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Wednesday, June 13, 2018

फिर वही दिल लाया हूँ...!

गंभीर समाचार 


निस्संदेह, भारतीय विदेश नीति के इतिहास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अध्याय रुचिकर रहेगा। नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में व्यक्तिगत रूचि है और विश्व नेताओं से एक व्यक्तिगत रिश्ता बनाने में यकीन रखते हैं। लेकिन विदेश यात्राओं के मामले में उनका रिकॉर्ड यदि बेहद उल्लेखनीय है तो इसका एक कारण मौजूदा वैश्विक परिघटनाओं का बेहद अनिश्चित होना भी है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक सुपरपॉवर राष्ट्र जहाँ अपने लिए ध्रुवीकृत और स्पष्ट समर्थन चाहता है वहीं एक वर्ल्डपॉवर राष्ट्र सभी अन्य राष्ट्रों से संतुलित संबंध की आकांक्षा रखता है। अमेरिका का अपने सहयोगियों से निर्बाध समर्थन की अपेक्षा रखना ठीक वैसे ही उचित है जैसे भारत जैसे देशों का लगभग सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रों से संबंधों की अपेक्षा रखना उचित है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के आर्थिक परिप्रेक्ष्य ने जहाँ सर्वोच्च शक्ति अमेरिका को यह सहिष्णुता दी है कि विश्व के राष्ट्र संबंधों के मनचाहे आयामों यथा- द्विपक्षीय, बहुपक्षीय आदि में अपने अंतरराष्ट्रीय संबंध बना सकते हैं वहीं भारत जैसे देश वैश्वीकरण से उपजी अपनी नयी शक्ति व स्वीकार्यता को ‘स्वतंत्र विदेश नीति’ के प्रदर्शन के निमित्त मनचाहा ‘ठोस पक्ष’ अपना सकते हैं। 

बिखरे अफ़ग़ानिस्तान, अशांत पाकिस्तान, उत्कट चीन, विकट रूस और बेतरतीब हिंद महासागर के देशों से घिरे भारत को अमेरिका का सामरिक-रणनीतिक साथ चाहिए था। भारत-अमेरिकी संबंध की गहरी आयोजना जार्ज बुश, बराक ओबामा से होते हुए ट्रम्प तक आ पहुँची थी। युक्रेन विवाद के बाद रूस का चीन की तरफ झुकना, चीन का आक्रामक ओबोर नीति अपनाना, चीन का पाकिस्तान के साथ गलबहियां करना और फिर रूस का पाकिस्तान को पुचकारना, यह सभी परिस्थितियाँ भारत के लिए कठिन चुनौतियाँ पेश कर रहे थे। शक्ति-संतुलन के लिए भारत, अमेरिका की ओर झुकता गया और जापान, आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक अनौपचारिक सामरिक गठबंधन चतुष्क (QUAD) का भाग बन गया जिसकी पृष्ठभूमि मालाबार अभ्यास से बनी थी। अमेरिका ने इसलिए ही भारत को महत्वपूर्ण वैश्विक भूमिका निभाने को आश्वस्त किया और समूचे प्रशांत- हिंद क्षेत्र को ‘इंडो-पैसिफिक’ कहकर रणनीतियाँ बनानी शुरू की। डोकलाम विवाद से चीन ने भारत-अमेरिका की नयी बनती समझ की शक्ति जाननी चाही और भारत ने भी अपने रुख से जतला दिया कि वह तैयार है। इस बीच चीन और रूस के राष्ट्राध्यक्ष जहाँ अपने-अपने देशों में लगभग सबसे बड़े निर्णायक शक्तिकेंद्र बनकर उभरे वहीं भारत से उनके रिश्ते ठिठकने लगे थे। ऊर्जा जरूरतों ने जरूर भारत को मजबूर किया था कि वह मध्य एशिया के देशों से अपने संबंध प्रगाढ़ बनाये रखे और इसी क्रम में चीन-पाकिस्तान के द्वारा की गयी नाकेबंदी को तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने ईरान के चाबहार बंदरगाह के काम को द्रुत गति से संपन्न करने में मदद दी। 

पेशे से व्यापारी ट्रम्प ने जबसे अमेरिकी विदेश नीति में भी अपनी वणिक बुद्धि लगाई है, सभी देश, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के समीकरण की नई व्युत्पत्ति (डेरिवेशन) खोजने में लगे हैं। घरेलू राजनीति के अपने ‘अमेरिका फर्स्ट’ नारे को महज जुमला न रखते हुए ट्रम्प अपने देश के हित में कुछ ऐसी संरक्षणवादी नीतियों का सहारा ले रहे हैं जिनसे फौरी तौर पर आर्थिक रूप से यदि अमेरिका को लाभ होगा भी तो दीर्घावधि में सामरिक रूप से काफी हानि उठानी पड़ सकती है। ट्रम्प, विदेश नीति में भी खासा कारोबारी (ट्रांजैक्शनल) रुख अख्तियार कर रहे हैं। वह बहुपक्षीय रिश्तों से अधिक द्विपक्षीय रिश्तों को तरजीह दे रहे हैं। ट्रम्प का स्पष्ट मानना है कि यदि किसी देश को अमेरिका का सहयोगी राष्ट्र बनने से किसी क्षेत्र विशेष में लाभ है तो उसका भार उठाने में वह देश भी स्पष्टतया आगे आये। इससे पहले एकलौते सुपरपॉवर अमेरिका की यह वरीय जिम्मेदारी होती थी। इसलिए ही भारत से जब-तब मांग की जाती है कि वह अफग़ानिस्तान में अपने सुरक्षा बल भी भेजे। ‘इंडो-पैसिफिक क्षेत्र’ कहने के पीछे भी अमेरिका की यही मंसा है क्योंकि यदि चीन का उभार केवल अमेरिका के लिए ही नहीं एक चिंता का विषय है तो भारत को भी हिन्द महासागर क्षेत्र से प्रशांत क्षेत्र तक की जिम्मेदारी उठानी होगी। 

ट्रम्प, अमेरिका की विदेश नीति को खासा घरेलू बना रहे हैं और ओबामा प्रशासन के समय विकसित हुई सभी बड़े मसलों पर पनपी समझ से अपने कदम पीछे खींच रहे हैं। ट्रम्प का यह अनिश्चित व्यवहार, उनका अडवेंचरिज्म, अमेरिका के सहयोगी राष्ट्रों को एक बेहद कठिन और अनिश्चित स्थिति में डालता है। ट्रम्प के हालिया CAATSA प्रावधान ने तो अति ही कर दी जिसके मुताबिक अमेरिका, ईरान, रूस और उत्तर कोरिया से पर प्रतिबंध लगाने की बात की है जिससे इन राष्ट्रों के साथ-साथ, इनसे जुड़े दूसरे राष्ट्रों के व्यापारिक हितों पर कुप्रभाव पड़ना तय है। तेल और रक्षा जरूरतों के लिए भारत सीधे क्रमशः ईरान और रूस से जुड़ा हुआ है। CAATSA के प्रावधानों की आलोचना जहाँ ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी सहित दूसरे यूरोपीय देशों ने एक-स्वर में की है वहीं उन्होंने अमेरिकी अनिश्चितत्ता के सापेक्ष दृढ़ रूस की प्रशंसा उसे यूरोप का पारम्परिक-अभिन्न अंग बताकर की है। 

वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीति के इस बदलते टेम्पलेट में भारत, रूस और चीन से अपने रिश्तों को सम्हालने को मजबूर हो गया है। यों भी क्षेत्रीय राजनीति के तथ्यों को नजरअंदाज कर वैश्विक राजनीति नहीं की जा सकती। हिंद महासागर में बढ़ते चीन का प्रभाव और मध्य एशिया व मध्य-पूर्व एशिया में रूस की बढ़ती अहमियत ने भारत को विवश किया है कि वह अपना गियर बदले और रुख बीजिंग और मास्को की ओर मोड़े। इधर उत्तर कोरिया के दक्षिण कोरिया और अमेरिका से बढ़ते ताल्लुकातों के मद्देनज़र चीन और रूस के लिए भी जरूरी था कि ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान के साथ-साथ भारत को भी लुभाया जाय। रूस ने भारत की पैरवी कर चीन संचालित बेहद महत्वपूर्ण आर्थिक संगठन शंघाई सहयोग संगठन की पूर्ण सदस्यता दिलवाई, भारत के लिए एन. एस. जी. और संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् में सदस्यता की वकालत की। रूस ने भारत को यह इंगिति दे दी है कि बदलते वक्त में भारत का चीन की उपेक्षा करना समझदारी नहीं होगी जबकि अमेरिका काफी स्वार्थी रुख अपना रहा है। 

भारत ने संकेत लेते हुए अपना रुख लचीला किया और चीन और रूस से नजदीकियाँ बढ़ानी शुरू कीं। अप्रैल के आखिरी दिनों में मोदी सहसा चीन के शहर वुहान पहुँचे, जिसकी तैयारियाँ दोनों देशों के अधिकारी महीनों से कर रहे थे। दोनों देशों ने इसे एक ‘अनौपचारिक भेंट’ का नाम दिया जिसमें पहले से कोई भी एजेंडा नियत नहीं था। दो दिनों की अपनी इस यात्रा में मोदी और शी जिनपिंग लगभग दस घंटे के पारस्परिक वार्ता में रहे। बताया गया कि दोनों नेताओं ने लगभग सभी पारस्परिक मुद्दों पर प्रभावी बातचीत की।  भारत-चीन ने अफगानिस्तान में संयुक्त आर्थिक प्रक्रम पर सहमति जताई और सीमा पर तैनात अपने-अपने देश की सुरक्षा को नवीन सामरिक निर्देश देने की बात की। दोनों नेताओं ने भविष्य में सामरिक और रक्षा सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था पर भी सहमति जताई। चीन से बढ़ती नजदीकी का लाभ निश्चित ही भारत-पाकिस्तान संबंधों में भी एक सरलता लाएगा। आपसी व्यापारिक चिंताओं पर बात करते हुए मोदी और जिनपिंग ने बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में अपनी आस्था व्यक्त की। ‘वुहान अनौपचारिक भेंट’ की सफलता पर जहाँ चीनी अख़बार उल्लास व्यक्त कर रहे थे वहीं इस ‘अनौपचारिक भेंट’ की अगली कड़ी के रूप में मोदी का जिनपिंग को 2019 में भारत यात्रा का निमंत्रण भी छाया रहा। वुहान अनौपचारिक भेंट की ही तर्ज पर मोदी ने 21 मई को रूस के शहर सोची की यात्रा की जहाँ राष्ट्रपति पुतिन से उनकी गहन वार्ता हुई। दोनों देशों ने पारंपरिक संबंधों का हवाला दिया और लगभग सभी द्विपक्षीय और वैश्विक मुद्दों पर विमर्श किया। राष्ट्रपति पुतिन स्वयं, मोदी को छोड़ने हवाई अड्डे पर आये और पश्चिमी मीडिया भारत के इस ‘अनौपचारिक भेंट कूटनीति’ पर टिप्पणी करता रहा। 

रूस और चीन के लिए ‘फिर वही दिल लाकर’ मोदी ने एक संतुलन साधने की कोशिश अवश्य की है लेकिन अमेरिका द्वारा पिछले 30 मई को अपने बेहद महत्वपूर्ण पैसिफिक कमांड का नामकरण ‘इंडो-पैसिफिक’ करना बताता है कि भारत दरअसल एशियाई राजनीति की ऐसी धुरी बन गया है जिसपर सभी विश्वशक्तियाँ झूलने को तैयार हैं। यह भारत को कूटनीतिक अवसर तो देता है पर चुनौतियों की नयी गंभीरता भी बनाता है।         

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