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Tuesday, December 5, 2017

पुतिनपरस्त रूस और एशियाई राजनीति


डॉ. श्रीश पाठक*



सुबह सवेरे

आज का रूस एक लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था वाला देश है। अतीत में, समाजवादी छवि के साथ रूस का सोवियत संघ के रूप में पदार्पण विश्व राजनीति में हुआ और अमेरिका के सापेक्ष द्वितीय ध्रुव बन उसने शीत युद्ध की ज़मीन तैयार की। विश्व-राजनीति में दो ही निर्णायक शक्तियाँ रहीं किन्तु सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् रूस फिर एक राष्ट्र में सीमित हो गया। रूस ने धीरे-धीरे स्वयं को सहेजा। विघटन के पश्चात् भी रूस दुनिया का सबसे बड़ा देश है किन्तु पश्चिमी विकसित देशों के साथ कदमताल करने के लिए इसे एक पुनर्निर्माण से गुजरना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटोयुक्त शक्ति ने और भू-राजनीतिक दृष्टि से यूरोप और एशिया दोनों ही ही का भाग होने के कारण रूस कभी विश्व-राजनीति में अप्रासंगिक तो नहीं रहा, किन्तु इसके प्रभाव में असर जरूर आया। रूस ने कमोबेश पश्चिमी शक्तियों के साथ मिलकर पुनः अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया।
रूस की राजनीति में पुतिन का प्रादुर्भाव एक दूरगामी प्रभाव लेकर आया है । कभी राष्ट्रपति तो कभी प्रधानमंत्री बन पुतिन पिछले सत्रह सालों से रूस में सर्वाधिक निर्णायक स्थिति में हैं और उनकी लोकप्रियता कुछ कम भी नहीं हो रही। यह स्थिति उन्हें रूस की विदेश नीति के नियमन में असीमित अधिकार दे देती है। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए पुतिन रूस को एक बार फिर अपने पुराने गौरव तक लेकर जाना चाहते हैं। पुतिन रूस को अमेरिका की ही तरह विश्व राजनीति में एक प्रभावशाली स्थान दिलाना चाहते हैं जैसा कि शीत युद्ध के समय था। पहले भी रूस को उसके क्षेत्रफल की वजह से एक अपराजेय राष्ट्र माना जाता था; जब तक कि सन १९०५ में जापान ने रूस को परास्त नहीं कर दिया था । पुतिन ने एकतरफ अर्थव्यवस्था पर काम किया और दुसरी तरफ विश्व राजनीति पर नज़र गड़ाए रखी। उभरते चीन के साथ अपने सम्बन्ध अच्छे बनाने शुरू किये क्योंकि अमेरिका वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में सर्वाधिक मजबूत स्थिति में है और रूस के सापेक्ष चीन की प्रगति उल्लेखनीय है। एशिया में जापान जहाँ, अमेरिकी हितों अनुरूप अपनी सक्रियता तय करता है, रूस के लिए यह उचित ही था कि वह चीन से अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ करे। मध्य एशिया में ऊर्जा ज़रूरतों के लिहाज से चीन की मदद रूस ने की और चीन की मदद से रूस की पहुँच अफ़ग़ानिस्तान से सटे पाकिस्तान तक हुई। मध्य-पूर्व एशिया में अपनी उपस्थिति के लिए अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान तक पहुँच आवश्यक है। पुतिन अपने उद्देश्य में इतने स्पष्ट हैं कि उन्होंने भारत की अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता के सापेक्ष पाकिस्तान को हथियार तक देना स्वीकार किया। यह एक अप्रत्याशित फैसला था और एशिया की बदलती जमीन की सूचक भी है। घोषित तौर पर रूस भले ही उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम का विरोध करे किन्तु अपरोक्ष रूप से उत्तर कोरिया को रूस का समर्थन है, यह तथ्य भी छिपा नहीं है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यदि अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक रणनीतिक चतुष्क (क्वाड) निर्मित कर रहा तो रूस भी चीन, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया के साथ मिलकर प्रतिचतुष्क गढ़ रहा।
ऐसा नहीं है कि पश्चिम शक्तियाँ इन सभी गतिविधियों से अनभिज्ञ हैं। अक्टूबर माह में नाटो प्रमुख जेन्स स्टॉलटेन ने रोमानिया की राजधानी में संपन्न हुए चार दिवसीय नाटो संसदीय सभा को संबोधित करते हुए यह कहा कि हम किसी स्थिति में रूस के साथ एक ‘नवीन शीत युद्ध’ में नहीं पड़ना चाहते. यह बयान बताता है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा और निश्चित ही नाटो पुतिन के रूस की महत्वाकांक्षाओं से खुश तो नहीं है. नाटो शीतयुद्ध कालीन सामरिक संगठन है जिसमें अमेरिका के नेतृत्व में अमेरिकी गुट को सुरक्षा प्रदान करने के लिए गढ़ा गया था. शीत युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद भी यह संगठन बना रहा और प्रासंगिक रहा जिससे यह साफ हो जाता है कि वर्तमान विश्वव्यवस्था में अमेरिका एक अद्वितीय एवं सर्वाधिक शक्तिशाली स्थिति में है. विश्वव्यवस्था में नाटो जैसे सरंचना का होना और साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ का अस्तित्व में होना इसकी विसंगतियों और जटिलताओं का सूचक है. नार्वे के राजनयिक जेन्स स्टॉलटेन ने चिंता जताई कि रूस के सैन्य अभ्यास पारदर्शी नहीं हैं अर्थात उसकी मंशा संशयात्मक है. दरअसल पुगोर्बाचोव और बोरिस येल्तसिन का रूस कुछ और था और पुतिन का रूस यकीनन कुछ और ही है. रूस अघोषित तौर पर अपनी सोवियातकालीन गौरवशाली वैश्विक स्थिति में कम से कम आना चाहता है अथवा उसके राष्ट्रहित इसी दिशा में निश्चित ही संकेतित हैं। इसलिए ही रूस ने चीन, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान से संबंधों को नया मोड़ देना शुरू कर दिया है. दक्षिण चीन सागर विवाद में रूस ने कभी मौन रहकर तो कभी जरा सा मुखर होकर कमोबेश चीन का पक्ष ही लिया है. रूस ने कभी भी उत्तर कोरिया की आलोचना वास्तविक अर्थों में नहीं की है।


*लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं

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