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Thursday, May 31, 2018

त्रेता में मोदी और कल में ओली

साभार: गंभीर समाचार 



जब हम पैदल होते हैं तो तेज रफ़्तार गाड़ियों पर कोफ़्त होती है और जब हम गाड़ी में होते हैं तो कई बार बीच में आ जाने वाले पैदल यात्रियों पर कोफ़्त होती है। यहाँ, नैतिकता से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न वरीयता का है। विश्व-राजनीति में कुछ इस तरह ही अपने राष्ट्र के हित ही वरीय होते हैं चाहे हमारा अतीत कुछ भी हो और वर्तमान जैसा भी हो। एक समझदार राष्ट्र और उसके कुशल कूटनीतिज्ञ यह समझते हैं कि अपने राष्ट्र के राष्ट्रहित किसी दूसरे राष्ट्र के सापेक्ष तभी और उसी सीमा तक साधे जा सकते हैं, जब और जिस सीमा तक हमारे हितों की आयोजना में उस राष्ट्र को अपना राष्ट्रहित भी दिखे। भारत-नेपाल संबंधों में भारतीय कूटनीति से यह त्रुटि हाल के वर्षों में हुई है। 

भारत अपने गहरे सांस्कृतिक संबंधों की थाती पर नेपाल और भूटान से आधुनिक संबंधों का निर्वहन करता रहा है। इसलिए ही भारत से लगी दोनों राष्ट्रों की सीमायें ‘ओपन बॉर्डर सिस्टम’ में हैं और दोनों राष्ट्रों के नागरिक भारतीय सीमा में आवाजाही कर सकते हैं। राष्ट्रहित कोई स्थिर मूल्य नहीं हैं। वैश्विक राजनीतिक हलचलों के अनुरूप उनमें गतिक सम्भावना बनती रहती है। पड़ोस में उभरते शक्तिशाली चीन के बीचो-बीच भूटान और नेपाल, भारत के लिए बफर-स्टेट हैं, इसलिए ही भारत के दोनो  राष्ट्रों से संबंध अहम हैं। भूटान और नेपाल के चीन के साथ संबंधों का कोई मजबूत पारंपरिक आधार नहीं रहा है और इसलिए भी भूटान और नेपाल, भारत के साथ अपनी नजदीकियाँ स्वाभाविक मानते रहे और चीन से उनकी कमोबेश दूरियाँ बनी रहीं। दोनों ही देश स्थलबद्ध (लैंडलॉक्ड) देश हैं और सामुद्रिक व्यापार के लिए भारत पर निर्भर हैं। बुद्ध की मंदस्मित से भूटान और राम की आदरणीय दृष्टि से नेपाल, भारत को देखता रहा। ‘मुक्त सीमाओं’, पर होने वाले पारस्परिक लाभों के अनुपात में भ्रष्ट भारतीय नौकरशाही से होने वाली हानियाँ नज़रअंदाज़ की जाती रहीं। 

संपूर्ण विश्व के लिए एक शानदार उदाहरण बनाते हुए भूटान के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक ने अपने देश में पहले लोकतांत्रिक संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक चुनाव कराया और 2007-2008 में यह देश राजशाही छोड़ एक लोकतांत्रिक सांविधानिक राजशाही वाला देश बन गया, जहाँ संसद के दो-तिहाई बहुमत से राजा पर महाभियोग भी आरोपित किया जा सकता है। इधर अपने तीन दशक के त्रासद राजनीतिक अस्थिरता से जूझते नेपाल ने भी राजशाही समाप्त कर और माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में लाकर 2008 में संविधान-सभा गठित कर लोकतंत्र को अपनाने की प्रक्रिया शुरू की । नेपाल के तिब्बत से सटे ऊंचाई पर बसे इलाके हिमाल कहलाते हैं, पहाड़ के लोग मध्य नेपाल के निवासी हैं और भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार से जुड़े सीमाई लोग मधेसी अस्मिता वाले तराई के कहलाते हैं। यह विभाजन इतना सरल नहीं है, पर नेपाली राजनीति में इनकी जटिलताएं महत्त्वपूर्ण हैं और इसीलिए नेपाल की संविधान निर्माण की यात्रा इतनी दुरूह रही है। सितम्बर 2015 में  दूसरा नया लोकतांत्रिक संविधान स्वीकार किया गया। इस नए संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक नेपाल में नयी सरकार वामपंथी गठबंधन के खड्ग प्रसाद ओली के नेतृत्व में बन चुकी है और फ़िलहाल वामपंथी गठबंधन 17 मई 2018 को दो अध्यक्षों के साथ एक दल ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी’ में परिणत हो गया।  

एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की चुनी हुई सरकार किसी भी अन्य चीजों की बजाय अपना राष्ट्रहित ही प्रथम रखेगी। इसलिए ही डोकलम मुद्दे के बाद प्रधानमंत्री शेरिंग ताबगे का भूटान सचेष्ट हुआ है और ओली का नेपाल, भारत और चीन के मध्य बफर स्टेट की स्थिति के लाभों के दोहन को लेकर आतुर हुआ है। लगभग इसी दशक में शक्तिशाली चीन ने दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसियों से संपर्क घना करते हुए भारत को अपनी स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स की नीति से घेरना शुरू किया है। चीन ने अपने शक्तिशाली नेता शी जिनपिंग को अब उनके पूरे जीवनकाल के लिए चुन लिया है। ग्लोब पर नेपाल तीन तरफ से भारत से घिरा हुआ है और ऊपर की और उत्तर में इसका मुहाना चीन की ओर खुलता है। भारत की नेपाल से 1950 में की गयी ‘फ्रेंडशिप ट्रीटी’ के ‘मुक्त-सीमा प्रबंधन’की तर्ज पर सजग चीन ने 1968 में अपनी सीमा भी ‘फ्रेंडशिप हाइवे’ के नाम से लगभग खोल ही दी। अब जबकि नए नेपाल में वामपंथी सरकार बनी है, चीन और नेपाल के संबंध निश्चित ही प्रगाढ़ होने वाले हैं। 

नेपाल विषय पर कहना होगा कि मोदी सरकार से बार-बार ग़लतियाँ हुई हैं। प्रधानमंत्री बनते ही नेपाल उन देशों में रहा जहाँ मोदी ने शुरू में ही यात्रा की। लेकिन राजनीति में परसेप्शन और प्रतीकों का महत्त्व जानने वाले समझते हैं कि अपनी पहली यात्रा और हालिया की गयी तीसरी यात्रा में मोदी ने वही ग़लतियाँ दोहराई हैं। संभवतः भारतीय कूटनीतिक कुटुंब अभी भी नेपाल को हिन्दू राजतंत्र की तरह ही देख रहा है। मोदी की पहली यात्रा अगस्त 2014 में एक ऐसे समय में हुई जब नेपाल में विभिन्न नागरिक-अस्मिताएँ आगामी संविधान में अपनी जगह बनाने को संघर्षरत थीं। राजशाही के बाद यह तय था कि आगामी लोकतांत्रिक संविधान में जो नया नेपाल गढ़ा जायेगा वह महज बहुसंख्यक हिन्दू अस्मिता को सर्वोपरि नहीं रखेगा। विश्व-राजनीति के वैश्वीकरण और इंटरनेट के इस दौर में नेपाल की जनता सजग होकर कदम उठा रही थी कि नए नेपाल की राजनीतिक पहचान महज धार्मिक कत्तई न हो। ऐसे में मोदी की पहली यात्रा में जो उनकी छवि निर्मित हुई वह पशुपतिनाथ मंदिर में 2500 किग्रा चंदन चढ़ाने वाले और धर्मशाला के लिए 25 करोड़ रूपये देने वाले एक ऐसे भारतीय नेता की हुई जो अपनी धार्मिक पहचान को राष्ट्रप्रमुख रहते हुए भी व्यक्त करना चाहते हैं। 

इसके कुछ महीने बाद ही सार्क सम्मेलन (नवंबर 2014 ) में हिस्सा लेने गए मोदी चाहते थे कि वे नेपाल के धार्मिक स्थल जनकपुर, मुक्तिनाथ व लुंबिनी के दर्शन भी करें पर उन्हें अनुमति नहीं मिली थी। नेपाली राजनीति में राजशाही के दौर से ही हिमाल और पहाड़ के बाहुन और खेत्री/छेत्री समुदाय लगभग 29% जनसंख्या के साथ सर्वाधिक प्रभावी रहे हैं और तराई के मधेशी, 35% जनसंख्या के साथ भी राजनीति में सीमान्त ही रहे हैं। मधेसी समुदाय, भारतीय सीमा में घुला-मिला समुदाय है और भारत से इनके गहरे आर्थिक-सांस्कृतिक संबंध हैं। नेपाल के प्रोविंस नंबर-2 में मधेस सर्वाधिक तादात में हैं और जनकपुर इस प्रोविंस का हेडक्वार्टर भी है। सार्क-सम्मेलन के दौरान जबकि नेपाल में नए संविधान के पूरे होने की समय-सीमा में महज दो महीने शेष थे, संविधान सभा की कार्यकारी सरकार ने मोदी की जनकपुर यात्रा पर मुहर नहीं लगाई ताकि किसी किस्म की लामबंदी न हो। 

अप्रैल 2015 में आये विनाशक भूकंप में भारत और चीन ने नेपाल की मानवीय मदद की, किन्तु प्रधानमंत्री मोदी के उत्कट लोकसभा विजय-अभियान की ख़ुमारी में ही रहने वाले कुछ अतिवादी मीडिया टीवी चैनल की अतिवादी प्रस्तुति ने भारतीय कूटनीति के कमाए गुडविल फैक्टर को लील लिया। चीन ने मौके का फायदा उठाया और नेपाल की कई अवसरंचनात्मक प्रोजेक्ट्स में निवेश किया। नेपाल ने उसके महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (एक मेखला एक मार्ग ) नीति से जुड़ने में भी दिलचस्पी दिखाई। पिछले तीन सालों से चीन के जिस प्रस्ताव की खूब चर्चा है और जिसपर मौजूदा ओली सरकार काफी गंभीर भी है उसमें चीन अपने केरोंग क्षेत्र से काठमांडू और काठमांडू से पोखरा और लुंबिनी तक रेलवे लाइन बिछाने पर काम करने को इच्छुक है। यकीनन इससे चीन की पहुँच भारतीय सीमा तक होगी। चीन और नेपाल, मुक्त व्यापार समझौते की तरफ भी बढ़ रहे हैं। 

2015 के सितम्बर महीने में ही रक्सौल-बीरगंज पॉइंट पर स्थानीय मधेसियों द्वारा की गई पांच महीने की नाकाबंदी, जिससे कि दैनंदिन आवश्यक चीजों की आपूर्ति बाधित हुई और नेपालीजन को काफी मुश्किलात का सामना करना पड़ा था, भारत सरकार इस घटना पर सावधानी नहीं बरत पाई तथा नेपाल का आम जनमानस आज भी मानकर चलता है कि यह भारत की ओर से अघोषित नाकाबंदी थी और भारत ने इसकी समाप्ति के लिए कोई ठोस कदम भी नहीं उठाया। हालाँकि, भारत ने बार-बार दुहराया था कि यह नाकाबंदी नेपाल के आंतरिक तनावों की देन है, पर हालिया चुनावों में इस प्रकरण का वामपंथी दलों ने भरपूर लाभ उठाया। दरअसल, वामपंथ के मुख्यधारा में आने के कारण नेपाल में आम विमर्शों की तर्क आयोजना ही बदल गई है, पर भारत का कूटनीतिक कुटुंब अब भी नेपाल को उसी पारंपरिक दृष्टि से देखे जा रहा है, जहां नेपाल अपनी सुरक्षा और आर्थिक जीवन के लिए अधिकांशतया भारत पर निर्भर रहता था। लगभग साढ़े तीन साल बाद की गयी मोदी की तीसरी नेपाल यात्रा (11-12 मई) में उस तथाकथित नाकाबंदी का प्रभाव देखा जा सकता है जब सोशल मीडिया में नेपाली नागरिकों ने फब्तियां कसीं। इसी साल अप्रैल के पहले हफ्ते में हुई नेपाली प्रधानमंत्री के पी ओली की भारत यात्रा के महज छत्तीस दिनों के भीतर ही भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की तीसरी नेपाल यात्रा हुई। अधिकांश महत्त्व के समझौतों जैसे- भारत व नेपाल के इनलैंड जलमार्ग, तेल पाइपलाइन, पंचेश्वर-तराई रोड, कृषि, आदि ओली की भारत-यात्रा के दौरान ही संपन्न हुए। 

नेपाल-यात्रा के दौरान नेपाल के नवगठित सरकार के मुखिया खड्ग प्रसाद ओली ने इसबार प्रधानमंत्री मोदी की जनकपुर और मुक्तिनाथ धाम जाने की मंसा पूरी कर दी। इसप्रकार अपनी पहली यात्रा की तरह ही एक बार फिर मोदी की इस यात्रा में भी मंदिर, पूजा, पुजारी छाये रहे और रामायण सर्किट की घोषणा के साथ ही जनकपुर से अयोध्या तक की बस आवागमन की सुविधा का उद्घाटन भी किया गया, जिसकी अगवानी स्वयं योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में की। 900 मेगावाट का अरुण हायडेल प्रोजेक्ट, रक्सौल-काठमांडू रेल लिंक के लिए सर्वे आदि घोषणाओं के साथ अंततः मोदी की धार्मिक अस्मिता ही अधिक उजागर हुई। उसी समय चल रहे कर्नाटक चुनाव से भी इसे जोड़ा तो गया ही बल्कि  नेपाल के भीतर भी प्रोविंस नंबर-4 के मुख्यमंत्री पृथ्वी सुब्बा गुरुंग ने मोदी के मंदिर विजुअल्स पर आपत्ति जताई। 

मोदी की इस नेपाल यात्रा की जैसी कवरेज भारतीय मीडिया ने की, उससे संभवतः भारतीय मतदाता पर एक खास प्रभाव पड़े, लेकिन मुकाबले में जहाँ चीन हो, भारत ऐसी विदेश नीति के साथ तो अपने द्विपक्षीय संबंधों में फिर ऊष्मा नहीं ला सकेगा। प्रधानमंत्री ओली का यह कहना कि वह भारत की चिंता समझते हैं तथा कभी भी नेपाल की ज़मीन का इस्तेमाल भारत विरोधी हितों में नहीं होने देंगे और फिर अपने संसद में जोर देकर जल्द ही चीन की यात्रा करने का आश्वासन देना; यह दिखलाता है कि नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की नज़र जहाँ नेपाल के कूटनीतिक कल पर है वहीं 2019 के आम चुनाव को देखते हुए भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की नज़र त्रेता के राम पर है। 




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