राजनीति एक दिलचस्प चीज है। ये सबमे है, सबकी है और सबसे है। इसके बावजूद अक्सर ये ताने सुनती है। गुनाह हम बुनते हैं, इल्जाम राजनीति पर आ चिपटती है। जैसे ही ‘मै’, ‘हम’ में तब्दील होता है, राजनीति का क्षेत्र शुरू हो जाता है। यूपी-बिहार में ‘मै’ कम ‘हम’ ज्यादा बोला जाता है, इल्जाम भी इन्हीं दो पर ज्यादा आता है राजनीति करने का। खैर..! जैसे ही कहीं सबकी बात शुरू होगी, राजनीति वहां होगी। ‘राजनीतिक’ का सैद्धांतिक अर्थ ही है-‘सबसे सम्बंधित’। हालाँकि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग परिस्थितियों में राजनीति-व्यवस्था अलग-अलग प्रकार की बनी मिलती है। कहीं राजनीति सबकी और सबसे होती है, इसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था कहते हैं और कहीं राजनीति कुछ की और कुछ्से होती है, उसे अलोकतांत्रिक व्यवस्था कहते हैं। यह दोनों बड़े सरल विभाजन हैं, इसलिए विश्व में सीधे-साफ़ दिखलाई नहीं पड़ते। दरअसल विश्व में तो सब गड्ड-मड्ड है। कहीं राजनीति सबसे है पर सबकी नहीं है। कहीं कुछ्से है पर सबकी होने का वादा है। कहीं वह है तो सबसे पर काम किसी और की कर रही है। और दावा सबका है तेज आवाज में कि -वे एक लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था हैं।
लोकतंत्र अब व्यवस्था से अधिक एक राजनीतिक मूल्य के रूप में स्थापित हो चला है, जिसे प्रत्येक व्यवस्था अपने सीने से चिपकाये फिरती है, भले ही वह मूल्य वहां हो या ना। अर्थशास्त्र की चिंता जहाँ मूर्त-अमूर्त संसाधनों के बेहतर प्रयोग की है, वहीं राजनीति की चिंता उनके न्यायपूर्ण वितरण की है। इसी रिश्ते से राजनीति एवं अर्थनीति गलबहियाँ करते रहते हैं। जमीन और जनता, मूर्त-अमूर्त संसाधनों के प्रमुख स्रोत एवं वाहक हैं, इसीलिये संघर्ष की विषयवस्तु भी यही होते हैं। संघर्ष शक्ति मांगता है, इसलिए इतिहास का अध्ययन अक्सर राजनीति को रक्तरंजित कह देता है। इल्जाम तो लगने ही हैं राजनीति पे, सबकी बात जो करता है और सबका जो होता है वह किसी एक का नहीं हो पाता, किसी का नहीं हो पाता। इसलिए अब हर इल्जाम पे राजनीति इठलाती है और खिलखिलाते हुई आगे बढ़ जाती है। अध्ययन के बाकी उपागम व्यक्तिगत हो सकते हैं, इतिहास किसी राजा का हो सकता है, साहित्य किसी एक की पीड़ा पर बात हो सकती है, अर्थशास्त्र में किसी एक के लाभ की आयोजना संभव है, मनोविज्ञान बड़े हूमास से किसी एक की कुंठा पर कुंडली मार अध्ययन कर सकता है किन्तु राजनीति व्यक्तिगत संभव ही नहीं है। व्यक्तिगत अधिकारों की अवधारणा भी समान रूप से सभी के व्यक्तिगत अधिकारों की प्रस्तावना पर ही टिकी होगी। अपनी परिभाषा से ही राजनीति सबकी है, सबसे सम्बंधित है। इसको व्यक्तिगत करने की कोई कोशिश इसे ‘राजनीति’ नहीं रहने देती, षडयंत्र अथवा साजिश में बदल देती है।
एक निश्चित भूभाग संसाधनों के वितरण को तनिक आसान बनाता है। इसप्रकार सीमायें उपजीं। वितरण अनुशासन मांगता है सो अनुशासक को संप्रभु होना था। इसप्रकार सीमा व संप्रभुता से राज्य पनपे। यूरोप में मशीनों की आवक से वस्तुओं का उत्पादन अब ‘जरुरत’ से हटकर ‘लाभ’ की मंशा से होने लगे। ‘लाभ’ की लिप्सा ‘बाजार’ मांगती है जिससे नयी नयी दुनिया की खोजें शुरू हुईं। किस्से-किवदंतियों का भारत ढूंढते-ढूंढते कोई अमरीका जा टकराया। जंगल काटे, मूल निवासियों की बस्तियां जलायीं। अब दुनिया में दो दुनिया थी। देश और उपनिवेश। बाजार की हवस में कोई भारत भी आ पहुंचा। उस भारत को फिर तो गुलाम बनना ही था, चूँकि वहां भगवान् के लोग और थे, हथियार के लोग और, व्यापार-बाजार के लोग और थे और माटी के लोग और ही थे। हम टूटे-फूटे, चोट लगी, गीरे-उठे, भिड़े-लड़े और अंततः आजाद हुए।
आजाद देश में विभाजन का दंश गहरा था, दर्द गहरा था। देशनायकों ने देश अनथक प्रयासों से समेटा और जोड़े रखा। अब आजाद भारत को शेष विश्व से कदमताल करना था। पहली चुनौती देश को बनाए-बचाए रखने की थी और दूसरी इसे दौड़ाने की। कायदा-कानून की जरुरत थी। देश को अब अदद आईन की दरकार थी। अपने लिए अपना संविधान वक्त की मांग थी। इसे कौन बनाएगा....? इसे उस ‘हम’ को बनाना चाहिए, जिसमें देश का सतरंगी प्रत्येक व्यक्ति अपना ‘मै’ महसूस कर सके। अपने देश महान भारत के शानदार संविधान की प्रस्तावना का पहला शब्द ‘हम’ ही होना चाहिए।
डॉ. श्रीश पाठक
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