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Monday, July 16, 2018

‘दौर-ए-दिखाऊ देशभक्ति’, देशप्रेमी या भ्रष्ट


साभार: दिल्ली की सेल्फी 
आजकल कुछ को देशद्रोही बताने के लिए स्वतः ही स्वयं को परम देशभक्त घोषित करने की परम्परा चली है। लोग उस छोटे भाई की तरह तात्कालिक लोभ में मझले भाई के विरोध पर उतर आये हैं जिसने अपने बड़े भाई के किसी गलत फैसले का महज विरोध कर दिया है। ‘देशभक्ति’ को ‘राष्ट्रवादी’ होना बताया जा रहा और इस साबुन से सारे कुकृत्य धुलकर लंबा गाढ़ा चन्दन लगाकर लोग भारत माता का जयकारा लगाकर सीना ताने ‘भारतीयता’ को ताक पर रख रहे। नारों, जुमलों, पोस्टरों, प्रोफाइल पिक्स और डीपी आदि की ‘दिखाऊ देशभक्ति’ को छोड़ दें तो किसकी रोजमर्रा की ज़िंदगी में ‘देश’ होता है? दिनभर के अपने फैसलों में कब ‘देश’ कसौटी बनता है कि कौन सोचता है कि मेरे किसी कदम से ‘देश’ को क्या नुकसान होगा या फायदा होगा! भ्रष्ट व्यक्तियों का तंत्र भ्रष्ट होता है। राज्य, कर वसूलती है और अपने नागरिकों की जरूरतों का पालन करती है। लेकिन नौकरीपेशा टैक्स बचाने के लिए सीए और वकील को जुगाड़ लगाने को कहता है। उद्योगपति, राजनीतिक दलों को चंदा दे उनसे अपने लिए छिपे-छिपे सहूलियतें बटोरते हैं और टैक्स से छूट जाते हैं, सो अलग। कितने तो कर देते ही नहीं। 

जब एक अध्यापक अपनी कक्षा में पढ़ाता नहीं तो यह एक प्रकार का भ्रष्टाचार है जो कत्तई एक देशभक्त नहीं कर सकता क्योंकि देश से प्रेम करने वाला अध्यापक देश की अगली पीढ़ी को अपाहिज नहीं बना सकता। देश, जिन छात्रों को आने वाले समय में एक महत्वपूर्ण मानव-संसाधन के रूप में तैयार होने की बाट जोहता है, उनका अपनी कक्षा में अनुपस्थित रहना देशभक्ति नहीं है। एक वकील, दूसरे पक्ष के वकील से मिलकर मामले को लम्बा खींचकर हर लगने वाली तारीख पर उस नागरिक से पैसा नहीं ऐठ सकता और अगर ऐठता है तो इस भ्रष्टता के साथ वह ‘देशभक्त’ नहीं हो सकता, क्योंकि जिस संविधान को पढ़कर वह आया है कचहरी में उसकी मूल भावना ‘समाज के आखिरी आदमी’ तक को छूती है। एक अधिकारी जरूर सबसे पहले उस दीन-हीन की बात को तवज्जो देगा जो उसके द्वार तक महीनों की कशमकश के बाद पहुँचा है, उनकी नहीं जिन्होंने उसकी शान में नमकीन काजू के प्लेट रखे हैं और अधिकारी के एक इशारे पर  करारे नोटों को न्यौछावर करने को तैयार बैठा है। काजू और करारे नोटों को सुनते हुए वह ‘देशभक्त’ नहीं बल्कि ‘दीमक’ बनकर देश को चाटने की फ़िराक में होता है। बंद कमरे में अपने वकील के साथ किसी धनपशु की टेर सुनते जज को भी हम देशभक्त नहीं कह सकते जो कल के अपने फैसले में किसी गरीब को उसकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर देगा।   

देशभक्ति वो भी नहीं ही जब कोई अपनी बालिग बिटिया को महज इसलिए मारकर पेड़ पर लटका देता है क्योंकि उसने अपनी जाति, धर्म से बाहर शादी कर ली थी क्योंकि यह उस बच्ची के संवैधानिक अधिकारों का हनन है। एक्सपायरी और महँगी दवा बेचते मेडिकल स्टोर, महँगा ईलाज बेचते डॉक्टर, अपना जमीर अपना कलम बेचते पत्रकार, टीवी एंकर, संपादक, चुप रहते या अन्याय के पक्ष में बोलते प्रोफ़ेसर, टैक्स चोरी करते, नकली सामान बेचते, मिलावट और जमाखोरी करते व्यवसायी, सब्जियाँ रंगते सब्जीवाले, चोरी करते दूकानदार, दलाली मांगते दफ्तरों के बाबू कोई भी देशभक्त नहीं हो सकता। भ्रष्ट कोई भी देशभक्त नहीं हो सकता, हाँ आजकल वह देशभक्ति पोत सकता है शकल पर और उसे ओढ़-बिछा सकता है। यह समझना होगा कि जैसे ही किसी क्षण विशेष में हमने किसी न्यायगत व्यवस्था से समझौता किया, कहीं न कहीं, किसी न किसी को देश में नुकसान पहुँचेगा और देश लोगों से ही बनता है। इंसान को, जानवर को, प्रकृति के किसी भी हिस्से को नुकसान पहुँचाते हुए आप ईश्वर की आरती नहीं कर सकते, यह निरा दोहरापन है, भ्रष्टता है। 

देशभक्ति के लिए पहले देश को समझना होगा। देश की प्रत्येक विभिन्नता और उसकी विशेषताओं को महसूस करना होगा। भारत की ‘अनेकता में एकता’ को समझे बिना हम देशप्रेमी नहीं हो सकते। मन के अनगिन विभाजन पाले हुए हम देशप्रेमी नहीं हो सकते। सारी रूढ़ियों को ढोते हुए हम देशप्रेमी नहीं हो सकते। अपनी परंपराओं पर उठने वाले वाजिब प्रश्न दबाते हुए हम देशप्रेमी नहीं हो सकते, उन्हें सुलझाते हुए और आधुनिकता से उचित का चयन करते हुए ही हम हो सकते हैं, देशप्रेमी। किसी एक दल, किसी एक महंथ, किसी एक मौलवी, किसी एक विचारधारा, किसी एक व्यक्ति का अंधसमर्थक होते हुए हम अपने देश की नींव में मट्ठा डाल रहे होते हैं और हमें पता भी नहीं होता। देश का व्यक्तित्व किसी एक व्यक्ति से नहीं बनता, वह नागरिकों के समूचे व्यक्तित्व का योग होता है। इसलिए देशप्रेमी होने के लिए हमें देश की उस ‘समूचे व्यक्तित्व’ को समझना होगा और उसके अनुरूप ही अपनी मानसिकता दुरुस्त रखनी होगी।  

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