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Monday, August 20, 2018

जीवंत अस्मिताओं को महज प्रतीक बनाने का उन्माद बेहद निष्ठुर

साभार: दिल्ली की सेल्फी 

अगर संजीदा लोग समावेशी बात नहीं करेंगे तो अंततः कितनी घृणा भर जाएगी अपने प्यारे देश में। लोग गलतियाँ करते हैं, अगर यों ही हम प्रतिक्रियावादी हो जाएंगे तो फिर हमारा यह देश कमजोर होगा उधर दूर स्वर्ग से चर्चिल ठठाकर हँसेगा कि मैंने तो पहले ही कहा था कि भारत की वह राष्ट्र संकल्पना जिसमें सभी पहचानों के लोग रह सकते हैं वह कपोल है। विनम्रतापूर्वक कह रहा हूँ कि विश्व इतिहास हमें सिखाता है कि जब जब राष्ट्र भावना आरोपित की जाती है वह विनाशक होती है किन्तु जब तक यह स्वयमेव व स्वतः स्फूर्त होती है, कल्याणकारी होती है। क्या यह ठीक है कि कोई कानून के डर से अथवा समूह/व्यक्ति दबाव में राष्ट्र प्रतीकों का सम्मान करे? क्या यह स्थिति हमारे राष्ट्रप्रेम की असुरक्षा को नहीं जतलाती ? अमेरिकन फ्लैग की चड्ढियां पहने एक अमेरिकी का राष्ट्रवाद नहीं आहत होता पर हेल्मेट पर तिरंगा लगाए सचिन को जवाब देना पड़ता है। और यह भी सोचिए न कि प्रतीक, राष्ट्र होते हैं या राष्ट्र से प्रतीक होते हैं? फिर राष्ट्र बनते हैं किनसे नागरिकों से ही न!

आधुनिक राष्ट्रराज्य की संकल्पना तो यही बताती है न कि व्यक्ति के लिए राज्य है और लोकतंत्र कहता है कि संप्रभुता जनता में निवास करती है!

मेरा इतना ही आग्रह है कि किसी ओर से भी जोर जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए! राष्ट्रगान गाने को उद्यत छात्र समूह को यदि कोई मौलाना राष्ट्रगान गाने से रोक देता है या व्यवधान डालता है तो मामला कोर्ट में जाए जहाँ उसे अपना पक्ष रखने का मौका मिले फिर कानून अपना काम करे! एक नागरिक के तौर पर हमारा कर्तव्य कानून का पालन करना है न कि पालन करवाना, इसके लिए राज्य के दूसरे प्रकल्प हैं। इतिहास गवाह है कि मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों की लंबी फेहरिश्त है और मुझे आज भी कितने ही मुसलमान भाई मिलते हैं जो पूरे शान से राष्ट्रगान गाते हैं, वन्दे मातरम बोलते हैं! जोर जबर्दस्ती किसी ओर से नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। यह अंततः जोड़ने में है, तभी तो राष्ट्रगान गाना कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है। राष्ट्रगान न गाने के जुर्म में गिरफ्तारी नहीं की जा सकती, दंड निश्चित नहीं किया जा सकता। हाँ गाने को तैयार अथवा गाते हुए व्यवधान पहुँचाने वाले के लिए दंड का प्रावधान है। कोई राष्ट्रगान गाना चाहता है और कोई उन्हें गाने नहीं देता उसके लिए सजा का प्रावधान है पर कोई कानून यह नहीं कहता कि राष्ट्रगान गाना अनिवार्य है।यह स्वतः स्फूर्त होना चाहिए, यही अभीष्ट था, है। राष्ट्र जिन घटकों से मिलकर बनता है उसमें नागरिक शामिल हैं, उनका एकीकृत प्रतीक है ध्वज व राष्ट्रगान! जोर जबर्दस्ती राष्ट्र के उत्स को खतरे में डालती है।

फिर कहूंगा अंततः राष्ट्र लोगों को जोड़ने में है! अजीब विडंबना है आजकल बहुत गहराई में देखिए तो जो लोग राष्ट्र को महज एक प्रतीक न मान जीवंत मान रहे उन्हें सहसा देशद्रोही करार दिया जा रहा। इस देश ने ऐसे ही गाँधी को महज प्रतीक बना दिया, नारी को त्याग, पवित्रता का प्रतीक बना दिया, स्त्री को इज्जत का प्रतीक, धर्म को वस्त्र बना दिया गया, कितना गिनाऊँ...ये जिंदा अस्मिताओं को महज प्रतीक बनाने का उन्माद बेहद निष्ठुर है, कम से कम मेरा देश जो सहज सनातन शाश्वत है और जिसमें विभिन्नताओं के संश्लेषण की अद्भुत विराट क्षमता है, जिसकी निर्झर परंपराएँ कालातीत हैं वह प्रतीकों की सुरक्षा का मोहताज नहीं है।

मै राष्ट्र प्रतीकों का आदर करता हूँ और दिल से चाहता हूँ कि देश का प्रत्येक व्यक्ति इनका आदर करे। पर अगर इन प्रतीकों का आदर करवाना पड़े तो बताइए न क्या यह इसे इंगित नहीं करता कि स्वतंत्रता पश्चात जो राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया हमने समवेत चलाई है उसमें और भी सुधार की आवश्यकता है? या कि जबरन आदर करवाएंगे। हमें हराना नहीं है देश विरोधी मानसिकता को, उन्हें जीतना है और पुष्यमित्र, अशोक, गाँधी, मौलाना आजाद, अबुल कलाम, टाटा का य‍ह देश जानता है कि जीता कैसे जाता है!

एक रोष में यदि प्रतीक पालन करवाया जाएगा तो राष्ट्र के नाम पर एक रोष पनपेगा और इस रोष को ध्रुवीकरण के लिए प्रयोग कर राजनीतिक दल लाभ लेंगे! क्या यही अंग्रेजों ने नहीं किया? क्या यही विभाजन के समय नहीं दिखा? क्या यही आजाद भारत के दल जब तब नहीं करते हैं?

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