साभार: नवभारत टाइम्स |
चीन-नेपाल संबंधों के बारे में इतिहास के पन्ने बहुत कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं और इसका एक बेहद महत्वपूर्ण कारण भौगोलिक रूप से नेपाल का चीन से केवल उत्तर की ओर से जुड़ना है। तिब्बत की ओर से चीन से जुड़े नेपाल पर चीन की नज़र हमेशा रही है लेकिन भारत-नेपाल संबंध व भारत की तिब्बत मुद्दे पर दिलचस्पी को देखते हुए चीन सशंकित ही रहता आया था। नेपाल के राजतांत्रिक लोकतंत्र से लोकतांत्रिक गणतंत्र बनने की विकासयात्रा के मध्य उभरे वामपंथी नेतृत्व की उपस्थिति से चीन को नेपाल के करीब आने में एक सहूलियत अवश्य हुई है। नेपाल जहाँ चीन की ओबोर नीति को समर्थन देने वाले देशों में अग्रणी देश बना वहीं उसी ओबोर नीति के तहत चीन ने नेपाल में भारी निवेश करना शुरू किया। सितम्बर माह में ही चीन ने 2.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की घोषणा की जो चीन-नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेलवे लाइन विकसित करने में प्रयुक्त होगा। चीन और नेपाल ट्रांजिट प्रोटोकॉल के लिए सहमत हुए हैं जिससे नेपाल अपनी जरुरत के मुताबिक छह बॉर्डर पॉइंट्स यथा- रसुवा, तातोपानी, कोरला, कीमाथांका, यारी और ओलांगचुंग गोला का इस्तेमाल कर सकेगा। इसके तहत चीन ने अपने चार बंदरगाह तियानजिन, शेनजेन, लिआन्यूंगांग व झांजीआंग खोल दिए, इसमें तीन लैंझाउ, ल्हासा व शिगास्ते जैसे शुष्क बन्दरगाह भी शामिल हैं। चीन केरांग-काठमांडू रेल परियोजना (ट्रांस हिमालयन मल्टीडाईमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क) पर काम कर रहा है और साथ ही परस्पर वायु व भूमि संपर्कों के फैलाव पर भी ध्यान दे रहा है। कोसी, गंडकी और करनाली आर्थिक गलियारे पर प्रगति देखी जा सकती है। नेपाल-चीन के मध्य सांस्कृतिक-शैक्षणिक सहयोग की अन्य घोषणाएँ तो जब-तब आती ही हैं, इनके मध्य सैन्य कूटनीति में आयी तेजी भी गौरतलब है। माह अप्रैल में सागरमाथा फ्रेंडशिप मिलिटरी एक्सरसाइज फेज वन के बाद इस महीने नेपाल चेंगदू में इसके दूसरे संस्करण में भी परिभाग कर रहा है। यों तो नेपाल, भारत के साथ एक वर्ष में दो बार होने वाले सूर्यकिरण मिलिटरी एक्सरसाइज में भी परिभाग करता है, जिसमें सागरमाथा मिलिटरी एक्सरसाइज के मुकाबले कहीं अधिक सैन्य बल संलग्न होता है लेकिन नेपाली सरकार ने इसी महीने भारत द्वारा आयोजित बिम्सटेक बे ऑफ़ बंगाल जॉइंट मिलिटरी एक्सरसाइज के पहले संस्करण में परिभाग करने से सहसा ही इंकार कर दिया और कूटनीतिक संबंधों को देखते हुए नेपाल ने अपना पर्यवेक्षक भारत भेज दिया।
ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सामरिक संबंधों के संदर्भ में यदि नेपाल के भारत और चीन से संबंध परस्पर तौले जाएँ तो यकीनन भारत-नेपाल संबंध, नेपाल-चीन संबंध से अधिक स्वाभाविक, अधिक गहरे और कभी भी अपनी महत्ता नहीं खोने वाले नज़र आएंगे। लेकिन 2015 के विनाशकारी भूकंप के बाद तथाकथित भारतीय सीमाबंदी के बाद नेपाली जनमानस ने एक राष्ट्र पर अतिनिर्भरता के दुष्परिणाम पर सोचने को मजबूर हुए। इसीसमय चीन ने भी तातोपानी में अपना एकमात्र व्यापारिक चेकपॉइंट यह कहते हुए बंद किया था कि वहाँ उन्हें चीन विरोधी गतिविधियों की आशंका है लेकिन नेपाली जनमानस पर फ़िलहाल राजसत्ता के विरुद्ध हुई क्रांति के वामपंथी नायक इतने प्रभावी हो चुके हैं कि उन्होंने चुनाव में तथाकथित भारतीय सीमाबंदी को अधिक तूल दिया। चीन के भारी-भरकम निवेश पर एक तरह के ऋण-बंधन में फंसने का भय स्पष्ट है। श्रीलंका के उदाहरण से नेपाली कूटनीतिक समाज भी अवगत है। तथ्य यह भी है कि सन 2015 से ही नेपाल-चीन तातोपानी व्यापारिक सीमापॉइंट बंद है और एकमात्र रासूवगाड़ी-केरुंग पॉइंट अपने ख़राब अवसंरचना विकास के कारण सुस्त पड़ा है। चीन ने अवश्य ही स्थलबद्ध नेपाल के लिए अपने चार बंदरगाह खोल दिए हैं किन्तु नेपाली घरेलू मीडिया में यह भी विमर्श समानान्तर चल रहा है कि नजदीकी चीनी बंदरगाह भी 2600 किमी दूर है जबकि भारत का हल्दिया पोत काठमांडू के दक्षिण में महज 800 किमी की दूरी पर है। भारत-नेपाल सीमा से कोलकाता की दूरी जहाँ 742 किमी है, वहीं विशाखापत्तनम 1400 किमी की दूरी पर है। परेशानी भारतीय सीमा पर कस्टम संबंधी लालफीताशाही वाले प्रावधानों व भ्रष्टाचार से है। हालाँकि, रक्सौल-काठमांडू और जयनगर-जनकपुर-कुर्था रेलवे लाइन पर इस वक्त भारत जोरशोर से काम कर रहा है। बीरगंज-रक्सौल, बिराटनगर-जोगबनी, भैरहवा-सोनौली और नेपालगंज-रेपड़िया सहित चार बड़े कस्टम चेकपॉइंट्स और नेपाल के तराई क्षेत्र से जुडी सडकों का विस्तारण व उनकी मरम्मत का काम भी प्रगति पर है।
मन में कहीं भूटान-भारत संबंध को रखते हुए जब नेपाल से भारतीय अपेक्षाओं की पड़ताल की जाएगी तो निराशा हाथ लगेगी ही। भारत-नेपाल संबंधों की तूलना मालदीव चुनावों से उभरे नए समीकरणों से भी करना उचित नहीं होगा क्योंकि जिसतरह मालदीविअन जनमानस ने सत्ता दबाव को धता बताते हुए चीनपरस्त सरकार के खिलाफ मत दिया उसीप्रकार नेपाली जनता ने भी वामपंथ की ऐसी सरकार चुनी है, जिसका झुकाव चीन की तरफ है। यह सच स्वीकारना होगा कि नेपाल अपने कूटनीतिक व सामरिक संबंधों में एक सुरक्षित संतुलन की सम्भावना तो तलाशेगा ही और इसी संतुलन की तलाश उसे चीन से नए-नए समझौतों की तरफ ले जाती है। एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में यकीनन नेपाल एक सौदेबाज देश के रूप में व्यवहार कर रहा है। नेपाल ने तिब्बत-सन्दर्भ में चीन से कहा है कि वह अपनी जमीन चीन-विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल नहीं होने देगा, इसीतरह उसने भारत को भी आश्वासन दिया है कि उसकी भारत के साथ खुली सीमा का दुरूपयोग आतंकवादी गतिविधियों में वह नहीं होने देगा। यह एक तथ्य है कि भारत के तनिक सुलझे व गंभीर प्रयासों से परस्पर संबंधों में पुनः नयी ऊष्मा भी लाई जा सकती है। भारत और नेपाल का इतिहास व समाज एक-दूसरे का स्वाभाविक साझीदार बनाते हैं और भूगोल इसमें भारत को चीन के सापेक्ष नेपाल के लिए हमेशा ही वरीय देश बनाकर रखता है। इस स्थिति में भारत को अपना अवसर अवश्य ही साधना चाहिए।
नेपाल के नवगठित सरकार के मुखिया खडग प्रसाद ओली बेहद ही कूटनीतिक तरीके से कहते हैं कि नेपाल दो शक्तिशाली राष्ट्रों चीन व भारत के मध्य एक बफर स्टेट की तरह नहीं अपितु ब्रिज स्टेट की तरह अपना भविष्य देखता है। पहली नज़र में यह एक बेहद सकारात्मक बयान लगता है लेकिन नेपाली सरकार की तरफ से फ़िलहाल ऐसी कोई पहल नहीं दिखती, जिससे भारत और चीन के संबंधों में नेपाल एक सेतु की तरह कार्यरत दिखे। वैसे रणनीतिक रूप से भी नेपाल अभी स्थिति में है भी नहीं कि वह इन दोनों शक्तियों के मध्य कोई पुल बना सके लेकिन इस बयान से उसकी यह मंसा अवश्य ही स्पष्ट है कि नेपाल एक बफर स्टेट की तरह दोनों शक्तियों भारत एवं चीन के सुझाये संकेतों के अनुरूप चलने की बजाय उनके मध्य एक निर्णायक शक्ति के रूप में परस्पर संबंधों का निर्वहन करना चाहता है।
No comments:
Post a Comment