वालों से मिलती रहीं, पूरे आत्मविश्वास से समझाती रहीं कि उनके अपने इराक में सुरक्षित हैं और ज़िंदा हैं। जुलाई २४, २०१४ को सुषमा स्वराज ने सदन को एक फिर आश्वस्त किया कि अनेक स्रोतों के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि इराक़ में ४० भारतीय सुरक्षित हैं, ज़िंदा हैं और उन्हें भोजन भी मिल रहा है। २८ जुलाई, २०१४ को सुषमा स्वराज ने फिर यह उम्मीद दोहराई। इस बार दो बेहद मजबूत स्रोतों सहित कुल आठ स्रोतों का हवाला दिया। २९ जुलाई २०१४, को हरजीत मसीह ने चचेरे भाई रोबिन मसीह को फोन किया और कहा कि उसे भारत लाया जा रहा है। सरकार ने अगस्त, २०१४ में भी दोहराया कि ४० भारतीय सुरक्षित हैं और ज़िंदा हैं, इधर हरजीत के परिवार वालों से हरजीत का संपर्क टूट चुका था और वे हरजीत का इंतज़ार कर रहे थे।
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नवंबर, २०१४ में एबीपी न्यूज के पत्रकार जगविंदर पाटियाल, आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर के साथ इराक़ के शहर इरबिल पहुंचे, जहाँ जगविंदर दो बांग्लादेशी मज़दूर शफ़ी इस्लाम और हसन से मिल सके। उनका इंटरव्यू २७ नवंबर, २०१४ को प्रसारित किया गया। बताया गया कि हरजीत के पाँव में गोली लगी थी, ४० भारतीयों में से केवल वही बच निकला था, बाकी सभी को दाएश के द्वारा मार दिया गया था और कहा गया कि भारत सरकार झूठ बोल रही है और झूठी उम्मीद दे रही है। इस इंटरव्यू के बाद सुषमा स्वराज को सदन में बयान देना पड़ा कि हरजीत दिल्ली में सरकार के ‘प्रोटेक्टिव कस्टडी’ में है और शेष ३९ भारतीय ज़िंदा हैं व सुरक्षित हैं। फरवरी, २०१५ में सुषमा स्वराज ने एकबार फिर उम्मीद बांधते हुए कहा कि कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं लेकिन सभी ३९ भारतीय ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। १५ मई, २०१५ को मोहाली में आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान के साथ हरजीत मसीह प्रेस कांफ्रेंस करते हैं और बताते हैं कि जुलाई २०१४ से उन्हें सरकार ने अपनी ‘कस्टडी’ में रखा था और पूछताछ कर रही थी। हरजीत मसीह ने इस प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि बाकी ३९ भारतीय १५ जून, २०१४ को ही दाएश के द्वारा मार दिए गए और वह किसी तरह बच निकला। इसके बाद सुषमा स्वराज का फिर बयान आया कि हरजीत झूठ बोल रहा है और उम्मीद जताई कि सभी ३९ भारतीय सुरक्षित और ज़िंदा हैं। १९ जून, २०१५ की अपनी वार्षिक प्रेस कांफ्रेंस में एक बार फिर सुषमा स्वराज ने कहा कि ३९ भारतीय ज़िंदा हैं। जनरल वी के सिंह ने २२ जुलाई, २०१५ को बयान दिया कि सभी ३९ भारतीय सुरक्षित हैं। सभी ३९ भारतीयों के परिजन दम साधे अपनों की राह देखते रहे और फरवरी, २०१६ में सरकार ने फिर कहा कि ३९ भारतीय ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं। हरजीत मसीह सहित सभी अनौपचारिक सूत्र जहाँ ३९ भारतीयों के त्रासद अंत के बारे में कमोबेश निश्चित थे, अकेली सुषमा स्वराज और उनकी सरकार कह रही थी कि वे ज़िंदा हैं और सुरक्षित हैं।
इराकी फौजों ने दाएश के लड़ाकों से मोसूल को ९ जुलाई, २०१७ को आज़ाद करवा लिया। १० जुलाई को जनरल वी के सिंह इराक़ भेजे गए। १६ जुलाई २०१७ को सुषमा स्वराज ने कहा कि ३९ भारतीय मोसूल के बादूश जेल (मोसूल से २६ किमी उत्तर-पश्चिम) में बंद हो सकते हैं। १९ जुलाई २०१७ को इराक़ में एक पत्रकार के हवाले से खबर आयी कि बादूश जेल ढह चुकी है और वहाँ कोई भी बंदी नहीं है। भारत में इराक़ी राजदूत और जुलाई, २०१७ में ही भारत यात्रा पर आये इराक़ी विदेश मंत्री ने ३९ भारतीयों के बारे में किसी भी जानकारी के न होने की बात कही। मोसूल में जगह-जगह टीलों को देखा जा रहा था, जहाँ दाएश के लोगों ने स्थानीय लोगों सहित विभिन्न देश के लोगों को सामूहिक रूप से दफनाया था। उनकी जांच-पहचान का काम जोरों पर था। इस सिलसिले में भारत सरकार से भी आग्रह किया गया कि ३९ भारतीयों के नज़दीकी रिश्तेदारों से डीएनए सैंपल इकट्ठे कर उन्हें भेजे जाएँ। डीएनए सैंपल मंगवाए जाने लगे और सदन में सुषमा स्वराज कहती रहीं कि हरजीत झूठ बोल रहा है और बिना किसी सुबूत के किसी को मृत घोषित करना पाप होगा। हरजीत के हवाले से यह खबर आ रही थी कि उसे सरकार की तरफ से ऐसा दबाव बनाया गया कि वह कहे कि उसे बाकी ३९ भारतीयों के बारे में कुछ नहीं पता है। ३९ भारतीयों में से एक के रिश्तेदार की शिकायत पर हरजीत पर ‘अवैधानिक प्रवसन’ का आरोप लगाया गया और तकरीबन हरजीत ६ महीने जेल में भी रहा।
घटना के ३ साल १० महीने ३ दिन के बाद १८ मार्च, २०१८ को आखिरकार सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में कहा कि पुख्ता सुबूतों के आधार पर मै दो बातें कहना चाहती हूँ: पहला; हरजीत मसीह झूठ बोल रहा था और दूसरा ३९ भारतीय अब ज़िंदा नहीं रहे। डीएनए सैंपल, वे पुख्ता सुबूत बने जिनके आधार पर बादूश के एक टीले से पाए गए नरकंकालों की शिनाख़्त हो सकी। सुषमा स्वराज के वक्तव्य का पहला बिंदु हरजीत मसीह था और दूसरा बिंदु ३९ भारतीयों की मृत्यु से उन उम्मीदों का राख़ हो जाना था, जिन उम्मीदों को वे पिछले करीब चार सालों से ज़िंदा बताती आ रही थीं, जबकि पूरी दुनिया कुछ और कह रही थी।
हरजीत ने फिर मीडिया को कहा कि मै क्यों झूठ बोलूँगा, हाँ अच्छा होता कि मै झूठा साबित होता और भाई लोग वापस आ जाते। जनरल वी के सिंह १ अप्रैल २०१८ को इराक लिए रवाना हो गए ताकि शवशेष लाये जा सकें और २ अप्रैल को विशेष विमान से शव अवशेष भारत लाये गए l परिजनों को जल्द से जल्द अंतिम क्रिया करने के निर्देश दिए गए और उन्हें ताबूत खोलने से मना किया गया l बहुत जिद पर कुछ ताबूत खोले गए l एक मृतक की बहन मलकीत कौर ने कहा कि उनका भाई सिख था, वह कभी कैप नहीं पहन सकता था l सोचने-समझने को काफी कुछ है पर मै स्तब्ध यह सोच रहा हूँ कि क्या किसी सरकार के लिए पॉजिटिव परसेप्शन बिल्डिंग इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह सालों-सालों एक त्रासद सच कहने में हिचकती है; महज इसलिए कि कोई यह न कहे कि सरकार नाकाम रही। लोकतंत्र इतनी गैर-जवाबदेही बर्दाश्त कर भी ले तो इतनी असंवेदनशीलता, निष्ठुरता, निर्ममता कैसे सह सकेगा?