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Wednesday, June 27, 2018

राजनीतिक दल से उम्मीदों की प्रश्नावली



देर-सबेर सभी राजनीतिक दल यह एहसास करा ही देते हैं कि उनका मकसद सत्ता भोगना ही है। एक समर्पित कार्यकर्त्ता को फिर दुसरे दलों के पुराने करतूतों का कच्चा-चिट्ठा रखने के अलावा और कुछ सूझता नहीं है। कई बार कार्यकर्ता व्यक्तिगत दुश्वारियाँ और दुश्मनी पाल लेते हैं और अक्सर चुनाव के बाद जब उनके राजनीतिक आका आपस में गलबहियाँ कर लेते हैं तो उस वक्त दिल में कहीं नश्तर सा लगता है और दुनिया के बड़े ज़ालिम होने का एहसास होता है। राजनीतिक दल अपनी परिभाषा में ही सत्ता के लिए संघर्षशील होते हैं, तो सत्ता के लिए संघर्ष करने में कोई बुराई नहीं है। किन्तु राजनीतिक दल, महज सत्ताप्राप्ति के ही निमित्त नहीं होते हैं। हाँ, यह अवश्य ही है कि सत्ताप्राप्ति ही उनका एकमात्र ध्येय बनकर रह गया है। 

संविधान सभा की मंशा यह नहीं थी कि नागरिक, किसी दल विशेष के होकर रह जाएँ। देश के भीतर अनगिनत मुद्दे होते हैं और वे मुद्दे अपनी बदलती प्राथमिकता और प्रासंगिकता में परिदृश्य पर उभरते हैं। किसी मुद्दे के सार्थक निस्तारण हेतु सम्यक नीति और कार्ययोजना की आवश्यकता होती है जिससे अधिकतम नागरिकों का वृहत्तम हित सधे। एक राजनीतिक दल में भाँति-भाँति के लोग मिलकर देश के सभी आवश्यक मुद्दे पर अपने दल के लिए एक एकीकृत नीति और कार्ययोजना गढ़ते हैं। नीतियों में अन्तर्निहित विरोधाभास न हो इसलिए राजनीतिक दल अपना एक वृहद् उद्देश्ययोजना तैयार करते हैं। इससे ही उस राजनीतिक दल की प्रकृति और चरित्र का निर्धारण होता है। किसी भी मुद्दे का कोई एक अंतिम निस्तारणनीति और कार्ययोजना नहीं हो सकता। इसलिए ही किसी देश में एक से अधिक राजनीतिक दलों की गुंजायश बनाई जाती है। भारत में विविधता अन्याय स्तरों पर है तो यहाँ बहुदलीय दल अनिवार्य ही हैं जिससे सभी विविधताओं को स्वर मिले और वे एक सिम्फनी में राष्ट्र के लिए कार्य कर सकें। एक नागरिक, किसी दल विशेष की वृहद् कार्ययोजना, उसकी नेतृत्व शक्ति एवं सांगठनिक क्षमता से प्रभावित होकर उसकी प्राथमिक सदस्यता लेकर अपनी भूमिका सुनिश्चित कर सकता है। यह उसका अधिकार है। लेकिन इससे उसके व्यक्तित्व पर कोई लेबल लगाना ठीक नहीं है। वह चाहे जब उस दल से अलग हो सकता है। वह सामान्य मतदाता बने रह सकता है अथवा वह किसी दूसरे दल की सदस्यता ले सकता है। 

प्रश्नों की एक चेकलिस्ट बनाई है मैंने, जिससे हम यह जान सकते हैं कि एक मतदाता और एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में हम तथा कोई राजनीतिक दल कितने खरे उतरते हैं। यह चेकलिस्ट अनंतिम है, पर उपयोगी है। इस बेहद आवश्यक कसौटी से हर नागरिक को जरूर गुजरना चाहिए: 


एक मतदाता के रूप में 

१. क्या अमुक राजनीतिक दल ने यदि राष्ट्रीय स्तर का है तो देश के लिए और यदि प्रांतीय स्तर पर है तो उस राज्य के लिए वृहद् उद्देश्ययोजना निर्मित की है? क्या आपने उसे कभी पढ़ा है?
२. क्या उसमें देश/प्रांत स्तर की सभी महत्वपूर्ण समस्याएँ हैं?
३. समस्याओं के वर्गीकरण में क्या सभी देश/प्रांत के सभी विभिन्नताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व है?
४. समस्याओं के निस्तारण नीति उपलब्ध है?
५. क्या आपने निस्तारण नीतियों की परख के लिए किसी चर्चा में परिभाग किया है?
६. निस्तारण नीतियों के कार्ययोजनाओं में क्या देश/प्रांत के सभी विभिन्नताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व है?
७. क्या राजनीतिक दल के सदस्य चुनाव के अलग समयों में आपसे मिलते हैं?
८. क्या आपने राजनीतिक दल के सदस्यों से अपनी समस्याएँ साझा की हैं? 
९. क्या आपको समस्याओं के हल की कोई योजना राजनीतिक दल के द्वारा सुझाई गयी या आश्वासन ही मिला?
 १०. क्या अमूमन यही होता है कि आपके क्षेत्र से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दे राजनीतिक दल निर्धारित करते हैं? अथवा उस क्षेत्र विशेष के मतदाता वहाँ के मुद्दे निर्धारित करते हैं और राजनीतिक दल उसे अपना मुद्दा बनाकर संघर्ष करते हैं?
११. राजनीतिक दल के सदस्यों, नेताओं का मतदाताओं से चुनाव से इतर व्यवहार कैसा है? क्या वे सुलभ हैं?
१२. किसी राजनीतिक-सामाजिक हल की प्रक्रिया में अमुक राजनीतिक दल की कार्ययोजना समावेशी है अथवा एकांतिक है ? एकांतिक समाधान सामाजिक विखंडन को न्यौता देते हैं।  
१३. राजनीतिक दल के सदस्य स्वयं लाभ को वरीयता देते हैं या क्षेत्रहित को वरीयता देते हैं?
१४. सांविधानिक तौर-तरीकों में उस दल-विशेष की कितनी आस्था है?
१५. सार्वजनिक संपत्ति के साथ उस राजनीतिक दलों के सदस्यों का कैसा बर्ताव है?
१६. क्या आप जांचते हैं कि क्षेत्र के किसी नेता और राजनीतिक दलों के सदस्यों की आपराधिक पृष्ठभूमि कैसी है?
१७. क्या आप किसी राजनीतिक दल के वादों की सम्यक समीक्षा करते हैं?
१८. क्या आपके पास दलों का मैनिफेस्टो होता है?
१९. मैनीफेस्टो की गुणवत्ता कैसी है?क्या उसमें आपके क्षेत्र, प्रांत, राष्ट्र की समस्याओं का उचित प्रतिनिधित्व एवं सम्यक निस्तारण रीति स्पष्ट है?
२०. प्रति चुनाव मैनीफेस्टो में क्या कोई गुणात्मक परिवर्तन है?

एक दल-विशेष के सदस्य के रूप में 

१. क्या आपका राजनीतिक दल चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित रीति से पंजीकृत है?
२. क्या आपके पास उस राजनीतिक दल की सदस्यता का प्रामाणिक पत्र है?
३. क्या आपका राजनीतिक दल राष्ट्र की मूलभूत अवधारणा में यकीन रखता है?
४. क्या आपका राजनीतिक दल संविधान में और सांविधानिक प्रक्रियाओं में आस्था रखता है?
५. क्या आपका राजनीतिक दल लोकतंत्र में यकीन रखता है और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को प्रायोगिक एवं दार्शनिक दोनों स्तरों पर मान्यता देता है?
६. क्या राजनीतिक दल के भीतर लोकतंत्र है?
७. क्या आपका राजनीतिक दल आपको स्पष्ट करता है कि वह क्यों सत्ता प्राप्त करना चाहता है?
८. क्या आपका राजनीतिक दल राष्ट्र/प्रांत/क्षेत्र से जुड़े मुद्दों के निर्धारण में आपकी राय को महत्ता देता है?
९. क्या आपके राजनीतिक दल में जनता के मुद्दों को पहचानने एवं उसके हल की कार्ययोजना को लेकर कोई आयोजना है और क्या आप इससे परिचित हैं?
१०. आपके राजनीतिक दल में विभिन्न मुद्दों को लेकर आवश्यक शोध की व्यवस्था है?
११. क्या आपका राजनीतिक दल समावेशी है?
१२. क्या आपका राजनीतिक दल आपके असहमतियों को स्थान देता है और तदनुरूप अपनी कार्ययोजनाओं में तब्दीलियाँ करता है?
१३. क्या आपका राजनीतिक दल अनैतिक कृत्यों की संस्तुति सत्ता प्राप्ति के लिए करता है?
१४. क्या आपके दल के सदस्यों को लेकर लोकतांत्रिक समानता बरती जाती है?
१५. क्या आपके राजनीतिक दल के निर्णय सामान्य सभा लेती है अथवा यह किसी एक व्यक्ति में निहित है?
१६. क्या आपका राजनीतिक चंदों और बहीखातों को लेकर पारदर्शी है? क्या सभी जानकारियाँ पब्लिक डोमेन में हैं?
१७. क्या आपका राजनीतिक दल राजनीतिक शुचिता के लिए लोकतांत्रिक रीति से अनुशासनात्मक कार्यवाहियाँ बिना किसी भेदभाव के करता है?
१८. क्या आपके राजनीतिक दल में महत्वपूर्ण पदों और निर्णयों के लिए किसी खास वर्ग, समूह, जाति, समुदाय अथवा परिवार की ओर देखना होता है?
१९. क्या आपका राजनीतिक दल अपनी नीतियों और कार्ययोजनाओं को समकालीन चुनौतियों के अनुरूप अद्यतन करता है?
२०. क्या आपके राजनीतिक दल के सभी सदस्य अपने कृत्यों के लिए जनता और आपके लिए जवाबदेह हैं? 


यह कसौटी अपने विषयों में अंतिम नहीं है। किसी राष्ट्र की प्रगति का दारोमदार उस राष्ट्र की राजनीति पर होता है। राजनीति बड़े ही महत्त्व का विषय है। लोकतंत्र में सबसे बड़ी जिम्मेदारी नागरिक की होती है। नागरिक जितना ही मौन और उदासीन होता है, उसके राष्ट्र की राजनीति उतनी ही असह्यनीय, अश्लील और गैर-जिम्मेदार होती है। एक बार जरा मतदाता अथवा किसी राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में इन कसौटियों के समक्ष स्वयं को और अपने राजनीतिक दल को रखिये, लगभग तुरत ही स्पष्ट हो जायेगा कि हमारा प्यारा देश क्यों प्रगति के उस सोपान पर चढ़ने की बजाय राजनीतिक अवनति को प्राप्त हो रहा। जवाब इसका भी मिलेगा कि आखिर क्यों राजनीतिक दल सत्ता में आते ही जनता के नहीं उद्योगपतियों के हो जाते हैं और यह भी कि क्यों राजनीतिक दल नागरिकों को व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि वोटबैंक के रूप में देखते हैं। मुझे उम्मीद है कि इस प्रश्नावली से एक उत्तर और मिलेगा कि आखिर क्यों एक राजनीतिक दल सत्तासुख भोगने के बाद बिना कोई ठोस जनहित के काम किये बिना ही अगले चुनाव के सीटों का अश्लील लक्ष्य रखता है और उसे क्यों मतदाताओं से अधिक अपने चुनाव-मैनेजमेंट टीम पर यकीन होता है ?देखिये जरा, कहीं कोई हमें बस मैनेज तो नहीं कर रहा?   

Saturday, June 23, 2018

भारतीय विदेश नीति के बढ़ते आयाम



किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए विदेश नीति सर्वाधिक कठिन आयाम होती है। अनिश्चितता इसका निश्चित गुणधर्म है इसलिए इसमें सफलता और असफलता दूरगामी परिणाम तथा महत्त्व लेकर आती है। अपेक्षाकृत रूप से नरेंद्र मोदी सरकार को विश्व-राजनीति का एक कठिन समय नसीब हुआ है। पिछले दो दशकों में ऐसा नहीं था कि समस्याएं जटिल नहीं थीं लेकिन एक सर्वोच्च विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका की स्थिति सर्वमान्य थी। रूस, दक्षिण कोरिया, जापान, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रिटेन आदि सहित यूरोप के राष्ट्र अमेरिका की पंक्ति में ही स्वयं को अनुकूल कर विकास के पायदान पर चढ़ने के हिमायती बने रहे। संयुक्त राष्ट्र सहित विश्व की दूसरे बड़े आर्थिक व सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कमोबेश अमेरिकी वित्त पर ही आधारित होते हुए कार्यरत रहे।  

स्थितियाँ एकदम से बदल नहीं गयी हैं, लेकिन पुतिन का रूस अब महत्वाकांक्षी राष्ट्र है, शी जिनपिंग का चीन ओबोर नीति से अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षा स्पष्ट रख रहा है, जापान अपनी शांतिपूर्ण विदेश नीति का मंतव्य छोड़कर सक्रिय विदेश नीति की ओर रुख कर चुका है। रूस, चीन, पाकिस्तान मिलकर एशिया में साझी रणनीति बना रहे। हिंदमहासागर और प्रशांत महासागर पर अमेरिका, रूस, चीन तीनों की बराबर नज़र है। जापान के सुझाव पर भारत को सम्मिलित करते हुए अमेरिका ने आस्ट्रलिया के साथ चतुष्क बनाने की कोशिश की और हाल ही में अपने बेहद खास पैसिफिक कमांड का नामकरण ‘इंडो-पैसिफिक कमांड’ कर दिया है। दक्षिण कोरिया ने अपने  कूटनीतिक करिश्मे का लोहा मनवाते हुए उत्कट उत्तर कोरिया के साथ सहयोग का नया आयाम विकसित करने में सफलता प्राप्त की और सिंगापुर में १२ जून को ‘डोनॉल्ड ट्रम्प-किम जोंग उन’ की बहुप्रतीक्षित भेंट होने की नींव तैयार की। रणनीतिक महत्त्व समझते हुए, रूस ने चीन द्वारा स्थापित दक्षिण-पूर्व क्षेत्र के प्रमुख आर्थिक सहयोग संगठन ‘शंघाई सहयोग संगठन’ का पाकिस्तान के साथ, भारत को भी  पूर्ण सदस्य बनवाने की सफल पैरवी की। 

मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति कई अवसरों पर जता चुकी है कि भारत न केवल अपनी वैश्विक भूमिका निभाने को तत्पर है अपितु अपनी एक ‘स्वतंत्र विदेश नीति’ का भी निर्वहन वह कर सकता है। अमेरिका के दबावों के बावजूद भारत रूस से एस-४०० मिसाइल तकनीक खरीद रहा है और  अमेरिका के द्वारा लगाए गए CAATSA प्रतिबंधों से भी अप्रभावित होकर रूस और ईरान से अपने व्यापारिक संबंध बनाये हुए है। ईरान के चाबहार बंदरगाह के पूर्ण निर्माणकार्य के लिए भारतीय सहयोग अपनी सततता में है। हिंदमहासागर में जहाँ भारत अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस के सहयोग में है और आस्ट्रेलिया, जापान के साथ मालाबार अभ्यास से जुड़ा हुआ है वहीं मारीशस के पक्ष में चागोस मुद्दे पर भारत ने ब्रिटेन के हितों के विपक्ष में मत दिया। आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्ष मोदी के निमंत्रण को स्वीकार भारत की गणतंत्र परेड की शोभा बढ़ाते हैं वहीं मोदी म्यांमार और थाईलैंड के साथ मिलकर ‘एक्ट ईस्ट’ के नारे को अमली जामा पहनाने की कोशिश भी करते हैं। विरोधाभासों को साधते हुए मोदी हाल ही में संपन्न ‘शंघाई सहयोग संगठन’ के आयोजन में भारत को चीन के ओबोर अवधारणा के लिए चिंता व्यक्त करने वाले अकेले सदस्य देश के रूप में प्रदर्शित करते हैं तो कुछ समय पहले अमेरिका द्वारा एकतरफा जेरूशलम को इजरायल की राजधानी घोषित करने के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव पर भारत का मत अमेरिका-इजरायल के विरुद्ध निर्धारित करते हैं। हाल ही में संपन्न हुई ट्रम्प और किम जोंग उन की उल्लेख्ननीय भेंट पर सधी प्रतिक्रिया देते हुए भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसे एक ‘सकारात्मक विकास’ कहा और ऐसी उम्मीद लगाई कि परमाणुमुक्त कोरियन क्षेत्र की मंसा के अनुरूप भारत के पड़ोस (पाकिस्तान) तक फैले संपर्कप्रसार सूत्र को भी दृष्टि में रखा जायेगा। 

चतुष्क और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की अमेरिकी जुगलबंदी के बीच यह सच है कि भारत को रूस के साथ अपनी पारम्परिक मित्रता कुछ परे रखनी पड़ी। इसका कारण यह भी रहा कि पुतिन का रूस, वह पारम्परिक रूस रहा भी नहीं। वैश्विक स्तर पर मोदी अपने सतत विदेश यात्राओं से जहाँ भारत की वैश्विक उपस्थिति बनाये रखी वहीं दक्षिण एशिया क्षेत्र में रूस-चीन-पाकिस्तान मैत्री ने भारत के लिए नयी चुनौतियाँ गढ़नी शुरू कीं। मालदीव, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल सहित भारत के पड़ोसी देश कहीं न कहीं चीन के ओबोर आर्थिक फंदे में फंसते चले गए। इधर जब ट्रम्प के अमेरिका ने खासा स्वार्थी रुख अपना लिया और जी-७ के अपने सहयोगियों, यूरोपीय देशों और रूस, ईरान आदि के हितों से अधिक अमेरिकी हितों की स्वकेन्द्रित व्याख्या की तो रूस और चीन ने भी अपने वादों को लेकर अमूमन निश्चित रहने वाले भारत के प्रति अपना सहयोगी रुख फिर अपनाया। इशारा मिलते ही मोदी २७ अप्रैल को चीन के शहर वुहान में एक अनौपचारिक भेंट के लिए शी जिनपिंग के पास सहसा पहुँचे। चीन और भारत की इस एजेंडारहित अनौपचारिक भेंट का हासिल खासा उत्साहित करने वाला रहा। भारत और चीन, अफगानिस्तान में साझा अवसरंचनात्मक सहयोग को राजी हुए। डोकलम जैसी किसी स्थिति से बचने के लिए अपने-अपने सुरक्षा बलों को सामरिक दिशानिर्देश देने का फैसला लिया गया। पारस्परिक व्यापार संतुलन के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी। मोदी ने इस अनौपचारिक भेंट के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए जिनपिंग को भारत आने का न्यौता दिया और दोनों नेताओं ने एक बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था बनाने में अपनी आस्था प्रकट की। अनौपचारिक भेंट को एक नया कूटनीतिक पहल बनाते हुए पुतिन के निमंत्रण पर मोदी २१ मई को रूस के शहर सोची पहुँचे। इस भेंट को दोनों नेताओं ने ‘बेहद उर्वर’ और ‘सर्वआयामी’ करार दिया। मोदी ने जहाँ ‘शंघाई सहयोग संगठन’ की सदस्यता की पैरवी के लिए पुतिन को धन्यवाद दिया वहीं मिसाइल कण्ट्रोल रिजीम के एनएसजी और संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के भारतीय पक्ष की पैरोकारी के लिए आभार भी व्यक्त किया। हाल ही में चीन ने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति प्रयासों में अपनी भूमिका निभाने की मंशा जताई है, यह एक संतोषप्रद विकास है। 

पिछले दशकों की भाँति विश्व-व्यवस्था सरल ध्रुवीकृत नहीं है। वैश्वीकरण के आर्थिक स्वरूप ने विश्व के देशों को एक जटिल अंतर्निर्भर व्यवस्था में कार्य करने को विवश किया है जिसमें सभी राष्ट्र, अपने ‘राष्ट्र-हित’ की अधिकाधिक आपूर्ति की मंसा रखते हैं। अनिश्चित वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में कूटनीति के सभी कदम समान रूप से लाभकारी नहीं होते लेकिन यह अवश्य कहना होगा कि भारत सरकार ने जिसप्रकार विदेश नीति को अपनी वरीयता में रखा है और अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्रांस, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया सऊदी अरब, इजरायल, अफगानिस्तान सहित रूस, उत्तर कोरिया, चीन, ईरान आदि देशों के साथ जिसप्रकार अपने हित संतुलित किये हैं, वह आसान नहीं है।


Friday, June 15, 2018

झटके में इतिहास बनाने वाली मुलाकात




दुनिया भर से आये तकरीबन ढाई हजार से अधिक पत्रकार सिंगापुर के खूबसूरत द्वीप सेंटोसा में इस दशक की बहुप्रतीक्षित भेंट ‘डोनॉल्ड ट्रम्प- किम जोंग-उन’ के साक्षी बने और इस भेंट के एक प्रमुख सूत्रधार दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जाए-इन ने अमेरिका और उत्तर कोरिया के इस ‘सेंटोसा एग्रीमेंट’ को आख़िरी बचे शीतकालीन अवशेष को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका वाला बताया। यकीनन, विश्व कूटनीति का यह एक शानदार पड़ाव था। कोरियाई द्वीप 1910 से 1945 ई. तक जापानी नियंत्रण में रहा। द्वितीय विश्व युद्ध में जब अमेरिका-ब्रिटेन-सोवियत संघ के संयुक्त नेतृत्व में हिरोशिमा-नागासाकी की भीषण विभीषिका के बाद जापान ने पराजय स्वीकार कर ली तब कोरिया की सीमाओं से लगे सोवियत संघ और प्रमुख विश्व शक्ति अमेरिका ने कोरिया को विभाजित करने का निर्णय किया। 1950 में सोवियत संचालित उत्तर कोरिया के शासक किम इल-संग और अमेरिका द्वारा संचालित दक्षिण कोरिया के शासक सिंगमन री में समूचे कोरिया को हथियाने के लिए भयानक संघर्ष छिड़ पड़ा. अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री डीन एचेसन ने एक बार कहा था कि दुनिया के सबसे बेहतरीन विशेषज्ञों से यदि सबसे भयानक युद्ध स्थल के बारे में पूछा जाए तो एक स्वर में जवाब कोरियाई प्रायद्वीप होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमन और चीन के माओ जेदांग किसी कीमत पर यह संघर्ष जीतना चाहते थे। 1953 में आख़िरकार युद्धविराम घोषित किया गया जिसमें 38वें समानांतर अक्षांश के उत्तर में नयी सीमा खींची गयी और उत्तर कोरिया व दक्षिण कोरिया के मध्य दो मील चौड़ा एक क्षेत्र छोड़ा गया जिसे ‘असैन्य क्षेत्र (DMZ)’ कहा गया। 

जबतक सोवियत संघ अस्तित्व में रहा उत्तर कोरिया बड़ी तेजी से दक्षिण कोरिया की ही तरह प्रगति करता रहा लेकिन सोवियत संघ के विघटित होते ही उत्तर कोरिया विकास की होड़ में दक्षिण कोरिया से बहुत पिछड़ता रहा। किम इल-संग के बाद किम जोंग-इल के समय में उत्तर कोरिया एक बैरकों में बंद देश बनता गया और देश की पिछड़ती अर्थव्यवस्था ने गरीबी और बेरोजगारी को सम्हालने से हाथ खड़े कर दिए। जोंग-इल ने दमन और मिलिटरी मजबूती का दामन पकड़ा जिसमें घोषित-अघोषित रूप से रूस और चीन का साथ मिलता रहा। जोंग-इल के उत्तराधिकारी किम जोंग-उन ने जब 27 वर्ष की उम्र में बागडोर सम्हाली तो उत्तर कोरिया में एक बदलाव देखा गया, लेकिन जोंग-उन अपने देश के भीतर ही मिसाइलों और परमाण्विक आयुध विकास पर काम करते रहे। इस वक्त तक पुतिन और शी जिनपिंग के निर्बाध नेतृत्व वाले रूस और चीन अपनी बढ़ती वैश्विक महत्वाकांक्षा स्पष्टतया उजागर करने लगे। चीन, रूस और परमाणु आग्रही उत्तर कोरिया मिलकर एशिया में दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के द्वारा निर्मित शक्ति संतुलन को चुनौती देने लगे। अमेरिका के नेतृत्व में भारत, जापान, आस्ट्रेलिया को मिलाकर एक अनौपचारिक सामरिक समूह चतुष्क (क्वाड) गढ़ा गया जिससे समूचे इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में रूस-चीन-उ. कोरिया संगति को संतुलित किया जा सके। भड़काऊ बयानों, मिसाइल परीक्षणों और रूस-चीन-अमेरिका के परस्पर मतभेदों से कोरियाई प्रायद्वीप पर तनाव कुछ कदर बढ़ा कि आये दिन विश्लेषक इस संघर्ष में नवशीत युद्ध की झलक निरखने लगे। मार्च, 2017 में उत्तर कोरिया के जापान की ओर चार बैलिस्टिक मिसाइलों के परीक्षण के बाद, अमेरिकी नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प ने कहा कि विश्व शांति के विरुद्ध उत्तर कोरिया का भय एक नवीन चरण में प्रवेश कर चुका है। मई 2017 में ट्रम्प ने जोंग-उन को परमाणु हथियारों वाला ‘मैडमैन’ कहा। जून 2017 में अमेरिका ने उ. कोरिया पर प्रतिबन्ध लगाए और जुलाई 2017 में उ. कोरिया ने मिसाइल परीक्षण किया जिसकी जद में संभवतः अमेरिका का अलास्का प्रान्त आता है। सितम्बर, 2017 में संयुक्त राष्ट्र संघ में ट्रम्प ने उ. कोरिया को पूरी तरह तहस-नहस करने की चेतावनी दी और संयुक्त राष्ट्र संघ ने उ. कोरिया पर अतिरिक्त प्रतिबंध लगाया। जवाब में किम जोंग-उन ने भी ट्रम्प को मासिक विक्षिप्त करार देते हुए कहा कि भयभीत स्वान भूँकता अधिक है। 

ट्रम्प अपनी विदेश नीति में जबसे खुलकर कारोबारी रुख अपना रहे हैं तब से उनके सहयोगी अपनी वैदेशिक नीतियों में खासा अनिश्चित हो रहे हैं। ट्रम्प का स्पष्ट मानना है कि यदि अमेरिका के सहयोगी राष्ट्रों को अमेरिकी प्रभाव से लाभ है तो वैश्विक जिम्मेदारी मिलकर उठानी होगी। इससे पहले सहयोगी यह मानते रहे कि सुपरपॉवर शक्ति होने के नाते यह महज अमेरिका की जिम्मेदारी है। नवम्बर, 2017 में जब ट्रंप अपने बारह दिवसीय इंडो-पैसिफिक यात्रा में दक्षिण कोरिया पहुंचे तो उन्होने अपना यह रुख स्पष्ट कर दिया था। दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जाए-इन, जो कोरियाई मैत्री के नारे से चुनकर सत्ता तक पहुंचे हैं, अपने देश की किसी वैश्विक कूटनीतिक भूमिका के लिए तैयार नहीं थे और उन्होने उ. कोरिया के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों पर काम करना शुरू कर दिया। नतीजा बेहद सकारात्मक रहा क्योंकि उ. कोरिया के नए तानाशाह शासक जोंग-उन अपने देश की चरमराती अर्थव्यवस्था से वाक़िफ़ हैं और दक्षिण कोरिया के मैत्री भाव से उत्तर कोरिया के अस्तित्व को लेकर जो उनकी असुरक्षा है, वह भी जाती रहेगी। मार्च, 2018 में अमेरिका और उ. कोरिया दोनों ने ट्रंप-किम भेंटवार्ता की संभावनाओं की घोषणा कर विश्व को चौंका दिया। 8 मई, 2018 को उ. कोरिया ने तीन अमेरिकी बंदियों को मुक्त किया तो ट्रंप ने मुलाकात की तारीख 12 जून तय कर दी। सहसा, उ. कोरिया ने 15 मई को दक्षिण कोरिया से चल रही अपनी वार्ता, प्रस्तावित अमेरिका-द. कोरिया मिलिट्री अभ्यास की चर्चा करके स्थगित कर दी। ट्रंप ने भी बेहद गुस्से और शत्रु भाव में एक चिट्ठी लिखकर 12 जून की प्रस्तावित भेंटवार्ता स्थगित कर दी। अंततः जब किम जोंग-उन ने पंगये-री के अपने न्यूक्लियर परीक्षण स्थल को खत्म करने की घोषणा की तो 1 जून को ट्रंप ने 12 जून की भेंटवार्ता को बहाल करने की घोषणा की। 

12 जून को ट्रंप और जोंग-उन ने जब सिंगापुर के सेंटोसा में 13 सेकेंड का अपना पहला हैंडशेक किया तो कोरियाई प्रायद्वीप, जापान सहित समूचे विश्व के लिए यह अभूतपूर्व क्षण था। इकहत्तर वर्षीय ट्रंप बेहद उत्साहित दिखे वहीं चौतीस वर्षीय जोंग-उन संयमित बने रहे। ट्रंप ने मुलाकात को बेहद सकारात्मक और उम्मीद से बढ़कर करार दिया वहीं जोंग-उन ने कहा कि यहाँ तक आने के लिए अतीत के फंदों से निकलकर आना पड़ा है। सेंटोसा समझौते में तीन महत्वपूर्ण विकास हुए। पहला, उ. कोरिया ने सतत व स्थायी शांति के लिए पूर्ण कोरियाई परमाण्विक निःशस्त्रीकरण पर अपनी प्रतिबद्धता जतायी। दूसरा, अमेरिका ने इसके बदले उ. कोरिया को सुरक्षा की गारंटी प्रदान की। तीसरा, दोनों पक्षों ने एक नये संबंध की नींव रखने की मंसा प्रकट की। उत्साहित ट्रंप ने जोंग-उन को दक्षिण कोरिया के साथ चलने वाले अमेरिकी मिलिट्री ड्रिल बंद करने का आश्वासन भी दिया, जिसपर द. कोरिया ने चिंता भी व्यक्त कर दी कि सहूलियत बड़ी शीघ्रता से दी जा रही। इस भेंटवार्ता को दोनों नेता अपनी-अपनी उपलब्धि मानकर चल रहे हैं। ट्रंप को मध्यावधि चुनाव में उतरना है और अपने किसी पूर्ववर्ती से अलग उ. कोरिया को सुरक्षा बंदोबस्त देने की बात कहकर वे अपने लिए एक माइलेज तो बना ही रहे हैं, वहीं किम जोंग-उन कुछ वैसा कर गए हैं जैसा कि उनके किसी पूर्ववर्ती तो क्या कोई कोरियाई सपने में भी सोच सकता था। 

यह समझौता विश्व शांति की दृष्टि से यकीनन एक मील का पत्थर है परंतु कुछ आशंकाएं अवश्य ही हैं। समझौते में समयसीमा और शर्तों पर कोई स्पष्टता नहीं है। समझौते के तुरंत बाद जहाँ ईरान ने यह कहकर चुटकी ली कि जोंग-उन को होशियार रहना चाहिए, ट्रंप अमेरिका पहुंचते-पहुंचते समझौता खारिज कर सकते हैं वहीं भारत ने अपनी प्रतिक्रिया में समझौते की मुबारकबाद देते हुए उ. कोरिया के परमाण्विक सूत्र पर दृष्टि रखने की नसीहत दी जो कि भारत के पड़ोस (पाकिस्तान) में है। इस समझौता बैठक के बाद भी चीन और रूस की भूमिका एक मूक दर्शक की तो नहीं ही होगी। गौरतलब है कि किम जोंग-उन अपना पहला विदेशी दौरा मार्च, 2018 में चीन का ही किया था। मई, 2018 में एक बार फिर जोंग-उन, शी जिनपिंग से मिलने चीन गए। चीन और रूस इस समझौते से अमेरिकी खतरा क्षेत्र में कम होने से राहत की साँस ले रहे होंगे लेकिन क्षेत्र में अपनी भूमिका के स्थायित्व को लेकर अवश्य ही सजग होंगे। आने वाले समय में जबकि किम जोंग-उन ने अमेरिका आने का ट्रंप का न्यौता स्वीकार कर लिया है सेंटोसा से शांति का सबक तभी धुंधला नहीं पड़ेगा जब अमेरिका, दक्षिण कोरिया और उ. कोरिया सहयोग और शांति के अधिकाधिक आयाम विकसित करें और जापान, रूस के साथ-साथ चीन भी शांति में ही दूरगामी विकास की संभावना देखे। 

Wednesday, June 13, 2018

फिर वही दिल लाया हूँ...!

गंभीर समाचार 


निस्संदेह, भारतीय विदेश नीति के इतिहास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अध्याय रुचिकर रहेगा। नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में व्यक्तिगत रूचि है और विश्व नेताओं से एक व्यक्तिगत रिश्ता बनाने में यकीन रखते हैं। लेकिन विदेश यात्राओं के मामले में उनका रिकॉर्ड यदि बेहद उल्लेखनीय है तो इसका एक कारण मौजूदा वैश्विक परिघटनाओं का बेहद अनिश्चित होना भी है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक सुपरपॉवर राष्ट्र जहाँ अपने लिए ध्रुवीकृत और स्पष्ट समर्थन चाहता है वहीं एक वर्ल्डपॉवर राष्ट्र सभी अन्य राष्ट्रों से संतुलित संबंध की आकांक्षा रखता है। अमेरिका का अपने सहयोगियों से निर्बाध समर्थन की अपेक्षा रखना ठीक वैसे ही उचित है जैसे भारत जैसे देशों का लगभग सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रों से संबंधों की अपेक्षा रखना उचित है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के आर्थिक परिप्रेक्ष्य ने जहाँ सर्वोच्च शक्ति अमेरिका को यह सहिष्णुता दी है कि विश्व के राष्ट्र संबंधों के मनचाहे आयामों यथा- द्विपक्षीय, बहुपक्षीय आदि में अपने अंतरराष्ट्रीय संबंध बना सकते हैं वहीं भारत जैसे देश वैश्वीकरण से उपजी अपनी नयी शक्ति व स्वीकार्यता को ‘स्वतंत्र विदेश नीति’ के प्रदर्शन के निमित्त मनचाहा ‘ठोस पक्ष’ अपना सकते हैं। 

बिखरे अफ़ग़ानिस्तान, अशांत पाकिस्तान, उत्कट चीन, विकट रूस और बेतरतीब हिंद महासागर के देशों से घिरे भारत को अमेरिका का सामरिक-रणनीतिक साथ चाहिए था। भारत-अमेरिकी संबंध की गहरी आयोजना जार्ज बुश, बराक ओबामा से होते हुए ट्रम्प तक आ पहुँची थी। युक्रेन विवाद के बाद रूस का चीन की तरफ झुकना, चीन का आक्रामक ओबोर नीति अपनाना, चीन का पाकिस्तान के साथ गलबहियां करना और फिर रूस का पाकिस्तान को पुचकारना, यह सभी परिस्थितियाँ भारत के लिए कठिन चुनौतियाँ पेश कर रहे थे। शक्ति-संतुलन के लिए भारत, अमेरिका की ओर झुकता गया और जापान, आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक अनौपचारिक सामरिक गठबंधन चतुष्क (QUAD) का भाग बन गया जिसकी पृष्ठभूमि मालाबार अभ्यास से बनी थी। अमेरिका ने इसलिए ही भारत को महत्वपूर्ण वैश्विक भूमिका निभाने को आश्वस्त किया और समूचे प्रशांत- हिंद क्षेत्र को ‘इंडो-पैसिफिक’ कहकर रणनीतियाँ बनानी शुरू की। डोकलाम विवाद से चीन ने भारत-अमेरिका की नयी बनती समझ की शक्ति जाननी चाही और भारत ने भी अपने रुख से जतला दिया कि वह तैयार है। इस बीच चीन और रूस के राष्ट्राध्यक्ष जहाँ अपने-अपने देशों में लगभग सबसे बड़े निर्णायक शक्तिकेंद्र बनकर उभरे वहीं भारत से उनके रिश्ते ठिठकने लगे थे। ऊर्जा जरूरतों ने जरूर भारत को मजबूर किया था कि वह मध्य एशिया के देशों से अपने संबंध प्रगाढ़ बनाये रखे और इसी क्रम में चीन-पाकिस्तान के द्वारा की गयी नाकेबंदी को तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने ईरान के चाबहार बंदरगाह के काम को द्रुत गति से संपन्न करने में मदद दी। 

पेशे से व्यापारी ट्रम्प ने जबसे अमेरिकी विदेश नीति में भी अपनी वणिक बुद्धि लगाई है, सभी देश, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के समीकरण की नई व्युत्पत्ति (डेरिवेशन) खोजने में लगे हैं। घरेलू राजनीति के अपने ‘अमेरिका फर्स्ट’ नारे को महज जुमला न रखते हुए ट्रम्प अपने देश के हित में कुछ ऐसी संरक्षणवादी नीतियों का सहारा ले रहे हैं जिनसे फौरी तौर पर आर्थिक रूप से यदि अमेरिका को लाभ होगा भी तो दीर्घावधि में सामरिक रूप से काफी हानि उठानी पड़ सकती है। ट्रम्प, विदेश नीति में भी खासा कारोबारी (ट्रांजैक्शनल) रुख अख्तियार कर रहे हैं। वह बहुपक्षीय रिश्तों से अधिक द्विपक्षीय रिश्तों को तरजीह दे रहे हैं। ट्रम्प का स्पष्ट मानना है कि यदि किसी देश को अमेरिका का सहयोगी राष्ट्र बनने से किसी क्षेत्र विशेष में लाभ है तो उसका भार उठाने में वह देश भी स्पष्टतया आगे आये। इससे पहले एकलौते सुपरपॉवर अमेरिका की यह वरीय जिम्मेदारी होती थी। इसलिए ही भारत से जब-तब मांग की जाती है कि वह अफग़ानिस्तान में अपने सुरक्षा बल भी भेजे। ‘इंडो-पैसिफिक क्षेत्र’ कहने के पीछे भी अमेरिका की यही मंसा है क्योंकि यदि चीन का उभार केवल अमेरिका के लिए ही नहीं एक चिंता का विषय है तो भारत को भी हिन्द महासागर क्षेत्र से प्रशांत क्षेत्र तक की जिम्मेदारी उठानी होगी। 

ट्रम्प, अमेरिका की विदेश नीति को खासा घरेलू बना रहे हैं और ओबामा प्रशासन के समय विकसित हुई सभी बड़े मसलों पर पनपी समझ से अपने कदम पीछे खींच रहे हैं। ट्रम्प का यह अनिश्चित व्यवहार, उनका अडवेंचरिज्म, अमेरिका के सहयोगी राष्ट्रों को एक बेहद कठिन और अनिश्चित स्थिति में डालता है। ट्रम्प के हालिया CAATSA प्रावधान ने तो अति ही कर दी जिसके मुताबिक अमेरिका, ईरान, रूस और उत्तर कोरिया से पर प्रतिबंध लगाने की बात की है जिससे इन राष्ट्रों के साथ-साथ, इनसे जुड़े दूसरे राष्ट्रों के व्यापारिक हितों पर कुप्रभाव पड़ना तय है। तेल और रक्षा जरूरतों के लिए भारत सीधे क्रमशः ईरान और रूस से जुड़ा हुआ है। CAATSA के प्रावधानों की आलोचना जहाँ ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी सहित दूसरे यूरोपीय देशों ने एक-स्वर में की है वहीं उन्होंने अमेरिकी अनिश्चितत्ता के सापेक्ष दृढ़ रूस की प्रशंसा उसे यूरोप का पारम्परिक-अभिन्न अंग बताकर की है। 

वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीति के इस बदलते टेम्पलेट में भारत, रूस और चीन से अपने रिश्तों को सम्हालने को मजबूर हो गया है। यों भी क्षेत्रीय राजनीति के तथ्यों को नजरअंदाज कर वैश्विक राजनीति नहीं की जा सकती। हिंद महासागर में बढ़ते चीन का प्रभाव और मध्य एशिया व मध्य-पूर्व एशिया में रूस की बढ़ती अहमियत ने भारत को विवश किया है कि वह अपना गियर बदले और रुख बीजिंग और मास्को की ओर मोड़े। इधर उत्तर कोरिया के दक्षिण कोरिया और अमेरिका से बढ़ते ताल्लुकातों के मद्देनज़र चीन और रूस के लिए भी जरूरी था कि ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान के साथ-साथ भारत को भी लुभाया जाय। रूस ने भारत की पैरवी कर चीन संचालित बेहद महत्वपूर्ण आर्थिक संगठन शंघाई सहयोग संगठन की पूर्ण सदस्यता दिलवाई, भारत के लिए एन. एस. जी. और संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् में सदस्यता की वकालत की। रूस ने भारत को यह इंगिति दे दी है कि बदलते वक्त में भारत का चीन की उपेक्षा करना समझदारी नहीं होगी जबकि अमेरिका काफी स्वार्थी रुख अपना रहा है। 

भारत ने संकेत लेते हुए अपना रुख लचीला किया और चीन और रूस से नजदीकियाँ बढ़ानी शुरू कीं। अप्रैल के आखिरी दिनों में मोदी सहसा चीन के शहर वुहान पहुँचे, जिसकी तैयारियाँ दोनों देशों के अधिकारी महीनों से कर रहे थे। दोनों देशों ने इसे एक ‘अनौपचारिक भेंट’ का नाम दिया जिसमें पहले से कोई भी एजेंडा नियत नहीं था। दो दिनों की अपनी इस यात्रा में मोदी और शी जिनपिंग लगभग दस घंटे के पारस्परिक वार्ता में रहे। बताया गया कि दोनों नेताओं ने लगभग सभी पारस्परिक मुद्दों पर प्रभावी बातचीत की।  भारत-चीन ने अफगानिस्तान में संयुक्त आर्थिक प्रक्रम पर सहमति जताई और सीमा पर तैनात अपने-अपने देश की सुरक्षा को नवीन सामरिक निर्देश देने की बात की। दोनों नेताओं ने भविष्य में सामरिक और रक्षा सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था पर भी सहमति जताई। चीन से बढ़ती नजदीकी का लाभ निश्चित ही भारत-पाकिस्तान संबंधों में भी एक सरलता लाएगा। आपसी व्यापारिक चिंताओं पर बात करते हुए मोदी और जिनपिंग ने बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में अपनी आस्था व्यक्त की। ‘वुहान अनौपचारिक भेंट’ की सफलता पर जहाँ चीनी अख़बार उल्लास व्यक्त कर रहे थे वहीं इस ‘अनौपचारिक भेंट’ की अगली कड़ी के रूप में मोदी का जिनपिंग को 2019 में भारत यात्रा का निमंत्रण भी छाया रहा। वुहान अनौपचारिक भेंट की ही तर्ज पर मोदी ने 21 मई को रूस के शहर सोची की यात्रा की जहाँ राष्ट्रपति पुतिन से उनकी गहन वार्ता हुई। दोनों देशों ने पारंपरिक संबंधों का हवाला दिया और लगभग सभी द्विपक्षीय और वैश्विक मुद्दों पर विमर्श किया। राष्ट्रपति पुतिन स्वयं, मोदी को छोड़ने हवाई अड्डे पर आये और पश्चिमी मीडिया भारत के इस ‘अनौपचारिक भेंट कूटनीति’ पर टिप्पणी करता रहा। 

रूस और चीन के लिए ‘फिर वही दिल लाकर’ मोदी ने एक संतुलन साधने की कोशिश अवश्य की है लेकिन अमेरिका द्वारा पिछले 30 मई को अपने बेहद महत्वपूर्ण पैसिफिक कमांड का नामकरण ‘इंडो-पैसिफिक’ करना बताता है कि भारत दरअसल एशियाई राजनीति की ऐसी धुरी बन गया है जिसपर सभी विश्वशक्तियाँ झूलने को तैयार हैं। यह भारत को कूटनीतिक अवसर तो देता है पर चुनौतियों की नयी गंभीरता भी बनाता है।         

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