लल्लनटॉप पर
दुनिया में सबसे जियादा लोग यहीं बसते हैं। बाकी सभी महाद्वीपों के सभी लोगों को जोड़ भी लें तो कम है। दुनिया कारोबारी हो गयी है और एशिया उन्हें बाजार दिखता है। अमीर देशों के कारोबारी और ज़ियादा मुनाफे की हवस में एशिया आते हैं ताकि उन्हें सस्ते में स्किल वाले मजदूर मिलें। इस चक्कर में विकसित देशों ने एशिया में पैसा लगाया, फैक्टरियाँ लगाईं और जिन एशियाई देशों ने वक्त की नब्ज पकड़ी उन्होंने और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करके इस मौके का फायदा उठाया। एशिया में पुराने बाबा तो हैं ही, यूरोप से सटा रूस है, मालदार जापान है और अब उभरता भारत है और चकल्लस चीन है। विश्व -राजनीति में शक्ति वही नहीं होती जो हथियार और सेना से उपजती है, जोसेफ नाई के अनुसार हार्ड पावर के साथ सॉफ्ट पावर भी होता है जो कल्चरल चीजों से हर जगह, जगह बना लेता है। डांस, गाना, त्यौहार, खाना, भेष, साहित्य, फिल्म, आदि से पकड़ और मजबूत हो जाती है, इसके साथ ही अगर सेना भी मजबूत हो, हथियार नए-नवेले हों तो फिर तो धाक जम ही जाती है। सिंगापूर, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड जैसे देशों ने ग्लोबलाईजेशन का फायदा उठाया, चीन और भारत ने अपने कल्चरल माल का इस्तेमाल तो किया ही, न्यूक्लियर, सेना, हथियार और उत्पादन पर भी अच्छी प्रगति की। रूस को 1991 में अपनी सोवियत रूस की पहचान गंवानी तो पड़ी पर अपने प्राकृतिक खजानों और काबिल नेतृत्व के बल पर एक बार फिर विश्वराजनीति में हलचल पैदा करने लायक स्थिति में पहुँच गया है। दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम से नेस्तनाबूत होने के बाद जापान ने शांति और समृद्धि की राह चुनी और देखते देखते ही यह दुनिया का दूसरा मालदार देश बन बैठा है। मध्य-पूर्व एशिया में तेल की खोज हो जाने से वहाँ लूटमार शुरू हुई पर कुछ देशों जैसे युएई, सऊदी अरब, क़तर, ईरान आदि ने अपनी धाकड़ जगह जमा ली।
दुनिया में सबसे जियादा लोग यहीं बसते हैं। बाकी सभी महाद्वीपों के सभी लोगों को जोड़ भी लें तो कम है। दुनिया कारोबारी हो गयी है और एशिया उन्हें बाजार दिखता है। अमीर देशों के कारोबारी और ज़ियादा मुनाफे की हवस में एशिया आते हैं ताकि उन्हें सस्ते में स्किल वाले मजदूर मिलें। इस चक्कर में विकसित देशों ने एशिया में पैसा लगाया, फैक्टरियाँ लगाईं और जिन एशियाई देशों ने वक्त की नब्ज पकड़ी उन्होंने और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करके इस मौके का फायदा उठाया। एशिया में पुराने बाबा तो हैं ही, यूरोप से सटा रूस है, मालदार जापान है और अब उभरता भारत है और चकल्लस चीन है। विश्व -राजनीति में शक्ति वही नहीं होती जो हथियार और सेना से उपजती है, जोसेफ नाई के अनुसार हार्ड पावर के साथ सॉफ्ट पावर भी होता है जो कल्चरल चीजों से हर जगह, जगह बना लेता है। डांस, गाना, त्यौहार, खाना, भेष, साहित्य, फिल्म, आदि से पकड़ और मजबूत हो जाती है, इसके साथ ही अगर सेना भी मजबूत हो, हथियार नए-नवेले हों तो फिर तो धाक जम ही जाती है। सिंगापूर, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड जैसे देशों ने ग्लोबलाईजेशन का फायदा उठाया, चीन और भारत ने अपने कल्चरल माल का इस्तेमाल तो किया ही, न्यूक्लियर, सेना, हथियार और उत्पादन पर भी अच्छी प्रगति की। रूस को 1991 में अपनी सोवियत रूस की पहचान गंवानी तो पड़ी पर अपने प्राकृतिक खजानों और काबिल नेतृत्व के बल पर एक बार फिर विश्वराजनीति में हलचल पैदा करने लायक स्थिति में पहुँच गया है। दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम से नेस्तनाबूत होने के बाद जापान ने शांति और समृद्धि की राह चुनी और देखते देखते ही यह दुनिया का दूसरा मालदार देश बन बैठा है। मध्य-पूर्व एशिया में तेल की खोज हो जाने से वहाँ लूटमार शुरू हुई पर कुछ देशों जैसे युएई, सऊदी अरब, क़तर, ईरान आदि ने अपनी धाकड़ जगह जमा ली।
कुल
मिलाकर अभी एशिया में सबसे
अधिक उपजाऊ जमीन है,
स्किल
वाले लोग हैं,
बड़ा
बाजार है,
कल्चर
है और ताकत भी।ये समय पैसा
वाला है और पूरी दुनिया ही
खरीदने से अधिक बेंचने के
जुगाड़ में है। बेंचने के लिए
जमीन का रास्ता ठीक तो है पर
पूरी दुनिया जमीन का एक टुकड़ा
तो है नहीं और फिर जमीन पे रिस्क
कुछ कम नहीं। दुनिया भर के देश
से रिश्ता बनाओ,
तब
माल आगे ले जाओ। रिश्ता जो बन
भी जाये तो भी समुद्र का दामन
पकड़ना ही होता है, सात
महाद्वीप पांच महासागर में
तैरते जो हैं। एशिया दो महासागर
हिन्द महासागर और प्रशांत
महासागर की गोदी में है।
यूरोप को एशिया से जोड़ने के
लिए अदन की खाड़ी से होते हुए
हिन्द महासागर के अरब सागर
का सहारा चाहिए और एशिया को
अमेरिका से जोड़ने के लिए दक्षिण
चीन सागर के रास्ते प्रशांत
महासागर में गोता लगाना होगा।
दुनिया के सब व्यापारी लोगों
का काम बिना इन दो महासागरों
के समुद्री राहों के न हो सकेगा।
व्यापारी सरकार बनवाता है तो
सरकार सारा कूटनीति इन राहों
की सलामती के लिए करती है।जब
यूरोप के लोग डार्क एज से निकले
तो साइंस का हाथ पकड़के जरुरत
के हिसाब से नहीं मुनाफे के
पैमाने पर उत्पादन करना शुरू
किया और हथियार,
सेना
व चालाकी से दुनिया के उन देशों
को गुलाम बना लिया जहाँ अभी
भी लोग मशीनों के गुलाम नहीं
बने थे। आज एशिया के देश आजाद
हैं और अपने हक़ के लिए जागरूक
भी। ये अपने जमीन और जल के लिए
बारगेन करना जानते हैं।
विश्वराजनीति
में आधुनिक समय में खिलाड़ी
जरूरी नहीं है कि कोई देश ही
होगा,
बिना
देश वाला कुछ लोगों का संगठन
भी हलचल मचा सकता है। बढ़िया
सेन्स में मल्टीनेशनल कम्पनीज
हैं जिनके पास किसी एक देश की
तरह हुकूमत तो नहीं है पर ये
अपने माल और रसूख से किसी भी
देश में मनचाहा फर्क डाल सकते
हैं। घटिया सेन्स में आतंकवादी
संगठन हैं जो किसी एक देश के
नहीं हैं पर देशों पर असर डाल
सकते हैं। एशिया को मल्टीनेशनल
कम्पनीज एक बाजार और सस्ते
मजदूर की लालच में देखती हैं
तो आतंकवादी संगठन भी एशिया
को एक आसान चारागाह और भटके
स्किल/बिना
स्किल वाले मजदूरों का खान
समझते हैं। ऐसे में ऐसे में
एशिया के समुद्री राहों को
इनसे भी बचाना है और एशिया के
किसी देश की दादागिरी से भी।
पर यहीं तो ट्विस्ट है। पश्चिम
के पुराने बाबा एशिया का बाजार
चलाना चाहते हैं और एशिया के
उभरते शेर अपना हिस्सा मांग
रहे या फिर राहों पर अपनी चलाना
चाहते हैं। अब आज का जापान
सेना और हथियार पे इन्वेस्ट
कर रहा है। चीन व्यापार का
कारखाना बन गया है और सॉफ्ट
पावर के साथ ही साथ हार्ड भी
हो गया है। भारत ने भी अब अपने
आपको बटोर लिया है और मैप पे
अपनी जगह का फायदा उठाने को
तैयार बैठा है। रूस को अब फिर
से सोवियत वाला रसूख चाहिए
और इतना डेस्पेरेट हैं पुतिन
कि अपने जिगरी दोस्त भारत के
पक्के दुश्मन पाकिस्तान को
हथियार बेच रहे हैं। चीन को
एशिया और दुनिया का बाबा बनना
है तो बगल में भारत को दबाते
रहना है। 1962
में ड्रैगन
ने शेर को खाली इसलिए घायल कर
दिया कि शेर की साख दुनिया के
लेवल पर बढ़े जा रहा था। भारत
को घेरने के लिए पापी चीन भारत
के सब पड़ोसी को पुचकारता है
और हिन्द महासागर में बांग्लादेश,
श्रीलंका
और पाकिस्तान के लिए बंदरगाह
बनाता है। कश्मीर का एक हिस्सा
1947
से
ही पाकिस्तान के पास है और एक
दूसरा हिस्सा 1962
में
चीन ने हड़प लिया;
यहीं
से चीन ने पाकिस्तान को दोस्ती
की टॉफियाँ खिला रहा है और
भारत ऊर्जा के भंडार मध्य
एशिया के देशों से भी कट गया।
कोरिया का एक हिस्सा तानाशाही
परिवार के हाथ में है और वह
पाकिस्तान,
चीन
आदि की कृपा से नुक्लियर बम
की धमकी से पूरी दुनिया को
थर्रा रहा है। मानेंगे नहीं
पर पूरी दुनिया को पता है कि
रूस और चीन,
उत्तर
कोरिया को शह दे रहे हैं और
उसे अपने लिए एक मोहरे की तरह
इस्तेमाल कर रहे।
जापान
में शिंजो अबे फिर चुनकर आये
हैं,
मजबूत
इरादों के साथ नया जापान गढ़ने
को तैयार हैं। चीन में शी
जिनपिंग की सत्ता में पकड़
मजबूत हुई है और वे भी चाइनीज
ड्रीम देख रहे हैं। पुतिन
गाहे-बगाहे
कभी राष्ट्रपति बनकर तो कभी
प्रधानमंत्री बनकर सत्ता में
बने हुए हैं और लोकप्रियता
बढ़ती ही जा रही है। पाकिस्तान
में चलती अभी भी सेना की ही है
और भारत में भी एक मजबूत नेता
की सरकार है। कहने का मतलब ये
है कि अभी के निर्णायक एशियाई
देश निर्णय लेने को अधिक सशक्त
हैं। ऐसे में एशिया अभी सबकी
नज़र में है। कोई कमाना चाहता
है,
कोई
आतंकवाद से परेशान है। कोई
बेचना चाहता है तो कोई रस्तों
के कब्जाने से परेशान है। आईएस
भी यहीं है और अलक़ायदा भी।
आसियान भी यहीं है और एपेक भी
यहीं है। जंगल,
पहाड़,
समुद्र
का का बायोडायवर्सिटी भी यहाँ
प्रचुर है। इस सबकी वजह से
अपना एशिया हिट है और हिटलिस्ट
में भी है। कुछ विद्वान् कहते
हैं कि तृतीय विश्व युद्ध के
पहले की सारी परिस्थितियाँ
मौजूद हैं,
यहाँ।
अपना दिमाग है कि,
विश्व
युद्ध तो नहीं ही होगा पर एशिया
अब इग्नोर होने के मूड में
नहीं है।
डॉ. श्रीश पाठक
shreesh.prakhar@gmail.com
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