डॉ.
श्रीश
पाठक*
भारत
के मित्र समझे जाने वाले खूबसूरत
देश मालदीव से अभी चीन ने मुक्त
व्यापार संधि संपन्न की,
पर
फिर भी कहना होगा कि वैश्विक
पटल पर और खासकर एशियाई क्षेत्र
में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण
होती जा रही है। दरअसल,
चीन
के बढ़ते प्रभावों के उत्तर
में अमेरिका के पास भारत के
अलावा कोई दूसरा ऐसा विकल्प
नहीं है,
जिसकी
भू-राजनीतिक
स्थिति कमाल की हो,
बाजार
के लिए अवसर प्रचुर हों और
वैश्विक लोकतान्त्रिक साख
भी विश्वसनीय हो।
अपने
कार्यकाल के पहले राष्ट्रीय
सुरक्षा कार्यनीति में ट्रम्प
सरकार ने जहाँ पाकिस्तान के
लिए सख्त रवैया अपनाया वहीं
एक ‘विश्वशक्ति’ के तौर पर
भारत का ज़िक्र आठ बार किया और
भारत के साथ सामरिक-आर्थिक
हितों के और बेहतर विकास की
वकालत की । हाल ही में हुए आठवें
वैश्विक उद्यमिता शीर्ष
सम्मलेन के आयोजन के लिए भी
अमेरिका के स्टेट विभाग ने
भारत को चुना,
जो
कि दक्षिण एशिया का पहला ऐसा
आयोजन था। ट्रम्प की पुत्री
इवांका,
ट्रम्प
परिवार की एक प्रभावशाली
व्यक्तित्व मानी जाती हैं और
अपने यहूदी पति जेरेड कुशनर
की तरह ही जिनकी मंत्रणा अमेरिकी
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प
के लिए उनके चुनाव अभियानों
के समय से ही मायने रखती है।
इस वैश्विक उद्यमिता शीर्ष
सम्मलेन में इवांका की फैशन
कूटनीति की भी चर्चा हुई।
वाशिंगटन
की अपनी प्रेसवार्ता में
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प
ने अपनी हाल ही में हुई दक्षिण-पूर्व
एशियाई यात्रा को 'जबर्दस्त
सफल'
करार
दिया था । उन्होंने पत्रकारों
से बिना कोई सवाल लिए एक लम्बा
उद्बोधन दिया और कहा कि एक
वैश्विक नेता के तौर पर अपनी
भूमिका में अमेरिका वापस
आ गया है और उनके प्रयासों ने
उन्मादी उत्तर कोरिया के
खिलाफ विश्व को एकजुट कर दिया
है। उत्तर कोरिया ने अभी
अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक
प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण
किया जिसमें उसका दावा है कि
अब अमेरिका का पूरा भू-भाग
उनके आक्रमण-क्षेत्र
में आ गया है। डोनाल्ड ट्रम्प
ने अपने एक ट्वीट में इस पर
चिंता जताते हुए अपनी सरकार
और सेना के लिए और अधिक वित्त
की आवश्यकता पर बल दिया। इसी
दिन के एक ट्वीट में डोनाल्ड
ट्रम्प ने इवांका की भारत
यात्रा के उनकी सक्रियता की
प्रशंसा भी की। ट्रम्प की
एशिया-प्रशांत
यात्रा एक ऐसे क्षेत्र में
हुई जहाँ तेजी से चीन की दखलंदाज़ी
बढ़ी है और एक ऐसे समय में हुई
जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी
के उन्नीसवें अधिवेशन में
राष्ट्रपति शी जिनपिंग
ने अपने तीन घंटे तेईस मिनट
के लम्बे भाषण में चीन की
वैश्विक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं
को पुनः दोहराया है।
माना
जा रहा है कि इवांका की मंत्रणा
से ही ट्रम्प की इस यात्रा में
चीन का समावेशन अमेरिका के
आर्थिक हितों के सुचारू संचलन
के लिए किया गया था। समझा
जा सकता है कि इस यात्रा के
अन्य पड़ावों के रूप में में बाकी
देशों जापान,
दक्षिण
कोरिया,
फिलीपींस
और वियतनाम का चुनाव इसलिए
किया गया क्योंकि वे सभी
चीन के संतुलन में अलग-अलग
दृष्टिकोण से अमेरिका के मजबूत
स्तम्भ हैं। जापान जहाँ सामरिक
और आर्थिक रूप से अमेरिकी
कूटनीति में प्रतिभाग कर रहा,
वहीं
दक्षिण कोरिया दरअसल उत्तर
कोरिया के संतुलन में है।
वियतनाम और फिलीपींस की
भू-राजनैतिक
स्थिति दक्षिण-चीन
सागर के लिहाज से अहम है और
एशिया-पैसिफिक
क्षेत्र में एपेक और आसियान
सहयोग के मद्देनज़र भी दोनों
देश अमेरिकी हितों को आकर्षित
करते हैं। चीन पर इस अमेरिकी
घेराव को और धार मिल जाती है
जब ट्रम्प द्वारा इस क्षेत्र
को ही इंडो-पैसिफिक
क्षेत्र कहा जाता है। चर्चित
जापान-भारत-अमेरिका-आस्ट्रेलिया
चतुष्क (क्वाड)
के
साथ ही यहाँ बहरहाल
पाकिस्तान-चीन-रूस-उत्तर
कोरिया के प्रतिचतुष्क
(एंटीक्वाड)
को
भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
गौरतलब
है कि अपने
आप को पहला पैसिफिक प्रेसिडेंट
कहने वाले अमेरिका के निवर्तमान
राष्ट्रपति ओबामा ने अपनी
महत्वाकांक्षी पिवट पॉलिसी
का प्रतिपादन किया था जिसमें
अमेरिकी संबंधों का झुकाव
मध्य-पूर्व
एशिया से हटाकर एशिया-पैसिफिक
की तरफ करने की बात की गयी थी।
अमेरिका की कोशिश थी कि देश
की विदेश नीति में मध्य-पूर्व
एशिया की जटिल राजनीति की
भूमिका कम करके एशिया-पैसिफिक
के व्यापारिक-वाणिज्यिक
एवं सामरिक महत्त्व को प्रमुखता
दी जाए। किन्तु ओबामा प्रशासन
में इस ओर ठोस कदम नहीं उठाये
जा सके। न ही अमेरिका की सक्रियता
वहाँ कुछ कम की जा सकी और न ही
एशिया-पैसिफिक
में अमेरिकी इरादों को अमली
जामा पहनाया जा सका। इससे अलग
ट्रम्प मध्य-पूर्व
एशिया में अमेरिकी सक्रियता
कम किये जाने के पक्ष में तो
नहीं हैं किन्तु एशिया-पैसिफिक
क्षेत्र में भी अमेरिकी प्रभाव
बढ़ाने की फिराक में हैं। इसे
कुछ विशेषज्ञ ट्रम्प की 'पोस्ट
पिवट पॉलिसी'
कह
रहे हैं जिसमें ट्रम्प का दबाव
इसपर ज्यादा है कि क्षेत्रीय
संतुलन की जिम्मेदारी में
सभी सहयोगी देशों को साझीदारी
करनी होगी।
ट्रम्प
व्यवसायी हैं और अमेरिका का
चुनाव अमेरिकी हितों की
प्राथमिकताओं को वरीयता देने
के वादे से जीत कर आये हैं।
क्षेत्र में चीन के साथ उनके
देश की सर्वाधिक व्यापारिक
हित जुड़े हैं,
जिसे
उन्होंने इस बार की यात्रा
में भी महत्ता दी है l
ट्रम्प
ने 'आर्थिक
सुरक्षा ही राष्ट्रीय सुरक्षा
है'
का
नारा देकर अपना मंतव्य भी
स्पष्ट कर दिया। इसके साथ
ही हिंद महासागर से प्रशांत
महासागर के व्यापारिक समुद्री
मार्गों की मुक्तता एवं सुरक्षा
के लिए वे भारत की महत्ता को
रेखांकित करने से नहीं चुके
हैं। उन्हें अमेरिका का दबदबा
कम तो नहीं होने देना है किन्तु
ट्रम्प चाहते हैं कि जिन देशों
को अमेरिकी वैश्विक संलग्नता
से फायदा है,
वे
इसे मिलकर वहन करें। आर्थिक
दृष्टिकोण से हिन्द महासागर
से लेकर प्रशांत महासागर के
बीच की समुद्री मार्ग को ट्रम्प
सुगम व व्यवधानरहित बनाना
चाहते हैं। चतुष्क के तीनों
देशों ने दरअसल अमेरिकी इशारों
के अनुरूप जवाब देना शुरू भी
कर दिया है। डोकलाम विवाद में
भारत ने जताया कि अब वह कूटनीतिक
चुप्पी से कहीं अधिक की भूमिका
में आने को तत्पर है और वहीं
एक्ट ईस्ट पॉलिसी का इज़हार
करते हुए दक्षिण-एशियाई
क्षेत्र में भी भारत ने अपनी
बढ़ती सक्रियता के सुबूत दिए
हैं। ग़ौरतलब है कि भारत की
एक्ट ईस्ट पॉलिसी में म्यांमार
एक मजबूत स्तम्भ है और हालिया
रोहिंग्या विवाद में भारत ने
म्यांमार के खिलाफ निष्क्रिय
रहना ही उचित समझा। इस प्रकार
भारत की एक्ट एशिया पॉलिसी
ट्रम्प की पोस्ट पॉलिसी के
साथ सुसंगति में है। जापान
ने जहाँ द्वितीय युद्ध के बाद
की अपनी पैसिफिस्ट पॉलिसी
(शांतिप्रिय
नीति)
में
बदलाव के संकेत दिए हैं वहीं
आस्ट्रेलिया ने भी अपनी अमेरिकी
संलग्नता दुहराई है। पोस्ट
पिवट पॉलसी की एक बड़ी विशेषता
यह भी है कि इसमें अमेरिका की
ओबामाकालीन 'बहुपक्षीय
(मल्टीलैटरलिज़्म)
'संबंधों
के स्थान पर 'द्विपक्षीय
(बाईलैटरलिज़्म )'संबंधों
को वरीयता दी जा रही है। ट्रम्प
प्रत्येक सहयोगी देशों से एक
कुशल व्यापारी की तरह अलग-अलग
सुनिश्चित प्रतिबद्धता चाहते
हैं।
एशिया
की बदलती परिस्थितियों में
भारत के लिए जैसी अनुकूल
परिस्थिति निर्मित हुई है;
इसका
लाभ लेना एक अवसर तो है पर यह
मौजूदा सरकार के लिए एक चुनौती
भी है। भारत इसका लाभ कुछ यों
ही सुनिश्चित कर सकता है,
जब
वह विश्व में और क्षेत्र में
महत्वपूर्ण शक्तियों के
राष्ट्रहित को समझते हुए स्वयं
के राष्ट्रहित की गुंजायश
खंगाल सके। यह इतना सरल नहीं
हैं,
क्योंकि
वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था
में कोई एक स्वयंभू केंद्र
नहीं है,
यहाँ
राष्ट्र-राज्यों
को स्वयं ही अपने हित सुरक्षित
रखने होते हैं ।ऐसे में तात्कालिक
और दूरगामी दोनों ही सन्दर्भ
में अधिकाधिक राष्ट्र-राज्यों
से संबंधों की ऐसी बुनावट करनी
होती है,
जिससे
अधिकतम राष्ट्रहित सधे ।अब
यह आने वाला समय ही बताएगा कि
मौजूदा सरकार इन परिस्थितियों
का कितना लाभ देश को पहुंचाने
में सफल हो सकी।
*लेखक
अंतरराष्ट्रीय मामलों के
जानकार हैं.
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