गत रविवार को ईरान के राष्ट्रपति डॉ. हसन रोहानी ने बहुप्रतीक्षित चाबहार बंदरगाह के पहले चरण का औपचारिक उद्घाटन किया. कुल प्रस्तावित पाँच गोदियाँ बनायी जानी हैं, जिनमें से दो का निर्माण-कार्य पूरा कर लिया गया है. गौरतलब है कि यह बंदरगाह भारत-ईरान के संयुक्त सहयोग से निर्मित किया जा रहा है और भारत सरकार अब तक तकरीबन दो लाख करोड़ रुपये का निवेश इस प्रक्रम पर कर चुकी है. चाबहार का शाब्दिक अर्थ है जहाँ चारों मौसम बसंत के हों और यकीनन अब जबकि यह बंदरगाह संचलन में आ गया है, पूरी उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे न केवल भारत-ईरान के आपसी संबंधों की विमाएँ विस्तृत होंगी अपितु इससे भारत को रणनीतिक और आर्थिक स्तर पर दूरगामी लाभ भी मिलेंगे. इस बंदरगाह के सामरिक-रणनीतिक महत्व का अंदाजा यों लगाया जा सकता है कि उद्घाटन के करीब चौबीस घंटे पूर्व रूस के सोची शहर में हार्ट ऑफ एशिया की बैठक जो अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य की रणनीतियों के संबंध में आयोजित थी, उससे लौटते हुए भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपने ईरानी समकक्ष मोहम्मद जावेद ज़रीफ़ के साथ एक मुलाकात की और इस उपलब्धि पर उत्साह प्रकट किया.
ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थित चाबहार बंदरगाह की भू-राजनीतिक स्थिति बेहद विशिष्ट है. इससे तकरीबन बहत्तर किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह स्थित है जो पाकिस्तान-चीन का संयुक्त प्रक्रम है और संचलन में है. महत्वाकांक्षी शी जिनपिंग का चीन, ओबोर और अपनी मोतियों की माला नीति से पहले ही एशिया और हिंद महासागर में भारत की घेरेबंदी की ओर उद्यत है. अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते लगातार तनाव में हैं और युद्धों की छाया से निकला अफगानिस्तान किसी तरह अपने राष्ट्र को सहेजने और आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ाने को उत्सुक है. चाबहार, अफ़ग़ानिस्तान के लिए जहाँ आर्थिक और सामरिक अवसरों के आमंत्रण सरीखा है, वहीं इससे ईरान की वह पुरानी मंशा भी पूरी होती है जो 2002 में देश के सुरक्षा सलाहकार हसन रूहानी और भारत के उनके समकक्ष ब्रजेश मिश्र ने पारस्परिक हितों के मद्देनज़र इस ओर पहल की थी. मध्य एशिया में ईरान एक स्वयंभू देश है जो अपनी जीवटता और कूटनीति के बल पर अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय चुनौतियों से लड़ता रहा है. पाकिस्तान को यह चाबहार की बहार यकीनन रास नहीं आयेगी क्योंकि एक तो ग्वादर बंदरगाह की भौगोलिक स्थिति उतनी अनुकूल नहीं है और आतंकवाद के कारण यह एक अशांत क्षेत्र में भी पड़ता है. ग्वादर की वज़ह से पाकिस्तान का एक सामरिक दबाव अफगानिस्तान पर था, वह भी चाबहार ने निष्क्रिय कर दिया है.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रति एक राष्ट्र को अपने हित स्वयं ही साधने होते हैं. इसके लिए सभी राष्ट्र अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुरूप निरंतर सभी प्रकार के राष्ट्रों से किसी न किसी रीति से संबद्धता निर्मित करते हैं. चीन ने दक्षिण एशिया में इस कारण ही पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल आदि देशों से आर्थिक-सामरिक संबंध बनाए हैं. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और चीन अधिकृत अक्साई चिन पर पाकिस्तान-चीन के द्वारा पारस्परिक व्यापारिक गलियारा विकसित कर लेने से एक तो भारत के लिए सामरिक चुनौती उत्पन्न हो गयी और दूसरे ऊर्जा के विपुल स्रोत मध्य एशिया के देशों से भौतिक संपर्क ही अवरुद्ध हो गया. एक तेजी से विकसित होते देश भारत की ऊर्जा जरूरतों के लिए देश ने एक समय ईरान से गैस पाइपलाइन परियोजना पर काम तो किया पर अमेरिका-ईरान संबंधों की जटिलता ने इस परियोजना की प्राथमिकता का स्थान भारत-अमेरिका परमाणु नागरिक समझौते ने ले ली. चाबहार के संचलन से ईरान-अफ़ग़ानिस्तान-रूस होते हुए यूरोप से संबद्धता बढ़ेगी और तुर्कमेनिस्तान-कज़ाखस्तान सीमा रेलवे परियोजना से भारत की उपस्थिति मध्य एशिया में भी बढ़ेगी. इसप्रकार भारत की कनेक्ट सेंट्रल एशिया की नीति भी पल्लवित होगी साथ ही पाकिस्तान और चीन की भारत की मध्य एशिया से भौतिक संबद्धता को अवरुद्ध करने की मंशा को भी करारा झटका लगेगा.
विश्व राजनीति में मित्रता और शत्रुता के भाव स्थायी नहीं होते हैं, स्थायी होते हैं तो केवल राष्ट्रहित. इस समय अमेरिका, चीन और रूस के उभरने से दबाव में तो है किन्तु इसके संतुलन के लिए वह प्रभावी रूप से कार्यरत भी है. पाकिस्तान-चीन-उत्तर कोरिया-रूस की चौकड़ी का जवाब अमेरिका ने जापान, आस्ट्रेलिया एवं भारत से बने चतुष्क (क्वाड) से देने की कोशिश की है. इस वज़ह से एक ओर हिन्द महासागर में भारत की स्थिति मजबूत हुई है, जो कि मालाबार अभ्यास से सुस्पष्ट भी हुई और दूसरी तरफ ट्रंप की हालिया एशिया-प्रशांत क्षेत्र की यात्रा में भारत की भूमिका को बारम्बार रेखांकित किए जाने से भारत की सामरिक स्थिति सम्पूर्ण एशिया प्रशांत क्षेत्र तक में सुसंबद्ध हो गई है. रूस, चीन और अमेरिका से भारत के आर्थिक संबंध उल्लेखनीय तो हैं ही, भारत ने अवसर का लाभ उठाते हुए स्वयं को संबद्धता के दोनों पुलों में अपनी गुंजायश बना रखी है. एक तरफ ईरान और रूस से संबंध एक संतोषप्रद संतुलन में हैं तो दूसरी ओर अमेरिका और जापान से भी भारत के रिश्ते उल्लेखनीय हैं. किसी राष्ट्र के दूरगामी हितों के अनुरूप यह एक सुंदर संतुलन तो है जिसे साधना आसान नहीं है; किन्तु इसकी अपरिहार्यता भारत के लिए पर्याप्त सावधानी और सामरिक-कूटनीतिक कुशलता बनाए रखना अनिवार्य भी करती है.
*लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं.
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