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Thursday, November 23, 2017

हेग विजय और संयुक्त राष्ट्र संघ सुधार

डॉ.श्रीश पाठक

भारत की ब्रिटेन से आजादी के ही साल जन्मे जस्टिस दलवीर भंडारी इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे ), हेग की पंद्रह सदस्यीय पैनल में लगातार दुसरी बार अगले नौ साल के लिए चुन गए जब उनके खिलाफ रहे ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र ग्रीनवुड ने आखिरी समय में अपनी दावेदारी वापस ले ली। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश रहे दलवीर भंडारी जोधपुर के हैं और उनका परिवार विधिज्ञों की विरासत वाला है। दलवीर भंडारी से आठ साल छोटे क्रिस्टोफर ग्रीनवुड भी आईसीजे में अपना नौ साल का समय पूरा कर लेने के बाद अगले नौ साल की नियुक्ति के लिए ब्रिटेन की तरफ से मैदान में थे। सर क्रिस्टोफर जॉन ग्रीनवुड लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में विधि के प्रोफ़ेसर हैं और इनकी आलोचना इनके उन विधिक तर्कों के लिए पुरे विश्व में की जाती है जिसके सहारे ब्रिटेन ने  २००२ में इराक पर अपने सैनिक बल प्रयोग को उचित ठहराया गया था। ब्रिटेन ने यह कहते हुए अपनी दावेदारी वापस ले ली कि जबकि उनका देश यह चुनाव नहीं जीत सकता, उन्हें खुशी है कि उनके नज़दीकी मित्र भारत ने यह दावेदारी जीत ली है और वे संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक पटल पर भारत का सहयोग करते रहेंगे। हालाँकि ब्रिटिश और अमरीकी मीडिया ने ब्रिटेन की इस हार को शर्मनाक बताया है क्योंकि संस्थापक सदस्य ब्रिटेन पिछले ७१ साल में पहली बार इस पंद्रह सदस्यीय जजों के पैनल से बाहर होगा और चीन के बाद यह दूसरा मौका होगा जब कोई वीटो शक्तियुक्त  देश इस पैनल में अपना स्थान बनाने से चूक गया है।   

आईसीजे संयुक्त राष्ट्र संघ का विधिक अधिकरण है जो सदस्य राष्ट्रों के मध्य उपजे विवादों पर अंतरराष्ट्रीय विधि के अनुसार निर्णयन करती है। हाल ही में आईसीजे ने भूतपूर्व भारतीय नेवी ऑफिसर कुलदीप जाधव, जो अपहृत होने के पूर्व ईरान में व्यवसाय कर रहे थे; पाकिस्तान की सैनिक न्यायालय के द्वारा सुनायी गयी फाँसी की सजा पर रोक लगा दी थी जो उन्हें तथाकथित जासूसी के आरोप में सुनायी गयी थी। ईरान के शामिल हो जाने के कारण यह मामला द्विपक्षीय न होकर त्रिपक्षीय हो गया था और इसी कारण भारत ने इस अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में अर्जी लगाई थी। आईसीजे के मुख्य न्यायाधीश रॉनी अब्राहम द्वारा सुनाये गए और पंद्रह सदस्यीय न्यायाधीशों के समूह द्वारा तैयार किये गए  इस फैसले में दलवीर भंडारी भी शामिल थे।



दलवीर भंडारी की पुनर्नियुक्ति दरअसल भारतीय कूटनीति की स्पष्ट विजय का द्योतक है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने  अपने दूसरे भारतीय अधिकारी सहयोगियों के साथ नयी दिल्ली के निर्देशन में एक बेहतर लामबंदी की और नतीजा भारत के पक्ष में कर दिया। यह जीत वाकई कठिन थी क्योंकि नियुक्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् और महासभा दोनों में ही बहुमत की आवश्यकता होती है। वीटो शक्तियुक्त पाँच स्थाई सदस्यों (अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस और चीन ) और वीटो शक्तिरहित दस अस्थायी देश (बोलीविया, मिस्र, इथोपिया, इटली, जापान, कजाखस्तान, सेनेगल, स्वीडन, यूक्रेन और उरुग्वे ) से बनी सुरक्षा परिषद् में भारत को कुल पंद्रह में से महज पाँच मतों का समर्थन था किन्तु महासभा जो कि सभी सदस्य राष्ट्रों से निर्मित सभा है, उसमें ब्रिटेन के मुकाबले भारत ने ग्यारह चरणों में हमेशा ही दो-तिहाई से अधिक मतों का समर्थन हासिल किया है। यह प्रतिस्पर्धा ऊपरी तौर पर दलवीर भंडारी और क्रिस्टोफर ग्रीनवुड के मध्य थी, पर हकीकत में यह प्रतिस्पर्धा सुरक्षा परिषद् और महासभा की मंशाओं एवं संयुक्त राष्ट्र में सुधारों के खिलाफ और सुधारों के पक्षकारों के मध्य थी। एक लम्बे समय से भारत सुरक्षा परिषद में सुधारों का हिमायती है और जापान, जर्मनी व ब्राज़ील की साथ मिलकर लामबंदी भी करता रहा है। सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थाई सदस्यों में जहाँ केवल फ्रांस ही वीटोयुक्त भारतीय सदस्यता को समर्थन देता है, वहीं चीन के मुताबिक सुधारों का यह उचित समय नहीं है और अमेरिका सहित बाकी देश सुरक्षा परिषद का विस्तार वीटोशक्तिविहीन सदस्यता के तौर पर दबे स्वर में स्वीकार करते हैं।  

प्रथम विश्व युद्ध की दारुण विभीषिका के बाद राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी ताकि ऐसी किसी घटना की पुनरावृत्ति ना हो, किन्तु बाईस सालों के भीतर ही द्वितीय विश्वयुद्ध की भेरी बज गयी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध जापान के न्यूक्लियर नेस्तनाबूत हो जाने के साथ ही संपन्न हुआ और एक बार फिर विश्व शांति की गरज से संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन १९४५ में किया गया। सभी सदस्य राष्ट्र जहाँ महासभा के सदस्य बने, वहीं द्वितीय विश्व-युद्धों के विजेता देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर ही सर्वाधिक निर्णायक सुरक्षा परिषद का गठन किया। सुरक्षा परिषद के निर्णयों के लिए पूर्ण सहमति एक अनिवार्य शर्त है और इसकी क्रियान्वयन के लिए ही वीटो शक्ति का प्रावधान किया गया जिसमें चार के मुकाबले एक सदस्य भी किसी निर्णय में यदि असहमति दर्ज करता है तो कोई प्रस्ताव पास नहीं होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कमोबेश वैश्विक आर्थिक व्यवस्था इन्हीं पश्चिमी देशों के हितों के अनुरूप चलती रही बस, ब्रिटेन की जगह अमेरिका ने ले ली। अब जबकि विश्वराजनीति वैश्वीकरण के दौर से गुज़र रही है और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और कूटनीतिक संबंधों की धुरी यूरोप से खिसककर एशिया में आ गयी है, संयुक्त राष्ट्र संघ की वर्षों पुरानी उत्तर-युद्ध संरचना में सुधार अनिवार्य हैं बशर्ते ये निर्णायक राष्ट्र तैयार हों।

केवल इसलिए नहीं कि ये पाँच निर्णायक राष्ट्र विश्व-व्यवस्था में मनमाना रवैया रखते हैं बल्कि इनके नेतृत्व वाली संयुक्त राष्ट्र संघ न ही आज की बहुपक्षीय आर्थिक-राजनीतिक विश्वप्रणाली का प्रतिनिधित्व करती है और ना ही यह बहुधा वैश्विक विवादों का समाधान ही दे पा रही है। दारफूर संकट, जंजावीड उन्माद, स्रेबेनिका सामूहिक हत्या, इजराइल-अरब संघर्ष, कुवैत संकट और रवांडा संकट के समाधान पर पक्षपात आदि मसलों में संयुक्त राष्ट्र संघ की विफलता इसकी सुधारों के प्रति उदासीनता को पुष्ट करती है। पांचों वीटोयुक्त देश स्वयं ही आणविक शक्तियों से लैस हैं और भारी शस्त्रों का भण्डारण भी किये हुए हैं।  जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ लगभग पचहत्तर प्रतिशत राहत कार्य अफ्रीका पर केंद्रित है, अफ्रीका महाद्वीप का कोई देश सुरक्षा परिषद् में नहीं है। विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था, सबसे बड़ा लोकतंत्र, संयुक्त राष्ट्र की शांतिरक्षक टुकड़ियों में सर्वाधिक योगदानकर्त्ता देशों में से एक और बेहतरीन राजनीतिक साख वाला देश भारत सुरक्षा परिषद् की सदस्यता से वंचित है।  भारत ने साफ़ कर दिया है कि वह वीटोशक्तिरहित सदस्यता स्वीकार नहीं करेगा।  

आईसीजे में दलवीर भंडारी की नियुक्ति के मसले से पूर्व भी जून २०१७ में संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर महासभा और सुरक्षा परिषद की मंशाओं के मध्य विभाजन तब स्पष्ट हो गया था जब लगभग एक स्वर से महासभा ने मॉरीशस के आईसीजे में जाने के उस प्रस्ताव को समर्थन दिया था चागोस द्वीपसमूह पर अपनी संप्रभुता का दावा ब्रिटेन के विरुद्ध पेश किया था। उस वक्त भी संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधारों की चर्चा जोरशोर से भारत ने उठाई थी इसने  इस प्रस्ताव पर मॉरीशस के पक्ष में अपना मत दिया था। यहाँ भारत के लिए कूटनीतिक चुनौतियाँ बेहद ही जटिल हैं, पर मानना होगा कि भारत ने निर्णय लिए हैं। यूरोपीय संघ ने इस मतदान में भाग नहीं लिया किंतु बाकी सभी पारंपरिक शक्तियों ने ब्रिटेन का साथ दिया। हिन्द महासागर में चीन की भारतीय उपमहाद्वीप को घेरने की ओबोर और पर्ल ऑफ़ स्ट्रिंग पॉलिसी के खिलाफ मॉरीशस के इसी चागोस द्वीपसमूह के एक द्वीप डियागो गार्सिआ पर स्थित भारतीय-अमेरिकी सैन्य अड्डे से सुरक्षा मिलती है। डियागो गार्सिआ ब्रिटिश संप्रभुता में आता रहा है जिसे रक्षा सहमतियों में अमेरिका और भारत से साझा किया गया है। बल्कि ब्रिटेन ने भारत से इस मामले में अपना प्रभाव का प्रयोग कर मॉरीशस से वार्ता का आग्रह भी किया है। उधर मॉरीशस ने ताईवान मुद्दे पर हमेशा ही चीन का साथ दिया है और सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य होने के नाते चीन से यह अपेक्षा रखता है की वह चागोस संप्रभुता मसले पर मॉरीशस का ही साथ देगा। इस प्रकार भारत के लिए जटिलताएँ बेहद पैनी हैं, पर दलवीर भंडारी की पुनर्नियुक्ति ने यह आश्वस्ति दी है कि वैश्विक पटल पर भारतीय कूटनीति अपने राष्ट्रहित को बेहतर रीति से सुरक्षित कर पा रही है।  

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