भारत राष्ट्र की विविधता और चुनाव सुधार
स्वतंत्र व निष्पक्ष और नियमित अंतराल पर होने वाले चुनाव किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के आवश्यक लक्षण हैं। चुनाव यदि स्वच्छ और निष्पक्ष न हों, तो राजनीतिक व्यवस्था के लिए ही घातक सिद्ध हो जाते हैं। राजनीतिक सरंचनाएं निर्बाध चलती तो रहती हैं किन्तु उनका अभिप्राय शेष नहीं रह जाता। दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र भारत में चुनाव वर्षपर्यन्त चलने वाले उत्सव हैं, जो न केवल बेहद खर्चीले हैं बल्कि इससे सामान्य प्रशासन के संचलन में भी बाधा पड़ती है। इसी वर्ष अप्रैल में नीति आयोग ने एक मसविदा तैयार करके सभी मुख्यमंत्रियों एवं दूसरे संबंधित लोगों को प्रेषित किया है जिसमें २०२४ से केंद्र-राज्य चुनाव एक साथ ही कराने की वकालत की गयी है, जिससे सुशासन की राह में आने वाली चुनाव-प्रचार संबंधित ख़लल न्यूनतम किये जा सके।
पड़ोसी देश नेपाल ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्य और केंद्र के चुनाव एक साथ ही दो चरणों में कराने का निर्णय लिया और सफलतापूर्वक संपन्न भी कर लिया है। इस केंद्र-राज्य समकालिक चुनाव व्यवस्था से संसाधनों का मितव्ययी प्रयोग तो होगा ही, आशा की जानी चाहिए कि इस प्रगतिवादी कदम से नेपाल अपने इस लोकतांत्रिक प्रयोग में सफल होकर एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ पायेगा। दक्षिण एशिया में श्रीलंका में भी यह विमर्श जारी है कि कम से कम सभी राज्यों के चुनाव एक साथ कराये जाएँ ! प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के समर्थन के बाद इस विमर्श को और बल मिला कि भारत देश में एक जरूरी चुनाव-सुधार के तौर पर केंद्र-राज्य चुनाव साथ-साथ कराये जाएँ। आज़ादी के बाद संविधान लागू होने के बाद से भारत में १९६७ तक केंद्र-राज्य चुनाव साथ-साथ ही होते रहे। किन्तु अविश्वास प्रस्ताव आदि प्रक्रियाओं वाली भारतीय संसदीय व्यवस्था में मध्यावधि चुनाव और राज्यों में राष्ट्रपति शासन की गुंजायश बनती है, इसलिए चुने जाने के बाद सरकारों की एक नियत अवधि स्थिर करनी होगी और कुछ राज्यों की सरकारें समयपूर्व ही स्थगित करनी होंगी। जाहिर है यह एक कठिन कार्य है और इसके लिए आवश्यक संवैधानिक सशोधनों के लिए व्यापक विमर्श के साथ आम सहमति की भी दरकार होगी। जहाँ इस संदर्भ में अमूमन राष्ट्रीय दल समर्थन में हैं, वहीं क्षेत्रीय दल और राज्य सरकारें इसके लिए असमय सरकारों के भंग किये जाने के खिलाफ हैं। यदि एक आम सहमति बन भी जाती है तो भी एक साथ चुनाव करवाने के लिए भारी मानव संसाधन और एकमुश्त धन की भी आवश्यकता होगी। कुछ विश्लेषकों ने इस तरह के चुनाव के दौरान अर्धसैनिक बलों की भारी तैनाती से देश की आंतरिक सुरक्षा स्तर पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को लेकर भी आशंका व्यक्त की है। ऐसे सभी प्रश्नों के जवाब के लिए नीति आयोग ने बिबेक देबरॉय और किशोर देसाई नेतृत्व में एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है जो एक सुचिंतित आलेख है। ऐसे किसी भी योजना का क्रियान्यवन कितना ज़मीनी है और क्या सचमुच इससे चुनाव व्यवस्था मितव्ययी होगी और सुशासन के अवरोध क्या कम हो सकेंगे; इन सभी बिंदुओं पर पड़ताल देबरॉय-देसाई कमेटी ने की है।
भारत की राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों ही रीति से चुनाव होता है। देश का वास्तविक प्रधान, प्रधानमंत्री जहाँ प्रत्यक्ष रीति से चुने हुए प्रतिनिधियों के समर्थन से चुना जाता है वहीं औपचारिक प्रधान राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष रीति से चयनित किया जाता है। चुनाव की दो विधियां विश्व में सर्वाधिक प्रचलित हैं। पहली विधि फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट सिस्टम (एफपीपी) सरल है और इसमें जो अधिक मत पहले पाता है उसे ही विजेता घोषित कर दिया जाता है। इस विधि में यदि मत प्रतिशत पैतालीस ही हो अर्थात सौ में से महज पैंतालीस नागरिकों ने ही मत का प्रयोग किया हो और उस स्थान से केवल छः प्रत्याशी मैदान में हों तो संभव है कि पाँच प्रत्याशियों को सात या उससे कम मत मिलें और महज आठ या अधिकतम दस मत पाकर ही एक प्रत्याशी विजेता घोषित होकर समूचे सौ का प्रतिनिधित्व करे ! इसके उलट आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (हेयर प्रणाली) जटिल तो है, किन्तु इसमें एक भी मत व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि मतदाता प्रत्येक छः प्रत्याशियों को एक वरीयता में मत देता है। इस उदाहरण में यह वरीयता एक से लेकर छः तक होगी। यह प्रणाली छोटे-छोटे संख्या में रहने वाली अस्मिताओं की भी तदनुरूप उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है। उथल-पुथल से भरे नए-नवेले राष्ट्र के लिए एफपीपी चुनाव पद्धति आदर्श थी जिसके तकरीबन बारह प्रतिशत नागरिक ही तब साक्षर थे। परन्तु अब उपयुक्त समय है कि भारत में मतदान रीति में बदलाव की एक बहस चले। इस समय भारत की साक्षरता प्रतिशत उल्लेखनीय है और वैश्वीकरण के प्रभावों के परितः भारत के प्रति एक अस्मिता के नागरिक राजनीतिक सहभागिता को आतुर हैं तो एफपीपी चुनाव पद्धति के स्थान पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाने की आवश्यकता है।
*लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं.