आप
इतना समझें कि वर्ल्ड पॉलिटिक्स
में अमूमन नैतिकता महज इतनी
होती कि वह किया जाय जिससे
राष्ट्रहित को फायदा पहुंचे।
जिसे हम आप डिप्लोमेसी कहते
हैं,
कूटनीति
कहते हैं,
वर्ल्ड
पॉलिटिक्स में इसके मायने बस
इतना है कि कैसे अपना राष्ट्रहित
बचाते हुए जहाँ कहीं मौका मिले
वहाँ इसे बढ़ाया जाय। वर्ल्ड
पॉलिटिक्स की एक खास बात और
समझ लें तो भारत की हालिया
अमेरिका के खिलाफ की गयी वोटिंग
समझ आ जाएगी। वर्ल्ड पॉलिटिक्स
anarchic
है,
माने
यहाँ कोई एक नियामक शक्ति नहीं
है जैसे कि देशों के भीतर
सरकारें होती हैं। इसलिए अपने
हितों की सुरक्षा स्वयं करनी
होती है। हितों की सुरक्षा
सभी अन्य देशों से किसी न किसी
रीति से जुड़ने में अधिकतम होती
है। दुनिया के सभी देश घोषित
तौर पर कुछ भी प्रवचन दें,
किन्तु
सभी देशों से किसी न किसी रीति
से जुड़ने की सम्भावना को टटोलते
रहते हैं। इसीलिये कहते हैं
कि,
वर्ल्ड
पॉलिटिक्स में कोई स्थाई शत्रु
नहीं होता और न होता है कोई
स्थाई मित्र ही।
लोकतंत्र
में चुनाव जीतना बेहद कठिन
होता है। बहुमत के मत संजोने
होते हैं। अमेरिकी चुनाव में
यहूदी मत और हथियारों की
लॉबी में उनका निर्णायक प्रभाव
महत्वपूर्ण है। येरुशलम को
इजरायल की राजधानी मानने का
मतलब है,
इजरायल
की स्थापना को अंतिम रूप से
मुहर लगा देना और फलस्तीन को
एक दूसरे पक्ष के रूप में लगभग
ख़ारिज कर देना। चुनाव में
ट्रम्प की जीत हुई और अमेरिकी
प्रेसिडेन्ट अब अमूमन दो
कार्यकाल लेते हैं,
तो
अमेरिका को यह स्टंट तो करना
था। स्टंट इसलिए क्यूंकि यह
एक ऐसा मुद्दा जिसपर बेहद बुरी
तरह से बंटा मध्य एशिया एकजुट
हो जाता है। विश्व व्यवस्था
के लोकतान्त्रिक मॉडल में
द्विपक्षीय मुद्दे द्विपक्षीय
स्तर पर ही सुलझाए जाने चाहिए।
इस रीति से भी अमेरिका की
निर्णायक उपस्थिति तभी संभव
है जब दोनों पक्ष चाहें। तो
अमेरिकी प्रसाशन को पहले दिन
से यह पता है कि एकतरफा उनकी
घोषणा से जमीन पर कुछ बदलने
वाला नहीं है। चूँकि वर्ल्ड
सिस्टम anarchic
है
तो UNO
उतना
ही प्रभावी है जितना सदस्य
राष्ट्र इसे होने देते हैं।
और फिर अमेरिका एक वीटो पावर
वाला देश है। तो इससे अमेरिका
को कोई फर्क नहीं पड़ता फ़िलहाल
कि UNO
में
क्या हो रहा और यकीन मानिये
सदस्य राष्ट्रों को भी चूँकि
पता है कि UNO
से
कुछ निर्णायक नहीं होने वाला
कम से कम अभी।
दुनिया
के सभी देश यह जरूर चाहते हैं
कि उनकी विदेश नीति स्वतंत्र
दिखे और एक सततता (Continuity
) में
दिखे। इजरायल-फलस्तीन
मुद्दा चूँकि अभी सुलझा नहीं
है,
फिर
येरुशलम को राजधानी स्वीकार
कर लेना एकतरफा निर्णय ले लेना
है जो कि किसी भी रीति से उचित
नहीं है। ऐसे में यदि अमेरिका
के खिलाफ वोटिंग करके जमीन
पर पारस्परिक संबंधों पर कोई
फर्क न पड़ता हो और अपनी विदेश
नीति की स्वतंत्रता भी प्रदर्शित
होती है तो एक समझदार स्मार्ट
राष्ट्र अवश्य ही अमेरिका के
खिलाफ वोटिंग करेगा। और देखिये
अमेरिका के किसी भी अधिकारी
ने किसी भी स्तर पर कहीं भी इस
मुद्दे पर भारत की आलोचना नहीं
की है।
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