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Tuesday, December 16, 2014

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति : परिभाषा, प्रकृति एवं एक स्वतंत्र विषय-अनुशासन के रूप में विकास



ईकाई -01
लेखक : डॉ. श्रीश पाठक 


अंतर्राष्ट्रीय राजनीति : परिभाषा, प्रकृति एवं एक स्वतंत्र विषय-अनुशासन के रूप में विकास


इकाई की रूपरेखा
1.1 उद्देश्य
1.2 प्रस्तावना
1.3 अर्थ
1.4 परिभाषा
1.5 प्रकृति
1.6 एक स्वतंत्र विषय के रूप में विकास
1.7 सारांश
1.8 शब्दावली
1.9 निबंधात्मक प्रश्न
1.10 संदर्भ ग्रंथ
1.11 सहायक सामग्री


    1. उद्देश्य
एक विषय के रूप में इसके विकास का अध्ययन हमें इसकी महत्ता, उपयोगिता एवं प्रासंगिकता से परिचय करवाएगी। इस इकाई के अध्ययन से हम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का एक विषय-अनुशासन के रूप में हुए क्रमशः विकास के विभिन्न आयामों को जानेंगे एवं उन्हें विश्लेषित करेंगे। वर्तमान में कोई राष्ट्र-राज्य किस प्रकार अन्य राज्यों से संबंध स्थापित करता है एवं इन सम्बन्धों के निर्वहन से उसके किन किन हितों की पूर्ति होती है, यह जानने का प्रयास करेंगे। विषय-विकास के विभिन्न पड़ावों, आयामों एवं उनका पृथक-पृथक महत्व जानेंगे। इस विकास यात्रा के अध्ययन का वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में क्या भूमिका हो सकती है, इसे भी जानने का यत्न करेंगे।
    1. प्रस्तावना
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एक विषय-अनुशासन के रूप में वर्तमान में बहु-विश्लेषित अनुशासनों में से है। इसकी विषय-सीमा में लगभग सम्पूर्ण विश्व की राजनीतिक एवं आर्थिक गतिविधियां हैं। विश्व के विविध भागों में अपनी विभिन्नताओं के साथ बसे विपुल जन-समुदाय भिन्न-भिन्न राष्ट्रीय अस्मिता वाली सीमा-रेखाओं के भीतर स्थित होते हैं। व्यक्ति; चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष, बच्चा हो या युवा, प्रौढ़ हो या वृद्ध; सभी किसी न किसी राजनीतिक सीमा से अवश्य ही बंधे होते हैं। यह उनकी एक सशक्त पहचान होती है। आज तकरीबन दो सौ से अधिक राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में हैं, जो अपनी-अपनी स्वतंत्र सीमाओं के भीतर एक विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान के साथ समग्र विकास हेतु प्रयत्नशील हैं। आधुनिक राज्य, संप्रभुता के आधुनिक मानदंडों के अनुरूप अपने विषय में निर्णयन के लिए परम स्वतंत्र होते हैं; साथ ही वह अन्य राज्यों की संप्रभुता का भी आदर करते हुए उनसे भी यही अपेक्षा रखते हैं। निश्चित ही सभी राज्य अपने विकास की दिशा एवं राष्ट्रीय लक्ष्य स्वयं ही तय करते हैं एवं तदनुरूप प्रयासों के लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार होते हैं। इसमें अन्य हस्तक्षेप स्वीकार योग्य नहीं होते और ना ही कोई राज्य किसी अन्य राज्य से किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की अपेक्षा ही रखता है; क्योंकि यह उसकी संप्रभुता को क्षीण करता है।


    1. अर्थ
यथार्थ में यह संभव नहीं है कि कोई राज्य, अन्य राज्यों के प्रति उदासीन रह सके। अन्य राज्यों की अन्यान्य गतिविधियां निश्चित ही उस राज्य को भी प्रभावित करती हैं। ये प्रभाव सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। प्रत्येक राज्य प्रभावों के सकारात्मक होने पर उनसे लाभान्वित होना चाहता है एवं इसके विपरीत प्रभावों के नकारात्मक रहने पर उनसे स्वयं की सुरक्षा चाहता है। इस उद्देश्य की पूर्ति, उदासीन अथवा अलग-थलग रहकर नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त प्रत्येक राज्य, संसाधनों की सुरक्षा, उनके उचित अनुप्रयोग एवं उनकी अनुवृद्धि के लिए अन्य राज्यों से संबंध की अपेक्षा करता ही है। व्यापार एवं सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए भी परस्पर सम्बन्धों की निरंतर आवश्यकता होती है। इस प्रकार, प्रत्येक राज्य एक-दूसरे से सम्बन्धों में रुचि रखते हैं। यह संबंध बहुत ही जटिल एवं बहुआयामी होते हैं। इन सम्बन्धों का अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय संबंध कहलाता है। राज्यों का एक दूसरे से सम्बन्धों का निर्वाह केवल द्विपक्षीय कारकों पर ही निर्भर नहीं करता अपितु कई अन्य वाह्य कारक भी कार्यरत होते हैं और कई बार वह ही निर्णायक होते हैं। उन समस्त कारकों का राजनीतिक अध्ययन ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं सम्बन्धों का सम्यक विश्लेषण कर सकता है। अतः यह अध्ययन, अंतर्राष्ट्रीय संबंध के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, विश्व राजनीति, अंतर्राष्ट्रीय राजनय आदि नामों से भी जाना जाता है। अलग-अलग नाम वस्तुतः अध्ययन के मुख्य लक्ष्य को व्यक्त करते हैं, यथार्थ में इन सभी नाम-पदावलियों में विषयवस्तु की समानता है। किन्हीं अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को अवश्य ही लक्षित करेगी, इसी प्रकार, अंतर्राष्ट्रीय राजनय का कोई गंभीर अध्ययन अपने विश्लेषण में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों एवं राजनीति की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसलिए यह स्पष्ट है कि एक विषय-अनुशासन के रूप में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का लक्ष्य, राज्यों के मध्य होने वाली राजनीति, परस्पर संबंध व कूटनीति एवं विविध कारकों का जटिलताओं का समग्रता में अध्ययन करना है। विभिन्न विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाओं मे भी विषयवस्तु की यह साम्यता दृष्टिगोचर होती है।
    1. परिभाषा
विभिन्न विद्वानों द्वारा की गई अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की भिन्न-भिन्न परिभाषाओं में वस्तुतः विषय के विषयवस्तु की ही व्याख्या करने की कोशिश की गई है। यों तो परिभाषा का अर्थ ही है, न्यूनतम मानक शब्दों में विषयवस्तु का सम्यक अर्थान्यावन। किन्तु सत्य यह भी है कि किसी भी विषय-विशेष का समूचा परिचय किसी भी परिभाषा में परिमित नहीं किया जा सकता। फिर भी परिभाषाओं से यह अवश्य पता चल जाता है कि किसी विषय का गुरुतर झुकाव किस और है और कुछ होने से अधिक यह क्या नहीं है।  


अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषाओं का मूल स्वर, जटिल एवं बहुआयामी अन्तः क्रियाओं, परस्पर सम्बन्धों, शक्ति-संघर्ष एवं राज्य की वाहय नीतियों से सम्बद्ध है। ट्रेवर टेलर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक ऐसा विषय-अनुशासन कहते हैं, जो राज्य की सीमाओं के आर-पार की राजनीतिक गतिविधियों की व्याख्या करने की कोशिश करता है। हार्टमैन के अनुसार, अध्ययन के एक क्षेत्र के रूप में यह उन प्रक्रियाओं पर केन्द्रित है, जिनसे राज्य अन्य राज्यों के सापेक्ष अपने राष्ट्रहित गढ़ते हैं। ये परिभाषाएँ मुख्यतः राष्ट्रों के मध्य होने वाली अन्तः क्रियाओं पर आधारित हैं। इन अन्तः क्रियाओं में शक्ति की भूमिका को रेखांकित करते हुए पैडलफोर्ड एवं लिंकन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा शक्ति-सम्बन्धों के सतत परिवर्तित हो रहे विन्यासों के भीतर राज्य की नीतियों की अन्तः क्रियाओं के रूप में करते हैं।


व्यवस्थावादियों ने भी अपने तकनीकी पदावलियों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को परिभाषित किया है। वे समस्त विश्व को एक व्यवस्था के रूप में देखते हैं। विश्व-व्यवस्था की सदस्य राज्य-व्यवस्थाएं होती हैं। पामर पार्किंस के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति वस्तुतः राज्य-व्यवस्था से संबन्धित है। व्यवस्था में अन्तः क्रियाओं के महत्व को समझते हुए जोसेफ ओला अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि यह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में स्थित समस्त स्वतंत्र निकायों अथवा राज्यों के मध्य संभव समस्त प्रकार के अन्तः क्रियाओं का अध्ययन है।


अंतर्राष्ट्रीय राजनीति निश्चित ही राज्यों के परस्पर सम्बन्धों में परिलक्षित होती है। परस्पर सम्बन्धों की जटिलताओं से प्रेरित परिभाषाएँ भी ख़ासी महत्वपूर्ण हैं। क्विंसी राइट इसीलिए इसे इतिहास के किसी खास समय में विश्व के महत्वपूर्ण समूहों के सम्बन्धों का अध्ययन घोषित करते हैं। शक्ति-संघर्षो का तत्व ही परस्पर संबंधो की जटिलताओं का मूल कारण है। प्रख्यात यथार्थवादी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति चिंतक हंस मोर्गेंथाउ ने इसी कारण इसे राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों एवं उनके शांति की समस्याओं के विश्लेषण के रूप में देखा है। शक्ति-संघर्ष को मोर्गेंथाउ, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण तत्व समझते हैं। अतः वह इसकी परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि यह दरअसल शक्ति एवं उसके प्रयोग के लिए राष्ट्रों के मध्य होने वाला संघर्ष ही है। कुछ विद्वान राष्ट्रों की विदेशों के प्रति अपनी नीतियों के अध्ययन को ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति कहते हैं। स्टैनली होफमैन के अनुसार यह विषय-अनुशासन, उन कारकों व गतिविधियों से संबन्धित है जो विश्व को बांटने वाली आधारभूत इकाईयों की वाह्य नीतियों तथा उनकी शक्ति को प्रभावित करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को भले ही विभिन्न विद्वानों ने कई रीति से पुकारा हो अथवा कई आधारों से परिभाषा की हो, इस विषय-अनुशासन मे राष्ट्र-राज्य, अन्तः क्रियाएँ, परस्पर संबंध, व्यवस्था के रूप में राज्य, शक्ति-संघर्ष एवं वाह्य नीतियों का सम्यक विश्लेषण का लक्ष्य अभीष्ट होता है।
    1. प्रकृति
किसी भी विषय-अनुशासन की प्रकृति से तात्पर्य उसकी अनुसंधान प्रवृत्ति से है। प्रकृति-विश्लेषण से विषय की रुचि के क्षेत्र-सीमा की विमाओं का ज्ञान होता है। विषय की प्रकृति का ज्ञान होते ही, हमें उस विषय-विशेष की आधारभूत विषयवस्तु की जानकारी हो जाती है। विषयवस्तु का स्पष्ट ज्ञान, अध्ययन की गुणवत्ता व उसकी उपादेयता के लिए आवश्यक है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विषयवस्तु को लेकर भी विद्वानों में कम विवाद नहीं है। प्रमुख प्रश्न यही है कि- विषय के अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य क्या होना चाहिए ? इस प्रमुख प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न लोगों ने विभिन्न प्रकार से किया है। प्रत्येक व्यक्ति की किसी विषय-विशेष से अपनी अपेक्षा हो सकती है। उस विषय की तकनीकों एवं तथ्यों से वह अपेक्षा पूरी हो सकती है। इससे तो बस उस विषय की उपादेयता का पता लगता है। किसी विषय-विशेष से की जाने वाली प्राथमिक अपेक्षा ही विषय की प्रकृति को निर्धारित कर सकती है। इस प्राथमिक अपेक्षा की पहचान करना सरल न था। विद्वानों ने अपने अपने दृष्टिकोण से इस विषय के अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य तय किया है। इन उत्तरों का सम्यक विश्लेषण हमें इस विषय से हमारी प्राथमिक अपेक्षा समझने में मदद करेगा।


प्रारम्भ से ही विद्वान इस विषय की विषयवस्तु में प्रमुखतया राज्यों के परस्पर संबंधों की जटिलताओं के अध्ययन को शामिल करने पर ज़ोर देते रहे हैं। राज्यों के परस्पर संबंध निश्चित ही अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, इन पारस्परिक संबंधों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। संबंधों की जटिलताएँ ही अन्यान्य वैश्विक परिघटनाओं को जन्म देती हैं। सभी विद्वान एक स्वर से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के परस्पर संबंधों के अध्ययन की महत्ता को स्वीकार करते हैं। परस्पर संबंधों को निर्धारित करने वाले तत्वों में रुचि ही विद्वानों को राज्यों की विदेश/वाह्य नीतियों के अध्ययन को प्रेरित करती है। कई विद्वान तो राज्यों के विदेश नीतियों के अध्ययन को ही इस विषय का प्रमुख उद्देश्य बतलाते हैं।


किन्हीं दो देशों के मध्य कई अन्य संबंधों की अपेक्षा आर्थिक संबंध बहुत ही अहम होते हैं, क्योंकि इसमें दोनों अर्थव्यवस्थाओं की आवश्यकताएँ संतुष्ट होती हैं। विश्व के सभी देश, अपनी अपनी आर्थिक प्रगति के लिए सभी राष्ट्रों से आर्थिक संबंध अवश्य बनाना चाहते हैं। इन आर्थिक संबंधों की राह में आने वाले अन्य राजनीतिक, कूटनीतिक अथवा अन्य किसी अवरोध को वे न्यूनतम या समय-विशेष के लिए परे रख आगे बढ़ना चाहते हैं। आधुनिक विश्व में निस्संदेह आर्थिक गतिविधियां प्रमुख रूप से प्रभावी है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के उदारवादियों ने इस आर्थिक परिघटना को महसूस करते हुए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की प्रमुख विषयवस्तु उन बढ़ती हुई आर्थिक गतिविधियों एवं मैत्रियों को बनाने पर बल दिया जो राष्ट्रों की सीमाओं की मर्यादाओं में सीमित नहीं रह सकती। चूंकि आर्थिक संबंधों की प्रगाढ़ता, अन्य प्रकार के संबंधों को भी प्रोत्साहित करती है एवं प्रत्येक राष्ट्र के इच्छित विकास के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था की आवश्यकता भी है; इसलिए निश्चित ही राष्ट्रों के परस्पर आर्थिक संबंध अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु हो सकते ही हैं। आर्थिक-संबंधों के निर्वाह में स्वयमेव राजनीतिक-कूटनीतिक एवं ऐतिहासिक तत्व प्रायः प्रभावी होते हैं।


बीसवीं शताब्दी में सत्तर के दशक के विद्वानों ने राष्ट्रों के मध्य बढ़ रही परस्परिक अन्तःनिर्भरता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। प्रत्येक राष्ट्र को अपने विकास के लिए अधिकाधिक संसाधनों एवं पूंजी-लाभ की आवश्यकता उन्हें परस्पर अन्तःनिर्भरता के लिए बाध्य करती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए राष्ट्र अपने अन्य मतभेद परे रख आगे बढ्ने की कोशिश करते हैं। इस परिघटना से प्रभावित विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु में राष्ट्रों के मध्य बढ़ रही परस्परिक अन्तःनिर्भरता को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहते हैं।


लगभग इसी समय मार्क्सवादी विचारकों ने, राष्ट्रों के मध्य गहराते आर्थिक संबंधों एवं बढ़ते परस्परिक अन्तःनिर्भरता के बीच एक और प्रवृत्ति पर ध्यान आकृष्ट किया। बढ़ रही विविध आर्थिक संक्रियाओं में मजबूत राष्ट्रों के प्रभावी होते प्रभुत्व एवं उनपर कमजोर राष्ट्रों की लगातार बढ़ रही एकतरफा निर्भरता उनकी प्रमुख चिंता है। यह एक सुपरिचित तथ्य है कि कुछ देशों की विश्व अर्थव्यवस्था में पकड़ बढ़ती चली जा रही है और कुछ देश महज बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर बन कर रह गए हैं। यह एकतरफा होता आर्थिक शक्ति संतुलन अन्य समानान्तर संतुलनों को भी प्रभावित करता है। इसलिए मार्क्सवादी विचारक चाहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु यही विश्लेषण हो।


कुछ विद्वान, वैश्वीकरण की समस्त प्रक्रियाओं के द्वारा उद्भूत चारों तरफ हो रहे परिवर्तनों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु बनाने पर बल देते हैं। समकालीन विद्वान भी इसकी महती अनिवार्यता पर एकमत हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु पर कुछ चर्चायेँ व प्रश्न और भी हैं, जो समीचीन हैं। जैसे कुछ विद्वान कहते हैं कि- क्या अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिघटनाओं का अध्ययन प्रयोगाश्रित-अनुभवसिद्ध तथ्यों-तकनीकों (Empirical Tools) का इस्तेमाल, 'अंतर्राष्ट्रीय राजनीति' के सम्यक विधियों एवं विन्यासों की खोज के लिए किया जाना चाहिए ! द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात व्यवहारवादी विचारों के प्रचलन से इस धारणा को और भी बल मिला। प्रयोगाश्रित तथ्य, विश्लेषण के लिए एक आवश्यक तत्व के रूप में स्वीकार किए जाने लगे हैं। प्रसिद्ध विचारक बुल की राय में ऐतिहासिक तथ्यों के प्रयोग से यह जाना जा सकता है कि वर्तमान की किसी परिघटना में क्या और कितना अपूर्व एवं विशिष्ट है। महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विचारक वाईट उन वैचारिक परम्पराओं की खोज करने पर बल देते हैं जो शताब्दियों से विश्व-राजनीति में प्रासंगिक हैं। इसलिए निश्चित ही मार्क्स के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन संभव है, जिसमें उत्पादन, वर्ग एवं भौतिक असमानताओं को कसौटी बनाया जा सकता है।


बाजार की शक्तिशाली उपस्थिति से प्रभावित हो, वाल्ज़  कहते हैं कि- बाजारों के व्यवहार-अनुक्रमों का अध्ययन संभवतः उन संगत आर्थिक शक्तियों की कार्यप्रणाली को समझाने में सक्षम हो, जिनके प्रभाव में लगभग सभी राज्य लगभग एक ही तरह व्यवहार करने लग जाते हैं। इसप्रकार यह भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु हो सकती है।


वैश्विक नीतिशास्त्र के अनुगामी, राज्यों के उन लक्ष्यों की प्रकृति में रुचि रखते हैं जिन पर राष्ट्र अपनी मौजूदा कार्यप्रणाली व रणनीति निर्धारित करते हैं। बीज जैसे विचारक जानना चाहते हैं कि राज्यों के विविध लक्ष्यों का अध्ययन क्या उनकी वैश्विक-न्याय स्थापित करने की क्षमता को आंक सकने में सक्षम है? इसीतरह पोज यह जानना चाहते हैं कि लक्ष्यों का अध्ययन वैश्विक गरीबी के समर्पित प्रयासों को माप सकती है। इन समीचीन प्रश्नो के मध्य एक स्वाभाविक किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या विभिन्न विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विषयवस्तु के अंतर्गत विभिन्न विश्लेषणों में व्याख्याएँ निरपेक्ष कर सकेंगे?
उपरोक्त विमर्श से यदि हम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति एवं इसकी विषय-सीमा समझना चाहें तो इतना स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति बेहद ही गतिशील, समसामयिक एवं प्रासंगिक है। इसके विषयवस्तु के अंतर्गत वे समस्त प्रश्न व विश्लेषण समाहित हैं जो राज्यों के परस्पर अन्यान्य सम्बन्धों व उनकी राजनीति को निर्धारित करते हैं। समस्त प्रकार के शक्ति-संतुलनों का विश्लेषण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गहरी रुचि का क्षेत्र है एवं एक विषय-अनुशासन के रूप में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, वैश्विक मूल्यों की स्थापना के प्रयासों को रेखांकित भी करती है।


    1. स्वतंत्र विषय-अनुशासन के रूप में विकास
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तो अलग अलग कालखंडों में कई देशों से प्राप्त होते हैं, किन्तु संगठित व वैज्ञानिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही संभव हो सका। प्राचीन काल से ही राज्यों के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को महत्ता दी जाती रही है एवं तदनुरूप अध्ययन किए जाते रहे हैं। इसप्रकार अध्ययन की दृष्टि से विषय की महत्ता प्राचीन काल से ही स्वयंसिद्ध है।


दो-दो विश्व युद्धों की महान विभीषिकाओं ने विद्वानों के मानस को आंदोलित कर दिया। स्पष्ट था कि- राज्य की सुरक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रति उदासीन नहीं रहा जा सकता। एक सुविकसित राष्ट्र को भी अपनी सततता के लिए अपने अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का ध्यान रखना ही होता है। अब प्रत्येक राज्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति महत्वपूर्ण हो गई और अब इससे निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता था। लगभग  इसी समय दो महान ग्रंथ लिखे गए, जिनसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सुविचारित अध्ययन की औपचारिक शुरुआत मानी जा सकती है। 1939 में ई॰ एच॰ कार ने द ट्वेंटी इयर्स क्राइसिस एवं हंस मोर्गेंथाउ ने 1948 में पॉलिटिक्स एमंग नेशन्स लिखी। इन दोनों रचनाओं के सारगर्भित विश्लेषण ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का एक नए अध्ययन-क्षेत्र के रूप सैद्धांतिक रूप से सूत्रपात कर दिया।


दो-दो विश्वयुद्धों ने मानवता के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया था। विश्व के विद्वत समाज ने इन महायुद्धों को मानव की प्रगति-उपलब्धियों पर प्रश्नचिह्न की तरह देखा। समस्त ज्ञान-विज्ञान की प्रगति यदि अंततः विश्वयुद्धों को जन्म देती है तो निश्चित ही यह समय ठहरकर पुनरावलोकन-विश्लेषण का आवश्यक बिन्दु था। आखिर ज्ञान-विज्ञान की यह अतुलनीय प्रगति विश्व युद्धों को रोक कैसे नहीं पायी? समस्त विश्व के समस्त विद्वत समाज ने इसपर मंथन प्रारम्भ किया कि विषय-अनुशासनों में वे कौन से परिवर्तन आवश्यक हैं जिनसे उन्हें अप्रासंगिक होने से बचाया जा सके। भविष्य के लिए उन्हें कैसे उपयोगी बनाया जाये, यह उनकी प्रमुख चिंता थी। इस महान वैचारिक मंथन ने अंतर-अनुशासनिक उपागम एवं दृष्टिकोण की नवीन परंपरा को जन्म दिया।  


अब लगभग सभी विषय-अनुशासनों ने एक-दूसरे के उपयोगी तत्वों व तकनीकों को ग्रहण करना प्रारम्भ किया। इसी क्रम में विश्व के विभिन्न भागों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक विषय के रूप में अध्ययन करना प्रारम्भ हुआ। वेल्स विश्वविद्यालय ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समर्पित एक विभाग की स्थापना की। अमेरिका व ब्रिटेन मे विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभाग खोले गए। पर अब भी विषय-अनुशासन के रूप में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की स्वतंत्र पहचान न थी। इसके विषयवस्तु का बड़ा भाग दरअसल पुराने विषय-अनुशासनों जैसे- कानून, दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति, कूटनीति आदि विषयों से ही आयातित था।


विश्वयुद्धों से जो क्षति हुई थी उससे स्पष्ट था कि-पुरानी मान्यतायें, सिद्धान्त, धारणायें; जो शक्ति-राजनीति को परिभाषित करती आ रही थीं, वे निश्चित ही अप्रासंगिक हो चुकी थीं और उसी के फलस्वरूप विश्वयुद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी। सर अल्फ्रेड जीमर्न फिलिप नोएल बेकर ने इस दिशा में प्रमुखतया से अपने विचार प्रतिपादित किए। मूख्यतः उन्होने बल दिया कि- शांति की स्थापना तभी संभव है, जब पुराने शक्ति-संतुलनों को सामूहिक सुरक्षा की नवीन व्यवस्था से पुनरास्थापित कर दिया जाये। उनका अभिमत था कि-आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति व तर्क-विश्लेषण की तकनीक से इसकी सैद्धांतिक आधारशिला रखी जा सकती है। यही धारणा आगे चलकर उदारवादी अंतर-राष्ट्रवादियों के द्वारा और अधिक प्रचारित की गई। इनका मानना था कि अंतर्राष्ट्रीय-गतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही विचार-विनिमय एवं तार्किकता से समाप्त कर अंतर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना संभव है। आलोचको; जिनमे मार्क्सवादी प्रमुख थे, ने यूटोपियंस व आदर्शवादी कहकर इनकी आलोचना की।


निश्चित ही, दो-दो महायुद्धों ने उन लोगों का आत्मविश्वास डिगा दिया था जो पारंपरिक राजनय में अटूट विश्वास रखते थे और जो शक्ति के प्रयोग को आवश्यकतानुसार जायज मानते थे, ताकि इससे शक्ति-संतुलन अप्रभावित रहे। किन्तु अब विकसित राष्ट्रों में यह शिद्दत से महसूस किया गया कि- इस विषय का एक स्वतंत्र विषय-अनुशासन के रूप अध्ययन आवश्यक है। अंतर-गतिरोधों को समझना, उनकी सम्मत व्याख्या करना एवं उनसे निपटने की कला का ज्ञान आवश्यक समझा जाने लगा।


नवीन विषय-अनुशासन की आधारशिला निम्नांकित मुख्य प्रश्नों पर रखी जाये, इस पर विद्वान एकमत दिखे:
  1. विश्वयुद्ध के प्रमुख कारणों का मूल क्या था, क्या प्राचीन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक क्रम/व्यवस्था इसके लिए उत्तरदायी थी, क्योंकि वह अप्रासंगिक हो चुकी थी...?
  2. विश्वयुद्धों से प्रमुखतया क्या सीखा जा सकता है, जो भविष्य में इनकी पुनरावृत्ति को रोक सके?
  3. नवीन विश्वक्रम/व्यवस्था का आधार क्या हो? नवीन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं किस प्रकार राष्ट्रों को उनके निर्धारित सीमाओं में मर्यादित कर सकेंगी?
इन प्रश्नों के उत्तर के लिए विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति संबंधी विश्लेषण हुए। पहला व्यवस्थित जवाब यह था कि- अंशतः विश्वयुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त अराजकता के फलस्वरूप उपजा था और अंशतः यह तत्कालीन राजनयिकों एवं राजनीतिज्ञों की लापरवाही, त्रुटिपूर्ण विश्लेषण व निर्णयन एवं नासमझी की दें थी। आदर्शवादियों का मानना था कि निश्चित ही एक शांतिपूर्ण वैश्विक व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है, यदि विदेशनीति के नीति-निर्धारकों को आमराय के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। यह अपेक्षा, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लोकतांत्रीकरण की मांग स्वाभाविक रूप से करती है।


इन विश्लेषणों की आलोचना भी सामने आई। द्वितीय विश्व युद्ध के ठीक पहले ई॰ एच॰ कार ने इन्हें आदर्शवादी कहा। अमेरिका में मोर्गेंथाउ ने इनकी आलोचना की और यथार्थ की कठोर राजनीति पर बल दिया।  ई॰ एच॰ कार ने तो आदर्शवादियों एवं यथार्थवादियों दोनों ही की आलोचना की। आदर्शवाद को इन्होने स्वप्नदर्शीसीधा-सादा बतलाया तथा यथार्थवादियो की जरूरत से ज्यादा आश्वस्ति की भी आलोचना की।


अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के प्रारम्भिक वर्षों इसका लक्ष्य विश्व-राजनीति को बदलना व महायुद्धों से बचाना था। फिर भी अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में यथार्थवादी विश्लेषण की प्रमुखता दोनों विश्वयुद्धों व शीत युद्ध के वर्षों तक सतत बनी रही। इसके पश्चात विश्लेषण में नई धाराएँ आयीं और उन्होने अपने अपने तरीकों से योगदान दिया। इन विभिन्न धाराओं ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु कालांतर में विभिन्न प्रकार के उपागमों को जन्म दिया।
    1. सारांश
प्रस्तुत इकाई के अंतर्गत आप लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ, प्रकृति एवं एक विषय-अनुशासन के रूप में इसके विकास का अध्ययन किया। प्रस्तावना से आपने जाना कि यह विषय किस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र-राज्य से संबन्धित है और सम्पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों से एवं को प्रभावित करता है तथा प्रभावित होता है। अर्थ शीर्षक से यह स्पष्टतया आपने जाना, कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विषय से हम मूलतः हम क्या समझते हैं। विभिन्न विद्वानो द्वारा दी गई अलग अलग परिभाषाएँ विषय की वास्तविक सीमाओं एवं उनका विस्तार को समझने में हमारी मदद करती हैं। परिभाषाओं से हमें विषय का मानद परिचय एवं उसका स्वीकृत स्वरूप समझने में सहायता मिलती है। प्रकृति शीर्षक के अंतर्गत हमने इस विषय की मुख्य उद्देश्य की चर्चा की। हमने जाना कि इस विषय-विशेष से विद्वानो की प्रमुख अपेक्षा क्या है तथा इस विषय-विशेष के अध्ययन के पश्चात हमारे लिए यह किसप्रकार उपयोगी हो सकता है। विषय-विकास के विभिन्न पड़ावो का अध्ययन हमने किया। हमने देखा कि किस प्रकार एक स्वतंत्र विषय के रूप में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का विकास हुआ। इस विषय-विशेष से प्रारम्भ में विद्वानो की जो अपेक्षा थी और जो अब अपेक्षा है कैसे वे आपस में संबन्धित हैं, इसके महत्व की चर्चा हमने भली भांति देखी।
    1. शब्दावली
विषय-अनुशासन अध्ययन का एक स्वतंत्र विषय
राष्ट्र-राज्य एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य, जिसकी राष्ट्रीय अस्मिता अक्षुण्ण हो
अन्यान्य  विभिन्न प्रकार के
अनुवृद्धि गुणात्मक वृद्धि
अनुप्रयोग जीवनोपयोगी विभिन्न प्रयोग
राजनय कूटनीति, विदेश नीति से संबन्धित तत्व


    1. निबंधात्मक प्रश्न
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसकी परिभाषा करिए।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति विश्लेषित कीजिये एवं इसकी महत्ता स्थापित कीजिये।
एक विषय अनुशासन के रूप में रेखांकित कीजिये कि किस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, अन्य पारंपरिक विषय-अनुशासनों से स्पष्टतया स्वतंत्र विषय-अनुशासन है।  
    1. संदर्भ ग्रंथ
बेलिस, जॉन, स्टीव स्मिथ, एवं पैट्रीसिया ओवेंस, द ग्लोबलाइज़ेशन ऑफ वर्ल्ड पॉलिटिक्स: एन इंट्रोडक्सन टु इंटरनेशनल रिलेशंस (2011)
मिङ्ग्स्त, करें ए, एवं इवान एम अरेगुइन टोफ्ट,  एसेंशियल्स ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस (2010)
कर्ल्सनेस, वाल्टर आदि, (सं॰), हैंडबुक ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन्स, सेज पब्लिकेशन।
रेयूस स्मिट क्रिश्चियन एवं डंकन स्नाइडल (सं॰), द ऑक्सफोर्ड हैंड बुक ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन्स (2010)  


    1. सहायक सामग्री
हेडली बुल, अनर्किकल सोसाइटी (न्यूयॉर्क: कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 1977)
केनेथ वाल्ज़, मैन, द स्टेट एंड वार
केनेथ वाल्ज़, थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (1979)
माइकल वाल्जर, जस्ट एंड अनजस्ट वार्स (1977)
अलेक्जेंडर वेंट, सोशल थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (1999)


Wednesday, November 26, 2014

India’s Borders and Cross Border Issues: Problems and Prospects



Abstract 

In the global arena of affairs, presence of emerging India is clearly visible. As the country has successfully 
positioned itself as one of the core members of influential nations of the world, the security scenario of India has attracted more vulnerability and complexities like never before. The roots of challenges for India's security belong not only to regional and international level but also it spurts from within. Anti-Indian elements from within and from the region continuously pose serious threats to the internal security complex of India. The role of India's borders is very crucial in this context. Various threats can be dealt by securing the borders efficiently. But the borders of India are not identical in nature and problems and they vary not only in geographical features but also in social and cultural features. Each border receives a different kind of treatment from aligning countries accordingly the existing mutual relationship. If the border area people are not able to connect with the mainstream of the country's development, this affects the security of national sovereignty. Policy makers of the country really face a hard challenge to formulate an integrated policy for borderland and the borders of India due to their multiplicity. For India's borders, there are many common cross-border issues, chiefly non-security threats but there are other cross border issues which are border specific. Besides the security of borders, it is also needed that borders should behave softly to cross-border interactions, beneficial to mutual economic and cultural relationship. The border security approach focuses on defending the borders from various threats but the border management approach involves not only the protection of borders but also the protections of interests of the country on aligning borders.

https://www.academia.edu/35167895/Indias_Borders_and_Cross-Border_Issues_Problems_and_Prospects

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