“जो मीडिया को नियंत्रित करता है वह मन को नियंत्रित करता है। (जिम मॉरिसन )”
साभार: गंभीर समाचार |
अभिव्यक्ति के लिए भाषा और उसके संकेत चिन्हों को दर्ज करने की तकनीक के सहारे मानव ने अभूतपूर्व प्रगति की है। साझी सामाजिक स्मृति सहेजी जा सकती है और भविष्य के लिए प्रयोग में भी लाई जा सकती है। मानव-अभिव्यक्ति के अनगिन माध्यम विकसित हुए। उन सभी मीडियम्स का बहुवचन ही मीडिया कहलाता है । जैसे-जैसे राजनीतिक संरचनाएँ विकसित होती गयीं, मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती गयी। यों तो इतिहास के पन्नों में मीडिया के कितने ही रंग हैं लेकिन अब जबकि संपूर्ण विश्व में एक राजनीतिक मूल्य के रूप में लोकतंत्र स्वीकार्य हो चला है, मीडिया की भूमिका कमोबेश अब यह स्थापित है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जवाबदेही व पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और नागरिक-समाज एवं सरकार के मध्य सेतु बनकर राजनीतिक संक्रियाओं के निर्वहन में योग देता है।
वैश्वीकरण और मीडिया का वैश्विक स्वरूप
संचार क्रांति ने समूचे दुनिया से एक क्लिक पर संपर्क-सम्बद्धता उपलब्ध करा दिया है। इंटरनेट ने पूरी दुनिया को चौबीसों घंटे जोड़ रखा है। सूचनाएँ अभूतपूर्व ढंग से इतिहास में पहली बार साझा हो रही हैं और इसलिए ही मार्शल मैकलुहान ने विश्व को ‘वैश्विक-ग्राम’ की संज्ञा दी। मीडिया शब्द में अब अख़बार, टेब्लॉयड, पत्रिका, रेडिओ, टीवी, सोशल साइट्स, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, ऐप आदि सभी माध्यम आते हैं। औद्योगिक क्रांति से उपजे पूँजीवाद के उत्कर्ष ने, उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद और दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के पश्चात जो वैश्विक व्यवस्था दी है उसमें अब वैश्वीकरण की बयार चल रही है। वैश्वीकरण एक ऐसी विशद सतत प्रक्रिया है जो विश्व-व्यवस्था के देशों को राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक संस्तरों पर एक-दूसरे से जुड़ने को बाध्य करती है। राष्ट्रीय सीमाएँ वैश्वीकरण के लिए उतनी मायने नहीं रखतीं और सम्प्रभुताएँ यदि तैयार न हों तो भी वैश्वीकरण का दबाव महसूस करती हैं। तकनीक के उत्कट विकास ने वैश्वीकरण को और भी शक्तिमान बनाया है जो कुशल राष्ट्र को जहाँ और भी अवसर प्रदान करती है वहीं अकुशल राष्ट्र स्वयं को इसमें नव-उपनिवेशवाद जैसी स्थिति में स्वयं को बिधा पाते हैं।
विश्व इतिहास और समकालीन वैश्वीकरण ने मीडिया का एक ‘वैश्विक स्वरूप’ गढ़ा है। अब राष्ट्रगत मीडिया, वैश्विक मीडिया से अप्रभावित नहीं रह सकती। वैश्विक मीडिया, वैश्वीकरण की शक्तियों के साथ मिलकर इस स्थिति में है कि वह किसी भी देश की मीडिया को मुद्दे पकड़ाने लगे और उसको नियोजित विषयवस्तु भी थोपने लगे। इस स्थिति में राष्ट्रहित कब दाँव पर लग जाता है, पता ही नहीं चलता। संपूर्ण विश्व में सरकारें उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था में पनप रही हैं। उदारवादी व्यवस्था पूँजी के मुक्त प्रवाह में यकीन करती है और उसी व्यक्ति और व्यवस्था को लाभ पहुँचाती है जो पूंजीसंपन्न होती है। इसके विपरीत मीडिया अपने विकासक्रम में इस आदर्श में आगे बढ़ी है कि उसे जनपक्षधर रहना है और राज्य-उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिए उस सीमान्त व्यक्ति के प्रश्न भी सत्ता से करने हैं जिसके पास कोई कुशलता, कोई पूँजी शेष नहीं है। उदारवादी व्यवस्था और मीडिया के सत्व के मध्य यह संघर्ष फिर स्वाभाविक है। चूँकि राष्ट्र-राज्य शून्य में स्थित नहीं होते, वे एक वैश्विक व्यवस्था में होते हैं तो विश्व व्यवस्था की प्रकृति के बदलाव का प्रभाव यकीनन राष्ट्र-राज्य पर भी पड़ेगा। गहराते वैश्वीकरण ने राष्ट-राज्यों की मीडिया के लिए दरअसल और भी कम श्वाँस-स्थान रख छोड़ा है खासकर तब जब सरकारें पूंजीसमर्थक हों। मुनाफा ही मूल्य है बाजार का। बाजार की शक्तियाँ कुछ इस तरह से कार्य करती हैं कि मीडिया को भी पत्रकारिता के मूल्य के ऊपर बाजार के मूल्य को तवज्जो देना पड़ता है। नागरिक, मनोरंजन की चाशनी में परोसे जाने वाले समाचार की निष्पक्षता के लिए कोई मूल्य नहीं चुकाना चाहते और महज मूक दर्शक बनते चले जाते हैं।
भारतीय मीडिया कवरेज में वैश्वीकरण व वैश्विक मामलों का नकार
अपने देश भारत की सामान्य मीडिया कवरेज देखें तो ऐसा लगता ही नहीं कि विश्व में वैश्वीकरण घट रहा है जिससे कि हर लोकल खबर का एक वैश्विक मायने बनता है और हर वैश्विक खबर के लोकल मायने बनते हैं। अभी भी वैश्विक राजनीति के लिए अख़बारों में एक-आध पन्ना, पत्रिकाओं में एक नियमित-अनियमित स्तम्भ, टीवी चैनलों पर एक अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को समेटता कोई साप्ताहिक कार्यक्रम ही दिखाई पड़ता है, जो महत्ता के अनुपात में नगण्य है । कुछ अंग्रेजी अख़बारों को छोड़ दें तो अधिकांश हिंदी के अख़बारों में वैश्विक मामलों पर प्रस्तुतीकरण अत्यल्प है। हिंदी अख़बारों के लिए अभी भी विदेश सात समंदर पार है। उनमें छपने वाले संपादकीय आलेखों में बेहद कम आलेख वैश्विक राजनीति पर होते हैं और वह भी अधिकांश कुछ यों होते है जिसमें भारतीय विदेश नीति की उपलब्धियाँ बता दी जाती हैं। यह दौर विश्व- राजनीति के वैश्वीकरण का है और राष्ट्रीय घटनाक्रम, वैश्विक घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में यदि नहीं देखे और विश्लेषित किये जा रहे तो देश समानांतर बड़े मीडिया कोलाहलों के बीच भी लगातार अधूरे सच में जी रहा है। होना यह चाहिए कि मीडिया में यह शऊर आना चाहिए कि वह हर खबर को वैश्विक परिदृश्य में परोसे और विश्लेषण की गुंजायश बनाये। बिना इसके कोई भी मीडिया कवरेज सामान्यतः वैश्वीकरण के प्रभावों का नकार है, जो सही नहीं है। इस दोषपूर्ण कवरेज का असर भारतीय जनमत पर यों हुआ है कि जहाँ दुनिया के ज्यादातर देशों के आम चुनावों में विदेश नीति और वैश्विक मामले प्रमुख चुनावी मुद्दे होते हैं वहीं भारतीय आमचुनावों में इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो वैश्विक मुद्दे, चुनावी मुद्दे बनते ही नहीं। एक ऐसा देश जिसे जवाहर लाल नेहरू के रूप में ऐसा प्रधानमंत्री मिला था जो एक वैश्विक नेता रहे, एक ऐसा देश जो आजादी के शुरुआती दशकों में ही निर्गुट आंदोलन के माध्यम से तीसरी दुनिया के देशों का अगुआ बन गया, एक ऐसा देश जिसकी भू-राजनीतिक स्थिति लार्ड कर्जन की नजर में भी विशिष्ट थी और आज भी जो देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र की वैश्विक राजनीति के केंद्र में है, वहाँ वैश्विक मामलों की मुख्यधारा मीडिया द्वारा की जा रही अनदेखी कितनी शोचनीय व दुखद है। यह सच है कि ‘वैश्वीकरण का प्रभाव’ मीडिया में खासा चर्चा घेरता है पर ज्यादातर वह आर्थिक व सामाजिक स्तर पर ही विश्लेषित होता है। उसीप्रकार जबकि मीडिया सूचनाओं के लिए अब इंटरनेट पर खासा निर्भर है तो भी वैश्विक मामलों का महत्त्व यदि नहीं समझा जायेगा तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। समकालीन तथ्य के रूप में मीडिया द्वारा वैश्वीकरण और वैश्विक मामलों की अनदेखी राष्ट्रहित के लिए घातक है।
मीडिया साम्राज्यवाद व विश्व राजनीति
उदारवादी बाहुल्य ने विश्व के प्रत्येक देश के अभिजन को व्यक्तिवादी होकर पूँजी बटोरने और सहेजने में मदद दी है। वैश्वीकरण मीडिया मॉडल इतने खर्चीले हैं कि वे परम्परागत आर्थिक मॉडल पर चल ही नहीं सकते। बाजारवाद और उपभोक्तावाद की अतिशयता ने आधुनिक जीवन मूल्यों में जो घुसपैठ की है उससे मीडिया को नागरिक आधारित मॉडल चलाने में बड़ी ही परेशानियाँ हैं। यह आर्थिक विकलांगता मीडिया घरानों को विज्ञापन के लिए या तो सरकार या फिर बाजार के समक्ष घुटने टेकने को मजबूर करती है। पूरी दुनिया में यह सामान्य प्रवृत्ति बनी है कि मीडिया घराने अब किसी न किसी औद्योगिक घरानों की इकाइयाँ बन गयी हैं। यह स्थिति अभिजन को निर्भीक हो पूँजी बटोरने और सहेजने में मदद देती है। उपयुक्त चुनाव-सुधार न होने की वजह से चुनाव इतने खर्चीले होते गए हैं कि यहाँ भी चंदों के माध्यम से औद्योगिक घरानों को राजनीतिक हस्तक्षेप की भूमिका मिल जाती है। वैश्वीकरण ने दुनिया भर के औद्योगिक घरानों को हाथ मिलाने का जो मौका दिया है उससे मीडिया घरानों का भी क्रमशः वैश्वीकरण हुआ है। यह स्थिति वैश्विक जनमत निर्माण में मीडिया को बेहद ताकतवर बना देती है। सीएनएन, बीबीसी, नेटवर्क-18 आदि के अनगिन मीडिया प्रकोष्ठ अमेरिकी इशारे पर चीन को शांतिपूर्ण पांडा नहीं खतरनाक ड्रैगन से प्रदर्शित करते हैं। इजरायल का महिमा-मंडन स्वाभाविक रीति से होगा तो ईरान एक विलेन की तरह नज़र आएगा। आतंकवाद और इस्लाम का फर्क मिटेगा और उत्तर कोरिया का तानाशाह शैतान लगने लगेगा।
आशय यह नहीं है कि अमेरिका अथवा पश्चिमी शक्तियाँ अनिवार्य रूप से गलत ही हैं अथवा अन्य शक्तियाँ अनिवार्य रूप से सही ही हैं, लेकिन यह सुस्पष्ट है कि उदारवादी बाहुल्य के वैश्वीकरण में पश्चिमी शक्तियाँ अवश्य ही विश्व-जनमत को प्रभावित कर पाने की स्थिति में हैं। यह एकदम अकारण और सहसा नहीं है कि आजकल अधिकांश वैकल्पिक मीडिया माध्यम इंटरनेट पर जो प्रचलित हैं उनका मूलस्थान देश अमेरिका है, जैसे- फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प, गूगल, जीमेल आदि। इंटरनेट पर एकदम खुले आम अमेरिकी साम्राज्यवाद नज़र आएगा। एक व्यक्ति जब एप्पल, एंड्राइड या विंडो के सेलफोन से क्रोम ब्राउजर में गूगल सर्च से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, विकिपीडिया पर पहुँचता है, सामग्री डाउनलोड कर माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस से संपादन करता है फिर जीमेल का प्रयोग कर उसे एक मित्र के पास प्रेषित करता है, तो उसे भान भी नहीं रहता कि वह उन्हीं माध्यमों का प्रयोग कर रहा है जिनसे मीडिया साम्राज्यवाद की पृष्ठभूमि बनती है, क्योंकि उनका स्रोत एक ही देश अमेरिका है।
इस संदर्भ में एक भारतीय उदाहरण बेहद समीचीन है जहाँ वैश्विक मीडिया कवरेज और बहुधा उनकी सूचनाओं पर आधारित भारतीय मीडिया के प्रभावित होकर कार्य करने से घरेलू और क्षेत्रीय राजनीति पर खासा प्रभाव पड़ा। मनमोहन सिंह सरकार में कुशल कूटनीतिज्ञ नटवर सिंह, देश के विदेश मंत्री थे। नटवर सिंह ईरान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान गैस पाइपलाईन पर काम कर रहे थे जो भारत होते हुए चीन तक पहुँचती और इन देशों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करती। इस राह में चुनौतियाँ कई थीं पर इसके सफल होने पर भारत की केवल ऊर्जा जरुरत ही नहीं पूरी होती बल्कि इसके दूसरे महत्वपूर्ण कूटनीतिक परिणाम भी होते। ऊर्जा जरूरतों के माध्यम से पाकिस्तान, भारत व चीन की पारस्परिक कटुता यकीनन कम होती, मध्य-पूर्व एशिया से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक एक सहयोगी क्षेत्र उभरता, जिससे अमेरिकी अथवा रूसी जैसी किसी सुपरपॉवर शक्ति के क्षेत्र में दखलंदाजी भी कम होती। एक नया ऊर्जा गलियारा विकसित होता जो कूटनीतिक रूप से भी शक्तिशाली होता और क्षेत्र में शांति और विकास की गारंटी होती। ज़ाहिर है यह क्षेत्र में अमेरिकी हितों को एक चुनौती होती। अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के संचलन में बेहद प्रमुख आर्थिक योगदानकर्ता है। मध्य-पूर्व एशिया में ‘तेल के बदले अनाज योजना’ में हुए भ्रष्टाचार की संयुक्त राष्ट्र समर्थित स्वतंत्र एजेंसी (वोल्कर कमिटी) से जाँच कराई गयी, जिसमें विभिन्न देशों के राजनयिकों के नाम आये। एक नाम उसमें नटवर सिंह का भी था। वैश्विक मीडिया में इस वोल्कर कमिटी रिपोर्ट की खूब चर्चा हुई पर फिर भी किसी और देश में किसी का इस्तीफ़ा नहीं लिया गया। लेकिन भारत में स्थानीय मीडिया ने वैश्विक मीडिया के इनपुट्स पर वो हंगामा किया जिसकी आड़ में मनमोहन सरकार ने आखिर नटवर सिंह से इस्तीफा ले लिया। ऐसा नहीं है कि इस्तीफे के बाद नटवर सिंह पर कोई अभियोजन या जांच चलायी गयी, वह मामला वहीं ठप रहा। इसके कुछ ही समय बाद भारत-अमेरिका परमाणू समझौते को अमली जामा पहनाया गया और गैस पाइपलाइन योजना का आज कोई जिक्र भी नहीं करता।
वैश्विक मीडिया का एक सकारात्मक उभार
इन सभी चिंताओं के बीच फिर भी काफी कुछ सकारात्मक भी है। वैश्विक मीडिया ने वह संतुलन साधने की कोशिश की है जिसमें सरोकारिता और मुनाफा दोनों में संतुलन बिठाया जा सके। इंटरनेट पर सीधे पाठकों से मूल्य वसूलकर समाचार व विश्लेषण देने का आत्मनिर्भर मॉडल विकसित हो रहा है। दुनिया भर के अभिजनों ने अपने-अपने देश में टैक्सचोरी करते हुए जो दूसरे मुल्कों में धन संचित किया है, उसका डेटा लीक होकर वैश्विक मीडिया के तहत राष्ट्रगत मीडिया में भी रिसकर आ रहा। विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन के लीक्स ने पूरी दुनिया के सामने कुछ शक्तिशाली सरकारों के दूसरे देशों में की जा रही जासूसी का भंडाफोड़ कर दिया, इसमें अमेरिका सर्वप्रमुख था। यह भी इससे पता चला कि विश्व की शक्तिशाली सरकारें, बाकी सरकारों पर गोपनीय सूचनाओं के जरिये नियंत्रण रखती हैं और कई बार मुख्यधारा की मीडिया का वें इस्तेमाल भी करती हैं। पैराडाइज पेपर्स व पनामा पेपर्स जैसे कई लीक्स ने पूरी दुनिया को झिंझोड़ दिया और इस खतरे की तरफ ध्यान दिलाया कि वैश्विक मीडिया व शक्तिशाली सरकारों का गठजोड़ बेहद घातक साबित हो सकता है। अब दुनिया में कई समूह काम कर रहे हैं जिनका नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय है और वे इसतरह के लीक्स के लिए जरूरी अवसंरचना और उनके सटीक वितरण पर जिनका ध्यान है। उदाहरण के लिए एक नाम इंटरनेशनल कंसोरिटियम ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स का लिया जा सकता है जिसमें भारतीय इंडियन एक्सप्रेस मीडिया समूह भी प्रतिभाग करता है। यह सकारात्मक विकास है जो इस वैश्वीकरण युग की वैश्विक मीडिया के प्रति आशाएँ जगाता है। मीडिया पर जनजागरूकता बेहद जरूरी है अथवा कब जनमन नियंत्रित होने लग जाये, यह पता ही नहीं चलता और भाग्यविधाता फिर वही शक्तियाँ बन जाती हैं जो अपनी प्रकृति में अधिनायक हैं।
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