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Saturday, February 24, 2018

मालदीव में आवश्यक है हस्तक्षेप



साभार: गंभीर समाचार 

यूँ तो मालदीव बहुत ही छोटा सा देश है जिसमें पांच लाख से भी कम लोग रहते हैं, पर इस बेहद खूबसूरत देश की भू-राजनीतिक स्थिति उतनी ही कमाल की है। इसलिए ही मालदीव का राजनीतिक संकट महज एक आंतरिक संकट नहीं है अपितु इस संकट ने अमेरिका, यूरोपीय संघ, अरब देशों सहित समूचे विश्व की नज़रें क्षेत्र की दो बड़ी शक्तियों भारत और चीन पर केंद्रित कर दी हैं। हिन्द महासागर क्षेत्र पर प्रभाव विश्व-व्यापार के दैनंदिन यातायात के लिए अहम है। सुपरपॉवर अमेरिका इसलिए ही हिन्द महासागर में मालदीव के ठीक नीचे विषुवत रेखा के पार ब्रिटेन और भारत के साथ चागोस द्वीपसमूह के डियागो गार्सिआ पर अपनी सामरिक उपस्थिति बनाये हुए हैं। वर्ल्डपॉवर से सुपरपॉवर बनने की जद्दोजहद में लगा चीन विश्व के अधिकांश सामरिक क्षेत्रों सहित हिन्द महासागर क्षेत्र में भी अपनी प्रभावी उपस्थिति बना चुका है। शी जिनपिंग का चीन महत्वकांक्षी ‘एक मेखला-एक मार्ग’ योजना के तहत ‘समुद्री रेशम मार्ग’ पर भी काम कर रहा है। चीन मलक्का जलडमरूमध्य के कोकोज कीलिंग द्वीप के पास और अफ्रीकी तट पर जिबूती में जहाँ नौसेना बेस बनाने की कोशिश कर रहा है वहीं म्यांमार के क्याउक्फू, बांग्लादेश के चित्तागोंग, श्रीलंका के हम्बनटोटा और पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाहों के निर्माण में भारी निवेश किया है। चीन की यह समूची कोशिश हिन्द महासागर में हिंदुस्तान को घेरने और क्षेत्र में अमेरिकी फुटप्रिंट को संतुलित करने की है। 

मालदीव की मौजूदा यामीन सरकार ने लोकतंत्र को गिरवी रखकर देश में 15 दिनों के आपातकाल को अगले 30 दिनों के लिए बढ़ा दिया है। यामीन सरकार की मंसा, मालदीव के चुनाव आयोग की उस घोषणा में दिखती है, जिसमें इस साल सितम्बर में ‘राष्ट्रपति-चुनाव’ कराने की घोषणा की गयी है। गौरतलब है सितम्बर में अभी छह महीने से अधिक का समय है, इससे यामीन को यथास्थिति बहाल करने का मौका मिलेगा और चुनाव परिणाम को अपने पक्ष में करने की मशीनरी पर भी मुकम्मल काम हो सकेगा। निवर्तमान-स्वनिर्वासित राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने दुनिया के दो बड़े लोकतंत्रों भारत और अमेरिका से आवश्यक हस्तक्षेप कर मालदीव में लोकतंत्र बचाने की गुहार की है। अमेरिका, यूरोपीय संघ सहित समूचा पश्चिमी जगत चाहता है कि भारत निर्णायक हस्तक्षेप करे और हिन्द क्षेत्र में बढ़ते चीनी प्रभाव का उत्तर दे। किन्तु भारतीय विदेश नीति भले ही अंतरराष्ट्रीय फलक पर बेहतर करती दिख रही हो, सच यही है कि पड़ोस और हिन्द आँगन में चीन ने अपनी पकड़ उन देशों में भी भारत से अधिक बना ली है, जहाँ लोकतांत्रिक सरकारें हैं। पड़ोस में कूटनीतिक अकर्मण्यता ने भारत के पास कुछ अधिक विकल्प शेष ही नहीं रखा है । 

भारत एक पशोपेश में है। चीन की सामरिक क्षमता हिन्द महासागर क्षेत्र में अभी भारतीय उपस्थिति का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है किन्तु भारत यदि चीनी मंसा के विरुद्ध जाकर मालदीव में सैन्य हस्तक्षेप करके सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम राष्ट्रपति बनाकर शांतिपूर्ण चुनाव कराता है और मालदीव में लोकतांत्रिक रीति से अगला राष्ट्रपति नियुक्त करने में मदद करता है तो चीन के साथ विवाद में एक और दीर्घकालिक अध्याय जुड़ जायेगा। यह स्थिति चीन की क्षेत्र में मौजूदा सामरिक पकड़ को देखते हुए भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगी। यदि अमेरिका आदि पश्चिमी शक्तियाँ भारत का साथ देती भी हैं तो हिन्द महासागर क्षेत्र को विश्व-शक्तियों की अगली क्रीड़ास्थली बनने से नहीं रोका जा सकेगा। फिर भारत की मौजूदा सरकार अगले आम चुनाव में उतरने से पहले ऐसा कोई दुस्साहस नहीं करना चाहेगी जिससे उसके राजनीतिक हितों पर आंच आये। चीन से तनातनी मोल लेते हुए भारत के हस्तक्षेप से मालदीव में यदि  एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन हो भी जाता है तो भी इस्लामिक आतंकवाद की लपटों में ध्रुवीकृत हुए मालदीवी राजनीतिक समाज में इसका संचालन बेहद कठिन होगा और चीन आदि शक्तियों के पास इसे डांवाडोल करने का अवकाश मिलता रहेगा। 

लेकिन भारत यदि एक कूटनीतिक चुप्पी ओढ़ लेता है और इसे महज एक आंतरिक मामला मान चीनी अपेक्षाओं के अनुरूप मोहम्मद नशीद के अनाधिकारिक अनुरोध को दरकिनार कर देता है तो भी इसके गहरे और दीर्घकालिक कूटनीतिक खतरे हैं। जिसप्रकार गुटनिरपेक्ष आंदोलन से उभरते भारत की साख को चीन ने हिमालय क्षेत्र में 1962 में बट्टा लगाया था और हाल ही में डोकलाम में भी यही कोशिश थी, उसीप्रकार हिन्द महासागर क्षेत्र में यदि चीनी प्रभुत्व में भारत हाथ धरे रह जाता है तो भारत पर अपनी कूटनीतिक और सामरिक निर्भरता कम करने को मित्र व पड़ोसी देश निश्चित ही बाध्य होंगे और इससे चीन के मंसूबों को पंख लगेंगे। भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए उचित यही होगा कि भारत अपनी हिचक छोड़े और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, जापान व आस्ट्रेलिया के अपने नवगठित मजबूत सामरिक एवं आर्थिक गठजोड़ “चतुष्क (क्वाड)” के नेतृत्व में मालदीव संकट का निराकरण करे। इस चतुष्क को मिलकर यह तय करना चाहिए कि मालदीव में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप उचित होगा अथवा संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व-समुदाय के सम्मिलित दबाव से इसमें अपेक्षित परिणाम मिलेंगे। इससे न केवल चीन को संतुलित किया जा सकेगा बल्कि क्षेत्र में भारतीय उम्मीदों और उसकी लोकतांत्रिक साख को भी बल मिलेगा। 

*लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।  

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