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Sunday, July 29, 2018

जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा (जेआरडी)

साभार: दैनिक भास्कर 

वो जमाना था जब समझा जाता था कि रूस को कभी पराजित नहीं किया जा सकता था, क्योंकि कोई भी शक्तिशाली सेना यदि इसके भीतर प्रवेश कर भी ले तो भी रूस के भीमकाय भूगोल में उसे उलझना ही था। लेकिन पिद्दी सा जापान रूस के लिए मुसीबत बन अगले साल तक उसे हराने वाला था। जर्मन राजा अपने इरादों से यूरोप के बड़े खिलाड़ी फ़्रांस और ब्रिटेन के साम्राज्यवादी बुनियादों को हिलाने की फ़िराक में था। ऐसे में फ़्रांस, ब्रिटेन के साथ आपसी साम्राज्यवादी सघर्षों को तनिक विराम दे, ‘ऐंतांत कोर्डीएल’ के समझौतों को संपन्न कर राहत की साँस ले रहा था। कला और फैशन के लिए मशहूर फ़्रांस, चित्रकला की फ़ॉविज्म धारा को अपना रहा था जिसका यकीन था कि कैनवस पर मानव मनोभावों को उकेरना आवश्यक है भले ही असंगत रंगों का चटख प्रयोग करना पड़े । बेहद लोकप्रिय बाईसिकिल रेस प्रतियोगिता ‘टूर डी फ्रांस’ के दूसरे संस्करण का कम उम्र का विजेता हेनरी कोर्नेट अपनी बुलंदियों पर था। अमेरिका के ओरविल व विलबर राइट जब अपने हवा से भारी एयरक्राफ्ट फ्लायर-दो को सफलतापूर्वक उड़ा चुके थे तो उसके सात महीने के बाद २९ जुलाई १९०४ के पेरिस में भारत के सबसे महत्वपूर्ण पारसी उद्योगपति जमशेतजी टाटा के ममेरे भाई रतनजी दादाजी टाटा और भारत की सबसे पहली कार चलाने वाली फ्रेंच महिला सुज़ैन सूनी ब्रिय्ररे के घर जिस भारतरत्न का जन्म हुआ उसे भविष्य के स्वतंत्र भारत में भारतीय विमानन का पिता कहा जाने वाला था। जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा की ज़िंदगी भी बिलकुल उलटफेरों से भरी बींसवी शती की तरह रही और अंततः यह जहाँगीर, जहाँ को जीतने वाला ही साबित हुआ। जेआरडी टाटा का सुखद बचपन पेरिस की गलियों में बीता और उनकी पहली भाषा बनी फ्रेंच। वहाँ स्कूल में हालाँकि अध्यापक उन्हें इजिप्टियन बुलाते रहे। वहीं गर्मी की एक छुट्टी में छोटे जेआरडी टाटा की मुलाकात फ्रेंच विमानन के पिता लुइस ब्लेरिओट से हुई और फिर जेआरडी उस आकाशीय रोमांच के जीवन भर के दीवाने हो गए। फ़्रांस, जापान, इंग्लैंड की अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के बाद जेआरडी का इरादा आगे इंजीनियरिंग पढ़ने का था कि विश्वयुद्ध के सायों ने फ़्रांस को अपने युवा नागरिकों के लिए कानून बनाकर एकवर्षीय सेनासर्विस करना अनिवार्य कर दिया। चूँकि जेआरडी को फ्रेंच आती भी थी और वे इसका टंकण भी जानते थे तो उन्हें कर्नल का सचिव बनाकर भेजा गया। इसके तुरत बाद १९२५ में पिता ने व्यवसाय सम्हालने के लिए जेआरडी को भारत बुला लिया और बताते हैं कि जिस फ्रेंच टुकड़ी में जेआरडी थे, वह अपने मोरक्को अभियान से कभी वापस नहीं आ सकी। 

भारत आने के चौथे साल जेआरडी ने भारतीय नागरिकता ली और भारत के पहले कामर्शियल पायलट बन गए। जेआरडी ने १९३२ में ‘टाटा एंड संस’ में विमानन विभाग की नींव रखी जो आगे चलकर ‘टाटा एयरलाइंस’ और फिर ‘एयर इंडिया’ बनकर भारत की पहली एयरलाइंस कम्पनी बनी। ३४ साल की उम्र में उन्हें टाटा एंड संस का चेयरमैन बनाया गया और अगले पचास साल में जेआरडी ने टाटा की ६२ करोड़ की इस कम्पनी को अपने रिटायर होने तक १०,००० करोड़ की कम्पनी बना दिया। जेआरडी ने जब टाटा एंड संस की कमान सम्हाली तो इसका व्यवसाय कुल १४ एंटरप्राइजेज में सिमटा था और जब कम्पनी के चेयरमैन पद को छोड़ा तो तकरीबन ९५ एंटरप्राइजेज पर काम फ़ैल चुका था। जेआरडी टाटा ने टाइटन, वोल्टास, टाटा टी, टीसीएस, टाटा एयरलाइंस (एयर इंडिया), टाटा मोटर्स, टाटा कम्प्यूटर सेंटर, फार्मा, केमिकल्स, आदि कई सेक्टर्स में टाटा का काम फैला दिया।  

जेह (जेआरडी का प्यार का नाम) को महज एक सफल कारोबारी की तरह याद करना ज्यादती है। उनका व्यक्तित्व कहीं इससे बहुत आगे जाकर ठहरता है। जेह को ईश्वर ने एक सुखद बचपन दिया था और जेह जीवन भर अपनी कम्पनी और देश को एक परिवार की तरह देखते रहे। कम्पनी में उन्होंने जो श्रम-सुधार किये वे अपने समय से इतने आगे थे कि पूरे भारत में अभी वे सुधार पूरी तरह लागू नहीं हो सके हैं। सवेतन अवकाश (पेड लीव), कर्मचारी कल्याण योजना, एच. आर. विभाग, निश्चित काम के आठ घंटे, निःशुल्क कर्मचारी चिकित्सा, कर्मचारी प्रोविडेंट फंड, दुर्घटना भत्ता आदि सारे कदम तो ऐसे थे कि जब वे कम्पनी में लागू किये गए तो वे अमेरिका जैसे देशों के भी विधान में नहीं थे। उनकी कारपोरेट एथिक्स ऐसी थी कि करछूट की कोई योजना को अपनाना उन्हें पसंद नहीं था और देशसेवा के तर्क से वे अपने वकील तक को चुप करा देते थे। उनका हर वक्त ये कहना था कि कारपोरेट जगत को अपनी समृद्धि के हिसाब से देशसेवा व समाजसेवा में अपनी भूमिका बढ़ानी चाहिए। जेह के नेतृत्व में टाटा ने कई वैज्ञानिक, सामाजिक, कला आदि प्रक्रमों को बढ़ावा दिया। टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च, टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल, टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ़ एडवांस्ड साइंसेज, नेशनल सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स, फैमिली प्लानिंग फाउंडेशन आदि जैसे कई राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों की स्थापना, उनका सफल संचालन और उनका आधुनिक भारत के विकास में निर्विवादित योग,  जेआरडी की अपने देश के प्रति उत्कट सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती है।      

जेआरडी द्वारा स्थापित इंस्टीच्यूट ऑफ़ साइंस, बैंगलोर से १९७४ में कंप्यूटर साइंस से शोध पूरा करने के बाद एक मेधावी छात्रा सुधा कुलकर्णी जब अमेरिका में नौकरी करने की सोच रही थीं, तभी उन्होंने इंजीनियर्स जॉब के लिए अपने हॉस्टल की दीवार पर चिपका टेल्को (टाटा मोटर्स) का एक विज्ञापन देखा जिसमें स्पष्ट यह लिखा था कि महिला इंजीनियर आवेदन न करें। जेआरडी के नाम एक पोस्टकार्ड पर उन्होंने इस विज्ञापन का विरोध किया। दस दिन के भीतर टेलीग्राम आया और सुधा कुलकर्णी को साक्षात्कार के लिए बुला लिया गया। कम्पनी में काम करते हुए एक शाम जब वे घर जाने के लिए अपने पति का इंतजार कर रही थीं तो वहाँ से गुजरते हुए जेआरडी ने सुधा कुलकर्णी के साथ उनके पति की तबतक प्रतीक्षा की जबतक उनके पति आ नहीं गए। एक समय बाद जेआरडी ने सुधा के कम्पनी छोड़ने के निर्णय पर आशीर्वाद दिया और सुधा व उनके पति नारायणमूर्त्ति ने फिर इंफोसिस की नींव रखी। एक बेहद मशहूर किस्सा दिलीप कुमार का भी है जिसका जिक्र उनके जीवनीकार ने भी किया है । दिलीप कुमार अपने कैरियर के चरम पर थे और हवाई जहाज से सफर कर रहे थे। जहाँ सभी सहयात्री उनसे उनका हस्ताक्षर लेने को बेताब थे वहीं उनके साथ बैठा सहयात्री अप्रभावित हो अख़बार पढ़ रहा था तो कभी खिड़कियों से बादलों को निहार रहा था। दिलीप कुमार ने बात करने की कोशिश की और उस सहयात्री से सामान्य बातचीत हुई। उतरते वक्त दिलीप कुमार ने हाथ मिलाते हुए कहा कि- मेरा नाम दिलीप कुमार है। उस सहयात्री ने मुस्कुराते हुए कहा-मेरा नाम जेआरडी टाटा है। दिलीप कुमार कहते हैं कि अपने पूरे जीवन भर मुझे नम्र रहने की सीख मिली क्योंकि इस दुनिया में आपसे बड़ा कोई न कोई होता ही है। फ़्रांस ने जेह की उपलब्धियों पर जहाँ अपना सर्वोच्च सम्मान लीजियन ऑफ़ ऑनर प्रदान किया वहीं भारत में भी उन्हें ‘पद्म विभूषण’ के बाद ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया। १९९३ में अंतिम सांस लेने वाले जेआरडी टाटा कहते थे कि- भारत आर्थिक शक्ति बने इससे कहीं अधिक जरूरी है कि देश अपना खुशहाल बने। 

Monday, July 23, 2018

भारत में समान नागरिक संहिता की स्थिति तब तक नहीं बन सकती


साभार: दिल्ली की सेल्फी 

जटिल परतदार समस्याओं के समाधान भारतीय संविधान में नीति निदेशक तत्वों में रखे गए हैं। नीति निदेशक तत्व सरकार व समाज के लिए बाध्यकारी नहीं होते किन्तु उन तत्वों का नीति निदेशक तत्वों में होना यह बताता है कि वे तत्व संविधाननिर्माताओं के भविष्य के भारत में एक अनिवार्य तत्व के रूप में हैं, इसका सीधा मतलब यह है कि वे सभी तत्व जो नीति निदेशक तत्वों की श्रेणी में हैं, उन्हें भविष्य में कभी न कभी भारत की जमीनी हकीकत में उतारना ही है। उनमें से एक तत्व ‘समान नागरिक संहिता’ भी है।

आइये पहले समझते हैं कि क्या है यह ‘समान नागरिक संहिता’ ?
एक व्यक्ति के जीवन के कई आयाम होते हैं और वे सभी आयाम दूसरे व्यक्तियों को भी प्रभावित करते हैं। राजनीतिक जीवन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन में भी दायित्व और उत्तरदायित्व का तत्व राजनीतिक और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है जिससे अंततः किसी राष्ट्र का सर्वांगीण विकास संभव होता है। बहुधा दायित्व और कर्तव्य के मार्गदर्शन के लिए एक-दूसरे पर बनती निर्भरता अपनी भूमिका निभाती है, किन्तु दायित्व-निर्वहन के न होने की स्थति में अथवा न्यून होने की स्थिति में उत्तरदायित्व का प्रश्न खड़ा होता है। कानून द्वारा निर्धारित उत्तरदायित्व की जाँच-परख तो कानूनी रूप से संभव है किन्तु मानव जीवन के वे व्यवहार जो समाज और धर्म द्वारा सामान्यतः निर्धारित होते हैं, वहाँ कानून-व्यवस्था असहाय हो जाती है। यदि किसी उचित रीति से मानव-जीवन के मूलभूत व्यवहारों में ‘दायित्व और उत्तरदायित्व’ की एकरूप नीति बनाई जा सके, जिसके आधार पर कानून व्यवस्था भी उन व्यवहारों का मूलाधिकार व मानवीय आधार पर नियमन व निर्वहन करा सके, तो उस व्यवस्था को ‘समान नागरिक संहिता पर आधारित व्यवस्था’ कहेंगे।

समान नागरिक संहिता और धर्म का पेंच 
राजनीति की संस्थाओं का जन्म मानव-विकास की हालिया उपलब्धि है। इन संस्थाओं के जन्म के बहुत पहले यदि मानव विकास के रुपहले सोपान चढ़ सका तो उसमें ‘धर्म’ की भूमिका सबसे अहम् है। सभी प्रकार की आधुनिक राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक-आर्थिक आदि संस्थाओं के विकास के पहले का स्पेस ‘धर्म’ की विभिन्न संरचनाओं के द्वारा भरा गया। इसलिए ही मानव सभ्यताओं के विकास के प्रत्येक स्थलों पर धर्म की प्रभावी उपस्थिति मिलती है। धर्म के महत्त्व से किसी भी आधुनिक विचारक को इंकार नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म ने वह सभी शून्य भरे जहाँ विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र अब आधुनिक समय में कुशलतापूर्वक कार्यरत हैं। इसप्रकार से देखें तो आधुनिक समस्त उपलब्धियाँ विश्व के प्रत्येक धर्मों की ऋणी हैं, क्योंकि धर्मों के द्वारा बनाये गए प्रावधानों के क्रमशः सुधार का नाम ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान है। किसी एक भूगोल में रहने वाली मानव जाति अपने-अपने परिवेश की उत्तरजीविता (Survival) के अनुरूप जीवन के कतिपय अभ्यासों (Practices) को दोहराती है, जो कालांतर में परम्पराएँ, मूल्यों, रूढ़ियाँ, उत्सव, सभ्यताओं में बदलती हैं। एक अदृश्य आस्था धर्म बनकर इन सभी survival facts को जोड़े चलती है। विज्ञान के विकास ने विश्व के प्रत्येक भूगोल को परस्पर जोड़ दिया है। अब किसी राष्ट्र के भीतर इसलिए ही विभिन्न प्रकार के समाज मिलते हैं जो विभिन्न धर्मों को मानने वाले हो सकते हैं। विभिन्न धर्मों मानने सामाजिक-व्यवहार निश्चित ही भिन्न होगा। यहाँ किसी एक धर्म के व्यवहार को श्रेष्ठ अथवा निम्न नहीं कहा जा सकता क्योंकि सभी धर्म अपने-अपने भूगोल और उत्तरजीविता के तथ्यों से निर्मित हुए हैं। इसी के साथ ही आधुनिक राजनीति जब राज्य के भीतर रहने वाले समुदायों के सामाजिक-व्यवहारों के लिए ‘दायित्व व उत्तरदायित्व’ को तय करने की कोशिश करती है तो धर्म और राजनीति के मध्य एक द्वंद प्रारम्भ हो जाता है।

यहाँ यह सवाल भी मौजू है कि आखिर क्यों राज्य, धर्म के पारंपरिक स्कोप में दखल देना चाहता है? दरअसल, राज्य के चार मूलभूत अंग संप्रभुता (Sovereignty), जनता, सरकार और भू-भाग हैं। इन चारों अंगों को केवल ‘राष्ट्रीयता’ ही जोड़कर एक साथ रख सकती है। राष्ट्रीयता वह सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता है जिससे किसी एक निश्चित भू-भाग के व्यक्ति अपना जुड़ाव महसूस करते हैं। लेकिन व्यक्ति की सामाजिक-धार्मिक विभिन्नता अक्सर ‘संघर्ष’ की स्थिति पैदा करती है तथा यह विभिन्नता व्यक्ति के उस मौलिक अधिकारों के संरक्षण में भी आड़े आती है जिसकी बुनियाद पर राज्य व संविधान टिके होते हैं। यहीं राज्य, धर्म के परम्परागत क्षेत्र में प्रवेश करने को बाध्य हो जाता है। ‘आधुनिक विज्ञान व जीवन-शैली’ चूँकि एक आधुनिक राज्य के निश्चित तथ्य है तो राज्य की यह दखलंदाजी तर्कसंगत भी हो जाती है। संवैधानिक युग में ‘मौलिक अधिकार’ सार्वजनिक जीवन के सर्वोच्च मूल्य हैं, जिनका संरक्षण देश का सर्वोच्च न्यायालय स्वयं करता है।

पेंच कहाँ ?
कानून शून्य में नहीं बनते। उनके स्रोतों में मूल्य, अभिसमय, परम्पराएँ, धर्म भी हैं। इसलिए ही भारत का संविधान अपने नागरिकों को ‘धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार (Art. 25)’ भी देता है और यह भारत की राजनीति को ‘पंथनिरपेक्षता (Secularism)’ का स्वरुप भी देता है। इसलिए ‘समान नागरिक संहिता’ की स्थिति तबतक नहीं बन सकती जबतक भारत में रहने वाले सभी धार्मिक समुदायों में इसके लिए एक सर्वमान्य स्वीकृति न हो। सर्वमान्य स्वीकृति के लिए लगभग भारत में रहने वाले सभी धार्मिक समुदायों की ‘आधुनिक विज्ञान व जीवन-शैली’ के प्रति बराबर जागरूकता (जो कि उचित शिक्षा से सम्भव है ) और उनका एक सामान्य मानकीय जीवन स्तर (यह, आर्थिक विकास से सम्भव है) आवश्यक है। जिस देश ने शताब्दियों की टूट-फुट और गुलामी देखी हो, वहाँ इस प्रकार की प्रगति के लिए कुछ वक्त की दरकार होती है, इसलिए हमारे देश के संविधाननिर्माताओं ने ‘समान नागरिक संहिता’ को 1950 से ही लागू न कर उसे भविष्य के लिए ‘नीति-निदेशक तत्वों’ में डालकर छोड़ दिया। 

क्या हमारे देश में भी "समान नागरिक संहिता" लागू होनी चाहिए?
ऊपर के विश्लेषण के पश्चात् अब इस प्रश्न का एक वाक्य में उत्तर होगा कि यदि भारत में रहने वाले सभी धार्मिक समुदायों की ‘आधुनिक विज्ञान व जीवन-शैली’ के प्रति बराबर जागरूकता और उनका एक सामान्य मानकीय जीवन स्तर वर्तमान समय तक हो चुका हो तो यकीनन समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। सरकारी आंकड़ें ही बताते हैं कि ऐसी स्थिति से काफी दूर हैं, अभी हम। इस स्थिति के पहले यदि समान नागरिक संहिता को मुद्दा बनाया जाता है तो यह केवल ‘अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक वोटबैंक’ के लोभ में राजनीतिक दलों द्वारा फैलाया गया कोलाहल ही है।  


Monday, July 16, 2018

‘दौर-ए-दिखाऊ देशभक्ति’, देशप्रेमी या भ्रष्ट


साभार: दिल्ली की सेल्फी 
आजकल कुछ को देशद्रोही बताने के लिए स्वतः ही स्वयं को परम देशभक्त घोषित करने की परम्परा चली है। लोग उस छोटे भाई की तरह तात्कालिक लोभ में मझले भाई के विरोध पर उतर आये हैं जिसने अपने बड़े भाई के किसी गलत फैसले का महज विरोध कर दिया है। ‘देशभक्ति’ को ‘राष्ट्रवादी’ होना बताया जा रहा और इस साबुन से सारे कुकृत्य धुलकर लंबा गाढ़ा चन्दन लगाकर लोग भारत माता का जयकारा लगाकर सीना ताने ‘भारतीयता’ को ताक पर रख रहे। नारों, जुमलों, पोस्टरों, प्रोफाइल पिक्स और डीपी आदि की ‘दिखाऊ देशभक्ति’ को छोड़ दें तो किसकी रोजमर्रा की ज़िंदगी में ‘देश’ होता है? दिनभर के अपने फैसलों में कब ‘देश’ कसौटी बनता है कि कौन सोचता है कि मेरे किसी कदम से ‘देश’ को क्या नुकसान होगा या फायदा होगा! भ्रष्ट व्यक्तियों का तंत्र भ्रष्ट होता है। राज्य, कर वसूलती है और अपने नागरिकों की जरूरतों का पालन करती है। लेकिन नौकरीपेशा टैक्स बचाने के लिए सीए और वकील को जुगाड़ लगाने को कहता है। उद्योगपति, राजनीतिक दलों को चंदा दे उनसे अपने लिए छिपे-छिपे सहूलियतें बटोरते हैं और टैक्स से छूट जाते हैं, सो अलग। कितने तो कर देते ही नहीं। 

जब एक अध्यापक अपनी कक्षा में पढ़ाता नहीं तो यह एक प्रकार का भ्रष्टाचार है जो कत्तई एक देशभक्त नहीं कर सकता क्योंकि देश से प्रेम करने वाला अध्यापक देश की अगली पीढ़ी को अपाहिज नहीं बना सकता। देश, जिन छात्रों को आने वाले समय में एक महत्वपूर्ण मानव-संसाधन के रूप में तैयार होने की बाट जोहता है, उनका अपनी कक्षा में अनुपस्थित रहना देशभक्ति नहीं है। एक वकील, दूसरे पक्ष के वकील से मिलकर मामले को लम्बा खींचकर हर लगने वाली तारीख पर उस नागरिक से पैसा नहीं ऐठ सकता और अगर ऐठता है तो इस भ्रष्टता के साथ वह ‘देशभक्त’ नहीं हो सकता, क्योंकि जिस संविधान को पढ़कर वह आया है कचहरी में उसकी मूल भावना ‘समाज के आखिरी आदमी’ तक को छूती है। एक अधिकारी जरूर सबसे पहले उस दीन-हीन की बात को तवज्जो देगा जो उसके द्वार तक महीनों की कशमकश के बाद पहुँचा है, उनकी नहीं जिन्होंने उसकी शान में नमकीन काजू के प्लेट रखे हैं और अधिकारी के एक इशारे पर  करारे नोटों को न्यौछावर करने को तैयार बैठा है। काजू और करारे नोटों को सुनते हुए वह ‘देशभक्त’ नहीं बल्कि ‘दीमक’ बनकर देश को चाटने की फ़िराक में होता है। बंद कमरे में अपने वकील के साथ किसी धनपशु की टेर सुनते जज को भी हम देशभक्त नहीं कह सकते जो कल के अपने फैसले में किसी गरीब को उसकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर देगा।   

देशभक्ति वो भी नहीं ही जब कोई अपनी बालिग बिटिया को महज इसलिए मारकर पेड़ पर लटका देता है क्योंकि उसने अपनी जाति, धर्म से बाहर शादी कर ली थी क्योंकि यह उस बच्ची के संवैधानिक अधिकारों का हनन है। एक्सपायरी और महँगी दवा बेचते मेडिकल स्टोर, महँगा ईलाज बेचते डॉक्टर, अपना जमीर अपना कलम बेचते पत्रकार, टीवी एंकर, संपादक, चुप रहते या अन्याय के पक्ष में बोलते प्रोफ़ेसर, टैक्स चोरी करते, नकली सामान बेचते, मिलावट और जमाखोरी करते व्यवसायी, सब्जियाँ रंगते सब्जीवाले, चोरी करते दूकानदार, दलाली मांगते दफ्तरों के बाबू कोई भी देशभक्त नहीं हो सकता। भ्रष्ट कोई भी देशभक्त नहीं हो सकता, हाँ आजकल वह देशभक्ति पोत सकता है शकल पर और उसे ओढ़-बिछा सकता है। यह समझना होगा कि जैसे ही किसी क्षण विशेष में हमने किसी न्यायगत व्यवस्था से समझौता किया, कहीं न कहीं, किसी न किसी को देश में नुकसान पहुँचेगा और देश लोगों से ही बनता है। इंसान को, जानवर को, प्रकृति के किसी भी हिस्से को नुकसान पहुँचाते हुए आप ईश्वर की आरती नहीं कर सकते, यह निरा दोहरापन है, भ्रष्टता है। 

देशभक्ति के लिए पहले देश को समझना होगा। देश की प्रत्येक विभिन्नता और उसकी विशेषताओं को महसूस करना होगा। भारत की ‘अनेकता में एकता’ को समझे बिना हम देशप्रेमी नहीं हो सकते। मन के अनगिन विभाजन पाले हुए हम देशप्रेमी नहीं हो सकते। सारी रूढ़ियों को ढोते हुए हम देशप्रेमी नहीं हो सकते। अपनी परंपराओं पर उठने वाले वाजिब प्रश्न दबाते हुए हम देशप्रेमी नहीं हो सकते, उन्हें सुलझाते हुए और आधुनिकता से उचित का चयन करते हुए ही हम हो सकते हैं, देशप्रेमी। किसी एक दल, किसी एक महंथ, किसी एक मौलवी, किसी एक विचारधारा, किसी एक व्यक्ति का अंधसमर्थक होते हुए हम अपने देश की नींव में मट्ठा डाल रहे होते हैं और हमें पता भी नहीं होता। देश का व्यक्तित्व किसी एक व्यक्ति से नहीं बनता, वह नागरिकों के समूचे व्यक्तित्व का योग होता है। इसलिए देशप्रेमी होने के लिए हमें देश की उस ‘समूचे व्यक्तित्व’ को समझना होगा और उसके अनुरूप ही अपनी मानसिकता दुरुस्त रखनी होगी।  

Saturday, July 14, 2018

सियाह औ सुफ़ैद से कहीं अधिक है नवलेखन पुरस्कार-2017 से सम्मानित कृति सियाहत

साभार: जानकीपुल 


(आलोक रंजन की किताब ‘सियाहत ’)



आज की दुनिया, आज का समाज उतने में ही उठक-बैठक कर रहा जितनी मोहलत उसे उसका बाजार दे रहा। यह तीखा सा सच स्वीकारने के लिए आपको कोई अलग से मार्क्सवादी अथवा पूँजीवादी होने की जरुरत नहीं है बस, अपने स्वाभाविक दोहरेपन को तनिक विश्राम दे ईमानदार बन महसूस करना है। इस बाजारवाद ने एक निर्मम उतावलापन दिया है और दी है हमें बेशर्म कभी पूरी न होने वाली हवस। बाजार के चाबुक पर जितनी दौड़ हम लगाते हैं उतना ही पूंजीपति घुड़सवार को मुनाफा होता है। वह इस मुनाफे से अकादमिकी सहित सबकुछ खरीदते हुए क्वालिटी लाइफ़ के मायनों में ‘वस्तु-संग्रह की अंतहीन प्रेरणा’ ठूंस देता है और हम कब बाजार के टट्टू बन गए, यह हमें भान ही नहीं होता। इस दौड़ में है नहीं,  तो दो पल ठहरकर हवा का स्वाद लेने का सुकून। सुकून का ठहराव नहीं है तो हम जल्दी-जल्दी सबकुछ समझ लेना चाहते हैं। यह हड़बड़ी भीतर ‘सरलीकरण की प्रवृत्ति’ पैदा कर देती है। अपने-अपने ‘सरलीकरण’ से इतर जो कुछ भी दिखाई देता है उसे हम नकारना शुरू कर देते हैं और सहसा हम असहिष्णु बन तो जाते हैं, पर यह भी कहाँ स्वीकार कर पाते हैं ! सरलीकरण की छटपटाहट हमें रीटोरिकल, स्टीरियोटिपिकल बनाती है। हड़बड़ी में हममें से अधिकांश मानने लगते हैं कि इतिहास माने कहानी, राजनीति माने साजिश, दर्शन माने पागलपन, मनोविज्ञान माने पागलों का अध्ययन, साहित्य माने कविता, कहानी आदि, आदि। इसी छटपटाहट में किसी कृतिविशेष को पढ़ने में व्यक्ति-विशेष को एक ऐसी असुविधा होती है जो वह व्यक्त नहीं कर पाता और कृतिविशेष का सार फिसल जाता है। उसे समझ ही नहीं आता कि किसी कविता में इतिहासप्रसंग कहाँ से आ गया, कि किसी कहानी में मनोविज्ञान कैसे घुस गया, कि किसी यात्रावृत्तांत में राजनीति क्या कर रही है, कि किसी उपन्यास में दर्शन का क्या काम, आदि, आदि। आलोक अपनी पहली ही पुस्तक से इस स्टीरियोटिपिकल मानसिकता पर घना चोट करते हैं। किताब के पहले अध्याय में ही राजनीतिक-सामाजिक-मनोवैज्ञानिक ‘अस्मिता-विमर्श’ के दर्शन करा देते हैं और यह यकीन मानिये एक लेखक के तौर पर उनके सजग, संबद्ध, प्रतिबद्ध, संजीदा होने का पाठकीय संतोष दे जाता है। आलोक की ‘सियाहत’ एक लेखक की समूची अभिव्यक्ति है फिर वह फॉर्मेट की परवाह नहीं करता, विधा की चिंता नहीं करता, वह सबकुछ दर्ज करता चलता है ईमानदारी से। सही भी है आखिर सियाहत (यात्रा) जो शुरू हुई तो मन की सियाहत को भी तो स्याही मिले। फिर यात्रा शुरू हो जाती है, पृष्ठसंख्या पर ध्यान नहीं जाता और पुस्तक के अंत में आयी चित्रवीथि आ जाती है इस अंतर्भूत संदेश के साथ कि -यात्राएँ ख़त्म नहीं होतीं !

नवलेखन पुरस्कार-2017 में उद्बोधन 

कोई कृत्रिमता नहीं, लेखक लगातार बौद्धिक संवाद में है, यात्रा के लगभग सभी दृश्यों में वह सजग है और न अपना बिहारी भदेसपना छोड़ता है और न ही अपनी अध्यापकीय  वृत्ति। उसकी व्यक्तिगत मनोदशा का भी भान जबतब होता है, खासकर बिंब-आयोजना में, नहीं तो प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना वह रेगिस्तान के रेत के सौंदर्य से क्यों करता। यही साफगोई, लेखक और पाठक में कोई पर्दादारी नहीं रहने देती। लेखक को लाखों-लाखों का बना देती है। इस सियाहत के पन्ने अलग-अलग रखें जाएँ तो साहित्य की कई विधाएँ अपना-अपना दावा ठोकेंगी पर मूलतः है यह यात्रावृत्तांत ही। लेखक अपने अनुभवों के एक त्रिकोण में काम कर रहा है जिसके तीन कोण हैं:  सहरसा, दिल्ली और नेरियामंगलम।  अधिकांश पृष्ठों में ये तीनों कोण अपना-अपना हिस्सा अभिव्यक्त कर ही लेते हैं। यह खूबी आलोक की कलम को प्रवाह देती है। यात्रावृत्तांत में लेखक अपने मेज के स्थिरतल पर स्थिर नहीं होता, केवल कल्पनाएँ मददगार नहीं होतीं, महज बिंबों से बानगी नहीं आती, उसे लिखने के लिए हर पल, यात्रा के प्रत्येक पल में फिर-फिर यात्रा करनी होती है; इस जरूरी बौद्धिक थकन से फिर निकलती है- सियाहत। आलोक के लिए यह यात्रा किसी जहमत की तरह नहीं है बाकि एक रूहानी खब्त है जो कभी  किसी तरह ऊपर जाया जाय के रूप में आती है तो कभी चिलचिलाती धूप में साठ किमी की साईकिल पैडलमार यात्रा पर भेजती है, कभी सुदूर संपर्कविहीन मुतुवान आदिवासियों के बीच ले जाती है तो कभी लता-प्रतान सहारे चढ़-चढ़कर माड़म (वृक्ष आवास) में रहने को उकसाती है, वट्टावड़ा के उस गाँव में बीस-पच्चीस सेकेण्ड में जीवन का अब तक का सबसे बड़ा भय महसूस कराने के बावजूद वापसी में उसी जगह पर रूककर हरिणों को देखने का साहस देती है और फिर विष्णु नागर जी द्वारा उद्धृत तथ्य लें तो एक अध्यापक ने अपने पैसे खरच यह सियाहत पूरी की है। आलोक के भीतर का यह खब्त प्रथम तो उन्हें एक उम्दा यात्री बनाता है फिर उनका अनुशीलन एक अर्थपूर्ण यात्रावृत्तांत की पृष्ठभूमि बना देता है। 

सियाहत के भीतर सतत संवादों का एक सेतु बनता है। सेतु के दोनों ओर दो नगर बसते हैं जो अपनी-अपनी हनक में बहुत ही कम संवाद करते रहे हैं; उत्तर भारत और दक्षिण भारत। एक खांटी उत्तर भारतीय ठेठ दक्षिण में जा पहुँचता है। अपनी ही रौं का अलमस्त बिहारी केरल के कच्चे सौंदर्य में जा पहुँचता है। ‘नाद तक चांप, घुघनी, गनगना, एकपैरिया आदि’ शब्द-युग्मों के साथ आलोक के कथ्य में जहाँ अल्हड बिहारीपना मौजूद है वहीं वह दक्षिण के बिंब उसकी उसी महक में पिरोना नहीं भूलते। काजू के पके फल की महक, लेमनग्रास, हरी इलायची, लौंग, काली मिर्च, केले के पत्ते, नारियल, पदीमुखम की छाल, चंदन, झरना, खड़े पहाड़ों की मोटी भाँप, चाय बागान, स्ट्राबेरी के खेत, बारिश, तीखी धूप से मन तक जलना, ठंडे जंगल, रंगीन गिलहरी, रंगीन घर, हाथी, जोंक, भालू ये सभी मिलकर सियाहत का समवेत बिंब गढ़ते हैं।  यह बिहारी सूर्यलंका में पहली बार समुद्र देखते हुए बाज न आते हुए लहरों के समानांतर दौड़ते-दौड़ते दूर निकल  आता है और रोकते पुलिस वालों से भाषा के बहाने बच आता है तो बिट्ठल परिसर में पचास रूपये देकर महामंडप पर चढ़कर प्रतिबंधित हिस्से में जाने का रोमांच ले लेता है या फिर साठ किमी की साईकिल यात्रा के बाद भालू अभ्यारण में साईकिल के प्रतिबंधित होने पर रोकते अभ्यारणकर्मी की ही स्कूटी जुगाड़ लेता है।  सियाहत में दो पृथक परंपरा में पनपे बिंबों का संवाद है, दो पृथक ऐतिहासिक धाराओं का प्रयाग है, दो सामाजिकताओं, दो संस्कृतियों, दो प्राथमिकताओं, दो सामानांतर पल रहे वर्तमानों का विंध्यांचल है, सियाहत; इसलिए ही इसका पाठ महती का है। इसके पाठ का एक वितान अनेकता में एकता को तथ्यतः रेखांकित करता है तो दूसरा एकराट की भव्य संकल्पना का यथार्थिक निर्वहन करता है।  


खानपान, संस्कृति का एक बेहद महत्वपूर्ण आयाम है। लेखक की यात्रा में जहाँ कहीं भी भोजन के प्रसंग हैं, वे विस्तार में इसी हेतु हैं। बहुधा भोजन, लेखक के जीभ पर चढ़े स्वाद के अनुरूप नहीं है पर खिलाने वालों के भाव से ही लेखक को भोजन में रूचि बढ़ जाती है। यह कितनी महत्वपूर्ण बात है कि अक्सर हम उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीयों और अन्य राज्यवासियों के स्वाद की कोई परवाह ही नहीं करते, बल्कि यह भी विनोद का ही विषय हो जाता है। लेखक ने उचित ही लिखा है- आपको दूसरों की भिन्नताओं का सम्मान करना होता है।  आदिवासियों के गाँव तेरा में भी लेखक ने अधिक भाव ही ग्रहण किया जब सुगु की माँ सबको ठीक उसी तरह परोस रही थीं जैसे तीन हजार किमी दूर लेखक की माँ सबको परोसती हैं और अंत में खुद खाती हैं। 


यहाँ जो भी रंग है- गहरा है !



आलोक जब इस वाक्य से सियाहत की शुरुआत करते हैं तो पाठक को पता चल जाता है कि यह गहरे पानी पैठे के शब्द हैं। पुस्तक के पहले ही अध्याय में वे क्रूर सोने का रूपक रचते हैं और सचेत कर देते हैं कि इस गहरे रंग वाले देश में कितना कुछ छिछला भी है। जगह-जगह झरनों वाले देश में वे पानी की सियाहत पर जिज्ञासा कर बैठते हैं और पूछ उठते हैं- क्या कोई यात्रा कभी समाप्त होती है? लिखते हैं कि- कितनी अजीब बात है, झरने भी मनुष्यों की तरह होते हैं। जो छोटा-वो अकेला।  दिवाकरन के खेतों से गुजरते हुए लेखक में मानवीय संवेदना जब खेतों के चारो तरफ बिजली प्रवाहित होते लोहे के तार देखती है तो एक तरफ मनुष्य जीवन तो दुसरी तरफ पशु जीवन के चयन का ‘धर्म-संकट’ पर लेखनी चलती है। यह अजीब-सा दुर्भाग्य है कि हम वही नहीं करते जो पास हो और जिसे आसानी से किया जा सकता है। इस वाक्य में लिपटे संदेश की ग्राह्यता से ओतप्रोत आलोक ‘ज्यू टाउन’ पहुँचते हैं और हैरान होते हैं कि ज्यू टाउन में यहूदी बचे ही कितने है -महज पाँच या शायद तीन ही। यात्रा, इतिहास और राजनीति की शुरू हो जाती है फिर और लेखक की फिलिस्तीन के प्रति संवदना के लिए संस्थान के अधिकारियों के सम्मुख दिए गए स्पष्टीकरण तक जाती है। वह चर्चा रोचक है जिसमें लेखक यहूदी वृद्धा सारा से मिलता है और बिहार से आया जानकर सारा एक क्रम में पहले, ‘अभी उनके पास काम नहीं है’ और फिर ‘मै भूखा तो नहीं हूँ ?’ के बिंदु पर लेखक से जुड़ती हैं। इस एक सरल प्रसंग से बिहार और केरल की आधुनिक आवाजाही आलोक स्पष्ट कर देते हैं। 



सरकारी छुट्टियों और रविवारों में निकाली गयी गुंजाइशों के बीच की खब्त की निशानी है-सियाहत। आलोक लिखते हैं- वैसे रविवार का दिन मूलतः कल्पना का ही दिन है। किसी महान कवि के बारे में कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन एक रविवार ही होता होगा। आलोक यहाँ बोर्गेस की तरह सोचते हैं जिन्हें ‘स्वर्ग एक पुस्तकालय’ प्रतीत होता है। अगला ही अध्याय एक महान कवि पर है जो इस पुस्तक के कुछ महत्वपूर्ण अध्यायों में से है- ओ. एन. वी. ! जो देखते हैं आलोक वहाँ तो इस प्रश्न से जूझते हैं कि- एक कवि की पहुँच कितनी हो सकती है! चौंकते हैं कि- बाजार कबसे कवि को स्वीकार करने लगा।  इस अध्याय के आखिर में आलोक उस तथ्य तक पहुँच भी जाते हैं जहाँ से उन्हें अपने प्रश्न का माकूल जवाब मिल जाता है। त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी की बस यात्रा करते हुए लेखक को सीट को लेकर वही झगड़ा, वही तनातनी दिखी जो उसे राप्तीसागर एक्सप्रेस के इरोड स्टेशन पर रुकने पर ट्रेन की सीट पाने को लेकर दिखी और जो उत्तर भारतीय सार्वजनिक परिवहन का भी सामान्य प्रसंग है। लेखक के स्थान से बमुश्किल पांच किमी की दूरी पर हुए दर्दनाक भूस्खलन पर लेखक की छटपटाहट दिखती है जो उसे भाषा संबंधी सीमाओं पर बेबस बनाती है पर चिंता की अपनी भाषा पढ़ने में वह नहीं चूकता। यहाँ, एक बड़े उल्लेखनीय तथ्य का जिक्र आलोक करते हैं जिसमें वह दिखाते हैं आमतौर पर किसी प्राकृतिक आपदा के होने पर महज रस्मी समझी जाने वाली राजनीतिक यात्राएँ दरअसल किस तरह मानवीय जिजीविषा को सहारा दे उनसे उबरने में मदद देती हैं बशर्ते वे संजीदा हों और समय से हों। केरल के मुख्यमंत्री की वह विजिट अचानक ही आपदास्थल में व्याप्त डर के ऊपर अपना असर बना लेती है और जनबल सामान्य हो उठता है। आगे के पृष्ठों में अपने परिवेश की खोजखबर लेते हुए आलोक धर्म के समाजीकरण की प्रकिया पर कलम चलाते हैं। उनका कहना है कि भारत में प्रचलित सभी धर्मों का भारतीयकरण हो चूका है। अलग-अलग रिचुअल्स भले हैं पर उनकी अभिव्यक्ति लगभग एक जैसी ही है। यहीं, भाषा पर स्थानीयता के प्रभाव की भी चर्चा है जब लेखक बिहारी नसीर की भाषा में अपनी भाषा की स्वभाविकताएँ छूटते देखता है और उसमें मलयाली नोशन्स पाता है। आलोक स्वीकार करते हैं कि हमारे यहाँ धर्म का जैसा समाजीकरण किया गया है वह धार्मिक असहिष्णुता जगाता है। व्यक्ति के विकास में उचित शिक्षा व माहौल की क्या भूमिका है, लेखक के इस आत्मकथ्य से स्पष्ट है: ...धीरे-धीरे यही प्राथमिक समाजीकरण पुख्ता होकर इतना गहरा हो जाता है कि अपने धर्म से इतर धर्म वाले के प्रति इंतहाई नफरत भर जाती है। शुक्र है इस कदर कट्टर बनने से पहले ही मेरे दूसरे समाजीकरण ने काम करना शुरू कर दिया। अंततः इस निष्कर्ष के साथ आलोक अध्याय समाप्त करते हैं कि- धर्म का स्वरुप बहुत हद तक उसके मानने वालों की संख्या और उनके स्थानीय चरित्र पर निर्भर करता है।


रामक्कलमेड़ की उस ऊँचीं छोटी पर आलोक 


इस कदर अपने जगह की खिड़की पर घोंसला बनाते मैना युगल को देखकर चहचहाता लेखक फिर रामक्कलमेड़ की उस ऊँचीं छोटी पर रामायण के राष्ट्रीय महत्त्व को महसूसता है। राष्ट्रीयता का ही महत्त्व समझते हुए लेखक द्वारा कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा कराने वाली हिमसागर एक्सप्रेस की यात्रा को बेहद जरूरी कहा जाता है और फिर राप्तीसागर एक्सप्रेस से अपनी एर्णाकुलम-लखनऊ यात्रा पर उत्साह प्रकट किया जाता है। इस रेलयात्रा में कई प्रसंग आते हैं पर राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया के जरूरी अंग के रूप में ‘शिक्षा और सेवा प्रक्रिया में राष्ट्रगत स्थानांतरण का महत्त्व’, ‘शिक्षाव्यय के मद में सरकार का पुराना और उदासीन रवैया’, ‘खुले में शौच की समस्या के मूल में आयगत असमानता, ‘एक महिला अध्यापक की राजनीतिक अशिक्षा’, ‘महिलाओं के लिए देश भर में व्याप्त असुरक्षा’ विषय बेहद जबरदस्त ढंग से उठाये गए हैं। इस अध्याय का अंत भी तनिक मार्मिक है जब लेखक यह सोचकर ट्रेन से उतरते हैं कि ट्रेन के स्टेशन पर रुकने भर के समय में साथी अध्यापकों व बच्चों से मिल लिया जाये पर आलोक लिखते हैं - मुझे ‘लाइफ ऑफ़ पाई’ फिल्म का अंत याद आ गया जहाँ बाघ ने जंगल में जाने से पहले पाई की ओर पलटकर देखा तक नहीं ! ऐसा ही शून्य लेखक को अपनी एक हवाई यात्रा में भी महसूस होता है जब एक अजनबी सहयात्री लेखक से एक साहित्यिक किताब मांग बैठती है और बहुत दिनों बाद जब डाक से वह किताब वापस आती है तो उसमें औपचारिक संदेश भी नहीं होता। सभ्यता ने सोख ली है हमारी संवेदना। एयरपोर्ट पर लेखक को भी उस स्थिति से गुजरना पड़ता है जो अब भारत के लगभग हर रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन पर आम है। हैरान-परेशान सा कोई आपसे मदद मांगता है, वह समझाना चाहता है कि दुनिया भर की सारी मुसीबतें उसके साथ इकट्ठी हो गयीं हैं और अंततः लोग उसकी मदद कर देते हैं; ज़ाहिर है अपने संवेदनशील लेखक ने भी मदद कर दी और उचित तर्क गढ़ लिख दिए हैं। अपनी लेपाक्षी की यात्रा में लेखक को स्थापत्य के अद्भुत नमूने के अलावा जो कुछ याद रहा वह महज पचास रूपये की आस में दिनभर चरखा चलाने वाली वृद्धा, जिसके बेटे-बहु बंगलौर में रहते हैं और सिलबट्टे का वह लोढ़ा जो लेखक के सर से लगभग दुगुना बड़ा रहा होगा। 

सियाहत का अगर कोई ऐसा अध्याय है जहाँ लेखक आलोक अपनी लेखकीय प्रतिभा के शिखर पर हैं तो वह ‘उदास खड़े खँडहर’ अध्याय है। 1964 में आये चक्रवाती तूफान ने देखते-देखते ही अचानक धनुष्कोटि की बसावट को लील लिया था। यकीनन, इसे पढ़कर किसी भी संवेदनशील पाठक के रोयें खड़े हो जायेंगे। बात बिंब की हो, प्रवाह की हो, संवेदना की हो, शब्दचयन की हो, शब्दचित्रांकन की हो, सब कुछ उम्दा : 


नीले समंदर पर रुई जैसे सफ़ेद बादलों वाला आकाश। वहाँ किसी दीवार के साये में खड़े होकर या फिर टूटे हुए मंदिर में धूप से बचने के लिए बैठे हुए कुत्ते को देखकर कई बार यह ख्याल आता है कि यहाँ भी ठीक वही दुनिया रही होगी जहाँ से हम आते हैं। उतनी ही हँसी और आँसू रहे होंगे। किसी ओर से मछलियाँ पकड़ी जा रही होंगी और किसी घर से मछली पकने की महक आ रही होगी। 

पर अभी तो बस अंदाजे हैं। ....... वहाँ चहलकदमी करते हुए एक अपराधबोध लगातार मेरे साथ बना रहा कि, जाने अनजाने मै उन यादों के ऊपर से गुजर रहा हूँ जो कभी एक भरा-पूरा वर्तमान था। 


अध्याय ‘मुतुवान के बीच’ सियाहत के  रोमांच का चरम है। जब लेखक आदिवासी सुगु के गाँव तेरा पहुँचते हैं जिस गाँव से बाकी केरल का संपर्क लगभग नगण्य है। कोई भी साधारण यात्री न तो इसे एक अवसर के रूप में देखता और न ही कोई पाठक, लेखक की गतिविधियों को साधारण कह सकेगा जो उसने उस ग्राम-प्रवास में कीं। पहाड़ों के बीच झील में तैरना, लताओं-प्रतानों के सहारे माड़म पर पहुँचना और रात गुजारना, शहद शहद की खोज में निकलना, सबसे ऊँची चोटी के लिए जाना, साही के काँटें चुनना, त्वचा पर हल्की ठंडक महसूस कर जोंक हटाना, चाड़-अम्बम-बिल्ल खेल का हिस्सा होना, आदिवासी लोगों का लेखक के लिए गाना और नृत्य करना, लेखक का मैथली के दो लोकगीत सुनाना और फिर अंततः गाँव के कई लोगों का दूर नदी तक छोड़ने आना। पहाड़ की उस चोटी से जो सुन्दर अलौकिक दृश्य लेखक ने निहारा, उसने लेखक को उस शानदार शब्द-युग्म को सिरजने की प्रेरणा दी जिसका जिक्र प्रोफ़ेसर अजय तिवारी जी ने भी किया था- ‘सौंदर्य का प्रलय प्रवाह’ ! आलोक बेहिचक बताते हैं कि केरल सरकार के दावों के विपरीत इस गाँव में कोई बिजली नहीं है अलबत्ता पहली बार फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प, फोन कॉल्स और इंटरनेट की अनुपलब्धता में स्वयं को काफी समय तक असुविधा महसूस हुई। हम, कितने घिर गए हैं इन सबके बीच, जिनका अभी हमारे बचपन तक नामोनिशान नहीं था। बकौल आलोक - एक जीवन जिसके हम आदी होते हैं और एक जीवन जिसके हम आदी नहीं होते हैं दोनों जब एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो अजीब उबाऊ समय खड़ा हो जाता है। यह इसी गाँव से होकर लिखना संभव था कि- हम तीनों झरने के पानी में बिस्किट भिगोकर खाने लगे।  एक हमारी सभ्य सामाजिकता जिसमें एक अदद शुक्रिया के लिए व्यक्ति मोहताज हो जाये, एक वह सुगु का गाँव जहाँ हर एक शख्स लेखक से मिलना चाहे। इसी सामाजिकता से सुगु ने ऊपर आंवले के पेड़ से सारे आंवले नहीं तोड़े थे कि और भूखा आये तो उसे खाने को मिले। आज की नाकारी शिक्षा जिसमें व्यावहारिक सहज बुद्धि के लिए अवकाश ही शेष नहीं कि सुगु जैसे आदिवासी विद्यार्थी का वन्य कौशल उसमें अपनी साख बना सके। 


आख़िरी अध्याय ‘इतिहास का उत्तर’, इतिहास, भूगोल, समाज तीनों की यात्रा समेटे हुए है। आपाधापी वाला बंगलौर घूमते हुए होसपेट जाने की योजना बनती है। हम्पी का विजयनगरम देखने की मंशा है। विरुपाक्ष मंदिर के दर्शन के बाद सूर्योदय का दृश्य मनोहारी है किन्तु देख कौन रहा है, दृश्य तो कैमरे के फ्रेम भर सहेजे जा रहे। बहुत कम लोग थे जो किसी योगी की भाँति उस सौंदर्य को आत्मसात कर रहे थे।  बिट्ठल मंदिर के उस परिसर को देखते हुए लेखक इतिहास और वर्तमान का अंतर कुछ यों दर्ज करते हैं: इतिहास में जब वह रथ बन रहा होगा तब बनाने वालों को जरा भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि वहाँ तक सबका प्रवेश इतना सुलभ हो जायेगा कि देशी तो देशी विदेशी भी कुछ रुपल्ली का टिकट लेकर रथ को धक्का लगाने आ जाएँगे ! इस सियाहत ने लेखक को तीन जर्मन दोस्त भी दिए जहाँ भाषा संकट पर एक अनामंत्रित की तरह लेखक प्रविष्ट हुआ पर अपनी सहज व्यक्तित्व से सर्वमान्य सर्वस्वीकार्य हो गया। इस  भारत-जर्मनी मैत्री ने साथ-साथ केवल धमाल ही नहीं मचाये अपितु जाने कितने ही विषयों पर लगातार सक्रिय विमर्श भी जारी रहा। किताब की शुरुआत में जहाँ लेखक भारत के राज्यों के बीच विमर्श करते हैं वहीं इस अध्याय में वह भारतीय प्रतिनिधि बनकर जर्मन नागरिकों से विमर्श में आ जुटते हैं। अजनबी बच्चों का लेखक से तुरत ही घुलता मिलता देख उनके जर्मन दोस्त बेहद हतप्रभ होते हैं। एक प्रश्न आलोक यहाँ उन जर्मन लोगों से करते हैं जिसपर उनमें एक लम्बी चुप्पी छा गयी और दरअसल जिसका जवाब पश्चिमी संस्कृति के सापेक्ष भारतीय संस्कृति की उदात्तता में है : तुम्हारे देश में जहाँ अपराध का दर भारत के मुकाबले इतना कम है वहाँ लोग अपने ही लोगों पर विश्वास क्यों नहीं करते? जबकि हम बच्चों के प्रति बढ़ती हिंसा के बावजूद एक दूसरे पर सामान्यतया विश्वास करते हैं। हतप्रभ तो उनके जर्मन दोस्त इसबात पर भी होते हैं कि आखिर आलोक ने अभी तक उनसे हिटलर के बारे में पूछा क्यों नहीं। उचित शिक्षा और माहौल में रचा-पगा लेखक जानता है कि जर्मन लोगों से हिटलर के बारे में पूछना क्या निहितार्थ निकालता है। उनके यह पूछने पर कि आखिर भारतीय हिटलर में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं? यह संवाद अवश्य उल्लेखनीय है :


_____वह इसलिए कि वह हमारे दुश्मन का दुश्मन था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के एक नेता सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से मदद माँग चुके थे और हिटलर ने मदद का वादा भी किया था। बोस की आजाद हिन्द फौज का गठन ही जर्मनी में हुआ था। इसलिए भारतीय हिटलर को एक मददगार के रूप में देखते थे। आज भी भारत में हिटलर की आत्मकथा बहुत पढ़ी जाती है। …!

_____तो अब तो भारतीयों को समझना चाहिए न कि हिटलर ने मानवता को कितना नुकसान पहुँचाया …. ! 

_____मैडम, भारत ऐसा देश है जहाँ आजकल गाँधी को स्थापित करने की जरुरत पड़ रही है। रूढ़िवादी शक्तियाँ राजनीति और इतिहास को अलग तरह से परिभाषित कर रही हैं इसमें हिटलर और गाँधी की हत्या करने वाला नाथूराम सम्मानित किये जा रहे हैं। नाथूराम का तो बाकायदा मंदिर बनाने का प्रयास किया गया। 

_____व्हाट नॉनसेंस ! इयान उत्तेजित हो गया। 



रूढ़िवादी शक्तियाँ लगभग पुरे विश्व में फिरसे अपनी जड़ें जमा रही हैं, यह स्पष्ट हुआ जब उन्होंने अपने एक प्रदेश बवारिया का उदहारण दिया जहाँ के नागरिक कुछ भी नया स्वीकार नहीं करते। 

एक सुरुचिपूर्ण लेखक के तौर पर आलोक कुछ यकीनन बेहतरीन बिंब और रूपक गढ़ सके हैं, जिन्हें सियाहत के ज़िक्र के साथ-साथ याद किया जायेगा। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं:


हरियाली के उस गहरे अनुभव को स्पर्श करने की तमन्ना मन को इस पत्ते से उस पत्ते पर चिपका रही थी। 
नदी को मोटे-मोटे हरे कंबलों ने ढँक रखा था।
शरीर के ऊपर से पानी के लगातार गुजरने से त्वचा के ऊपर पानी धड़क रहा था। नदी की जमीन को हमेशा ऐसा ही महसूस होता होगा।
सुबह के सपनों को हल्की ठंडक झकझोरती है फिर पायताने से कब की नीचे गिर चुकी चादर याद आती है और शुरू होती है सपनों को वापस पकड़ने की दौड़। 
खेतों के टुकड़े यूँ कटे हुए थे मानों बच्चों ने खेल-खेल में ढेर सारे ब्रेड के टुकड़े करीने से बिछा दिए हों फिर उसपर हरी-हरी चटनी डाल रखी हो। खेतों में खड़े नारियल और केले के पेड़ ऊपर से ब्रेड पर बिछाई चटनी की परत जैसे लग रहे थे। 
मै वहाँ से गिरता तो यकीनन तमिलनाडु में ही लेकिन जीवित नहीं बचता। 
वे बूँदें सीधे मन पर गिर रही थीं और मन तृप्त हो रहा था। 
आकाश में सफ़ेद बादल के बड़े बड़े थक्के थे। 
मुख्य सड़क से जब हम नीचे उतरे तो टायरों के नीचे से सड़क के बजाय सड़कनुमा कोई चीज गुजर रही थी। 
आइये हमारे धान के खेतों के बीच से गुजरकर, महसूस होगा कि कहीं से आये हैं। मन महमह कर उठेगा। 
पेड़ों के नीचे चलते हुए लग रहा था कि किसी हरी सुरंग में चले जा रहे हों। 


सियाहत एक रौं में की गयी यात्राप्रसंगों पर आधारित नहीं है। इसलिए इसके लेखन में भौतिक यात्रा और मानसिक यात्रा के प्रसंग बेतरतीब पैबस्त हैं। इसमें लेकिन पाठक को सजग रहना पड़ता है कि कब लेखक दक्षिण से सहसा दिल्ली या सहरसा पहुँच जाये। अध्यायों का क्रम भी एक आयोजना में नहीं है। सभी अध्यायों को जोड़ने वाली कड़ी मौजूद नहीं है जो कम से कम एक यात्रावृत्तांत की नितांत विशेषता है। रोचकता की दृष्टि से देखें तो पुस्तक के मध्य भाग को पढ़ना पड़ता है, जबकि आख़िरी हिस्सा कब खत्म होता है पता ही नहीं चलता और शुरुआत में रोचकता अपनी गरिमा में है। एक-दो जगह टंकण त्रुटि दिखी, कहीं-कहीं वाक्य संरचना में लेखक की आंचलिकता के भी दर्शन हुए यदि उसे व्याकरणिक लिंगविधान त्रुटि न कहें तो। क्या ही अच्छा होता जो चित्र रंगीन होते और उससे भी अधिक अच्छा होता यदि विषय अनुरूप बीच-बीच में आते। 

कुल मिलाकर आलोक की यह कृति कहीं से भी उनके पहली पुस्तक होने का अंदाजा नहीं लगने देती। जिसप्रकार उन्होंने इस यात्रावृत्तांत में दर्शन, इतिहास, राजनीति, साहित्य की संगीति बिठाई है वह खासा आकर्षक है। भाषा सहज है और स्थान-स्थान के शब्दों ने उसमें अपनी जगह पायी है। आलोक ने इस यात्रावृत्तांत में कमोबेश सभी अन्य विधाओं के भी सरोकार निभाए हैं, जो उन्हें भविष्य का सम्भावनाशील साहित्यकार बनाती है।  

Saturday, July 7, 2018

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों

हकीकत: 1964 

 डॉ.श्रीश पाठक 

दो-दो भयानक महायुद्धों वाली शताब्दी अपने छठे दशक में पहुँच रही थी। शीत युद्ध की लू चल रही थी जरूर,  पर लगता था कि विश्व अब वैश्विक विनाश की ओर फिर नहीं  बढ़ेगा। दुनिया के कई देश आज़ादी की हवा का स्वाद चख रहे थे और स्वयं को इस दुविधा में पा रहे थे कि लोकतंत्र के नारे के साथ ब्रितानी विरासत ढोते अमेरिका के कैम्प में जगह बनाई जाय अथवा समाजवाद के नारे के साथ मोटाते सोवियत रूस का दामन पकड़ा जाए। ऐसे में एक तीसरे सम्मानजनक विकल्प के साथ सद्यस्वतंत्र राष्ट्र भारत सज्ज हो कह रहा था कि साथ मिलकर एक नवीन राजनीतिक-आर्थिक वैश्विक क्रम की स्थापना सम्भव है। इस विकल्प में किसी भी कैम्प में जुड़ने की बाध्यता नहीं थी, कोई प्रायोजित शत्रुता मोल लेने की आवश्यकता नहीं थी और सबसे बड़ी बात दोनों ही कैम्प के देशों के साथ सहयोग और विकास का जरिया खुला हुआ था। एक ऐसा समय जब लग रहा था कि भारत का कुशल नेतृत्व विश्व में शांति और समानता स्थापित करने में एक प्रमुख कारण बन सकता है। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता दुनिया में नए स्तर को स्पर्श कर रही थी तो सहसा हिंदी के भाई चीनी ने भारत पर अकारण ही आक्रमण कर दिया।  

आज़ादी के साथ ही विभाजन का दंश झेलने के बाद फिर उसी साल पाकिस्तान से युद्ध में भारत ने जीत हासिल की थी। साठ का दशक आते-आते प्रधानमंत्री सहित समूचे राजनीतिक नेतृत्व एवं सेना का मनोबल अपने चरम पर था। विदेश नीति में एक भौगोलिक रूप से इतने बड़े पड़ोसी चीन का महत्त्व नेहरू नज़रअंदाज नहीं कर सकते थे तो उन्होंने चीन की वैश्विक पटल पर हर संभव मदद की, संयुक्त राष्ट्र के स्थाई सुरक्षा परिषद में सदस्यता तक को अनुमोदित किया । लेकिन शांतिप्रिय गाँधी के देश को युद्धप्रिय माओ के देश ने आख़िरकार धोखा दे ही दिया। देश ने आज़ादी के बाद का पहला और आख़िरी पराजय देखा। नेहरू चल बसे। बागडोर गाँधीवादी लालबहादुर शास्त्री के हाथों में आयी जो ‘जय जवान, जय किसान’ के प्रभावी नारे के साथ एक तरफ सीमा-सुरक्षा को लेकर चौकस थे वहीं देशव्यापी अनाज संकट से उन दिनों जूझ रहे थे। पराजित जर्मनी को तानाशाह हिटलर मिला तो उसने दूसरे बड़े महायुद्ध की पृष्ठभूमि लिख दी; अपने देश भारत ने अधूरी तैयारियों के साथ ही सही लोकतंत्र का हाथ थामा था और संयोग से सादगी की प्रतिमूर्ति शास्त्री जी देश की बागडोर सम्हाल रहे थे, जिन्होंने 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए दूसरे युद्ध में भारत को विजयश्री दिला ही दी। लेकिन चीन से हार के बाद देश का माहौल दैन्यभाव से भरा था। आज़ाद भारत पराजय का दाग लेकर नहीं जी सकता था। 

इसी बीच निर्देशक चेतन आनंद के नए-नवेले प्रोडक्शन हाउस हिमालया फिल्म्स ने चीनी-आक्रमण त्रासदी के एक नेपथ्य घटना को आधार बनाते हुए 1964 में जो फिल्म बनाई वह भारतीय सिने-इतिहास की पहली यथार्थपरक युद्ध फिल्म बनी: हकीकत। इस फिल्म को मानो एक अंडरटोन संदेश के लिए बनाया गया था। उस संदेश को निबाहने वाला पात्र था- एक छोटा लद्दाखी लड़का-सोनम। फिल्म के दूसरे पात्रों को निभाने वाले ढेरों कलाकारों  के असल नाम मिल जाते हैं पर इस छोटे से लड़के का पात्र किसने निभाया, उस बालकलाकार का नाम मुझे नहीं मिला। इसे क्या कहें, इससे बालकलाकारों के प्रति हमारी उदासीनता का परिचय मिलता है। सोनम, लद्दाख की खूबसूरत वादी में रहता है अपनी बहन अनग्मो और अपनी माँ के साथ। फ़ौज में शामिल होने की उसकी मंशा है सो कैप्टन बहादुर सिंह के साथ ड्रिल की ट्रेनिंग लेता है। भारतीय सेना चीनी आक्रमण में पीछे आने को मजबूर हुई थी तो उसी आलोक में निर्देशक ने कप्तान बहादुर सिंह से , सोनम को  बुजदिली के खिलाफ पाठ पढ़ाता दिखाया है। चीनी आक्रमण के साथ ही जब भारतीय चौकियाँ एक के बाद एक चीनी गिरफ्त में आने लगती हैं तो सोनम अपनी बहन अनग्मो के साथ कैप्टन बहादुर सिंह की चौकी को सेना की एक सूचना देने पहुँचता है। अपनी बहन अनग्मो और कैप्टन बहादुर सिंह सहित भारतीय जवानों की मार्मिक शहादत देखने के बाद भी फिल्म के आख़िरी दृश्य में जब वह ब्रिगेडियर सिंह को सलामी देता है तो उस सलामी में वह वही सन्देश देता है जिसकी जरुरत भारत की आम अवाम को चीनी हार के बाद थी और वो ये कि हम मर्माहत हैं पर बुजदिल नहीं है और अगली किसी नयी चुनौती के लिए पीढ़ियाँ तैयार है। 

पंजाब सरकार के सहयोग से बनाई गयी फिल्म को लिखा चेतन आनंद ने ही। फिल्म हकीकत, जवाहरलाल नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए शुरू होती है और इसका नाम हकीकत, उस वक्त भारत-चीन युद्ध के सन्दर्भ में फैले जाने कितने अपवादों के जवाब की तरह थी। लद्दाख के जैसे दृश्य चेतन ने शूट किये हैं वह भी एक युद्ध फिल्म के लिए; यह वाकई जबरदस्त बात है कि इतने लॉजिस्टिक के साथ यह सब कैसे संभव किया होगा उन्होंने उस समय और मन में ख्याल भी आता है कि काश ये दृश्य रंगीन फ्रेम में होते। लाहौर में जन्में चेतन आंनद, कांग्रेस में सक्रिय रहे फिर बीबीसी में काम किया और फिर दून विद्यालय में अध्यापकी की। सिविल की परीक्षा पास नहीं कर पाए फिर अंततः मायानगरी का दामन पकड़ लिया और पहली ही बॉल पर बाउंड्री लगा दी। अपनी पहली फिल्म नीचानगर से भारतीय सिनेजगत को गौरवान्वित कर दिया जब इस फिल्म को 1946 में फ़्रांस के प्रतिष्ठित केन्स समारोह में उत्कृष्ट फिल्म का पुरस्कार मिला। गुलाम मुल्क के एक निर्देशक के लिए यह यकीनन बड़ी बात थी। 

हकीकत फिल्म में मुख्य भूमिका में थे मशहूर बलराज साहनी, विजय आनंद, संजय खान, जयंत, सुधीर, बमुश्किल दस फिल्मों में काम कर चुके धर्मेंद्र और इस फिल्म से आगाज करने वालीं शिमला में पैदा हुईं और लन्दन में पली-बढ़ी, बेहद खूबसूरत प्रिया राजवंश। प्रिया, असल ज़िंदगी में चेतन आनंद की प्रेमिका रहीं और अपनी सारी फ़िल्में उन्होंने फिर चेतन के साथ ही कीं। फिर चेतन की पत्नी के उनसे अलग होने पर वे उनके साथ रहने भी लगीं थीं। प्रिया, फिल्म में सोनम की बहन अनग्मो बनी हैं जिससे धर्मेंद्र प्रेम करते हैं। इनका प्रेम परवान चढ़ पाता कि चीनी सीमा पर आ चढ़ते हैं।  इस त्रासदी में ‘युद्धों में प्रायः स्वाभाविक बलात्कार’ की शिकार होती है, अनग्मो लेकिन अपनी जिजीविषा से फिर उठकर कुछ चीनियों को मारकर ही मरती है। प्रिया अपनी असल ज़िंदगी में भी त्रासदी की शिकार हुईं जब चेतन आनंद के बेटों ने ही उनकी सन 2000 में हत्या कर दी। 

यह फिल्म युद्ध से अधिक युद्ध की मनोदशा पर है। कुछ बहुत शानदार बिंब निर्देशक ने रचे हैं जो दर्शक को झिंझोड़ देते हैं। कैसे बलराज साहनी के किरदार को जीवन में प्रेम नसीब नहीं होता, उसकी अंगूठी दो-दो बार ठुकरा दी जाती है। पहाड़ियों के बीच फंसे भारतीय सैनिक कैसे पहाड़ की ऊंचाइयों से होते हुए लौटते हैं और उनका कप्तान बलराज साहनी दिवाली साथ मनाने की बात करता है। एक सैनिक जब अपने जुराबें उतारता है तो पैर के धब्बे यों ही देखे नहीं जा सकते थे जैसे चीनी हार के बाद भारतीय मनोदशा असहनीय हो जाती है। एक सैनिक घर से आयी मिठाई बाँटने को जब उद्यत होता है तो उसमें से मिटटी निकलती है। साथी सैनिक उसपर हँस ही रहे होते हैं कि तबतक उसकी पत्नी के लिखे खत में कुछ ऐसा होता है कि सब लाजवाब हो जाते हैं। उसकी पत्नी ने अपनी घर की क्यारी की मिटटी के साथ सैनिक के पसंदीदा फूलों के बीज भेजे हैं ताकि वह उन्हें यहाँ बर्फीले रेगिस्तान में उगा सके। फूल उगते हैं और आगे के दृश्यों में चीनी उसे फेंकते दिखाई देते हैं। बलराज साहनी का अभिनय तो है ही भावप्रवण, इस श्वेत-श्याम फिल्म में सजीले जवान धर्मेंद्र अलग ही जंचते हैं। उनकी भूमिका बहुत चुनौतीपूर्ण तो नहीं पर क्लाइमेक्स उन्हीं के हिस्से आता है, जिसमें वो ‘कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों’ गीत के साथ विदा लेते हैं।  फिल्म का एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष था कला निर्देशन और प्रतिभाशाली एम. एस. सत्यू को इसी फिल्म ने दिलाया था फिल्मफेयर बेस्ट आर्ट डायरेक्शन अवार्ड। 

हकीकत की आत्मा उसके गीत-संगीत में बसती है। चूँकि यह फिल्म एक मनोवैज्ञानिक दबाव को लगातार अभिव्यक्त करती है तो इसके गीतों में और संगीत में वह कशिश होनी थी जिससे उस पूरे मंजर को जतलाया जा सके। कैफ़ी आजमी साहब जब अपनी कलम चलाएं और मदन मोहन उसे धुन से सजाएँ तो यह अद्भुत समां बधना ही था।  डेढ़ दशक फिल्मों में गीत लिखते बिता चुके और अपने दौर के उम्दा अज़ीम शायर कैफ़ी साहब ने जो हर्फ़ इस्तेमाल किये हैं उन्हें सुनकर रौंगटें खड़े हो जाते हैं। मदन मोहन की धुनें अपने समय से आगे की थीं। उनके संगीत में विश्व संगीत और भारतीय संगीत का मधुर संयोग मिलता है। इराक के शहर इरबिल में पैदा हुए मदन मोहन कौल का बचपन मध्य एशिया में गुजरा था। अपनी जवानी के दिन मनमोहन फौज में बिता चुके थे तो वह उनका अनुभव धुन बनकर सैनिकों के इस फिल्म हक़ीक़त के गानों में महकता भी है। मदनमोहन जी का समय संगीत में बेहद कड़े प्रतिस्पर्धा का था और उन दिनों अपने-अपने बैनर के चुने हुए संगीतकार होते थे। ऐसे में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वीर जारा में उनकी कुछ प्रयोग में नहीं आईं धुनें उनके बेटे संजीव कोहली ने प्रयोग कीं और नयी पीढ़ी ने नए इंस्ट्रूमेंट्स में मदन मोहन का जादू महसूस किया। लता जी भी मानती हैं कि उस वक्त मदन मोहन जी की धुनों को गाने में मशक्कत करनी होती थी।
  
फिल्म का पहला गाना विजय आंनद पर फिल्माया गया है। ‘मस्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का’, आजमी साहब के लफ्ज और मनमोहन जी की धुन में मोहम्मद रफ़ी कमाल ढा रहे हैं। रफ़ी साहब बिलकुल मस्ती में हैं। वे ‘तराना’, ‘खजाना’ लफ़्ज़ों में ‘ना’ को कुछ वैसे ही लहराकर गाते हैं जैसे दो साल पहले आयी फिल्म ‘दिल तेरा दीवाना’ के शीर्षक गीत में ‘दीवाना’ लफ्ज़ में ना को छेड़ते हैं मस्ती में। रफ़ी साहब ताजा आवारा हवा के झोंकों जैसी आवाज के मालिक थे और मदन मोहन ने उस रवानी से ही इसे उनसे गवाया भी। कैफ़ी आजमी के लिखे इस गाने की कुछ पंक्तियाँ पढ़ आप भी मुस्कुरा उठेंगे:
‘मुखड़े से जुल्फ जरा सरकाउंगा, सुलझेगा प्यार उलझ मै जाऊँगा
पाके भी हाय बहुत पछताऊंगा, ऐसा सुकून कहाँ फिर पाऊंगा।’ 

कैफ़ी साहब ने अपनी कैफ़ियत के शबाब पर हैं जब हक़ीक़त का यह गाना लिखते हैं। फिर इसमें मदन मोहन साहब ने अपने समय के शीर्ष तीन बड़े पार्श्वगायकों से एकसाथ गवाया है। रफ़ी साहब, मन्ना डे, तलत अजीज के साथ अभिनेता भूपिंदर ने भी इसमें स्वर दिया है।  

“होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा
होके मजबूर...

भूपिंदर: दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क़ आँखों ने पिये और न बहाए होंगे
बन्द कमरे में जो खत मेरे जलाए होंगे
एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

रफ़ी: उसने घबराके नज़र लाख बचाई होगी
दिल की लुटती हुई दुनिया नज़र आई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा
होके मजबूर...

तलत: छेड़ की बात पे अरमाँ मचल आए होंगे
ग़म दिखावे की हँसी ने न छुपाए होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आए होंगे - (२)
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

मन्ना डे: ज़ुल्फ़ ज़िद करके किसी ने जो बनाई होगी
और भी ग़म की घटा मुखड़े पे छाई होगी
बिजली नज़रों ने कई दिन न गिराई होगी
रँग चहरे पे कई रोज़ न आया होगा
होके मजबूर…”


यों तो कैफ़ी साहब के ही लिखे तीन गानों को मदन मोहन जी ने लताजी से गवाया है और वे गाने दर्द, बिछोह, बेबसी और इंतज़ार को संजीदा तरीके से प्रकट भी करते हैं पर असल महफ़िल लूटी है रफ़ी साहब ने ही। यह फिल्म कभी न भुलाई जा सकेगी जिस गाने के लिए वो गाना है इस फिल्म का आख़िरी गीत। ‘कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों’ गीत की पृष्ठभूमि युद्धस्थल है। लाशों के ढेर दिखाई पड़ रहे। सोनम, अपने प्रिय कैप्टन बहादुर सिंह और अपनी प्यारी बहन अनग्मो की लाशें देखकर तड़पकर चिल्लाता है और फिर यह रौंगटें खड़े कर देने वाला यह गाना शुरू होता है। यह गाना 1964 से लेकर आजतक देशभक्ति के गानों में सबसे अलहदे पायदान पर है और हमेशा रहेगा। 1965 की लड़ाई में हुई फ़तह बताती है कि संदेश सफल रहा। एक-एक भारतीय जवान, दस-दस चीनी मारकर अब इस दुनिया से यह कहते हुए रुखसत हो रहे हैं:

“कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने के रुत रोज़ आती नहीं
हस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे
वह जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

आज धरती बनी है दुलहन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

राह कुर्बानियों की न वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नए काफ़िले
फतह का जश्न इस जश्न‍ के बाद है
ज़िंदगी मौत से मिल रही है गले

बांध लो अपने सर से कफ़न साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूँ से ज़मी पर लकीर
इस तरफ आने पाए न रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छू न पाए सीता का दामन कोई
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियो

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो!”

फिल्म यकीनन एक शानदार आख्यान है उस चीनी त्रासदी के समय उत्पन्न हुई मानसिक संत्रास का। बिम्ब सीधे मस्तिष्क में पहुँच झिंझोड़ते हैं। संदेश, स्पष्ट और प्रभावकारी है। फिल्म एकदम यथार्थ महसूस कराती है क्योंकि ज्यादातर शूटिंग लद्दाख में ही हुई। कहना होगा कि कहीं न कहीं फिल्म अनावश्यक धीरे हुई है, लेकिन 1964 के हिसाब से यह स्वाभाविक लगता है। दरअसल, महज एक फिल्म की तरह इसे नहीं देखा जा सकता। यह उस वक्त की कॉमन सोशल साइकी को कैथार्सिस का मौका देती है। उस समय फ़िल्में इकलौती दृश्य मनोरंजन माध्यम हैं जो उपलब्ध हैं तो बेहद असरकारी भी हैं। इस फिल्म के कई दृश्यों को देखकर सहज ही उनका विकास बाद की भारतीय युद्ध फिल्मों के दृश्यों व घटनाक्रमों में दिखाई पड़ता है। 

कश्मीरी कशमकश: नेपथ्य कथ्य

साभार: गंभीर समाचार 


जम्मू एवं कश्मीर के मायने सबके लिए एक नहीं हैं। सबकी अपनी-अपनी नज़र है और अपनी-अपनी समझ। इन सबके अपने-अपने नारे हैं और सब अपने-अपने सवालों के साथ हैं। इतिहास में आपस में लड़ते अध्याय हैं। राजनीति विरोधाभासी माँगों के जायज़-नाजायज़ होने में उलझी है। भूगोल इन सबसे बेखबर पर्यावरण की चुनौतियों को खामोशी से सह रहा। अर्थशास्त्र उस हिसाब में है कि केंद्र ने कश्मीर और जम्मू को कितना भेजा। लोक प्रशासन दफ्तर की फाइलों में हुए विकास और जमीन पर हुए विकास का अंतर मन मसोस स्वीकार कर रहा। शिक्षा, इस राज्य में अपना कोई लक्ष्य ही नियत नहीं कर पा रही। विज्ञान महज उन्हें उपलब्ध है जिनकी पहचान कश्मीरी तो है पर आबोहवा किसी मेट्रो शहर की है। दर्शन में कश्मीरीयत है पर उसकी मकबूलियत कश्मीरी नहीं है। साहित्य और भाषा के अपने संकट हैं, लिखे जा रहे तो पढ़े नहीं जा रहे, पढ़े जा रहे तो समझे नहीं जा रहे, समझे जा रहे तो फिर बोले नहीं जा रहे, बहसें एकतरफ़ा हैं लोग लामबंद हैं। 

जो जम्मू है वह कश्मीर नहीं है। लद्दाख अपनी साख अलग ही छिपाए बैठा है। चीड़, चिनार, देवदार आपसे में बात नहीं कर रहे। झेलम, चिनाब, सिंधु, तवी एक-दूसरे के दुखों से अनजान हैं। पाकिस्तान और चीन एक-एक हिस्सा अपने पास दबाये बैठे हैं। मुंबई के लिए जो कश्मीर है वही दिल्ली के लिए नहीं है। और तो कितने शहरों के लिए कश्मीर महज एक खबर है जो चौबीस घंटे अनसुनी सी चलती रहती है। भारत के आम अवाम के लिए यह राज्य देशभक्ति और राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट है। भाजपा को यहाँ धारा 370 की याद आती है तो कांग्रेस को यहाँ महज अल्पसंख्यक याद आते हैं। 

कश्मीर को लेकर कश्मीरी नेता भी ईमानदार नहीं हैं। भविष्य की कोई रुपरेखा नहीं, बस राजनीतिक लाभ की सियासत। मुस्लिम दिल्ली से नाराज हैं कि वह केवल दमन की भाषा जानती है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के साथ हुए ज्यादतियों के बारे में उनकी युवा पीढ़ी न केवल अनभिज्ञ है बल्कि इसे लेकर उनके मन में किसी गलती का भाव भी नहीं है। मुस्लिम समाज ने कश्मीरी पंडितों से वार्ता और सामंजस्य का कोई उदाहरण भी पेश नहीं किया है और एक सर्वमान्य हल के रूप में उनके पास कोई सकारात्मक योजना भी नहीं है। कश्मीरी पंडित, दिल्ली से खफा होते हैं कि उनकी सुधि कोई नहीं लेता। सत्ता जब पक्ष में हो तो सामंजस्य की कोशिशों का सर्वाधिक महत्त्व होता है। आगे बढ़कर कश्मीरियत के लिए इनके प्रयास भी नगण्य ही हैं। प्रतिकार की राजनीति दलों को लाभ देती है लेकिन समाज को तो तोड़ती ही है। ये दोनों कौमें अपनी भावी पीढ़ियों को वही सब कुछ विरासत में देने वाली हैं जो इन्हें मिला हुआ है। इतिहास किसी के लिए भी कुछ अधिक टेसुएँ नहीं बहायेगा। कमोबेश उन्हीं जुमलों और तर्कों से भाजपा ने पीडीपी के साथ हाथ मिलाकर कश्मीर में सरकार बनाई थी जिनका हवाला देकर तीन साल बाद गठबंधन तोड़ा है। हिंसा इन तीन सालों में अधिक बढ़ी ही और शांति के तर्क से दमन के कुछ तरीकों को पूरी बेशर्मी के साथ जायज़ करार देने की कोशिशें भी हुईं। शांति के लिए कौन लड़ रहा इस समय कश्मीर में कहना मुश्किल है। क्या राजनीतिक दल, क्या मुस्लिम, क्या हिन्दू, क्या युवा, क्या बुजुर्ग, क्या सेना क्या समाज। सभी बस डटे हुए हैं अपनी-अपनी शैली में दिशाहीन।  

कश्मीर को लेकर हर एक की जवाबदेही है, कुछ ज़िम्मेदारी है। देश की स्वतंत्रता के बाद एक बड़ी चुनौती राष्ट्र-निर्माण की थी, जो अभी भी पूरी नहीं हुई है। राष्ट्र-निर्माण महज एक सरकारी मिशन नहीं है। नागरिक समाज की भी इसमें भूमिका है। अलग-अलग संस्कृतियों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में उनका अपना निजी स्पेस देकर ही बांधा जा सकता है, कहीं न कहीं ऐसी कोशिशें असफल हुई हैं। शिक्षा व्यवस्था ने भारत के आम-अवाम को कश्मीर के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के बारे में कोई व्यापक समझ नहीं दी है। कश्मीरी सरकारों ने भी देश के दूसरे राज्यों से अपनी सरोकारिता कितनी निभायी है। दिल्ली, कश्मीर में महज चुनाव करवाकर लोकतंत्र की लाज बचाती रही है। पाकिस्तान और भारत के हुक्मरान अपनी-अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए जीते-जागते कश्मीर को महज एक खौलता मुद्दा बनाते रहे । राजनीतिक दल केवल सत्ता की ओर ताकते रहे। सारे कश्मीरी गुट इसमें अपना-अपना सियासी हिस्सा तलाशते रहे। देश तब तो एकजुट होकर साथ देने को उद्यत हो जाता है जब भारत-पाकिस्तान युद्ध में उतरते हैं, भले ही वह मैदान खेल का हो, लेकिन रोजमर्रा के वारदातों पर लगाम लगाने की कोशिशों पर देश का अवाम दिल्ली पर एकजुट होकर दबाव नहीं बनाता। देश का अवाम अपने केंद्र सरकार से जम्मू-कश्मीर के स्कूलों, अस्पतालों, खेतों, बागों, घरों, महिलाओं, बच्चों, बेरोजगारों, बुजुर्गों की हिफाजत पर सवाल नहीं पूछता। अवाम, सेना की ज्यादतियों पर उसीतरह आँख फेर लेती है जिसतरह कश्मीर पत्थरबाजों पर। एक राज्य है भारत का जम्मू व कश्मीर, जिसमें जिंदा कौमें रहती हैं, जिनकी जिंदगी जहन्नुम बनती है तो यह सवाल बनकर भारत के प्रत्येक नागरिक के गले में अटकता क्यों नहीं?

जो महज अख़बार और टीवी के पक्षपातपूर्ण रपटों से इतर जम्मू और कश्मीर को जानने की मंशा हो, देश से प्यार जो समूचा हो, जो समझते हों कि देश महज राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत, तिरंगा और अशोक चक्र नहीं, कि देश महज नदी, पहाड़, जंगल, सड़क, नहर नहीं, कि देश महज शहर, कारखाना, मॉल नहीं, बल्कि देश सबसे पहले उसके नागरिकों से बनता है, आप और हम ही देश को बनाते हैं तो यह समझना भी आसान नहीं कि ‘कश्मीर हमारा है’ से अधिक महत्वपूर्ण नारा ‘कश्मीरी हमारे हैं’ है और अपनों से पेश आने की एक तहजीब होती है। जैसे ही ‘जम्मू व कश्मीर’ टीवी, अख़बार से निकलकर एक जीता-जागता समुदाय महसूस होगा तो फिर तुरत ही समझ आएगा कि कश्मीर के राजनीतिक धड़े, राजनीतिक दल और भाजपा-कांग्रेस महज चुनाव की तैयारी कर रहे हैं और अपने-अपने वोटबैंक सहेजने की कोशिश में हैं। इन्हें प्यार महज सत्ता से है क्योंकि कश्मीर इनके लिए राज्य न होकर महज एक मुद्दा है, जिसे जिन्दा रखना जरूरी है भले ही कश्मीर एक जिन्दा लाश बना रहे। ये यूँ इसलिए हैं क्योंकि हम, भारत के लोग सवाल नहीं कर रहे, क्योंकि सही और गलत की पड़ताल किये बिना हम अपना वोट जाया कर रहे, क्योंकि हमें इतिहास, भूगोल और राजनीति बकवास लगते हैं, क्योंकि हमने अपनी अगली पीढ़ी का मकान और मुकाम अमेरिका और यूरोप में तलाशना शुरू कर दिया है।   

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