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Saturday, July 7, 2018

कश्मीरी कशमकश: नेपथ्य कथ्य

साभार: गंभीर समाचार 


जम्मू एवं कश्मीर के मायने सबके लिए एक नहीं हैं। सबकी अपनी-अपनी नज़र है और अपनी-अपनी समझ। इन सबके अपने-अपने नारे हैं और सब अपने-अपने सवालों के साथ हैं। इतिहास में आपस में लड़ते अध्याय हैं। राजनीति विरोधाभासी माँगों के जायज़-नाजायज़ होने में उलझी है। भूगोल इन सबसे बेखबर पर्यावरण की चुनौतियों को खामोशी से सह रहा। अर्थशास्त्र उस हिसाब में है कि केंद्र ने कश्मीर और जम्मू को कितना भेजा। लोक प्रशासन दफ्तर की फाइलों में हुए विकास और जमीन पर हुए विकास का अंतर मन मसोस स्वीकार कर रहा। शिक्षा, इस राज्य में अपना कोई लक्ष्य ही नियत नहीं कर पा रही। विज्ञान महज उन्हें उपलब्ध है जिनकी पहचान कश्मीरी तो है पर आबोहवा किसी मेट्रो शहर की है। दर्शन में कश्मीरीयत है पर उसकी मकबूलियत कश्मीरी नहीं है। साहित्य और भाषा के अपने संकट हैं, लिखे जा रहे तो पढ़े नहीं जा रहे, पढ़े जा रहे तो समझे नहीं जा रहे, समझे जा रहे तो फिर बोले नहीं जा रहे, बहसें एकतरफ़ा हैं लोग लामबंद हैं। 

जो जम्मू है वह कश्मीर नहीं है। लद्दाख अपनी साख अलग ही छिपाए बैठा है। चीड़, चिनार, देवदार आपसे में बात नहीं कर रहे। झेलम, चिनाब, सिंधु, तवी एक-दूसरे के दुखों से अनजान हैं। पाकिस्तान और चीन एक-एक हिस्सा अपने पास दबाये बैठे हैं। मुंबई के लिए जो कश्मीर है वही दिल्ली के लिए नहीं है। और तो कितने शहरों के लिए कश्मीर महज एक खबर है जो चौबीस घंटे अनसुनी सी चलती रहती है। भारत के आम अवाम के लिए यह राज्य देशभक्ति और राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट है। भाजपा को यहाँ धारा 370 की याद आती है तो कांग्रेस को यहाँ महज अल्पसंख्यक याद आते हैं। 

कश्मीर को लेकर कश्मीरी नेता भी ईमानदार नहीं हैं। भविष्य की कोई रुपरेखा नहीं, बस राजनीतिक लाभ की सियासत। मुस्लिम दिल्ली से नाराज हैं कि वह केवल दमन की भाषा जानती है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के साथ हुए ज्यादतियों के बारे में उनकी युवा पीढ़ी न केवल अनभिज्ञ है बल्कि इसे लेकर उनके मन में किसी गलती का भाव भी नहीं है। मुस्लिम समाज ने कश्मीरी पंडितों से वार्ता और सामंजस्य का कोई उदाहरण भी पेश नहीं किया है और एक सर्वमान्य हल के रूप में उनके पास कोई सकारात्मक योजना भी नहीं है। कश्मीरी पंडित, दिल्ली से खफा होते हैं कि उनकी सुधि कोई नहीं लेता। सत्ता जब पक्ष में हो तो सामंजस्य की कोशिशों का सर्वाधिक महत्त्व होता है। आगे बढ़कर कश्मीरियत के लिए इनके प्रयास भी नगण्य ही हैं। प्रतिकार की राजनीति दलों को लाभ देती है लेकिन समाज को तो तोड़ती ही है। ये दोनों कौमें अपनी भावी पीढ़ियों को वही सब कुछ विरासत में देने वाली हैं जो इन्हें मिला हुआ है। इतिहास किसी के लिए भी कुछ अधिक टेसुएँ नहीं बहायेगा। कमोबेश उन्हीं जुमलों और तर्कों से भाजपा ने पीडीपी के साथ हाथ मिलाकर कश्मीर में सरकार बनाई थी जिनका हवाला देकर तीन साल बाद गठबंधन तोड़ा है। हिंसा इन तीन सालों में अधिक बढ़ी ही और शांति के तर्क से दमन के कुछ तरीकों को पूरी बेशर्मी के साथ जायज़ करार देने की कोशिशें भी हुईं। शांति के लिए कौन लड़ रहा इस समय कश्मीर में कहना मुश्किल है। क्या राजनीतिक दल, क्या मुस्लिम, क्या हिन्दू, क्या युवा, क्या बुजुर्ग, क्या सेना क्या समाज। सभी बस डटे हुए हैं अपनी-अपनी शैली में दिशाहीन।  

कश्मीर को लेकर हर एक की जवाबदेही है, कुछ ज़िम्मेदारी है। देश की स्वतंत्रता के बाद एक बड़ी चुनौती राष्ट्र-निर्माण की थी, जो अभी भी पूरी नहीं हुई है। राष्ट्र-निर्माण महज एक सरकारी मिशन नहीं है। नागरिक समाज की भी इसमें भूमिका है। अलग-अलग संस्कृतियों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में उनका अपना निजी स्पेस देकर ही बांधा जा सकता है, कहीं न कहीं ऐसी कोशिशें असफल हुई हैं। शिक्षा व्यवस्था ने भारत के आम-अवाम को कश्मीर के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के बारे में कोई व्यापक समझ नहीं दी है। कश्मीरी सरकारों ने भी देश के दूसरे राज्यों से अपनी सरोकारिता कितनी निभायी है। दिल्ली, कश्मीर में महज चुनाव करवाकर लोकतंत्र की लाज बचाती रही है। पाकिस्तान और भारत के हुक्मरान अपनी-अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए जीते-जागते कश्मीर को महज एक खौलता मुद्दा बनाते रहे । राजनीतिक दल केवल सत्ता की ओर ताकते रहे। सारे कश्मीरी गुट इसमें अपना-अपना सियासी हिस्सा तलाशते रहे। देश तब तो एकजुट होकर साथ देने को उद्यत हो जाता है जब भारत-पाकिस्तान युद्ध में उतरते हैं, भले ही वह मैदान खेल का हो, लेकिन रोजमर्रा के वारदातों पर लगाम लगाने की कोशिशों पर देश का अवाम दिल्ली पर एकजुट होकर दबाव नहीं बनाता। देश का अवाम अपने केंद्र सरकार से जम्मू-कश्मीर के स्कूलों, अस्पतालों, खेतों, बागों, घरों, महिलाओं, बच्चों, बेरोजगारों, बुजुर्गों की हिफाजत पर सवाल नहीं पूछता। अवाम, सेना की ज्यादतियों पर उसीतरह आँख फेर लेती है जिसतरह कश्मीर पत्थरबाजों पर। एक राज्य है भारत का जम्मू व कश्मीर, जिसमें जिंदा कौमें रहती हैं, जिनकी जिंदगी जहन्नुम बनती है तो यह सवाल बनकर भारत के प्रत्येक नागरिक के गले में अटकता क्यों नहीं?

जो महज अख़बार और टीवी के पक्षपातपूर्ण रपटों से इतर जम्मू और कश्मीर को जानने की मंशा हो, देश से प्यार जो समूचा हो, जो समझते हों कि देश महज राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत, तिरंगा और अशोक चक्र नहीं, कि देश महज नदी, पहाड़, जंगल, सड़क, नहर नहीं, कि देश महज शहर, कारखाना, मॉल नहीं, बल्कि देश सबसे पहले उसके नागरिकों से बनता है, आप और हम ही देश को बनाते हैं तो यह समझना भी आसान नहीं कि ‘कश्मीर हमारा है’ से अधिक महत्वपूर्ण नारा ‘कश्मीरी हमारे हैं’ है और अपनों से पेश आने की एक तहजीब होती है। जैसे ही ‘जम्मू व कश्मीर’ टीवी, अख़बार से निकलकर एक जीता-जागता समुदाय महसूस होगा तो फिर तुरत ही समझ आएगा कि कश्मीर के राजनीतिक धड़े, राजनीतिक दल और भाजपा-कांग्रेस महज चुनाव की तैयारी कर रहे हैं और अपने-अपने वोटबैंक सहेजने की कोशिश में हैं। इन्हें प्यार महज सत्ता से है क्योंकि कश्मीर इनके लिए राज्य न होकर महज एक मुद्दा है, जिसे जिन्दा रखना जरूरी है भले ही कश्मीर एक जिन्दा लाश बना रहे। ये यूँ इसलिए हैं क्योंकि हम, भारत के लोग सवाल नहीं कर रहे, क्योंकि सही और गलत की पड़ताल किये बिना हम अपना वोट जाया कर रहे, क्योंकि हमें इतिहास, भूगोल और राजनीति बकवास लगते हैं, क्योंकि हमने अपनी अगली पीढ़ी का मकान और मुकाम अमेरिका और यूरोप में तलाशना शुरू कर दिया है।   

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