साभार: दिल्ली की सेल्फी |
लाहौर में जन्में प्रसिद्द भारतीय फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा की 2004 में आयी फिल्म वीर-ज़ारा में मशहूर गीतकार जावेद अख्तर का लिखा एक गीत है जो सुर-साम्राज्ञी लताजी और उदित नारायण की आवाज में बेहद मकबूल हुआ था। 'धरती सुनहरी अम्बर नीला, हर मौसम रंगीला, ऐसा देश है मेरा हो...ऐसा देश है मेरा !' आख़िरी बंद में यह गीत कुछ यों हो जाता है- 'तेरे देश को मैंने देखा, तेरे देश को मैंने जाना...,....ऐसा ही देश है मेरा, जैसा देश है तेरा...!' यह फिल्म, इसके निर्देशक, इसकी कहानी, इसके लेखक और गीतकार यह निश्छल संदेश देते हैं कि भारत और पाकिस्तान में एक-दूसरे के लिए नफरत की कोई गुंजायश नहीं होनी चाहिए और कायनात की अनगिन खूबसूरत नेमतों को दोनों देश की धरती साझा करती है। कहना होगा कि लोकप्रिय कला माध्यम में यह एक अद्भुत प्रयास था जो एक 'मानवीय पाकिस्तान' की छवि गढ़ता था। लेकिन संस्कृति, समाज, इतिहास और राजनीति ये अलग-अलग शब्द हैं और अपनी पूरी अर्थवत्ता में इनके गंभीर निहितार्थों की अवहेलना कत्तई नहीं की जा सकती। राष्ट्र, राज्य व राष्ट्र-राज्य, 'राजनीति' के पारिभाषिक शब्द हैं और इनके अपने विशिष्ट मायने हैं। एम. फिल. की कक्षा में मेरे पाकिस्तानी सहपाठी को इस सुंदर गाने के आख़िरी बंद से क्यों आपत्ति थी, यह मै धीरे-धीरे समझ पाया था क्योंकि वे पंक्तियाँ अनजाने में ही उसके राष्ट्र-राज्य 'पाकिस्तान' के 'रेजन डेटा (राज्य स्थापना का आधारभूत तर्क)' को चोट पहुँचा रही थी।
राष्ट्र जहाँ राजनीतिक व सामाजिक अस्तित्व का परिचायक है वहीं राज्य मूर्त अस्तित्व का जिसमें जरूरी तत्वों के रूप में निश्चित भू-भाग, जनता, सरकार और संप्रभुता पाए जाते हैं। आधुनिक 'राष्ट्र-राज्य' होने के लिए राष्ट्र और राज्य दोनों की विषेशताओं का होना आवश्यक है। यह समझ लेना बेहद आवश्यक है कि एक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान का प्रादुर्भाव 1940 से ही माना जाता है जो 1947 में राज्य की जरूरी विशेषताएँ पाकर एक 'राष्ट्र-राज्य' बनने की अपनी कोशिशों में लग गया। औपनिवेशिक अतीत से मुक्त हुए देशों के बारे में इसलिए ही कहा जाता है कि यहाँ राष्ट्र-निर्माण एवं राज्य-निर्माण की समांनातर प्रक्रियाएँ सतत चलती रहती हैं। यहीं उद्धृत करना समीचीन होगा कि जिन्ना जहाँ भारत-पाकिस्तान को साझे मातृभूमि के दो राष्ट्र के रूप में देखने के हिमायती थे वहीं गाँधी इन्हें 'एक राष्ट्र' के 'दो राज्यों' के रूप में स्वीकार करना चाह रहे थे। आगे चलकर पाकिस्तान का एक और विभाजन हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। यह ठीक है कि दो या दो से अधिक राष्ट्र-राज्य अपने इतिहास, समाज, संस्कृति के कुछ या अधिकांश पन्ने साझा करते हैं पर इस आधार पर उनके 'एकीकरण' का एकतरफा तर्क गढ़ना व उसका एकपक्षीय आरोपण द्विपक्षीय संबंधों में और अधिक तनाव ही भरेगा। कोई भी दो या दो से अधिक राष्ट्र-राज्य अपने-अपने राष्ट्रवाद को सुरक्षित रखते हुए एक 'महासंघ' बनकर काम करने को राजी हो सकते हैं जिससे विश्व-राजनीति में साझे राष्ट्र-हित साथ मिलकर सँवारे जा सकें। राष्ट्र और राज्य की पृथक-पृथक महत्ता समझते हुए ही पीछे कई बार गंभीर रूप से 'महासंघ' की योजना पर तो अवश्य ही विचार-विनिमय हुआ किन्तु किसी भी गंभीर विचारक अथवा राजनेता ने 'एकीकरण' की बात कभी नहीं चलायी। ‘महासंघ’ बनाकर विभाजन का सच नहीं बदला जा सकता लेकिन उसके दुष्परिणामों को नियंत्रित किया जा सकता है। 'महासंघ' के तर्क को जिन्ना सहित, राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, हामिद अंसारी आदि अनेक हस्तियाँ स्वीकार करती हैं और समय-समय पर इसकी आवश्यकता पर भी बात करती हैं, किन्तु 'एकीकरण' का एकतरफा तर्क सामान्यतया नहीं ही दिया गया।
अक्टूबर 1990 में हुए पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एकीकरण राष्ट्र-राज्यों का यकीनन एक सुंदर उदाहरण है, जिससे इतना अवश्य यकीन उपजता है कि एकीकरण की प्रक्रिया असम्भव नहीं है। पर यह उदाहरण भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश पर आरोपित करने से पहले उनकी अलग-अलग ऐतिहासिक परिस्थितियों का मूल्यांकन करना बेहद जरूरी है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीपीय सन्दर्भ में यह उदाहरण उपयुक्त नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते दुनिया उदारवादी एवं साम्यवादी विचारधारा के स्तर पर संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत रूस के नेतृत्व में बंटकर फिर शीत युद्ध के आगोश में चली गयी थी। जर्मनी का पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के रूप में विभाजन इसी रस्साकस्सी का परिणाम था। पृथक राष्ट्र-अस्तित्व के मूल में तर्क ‘विचारधारा व राजनीतिक व्यवस्था’ का था। 1986 में सोवियत रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्बाचेव ने ‘ग्लासनोस्त’ व ‘पेरेस्त्रोइका’ की घोषणा कर दी थी, जिससे अंततः नब्बे के दशक में आते-आते सोवियत विखंडन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। इन नयी परिस्थितियों का लाभ लेते हुए पश्चिमी जर्मनी के चांसलर हेल्मुट कोल ने अमेरिकी तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज हर्बर्ट वाकर बुश के कूटनीतिक प्रयासों से जर्मन-एकीकरण संभव कर दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दोनों ओर की जर्मन जनता इस एकीकरण को चाहती थी और बर्लिन की दीवार बिना किसी राजनीतिक रणनीतिक योजना के पूर्णतः स्वतः स्फूर्त जनता द्वारा ढहायी गयी। वह ‘विचारधारा व राजनीतिक व्यवस्था’ जो जर्मन-विभाजन को आधार देती थी, वही कमजोर पड़ती गयी थी। इसके इतर पाकिस्तान के राष्ट्रगत अस्तित्व का मूल तर्क ‘धार्मिक’ है और बांग्लादेशी राष्ट्रगत अस्तित्व का मूल तर्क ‘सांस्कृतिक (बंगाली)’ है, जो अभी भी पूरी मजबूती से बना हुआ है। इसलिए ‘भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश महासंघ’ के तर्कों में जहाँ सहयोग की ऐसी मंशा शामिल है जो किसी भी राष्ट्र-राज्य की राष्ट्र्रीय संकल्पना को बिना हानि पहुंचाए परस्पर सहयोग की अधिकतम सम्भवना को टटोलता है, वहीं ‘एकतरफा एकीकरण’ के तर्क की मंशा ‘राष्ट्रगत असुरक्षा’ पनपाती है।
विश्व-राजनीति, दक्षिण एशियाई राजनीति एवं भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश के वर्तमान संबंध एवं इनकी मौजूदा घरेलू राजनीति भी इस बात की ताकीद करती है कि यह समय ‘एकीकरण के तर्क’ का कत्तई नहीं है, बल्कि ऐसे समय में यदि ‘महासंघ’ बनाने का तर्क भी यदि इन तीनों देशों में से किसी एक देश का कोई एक नेता देने की कोशिश करे तो यह एक बेहद सकारात्मक बात मानी जाएगी। पाकिस्तान की राजनीति में अभी जो इमरान युग शुरू हुआ है उसका आधार वही सेना है जो भारत से अपने संबंधों को सुधारने की दिशा में उदासीन है। भारत-पाकिस्तान संबंध ठिठके पड़े हैं, सामान्य बातचीत का दौर भी स्थगित है। भारत का पारंपरिक मित्र रूस, पाकिस्तान को हथियार दे रहा और उनके सैनिकों को प्रशिक्षण भी दे रहा। तेजी से उभरते चीन से भारत के संबंधों में जहाँ डोकलम, तिब्बत, नेपाल और मालदीव का तनाव है तो उसी चीन से पाकिस्तान के गहराते संबंधों को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं! बांग्लादेश एक सघन आंतरिक राजनीतिक तनाव से गुजर रहा है और वहाँ भी बांग्लादेशी शरणार्थियों व धार्मिक चरमपंथी मुद्दों ने भारत-बांग्लादेश संबंधों में एक ऐंठन पैदा की है। यथार्थ में भारत-पाकिस्तान के सतत तनावपूर्ण संबंधों को देखते हुए 'महासंघ' का लक्ष्य जितना विशिष्ट व कठिन है, 'एकतरफा एकीकरण' का तर्कारोपण, ऐसे माहौल में 'एकीकरण' तो छोड़िये, 'महासंघ' के प्रयत्नों को भी जटिल बनाएगा और यह चिढ़ाने जैसा बेतुका भी है।
एक गहरे विजन और प्रतिबद्ध पारस्परिक सहयोगों की रूपरेखा के साथ भारत सरकार, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ ‘महासंघ’ निर्मित करने की योजना पर तब ही काम कर सकती है जब पृष्ठभूमि में तीनों देशों में परस्पर सहयोग की बानगी हो, भले ही वह हालिया हो लेकिन एक पारस्परिक विश्वास बनने लगा हो। फिर और भी सकारात्मक होकर सोचें तो महासंघ की स्थिति साकार होने के बाद यदि इन देशों के नागरिक धीरे-धीरे यह महसूस करने लगें कि हमें ‘एकीकरण’ की ओर बढ़ना चाहिए तो उचित वैश्विक परिस्थिति में यकीनन यह एकीकरण संभाव्य हो सकता है। इसमें भी दशकों लगेंगे और यह प्रक्रिया निरंतर सहयोग व विश्वास की मांग करती है। हाल-फ़िलहाल तीनों देशों की सरकारें ऐसे किसी निरंतर सहयोग व विश्वास की प्रक्रिया में तो नहीं ही दिख रहीं।
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